Adam Grant
The Power of Knowing What You Don’t Know
दो लफ्ज़ों में
साल 2021 में रिलीज़ हुई किताब “थिंक अगेन” इंसानी दिमाग के फैसले बदलने की फितरत के बारे में बात करती है. इस किताब में साइकोलॉजी की मदद से बताया गया है कि इंसान अपने फैसले कैसे और क्यों बदलता रहता है? इस किताब को पढ़ने के बाद आप दुनिया की सबसे कठिन चीज़ “दिमाग” को समझ पाएंगे. आपको पता चल जाएगा कि आपका दिमाग किसी भी फैसले को कैसे लेता है? अगर आप भी लाइफ में सही और सटीक डिसीजन लेना चाहते हैं. तो फिर इस किताब की समरी को सुनने या पढ़ने की शुरुआत कर दीजिए.
ये किताब किसके लिए है?
- ऐसे लोग जिन्हें साइकोलॉजी में इंटरेस्ट हो
- सभी फील्ड के स्टूडेंट्स के लिए
- सेल्स प्रोफेशनल के लिए
लेखक के बारे में
आपको बता दें कि इस किताब का लेखन ‘Adam Grant’ ने किया है. ये पेशे से साइकोलॉजिस्ट और कन्सल्टेंट हैं. इनके साथ ही साथ इन्होने 4 न्यू यॉर्क टाइम्स बेस्ट सेलिंग किताबों का लेखन भी किया है.
लगातार बदलती दुनिया के साथ बदलते रहना भी एक आर्ट है
ऐसा आपके साथ भी कई बार हुआ होगा. जब आपकी अपने सहकर्मी के साथ बहस हुई होगी और सही होते हुए भी उस बहस को आप जीते नहीं होंगे. उसके बाद आपको खुद के ऊपर गुस्सा भी आया होगा. अपने खुद से सवाल किया होगा कि अगर मैं थोड़ा सा और ज्यादा स्मार्ट होता तो वो बहस जीत गया होता. ऐसा भी हो सकता है कि अगली बार के लिए आप खुद से वादा किए होंगे कि अब आप अपने दिमाग को पहले से ज्यादा स्मार्ट बनाएंगे.
लेकिन क्या आपको पता है कि सुधार की कहाँ ज़रूरत है? आपको पता होना चाहिए कि बिना लक्ष्य के भागने से कुछ भी हासिल नहीं होता है. इसलिए ये पता होना बहुत ज़रूरी है कि काम कहाँ पर करना है?
यही सब आपको इस किताब को पढ़ने के बाद सीखने को मिलेगा. आपको पता चलेगा कि किसी भी आर्ग्युमेंट को कैसे जीता जाता है? इसी के साथ आपको ये भी पता चलेगा कि पॉवर ऑफ़ थिंकिंग के अलावा एबिलिटी ऑफ़ थिंक अगेन की वैल्यू क्या होती है?
इन चैप्टर्स में एक्स्ट्रा क्या सीखने को मिलेगा?
- जिनके पास ह्यूमर नहीं होता है, वो भी खुद को ज्यादा ह्यूमरस क्यों समझते हैं?
- वर्क प्लेस कल्चर कैसा होना चाहिए?
- हर बार आर्ग्युमेंट को कैसे जीता जा सकता है?
तो चलिए शुरू करते हैं!
साल 2009 की बात है, उस दौर में स्मार्टफोन की फील्ड में ब्लैकबेरी फोन की पैठ हुआ करती थी. स्मार्ट फोन मार्केट में ब्लैकबेरी कंपनी का पूरी तरह से कब्ज़ा हुआ करता था. कंपनी 50 प्रतीशत से ज्यादा स्मार्ट फोन मार्केट पर कब्ज़ा की हुई थी. उस दौर के सभी बड़े उद्योगपति ब्लैकबेरी के ही स्मार्टफोन यूज़ किया करते थे. पूर्व अमेरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने तो यहाँ तक कहा था कि वो बिना ब्लैकबेरी फोन के रह ही नहीं सकते हैं. लेकिन देखते ही देखते मार्केट की पूरी कहानी ही बदल गई थी. 5 सालों के अंदर मार्केट में कंपनी की हिस्सेदारी ही खत्म सी हो गई थी. अब 1 प्रतीशत लोग भी ब्लैकबेरी के फ़ोन यूज़ नहीं किया करते हैं.
ऐसा क्यों हुआ? इसके पीछे का कारण ये है कि ब्लैकबेरी के इन्वेंटर ‘Mike Lazaridis’ ने अपने दिमाग को चेंज नहीं किया था.
आपको याद दिला दें कि साल 2007 में एप्पल ने आईफोन को लॉन्च किया था. इस कंपनी के फोन को लोगों ने काफी ज्यादा पसंद किया था. कंपनी का मार्केट शेयर लगातार बढ़ता चला गया और ब्लैकबेरी का मार्केट शेयर लगातार घटता चला गया. इसके पीछे का रीज़न यही था कि ब्लैकबेरी के फाउंडर ‘Mike Lazaridis’ को हमेशा से लगता था कि फोन का यूज़ केवल कॉल करने और ईमेल रिसीव करने के लिए होता है. उन्होंने कभी इस बात को स्वीकार ही नहीं किया था कि लोग स्मार्टफोन का उपयोग कॉल के अलावा भी कर सकते हैं. इसका सीधा मतलब यही है कि उन्होंने कभी भी अपने दिमाग को बदलने की कोशिश भी नहीं की थी.
वो कभी इस बात को सोच ही नहीं पाए कि ब्लैकबेरी जो प्रोवाइड कर रहा है. लोगों को उससे अधिक की ज़रूरत है. अगर वो इस बात को स्वीकार कर लिए होते. तो बात कुछ और हो सकती थी.
लेकिन ‘Mike Lazaridis’ को आप जज मत करिएगा क्योंकि ऐसा हो सकता है कि यही गलती आप भी कर रहे हों.
भले ही आप बिजनेस ऑनर हों या फिर आंत्रप्रेन्योर, ऐसा हो सकता है कि आपको खुद की बिलीफ पर कुछ ज्यादा ही घमंड हो. आपको ऐसा लगता हो कि जितना आपको पता है. बस उतना ही सत्य है.
लेकिन आपको पता होना चाहिए कि दुनिया की तस्वीर ऐसी बिल्कुल भी नहीं है. जैसी आपको दिख रही है.
खुद के बिलीफ सिस्टम में टिके रहने का सबसे बुरा प्रभाव यही पड़ता है. कि आपको अंदाज़ा भी नहीं रहता है कि दुनिया कितनी तेजी से बदल रही है? इसके उदाहरण के तौर पर आपको बता दें कि 1980 के दशक के अपेक्षा में लोग 5 गुना ज्यादा इनफार्मेशन कंज्यूम करने लगे हैं.
दुनिया के बदलने की रफ़्तार बहुत तेज़ हो चुकी है. इसका मतलब साफ़ है कि बस इतना पता होना कि सोचते कैसे हैं? काफी नहीं है. आपको इसके साथ ये भी पता होना चाहिए कि बार-बार यानी दोबारा कैसे सोचते हैं? मतलब साफ़ है कि आपको पॉवर ऑफ़ रीथिंक के बारे में भी पता होना ज़रूरी है.
अब आपको इतना तो पता चल गया है. लेकिन सबसे बड़ा सवाल यही है कि आप इसे कैसे करेंगे? इसके लिए आपको सिम्पल तकनीक का इस्तेमाल करना होगा. वो ये है कि आपको खुद की थिंकिंग को वैज्ञानिक की तरह करने की ज़रूरत है.
लेखक आपको सलाह देते हैं कि साइंटिस्ट की तरह सोचने की शुरुआत कर दीजिए.
साइंटिस्ट के अंदर हमेशा ये जिज्ञासा लगी रहती है कि उन्हें क्या नहीं पता है? उन्हें जो नहीं मालुम होता है. वो हमेशा ही उसे जानने की कोशिश करते रहते हैं. साइंटिस्ट की कोशिश रहती है कि वो इनफार्मेशन की मदद से खुद को अपडेट करते रहें.
अगर आप बिजनेस लीडर भी हैं. तो भी आपको एक वैज्ञानिक की तरह सोचने की आदत डालनी चाहिए. आपको हमेशा खुद की स्ट्रेटजी को टेस्ट करते रहना चाहिए. खुद से सवाल करने की आदत को भी जल्द से जल्द एडाप्ट कर लीजिए. इटली के स्टार्टअप्स के ऊपर हुई स्ट्रेटजी ये बताती है कि जो लोग बिजनेस ऑनर होने के बावज़ूद साइंटिफिक तरीके से सोचते थे. उन्हें दूसरों की अपेक्षा जल्दी और ज्यादा तरक्की मिली है. इसलिए अपनी थिंकिंग को क्रिएटिव और साइंटिफिक करने की शुरुआत कर दीजिए.
रिसर्चर ने पाया था कि साइंटिफिक तरीके से सोचने वालों को ज्यादा सफलता इसलिए मिली थी. क्योंकि उन्हें पता था कि सिचुएशन के हिसाब से कैसे बदला जाता है? उनके अंदर एडाप्ट करने की बेहतर काबिलियत डेवलप हो गई थी.
आप शायद नहीं जानते कि आप क्या नहीं जानते हैं?
हम लोगों में से ज्यादातर लोगों के लिए सबसे बड़ा ब्लाइंड स्पॉट वही चीज़ होती है. जिसमें हम अच्छे नहीं होते हैं. कई रिसर्च में ये देखा गया है कि जिन लोगों की पर्सनालिटी में लॉजिकल रीज़निंग और ह्यूमर कम होता है. वो लोग अपनी क्षमताओं को बहुत अधिक आंकते हैं. उन्हें ऐसा लगता है कि उनके अंदर बहुत अधिक टैलेंट है. मगर सच्चाई कुछ और ही होती है.
लेखक कहते हैं कि जब खुद को काफी बेहतर समझने लगते हैं. लेकिन आप उस चीज़ में उतने बेहतर नहीं होते हैं. तब होता ये है कि आप खुद की स्किल के ऊपर काम करना बंद कर देते हैं. इससे आपकी स्किल में इम्प्रूवमेंट होना बंद हो जाता है. इमोशनल इंटेलिजेंस में हुई स्टडी बताती है कि जिन लोगों के अंदर इमोशनल इंटेलिजेंस की कमी होती है. उन्हें लगता है कि उनके अंदर ये क्वालिटी काफी ज्यादा है. इसलिए वो कभी नहीं चाहते हैं कि वो इस एरिया के ऊपर काम करें.
तो फिर सवाल यही उठता है कि इस इन एबिलिटी का ईलाज क्या है?
आपको बता दें कि इसका ईलाज विनम्रता की मदद से किया जा सकता है.
जब भी आप विनम्रता अपना लेते हैं और ये स्वीकार कर लेते हैं कि ऐसी बहुत सी चीज़ें हैं. जिनके ऊपर आपको काम करना है. ऐसी बहुत सी चीज़ें हैं जिनके बारे में आपको कुछ नहीं मालुम है. तब आप खुद की पर्सनालिटी को कुछ नया सीखने के लिए ओपन करते हैं. आपको डर लग सकता है कि इस तरह के एटीट्यूड से आपके अंदर कॉन्फिडेंस की कमी आ सकती है. लेकिन आपको उस डर से डरना नहीं है.
आपको पता होना चाहिए कि कॉन्फिडेंस और विनम्रता दोनों अलग-अलग पहलू हैं. दोनों का आपस में ज्यादा लेना देना नहीं है. सेल्फ बिलीफ से कॉन्फिडेंस आता है. इसी के साथ खुद से सवाल करना कि क्या आप सही डायरेक्शन में हैं? ये सिर्फ हम्बल एटीट्यूड से ही आ सकता है.
अगर आप सक्सेसफुल लोगों को देखेंगे तो उनके अंदर अपने लक्ष्य को अचीव करने की ख़ुशी के साथ हम्बल एटीट्यूड भी होता है. वो खुद से सवाल करते रहते हैं कि क्या उनकी दिशा या डायरेक्शन सही है?
इसी के साथ लेखक ये भी बताते हैं कि कई बार अच्छी बहस से भी आपके ब्लाइंड स्पॉट रोशन हो सकते हैं. तर्क के साथ बहस करने से दिमाग खुलता है. इससे आपको नए-नए रास्ते भी मिलते हैं.
इसलिए कहा भी गया है कि सही कंफ्लिक्ट काफी मददगार साबित हो सकता है. स्ट्रेटजी और टास्क पर आधारित सार्थक बहस से कई बार इनोवेटिव आईडिया निकलकर सामने आते हैं. हमको हमेशा उस आईडिया के लिए तैयार रहना चाहिए. इसलिए दिमाग को खुला रखिए और सार्थक बहस के लिए तैयार रहिए.
बेस्ट नेगोशिएटर बनकर आप लोगों का दिमाग बदल सकते हैं
किसी को भी अपनी बात पर राज़ी करना बिल्कुल भी आसान नहीं है. अब सवाल ये उठता है कि आप किसी को खुद के टर्म्स पर कैसे राज़ी करेंगे? इस किताब के लेखक ग्रांट पहले सोचते थे कि किसी को राज़ी करने का मतलब होता है कि उसे उसके गलत होने का सबूत देना. लेकिन धीरे-धीरे उन्हें पॉवर ऑफ़ नेगोशिएशन का महत्व समझ में आया. उन्हें पता चला कि नेगोशिएशन में बहुत ताकत होती है.
अगर आपको भी लोगों के दिमाग को चेंज करना है तो फिर आपको भी नेगोशिएशन और डिबेट के महत्त्व को समझना होगा.
बेस्ट नेगोशिएटर के अंदर तीन क्वालिटी होती है.
पहली- बेस्ट नेगोशिएटर दूसरों के साथ कॉमन ग्राउंड की तलाश करते हैं.
हम ऐसा सोचते हैं कि हमसे तो डिबेट करते आता है. लेकिन हम गलत सोचते हैं. हम लोगों में से कई लोग डिबेट करते समय सोचते हैं कि उन्हें बहुत सारे तर्क के साथ सामने वाले का मुंह बंद कर देना है. हम लोग ये भूल जाते हैं कि डिबेट का मतलब जंग नहीं होता है. कई लोग डिबेट को जंग की तरह समझने लगते हैं.
अगर आप प्रतिभाशाली नेगोशियेटर से मिलेंगे तो आपको पता चलेगा कि ज्यादातर लोग डिबेट को डांस की तरह ट्रीट करते हैं. उन्हें पता होता है कि डिबेट के दौरान कई बार हमें पीछे भी हटना पड़ता है. हर बार एक कदम पीछे हटने को हार नहीं कहा जाता है. इसलिए सामने वाले को स्पेस देने के लिए आपका पीछे हटना भी ज़रूरी होता है.
आपको एक बात पता होनी चाहिए कि नेगोशिएशन में जो लोग अच्छे नहीं होते हैं. वो लोग बस खुद को बेहतर साबित करने में लगे रहते हैं. ये तकनीक सरासर गलत है. अगली बार आप डिबेट करें तो याद रखिएगा कि हर लड़ाई जीतने की ज़रूरत नहीं होती है. इसलिए बॉलीवुड मूवी में कहा भी गया है कि “हारकर जीतने वाले को ही बाज़ीगर कहते हैं.”
दूसरी- ग्रेट नेगोशियेटर कम आर्ग्युमेंट से ज्यादा अचीव करना जानते हैं.
हम लोग डिबेट को अपने ही नज़रिए से देखते हैं. हम सोचते हैं कि डिबेट एक वेट मशीन है. इस वेट मशीन में जिसका वेट ज्यादा होगा उसी की जीत भी होगी. उसी वेट को ज्यादा करने के लिए हम आर्ग्यूमेंट्स की बौछार लगा देते हैं. लेकिन बेस्ट नेगोशियेटर ऐसे नहीं होते हैं. उनका नज़रिया अलग होता है. उनके अंदर ये काबिलियत होती है कि वो कम से कम आर्ग्युमेंट में अपनी बात साबित कर सकते हैं. बेस्ट नेगोशियेटर कम बोलते हैं लेकिन सटीक बोलते हैं. उन्हें पता होता है कि ज्यादा बोलने से उनका तर्क हल्का हो सकता है.
तीसरी क्वालिटी- बेस्ट नेगोशियेटर साइंटिस्ट की तरह सोचते हैं.
बेस्ट नेगोशियेटर बस अपनी ही बात मनवाने में नहीं लगे रहते हैं. उनके अंदर एक गज़ब की जिज्ञासा होती है. ये जानने की सामने वाला क्या सोच रहा है? उन्हें पता होता है कि सामने वाले के दिमाग से कैसे डील करना है? उनके अंदर काबिलियत होती है कि वो कभी भी किसी से भी ज्ञान लेने के लिए तैयार रहते हैं.
किसी भी बिलीफ सिस्टम को बदला जा सकता है
साल 1983 की बात है, ब्लैक म्यूजीशियन Daryl Davis ने एक मुहीम की शुरुआत की थी. उनका मिशन था कि अमेरिकन्स का रंगभेद के प्रति दिमाग को बदलने की शुरुआत होनी ही चाहिए. उनकी सक्सेस हमें ये बताती है कि किसी भी कट्टरता और बिलीफ सिस्टम को बदला जा सकता है.
लेकिन अब सवाल ये उठता है कि लोगों के एक तरफा बिलीफ सिस्टम को कैसे बदला जा सकता है?
इसके लिए सबसे अच्छा तरीका ये है कि उन्हें एहसास हो जाए कि उनका विश्वास पूरी तरह से गलत है.
Daryl Davis ने रंग भेद के खिलाफ अपनी मुहीम के तहत जब-जब अमेरिकन्स से बात की थी. तो उन्हें समझाने की कोशिश की थी कि उनकी ये सोच जन्म से ही उनके अंदर भरी गई है. इस तरह की थिंकिंग कत्तई तार्किक नहीं है.
अगर आप चाहते हैं कि कोई भी अपनी थिंकिंग के बारे में रीथिंक करे तो फिर केवल उनकी गलती का एहसास दिलाना ही काफी नहीं है. बल्कि उन्हें बताना चाहिए कि ये बस संयोग ही है कि वो इस तरह की बातों पर विश्वास करते हैं. उन्हें बताना चाहिए कि अगर वो अपने नज़रिए को बदलने की कोशिश करेंगे तो फिर काफी कुछ बदल सकता है.
सही सवाल के महत्त्व को समझने का समय आ गया है, सही सवाल पूछकर आप किसी को भी अपने वश में कर सकते हैं
ये सुनने में थोड़ा अज़ीब लग सकता है. लेकिन कोई अपनी थिंकिंग को दोबारा रीथिंक करे, इसके लिए सबसे ज़रूरी तरीका हो सकता है कि आप उसका इंटरव्यू ले लें.
यहाँ लेखक साल 2018 का किस्सा शेयर करते हैं. कैनेडा के एक हॉस्पिटल में एक यंग मदर थीं. जो अपनी थिंकिंग से हटने को तैयार नहीं थीं.
वो अपने बच्चे का वैक्सीनेशन नहीं करवाना चाहती थीं. उन्हें नर्स और डॉक्टर्स की बात पर भी भरोसा नहीं था.
उस समय हॉस्पिटल वालों को भरोसा था कि केवल डॉक्टर Arnaud Gagneur ही अपने इंटरव्यू के तरीके से उस महिला के विश्वास को तोड़ सकते हैं.
डॉक्टर Arnaud Gagneur मोटिवेशनल इंटरव्यू करने का तरीका जानते थे. आपको बता दें कि मोटिवेशनल इंटरव्यू एक इफेक्टिव तरीका होता है. जिसकी मदद से लोगों का दिमाग बदला जा सकता है.
ये तरीका काम कैसे करता है? इस तरीके की मदद से किसी भी इंसान को विश्वास दिलाया जाता है कि वो अपने विचार के बारे में रीथिंक करे. जब भी वो उसे फिर से सोचता है. तो उसे एक नए नज़रिए के बारे में पता चलता है.
इस तकनीक के दौरान जो भी इंटरव्यू लेता है. वो ये जानना चाहता है कि सामने वाला ऐसा क्यों सोच रहा है? वो सामने वाले के दिल और दिमाग से उस बात का कारण निकालने की कोशिश करता है.
इसके बाद इंटरव्यू लेने वाला शख्स सामने बैठे इंसान के दिमाग को बदलने की कोशिश करता है.
इस तकनीक में पॉवर ऑफ़ लिसनिंग का यूज़ किया जाता है. अधिकांश हम जब भी किसी को किसी भी बात में एग्री करवाना चाहते हैं. तो हम ज्यादा से ज्यादा बात करने की कोशिश करते हैं.
लेकिन इस तकनीक में लोगों को सुनने का काम किया जाता है. इसलिए कहा भी गया है कि “सुनने से ही बड़ी से बड़ी समस्या का समाधान हो सकता है.”
लोग रीथिंक कम करते हैं जब उन्हें कोई भी इश्यु बस ब्लैक एंड वाइट ही नज़र आता है
साल 2006 की बात है एक्टिविस्ट Al Gore क्लाइमेट चेंज के ऊपर अवॉर्ड विनिंग डाक्यूमेंट्री रिलीज़ करते हैं. जिस डाक्यूमेंट्री में सरकार से लेकर आम आदमी को ये बताने की कोशिश की गई थी. क्लाइमेट चेंज एक बड़ी दिक्कत है.
इसे रोकने के लिए अब सख्त कदम उठाने की ज़रूरत है. लेकिन 15 साल बाद भी क्या लोगों के दिमाग में कोई बदलाव आया है?
इसका जवाब है ‘नहीं’, 60 प्रतीशत से ज्यादा अमेरिकन्स क्लाइमेट चेंज को कोई दिक्कत ही नहीं समझते हैं.
इस मुहीम के फेल होने का रीज़न क्या है?
इसके फेल होने का रीज़न इसका ब्लैक एंड वाइट अप्रोच है. आपको पता होना चाहिए कि ब्लैक एंड वाइट सीनेरियो हो तो लोग रीथिंक करना बंद कर देते हैं.
इस किताब के लेखक बताते हैं कि कोई भी अपने दिमाग को आसानी से चेंज नहीं करता है. वो अपनी थिंकिंग को तभी बदलने की कोशिश करता है. जब इश्यु को कई पर्सपेक्टिव के आधार पर पेश किया जाता है.
दूसरे शब्दों में कहें तो अगर आप चाहते हैं कि सामने वाला किसी भी इश्यु के बारे में दोबारा से विचार करे. तो फिर आपको उसे सही या गलत नहीं ठहराना होगा. इसके बजाए आपको उन्हें बताना होगा कि कई सारे ओपिनियन मौजूद हैं. वो उन सबके बारे में विचार कर सकता है.
आपको ऐसा लग सकता है कि ऐसा करने से आपका पक्ष कमजोर हो सकता है. लेकिन कई रिसर्च ये बताती है कि सामने वाले के दिमाग में डाउट क्रिएट करते हुए भी आप उसे अपने पक्ष में कर सकते हैं.
ये सब छोटी-छोटी तकनीक हैं. जिनके इस्तेमाल से आप किसी के भी दिमाग को चेंज कर सकते हैं.
आपके आर्गेनाइजेशन का कल्चर डिसाइड करेगा कि आपकी टीम रीथिंक करेगी या नहीं करेगी
रीथिंकिंग की प्रोसेस बस किसी एक इंसान के लिए ही नहीं है. ये प्रोसेस पूरी की पूरी आर्गेनाइजेशन के लिए भी है. आज के दौर में इस प्रोसेस की ज़रूरत भी है.
साल 2003 में नासा के स्पेस शटल ने उड़ान भरी थी. उस समय शुरूआती दौर में ही कुछ दिक्कतें आयीं थीं. लेकिन नासा की ग्राउंड टीम ने अपने फैसले के ऊपर दोबारा विचार नहीं किया था. उन्हें वो दिक्कत कोई बड़ी समस्या नहीं लगी थी.
लेकिन वो समस्या बाद में इतनी बड़ी निकली कि उसकी वजह से 7 एस्ट्रोनॉट्स की जान तक चली गई थी.
अगर आप चाहते हैं कि आपकी टीम के अंदर रीथिंकिंग की कैपाबिलिटी हो, तो फिर आपको अपने वर्क कल्चर को लर्निंग के लिए तैयार करना ही होगा.
लर्निंग कल्चर क्या होता है?
लर्निंग कल्चर में ग्रोथ को प्रियोरिटी दी जाती है. इसी के साथ-साथ इस कल्चर में रीथिंकिंग रूटीन में शामिल होता है.
इस क्ल्चर में काम करने वालों के दिमाग में सिस्टम को लेकर हमेशा सवाल बना रहता है. उन्हें पता होता है कि अभी उन्हें कितना कुछ सीखना है?
लर्निंग कल्चर में काम करने वाले लोग हम्बल होते हैं और सीखने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं. उनके अंदर अपनी कला को लेकर ओवर कॉन्फिडेंस नहीं होता है.
याद रखिए लाइफ में वही लोग आगे बढ़ते हैं. जो लोग लगातार ग्रोथ करते रहते हैं.
आपको भी अपनी आर्गेनाइजेशन में लर्निंग कल्चर को बढ़ावा देना चाहिए. ऐसा करने से आप अपने कर्मचारी को साइकोलॉजिकल हेल्प कर सकते हैं.
जब आपके टीम मेम्बर्स साइकोलॉजिकल फ्री महसूस करेंगे तो फिर वो रिस्क लेने के लिए भी तैयार रहेंगे. उन्हें रिस्क लेने में डर नहीं लगेगा.
अगर आप चाहते हैं कि आपकी टीम रीथिंकिंग करे और इनोवेटिव बने, तो उन्हें बताते रहिए कि इस सफर में कभी-कभी फेल भी होना पड़ सकता है.
उनके अंदर जितना कॉन्फिडेंस रहेगा, आपकी आर्गेनाइजेशन उतनी ही आगे की तरफ जाएगी.
कुल मिलाकर
अपने आईडिया के बारे में रीथिंक करते हुए आप ग्रोथ के रास्ते में जा सकते हैं. आगे बढ़ने के लिए बड़ा सोचना ज़रूरी है. लेकिन सबसे ज़रूरी है दोबारा सोचना, इसलिए कभी भी इस रास्ते को नज़र अंदाज़ मत करिएगा.
क्या करें?
आपकी पर्सनालिटी आपके वैल्यूज बनाते हैं. इसलिए याद रखिए कि बिलीफ सिस्टम तो होता ही टूटने के लिए है. ओपन माइंड सेट के साथ आगे बढ़ते रहिए. तरक्की आपका इंतज़ार कर रही है.
येबुक एप पर आप सुन रहे थे Think Again by Adam Grant
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