The As If Principle

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The As If Principle

Richard Wiseman
Zindagi Badalne Ka Naya Aur Asardaar Tareeka

दो लफ्जों में
हम अक्सर ये सुनते हैं कि हमारी भावनाओं का असर हमारे बर्ताव पर होता है पर ये किताब इसे दूसरे नजरिए से देखती है। यानि हमारा बर्ताव या एक्शन हमारी भावनाओं को जन्म देता है। इसलिए जब हम मुस्कुराते हैं तो हमें खुशी मिलती है। एक बार जब आप इस आसान से नियम को समझ जाते हैं तो जिंदगी के बहुत से रंग बदल सकते हैं। यानि खानपान से लेकर अपनी फीलिंग्स और एजिंग तक सब कुछ बेहतर बना सकते हैं।

  ये किताब किनको पढ़नी चाहिए 
• जो लोग खुद में अच्छे बदलाव लाना चाहते हैं
• जिनको साइकोलॉजी में रुचि है
• जो शरीर और मन के कनेक्शन को अच्छी तरह समझना चाहते हैं 

लेखक के बारे में
रिचर्ड वाइसमैन एक लेखक और साइकोलॉजिस्ट हैं। वे यूनिवर्सिटी ऑफ हर्टफोर्डशायर में साइकोलॉजी डिपार्टमेंट के हेड हैं। उन्होंने द लक फैक्टर, क्विर्कोलॉजी और 59 सेकंड्स और पैरा नॉर्मलिटी जैसी बहुत सी बेस्ट सेलिंग किताबें लिखी हैं।आप जैसा एक्ट करते हैं वैसा ही फील करते हैं।
आप इसलिए नहीं मुस्कुराते हैं क्योंकि आप खुश हैं बल्कि आप मुस्कुराने की वजह से खुश होते हैं। ये बात तो बड़ी छोटी सी है पर इसका मतलब गहरा है। हमारा एक्शन हमारी भावनाओं को कंट्रोल कर सकता है न कि भावनाएं हमारे एक्शन को। इसका ये मतलब भी निकलता है कि किसी चीज से दूर भागना आपको उससे और ज्यादा डरा सकता है। हाल में हुई एक स्टडी भी ये कहती है कि हमारा बर्ताव हमारी भावनाओं पर कितना गहरा असर डाल सकता है। इसलिए अगर आप अपने एक्शन्स को थोड़ा बदलते हैं तो मनमर्जी की चीजें खाकर भी हेल्दी रह सकते हैं। बढ़ती उम्र के असर को कम कर सकते हैं और हमेशा खुश भी रह सकते हैं। इन सबका रास्ता आपको ये किताब दिखाती है। 

इस किताब को पढ़कर आप जानेंगे

• कैसे एक रोमांटिक फिल्म में काम करके ब्रैड पिट और एंजेलिना जोली को प्यार हो गया

• चीन के बच्चों को टॉन्सिल सर्जरी से डर क्यों नहीं लगता

• अगर आप खुद को कम उम्र का समझने लगें तो इस सोच में आपका शरीर भी आपका साथ देता है

 

तो चलिए शुरू करते हैं! 

रिसर्च कहती है कि अगर आप मुस्कुराना शुरू कर दें तो खुशी खुद ब खुद चली आएगी। विलियम जेम्स नाम के फिलॉसफर ने सबसे पहले ये थ्योरी दुनिया के सामने रखी और कहा "अगर आप कुछ अच्छा हासिल करना चाहते हैं तो ऐसा जताएं जैसे वो पहले से ही आपके पास हो।" जेम्स की थ्योरी पर चार्ल्स डार्विन ने काम किया और ये बताया कि एक इंसान किसी दूसरे इंसान के चेहरे के भावों को देखकर उसकी मनोदशा को समझ सकता है। हालांकि जेम्स ये समझना चाहते थे कि क्या चेहरे के भाव ही उस मनोदशा का कारण बनते हैं। उन्होंने कहा कि लोग खुश होने पर नहीं मुस्कुराते बल्कि वे इसलिए खुश हैं क्योंकि वे मुस्कुराते हैं। इसी तरह आपको डर तब लगता है जब आप किसी खतरे से दूर भागते हैं न कि इसके उलट। स्टडीज से ये पता चला है कि जब लोग खुद को मुस्कुराने के लिए मजबूर करते हैं तब वो सच में खुश महसूस करते हैं। 

इससे जुड़ा एक एक्सपेरिमेंट किया गया जहां भाग लेने वालों को ये बताया गया कि उनकी मसल्स में होने वाली इलेक्ट्रिकल एक्टिविटी की जांच की जा रही है। रिसर्चर्स ने उनके के चेहरे से इलेक्ट्रोड जोड़े, उनसे अलग-अलग तरह के चेहरे बनाने को कहा और उनके रिएक्शन को देखा। रिसर्चर्स ने देखा कि जब भाग लेने वाले लोगों ने मुस्कुराता हुआ चेहरा बनाया तो वे खुशी महसूस करने लगे। भले ही उनको ये बात पता थी कि वे सिर्फ एक एक्सपेरिमेंट के लिए मुस्कुरा रहे थे। अमेरिकी मनोवैज्ञानिक पॉल एकमैन ने देखा कि ये नियम तो दुनिया भर में मौजूद है। न तो इसमें संस्कृति का कोई बंधन है न ही जमीन के दायरों का। यूएस से लेकर इंडोनेशिया तक हर जगह ये नियम काम करता है। जब लोग डरते हैं तो उनके दिल की धड़कन तेज हो जाती है और त्वचा ठंडी पड़ जाती है। जब वे मुस्कुराते हैं तो उनके दिल की धड़कन कम हो जाती है और तापमान बढ़ जाता है। 

इसलिए अगर आप इस तरह एक्ट करते हैं जैसे आप गुस्से, डर या खुशी जैसी किसी भावना को महसूस कर रहे हों तो इससे न सिर्फ आपका मन बदल जाता है बल्कि आपके शरीर में भी बदलाव आने लगते हैं। इसलिए अगर आप खुशी महसूस करना चाहते हैं तो ऐसे एक्ट करें जैसे आप पहले से ही खुश हैं। यही "As if"  प्रिंसिपल है। ये सिद्धांत हमारे जीवन के कई पहलुओं पर लागू हो सकता है। मनोवैज्ञानिक सारा स्नोडग्रास ने देखा है कि जो लोग बड़े कदम भरते हैं, थोड़ा तनकर चलते हैं और अपनी बाहों को हिलाते हैं वे छोटे कदम भरने वाले और झुककर चलने वाले लोगों की तुलना में ज्यादा खुश महसूस करते हैं। 

आप प्यार में होने की एक्टिंग करके सच में प्यार की आंच को हवा दे सकते हैं।
क्या प्यार की एक्टिंग करने से सच में प्यार हो सकता है? अलग-अलग भावनाओं के लिए हमारे शरीर का रिस्पांस अलग होता है। अगर हम किसी रिस्पांस की नकल कर लें तो वैसी ही भावनाएं महसूस करने लग सकते हैं। लोग मानते थे कि एक खास भावना एक खास रिस्पांस की वजह बनती है लेकिन 1960 के दशक में मनोवैज्ञानिक स्टेनली स्कैचर ने "As If" वाले सिद्धांत को आगे बढ़ाते हुए इस बात का खंडन किया। जब कोई आप पर चिल्लाता है तो आपका दिल तेजी से धड़कता है और आप समझते हैं कि आपको या तो गुस्सा आ रहा है या डर लग रहा है। लेकिन जब आप किसी खूबसूरत इंसान को देखते हैं तो भी आपकी धड़कन तेज हो जाती है पर आप इसके लिए अपने हार्मोन्स को जिम्मेदार मान लेते हैं। 

एक स्टडी में रिसर्चर्स ने पुरुषों के दो ग्रुप बनाकर किसी महिला के प्रति उनके आकर्षण को समझने की कोशिश की। इनमें से एक ग्रुप को किसी महिला को देखने से पहले दो मिनट तक जॉगिंग करनी थी। इस ग्रुप के पुरुषों को वो महिला दूसरे ग्रुप की तुलना में ज्यादा आकर्षक लगी। जाहिर है जॉगिंग से उनके दिल की धड़कन पहले ही थोड़ी तेज हो चुकी थी। उनके शरीर ने बढ़ी हुई धड़कन को महिला के लिए आकर्षण समझा। यानि अगर आप ऐसा बर्ताव करते हैं जैसे कि आप प्यार में पड़ गए हैं तो आपको प्यार हो जाने की संभावना बढ़ जाती है। किसी के करीब जाना, उसकी आंखों में देखना या उसके पैरों से खेलने की शरारत जैसी चीजें आपको किसी की तरफ झुकने में मदद करती हैं। हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के रिसर्चर्स ने लोगों को पोकर गेम खिलाकर इस बात की स्टडी की। 

कुछ पुरुष और महिलाओं को एक-दूसरे के पैरों पर कोड टैप करके चीट करना सिखाया गया। गेम पूरी हो जाने के बाद रिसर्चर्स ने उनसे पूछा कि क्या उन्हें अपने पोकर पार्टनर आकर्षक लगे। जिन लोगों ने एक-दूसरे के पैरों को टैप किया उनको अपने पार्टनर दूसरों की तुलना में ज्यादा आकर्षक लगे जिन्होंने पैर टैप नहीं किए थे। मजेदार बात ये है कि बहुत सी फिल्मी जोड़ियों को भी किसी फिल्म में साथ काम करने के बाद प्यार हो गया। रिचर्ड बर्टन और एलिजाबेथ टेलर, ब्रैड पिट और एंजेलीना जोली और वारेन बीटी और एनेट बेनिंग सभी रियल लाइफ के ऐसे ही जोड़े हैं जो पहली बार फिल्म की शूटिंग पर प्रेमी की भूमिका में मिले थे। 

आप लगातार एक ही बात कहते रहें तो देर सवेर उस पर यकीन भी होने लगता है। "As If" प्रिंसिपल अपनी बात मनवा ही लेता है।
ऐसा कहा जाता है "Saying is believing." अगर आप ऐसे बर्ताव करते हैं जैसे आप किसी चीज को सही मान रहे हैं तो आपकी सोच वाकई बदल सकती है। भूतपूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन ने वियतनाम युद्ध के दौरान इस सिद्धांत को अपने फेवर में इस्तेमाल किया। ये एक ऐसी लड़ाई थी जिसने अमेरिकी समाज में बहुत तनाव पैदा किया और दोनों तरफ जान माल का काफी नुकसान भी हुआ। कुछ अधिकारी युद्ध के बारे में  जॉनसन के तरीकों से असहमत थे। जॉनसन ने इन लोगों को अपनी बात समझाने की कोशिश करने की जगह वियतनाम में एक मिशन पर भेज दिया जहां इनको सरकार के फैसलों का बचाव करते हुए युद्ध के सपोर्ट में बड़े-बड़े भाषण देने पड़े। बार-बार इन बातों को दुहराते हुए कई अधिकारियों को ये यकीन हो गया कि सरकार सही फैसले ले रही है। यहां पर "As If" सिद्धांत ने अपना काम किया। 

ये सिद्धांत पॉजिटिव या निगेटिव बदलाव पैदा कर सकता है। कोई इंसान जो काम करने लगता है उसकी सोच भी वैसी होने लग जाती है। अमेरिकी युद्ध बंदियों के एक ग्रुप के साथ कोरियन वॉर के दौरान यही हुआ। कैद में रहने के दौरान उनको कम्युनिस्ट विचारधारा का सपोर्ट करने के लिए कहा जाता था। पहले इससे जुड़ी बातें लिखने को कही जातीं फिर उनको जोर से पढ़वाया जाता और इसके फायदे बताने को कहा जाता। अगर कैदी इस विचारधारा की अच्छी तरह तारीफ कर पाते तो उनको ताजे भोजन या फल जैसे ईनाम मिलते। इस प्रोसेस में बहुत से कैदी सैनिक अपनी कही बातों पर विश्वास करने लगे। कुछ ने युद्ध खत्म होने के बाद नॉर्थ कोरिया में रहने का विकल्प भी चुना। 

लोगों को रिवॉर्ड देकर मोटिवेट करने की जगह "As If" सिद्धांत का इस्तेमाल करें।
लोगों को ईनाम का लालच देकर काम करवाने की ट्रिक लंबे समय तक नहीं चल पाती। क्योंकि इससे लोगों को ये लगने लगता है कि ईनाम देकर उनसे वो करवाया जा रहा है जिसे वो नहीं करना चाहते। इसकी वजह समझना बड़ा आसान है। हम सोचते हैं "मुझे ऐसे काम के लिए पैसे दिए जा रहे हैं जो मैं नहीं करना चाहता। इसलिए इसे करने में कोई मजा नहीं है।" इस वजह से अच्छे से अच्छा काम अपनी लगन खो देता है। यहां तक कि खेलकूद भी मेहनत की तरह लगने लगता है। मनोवैज्ञानिक एडवर्ड डेवी ने कुछ वांलंटियर्स को 30 मिनट तक एक पहेली हल करने को देकर इसकी स्टडी की। कुछ से कहा गया कि पहेली को सुलझाने के लिए उन्हें पैसे मिलेंगे जबकि कुछ से ऐसी कोई बात नहीं की गई। 

मजे की बात ये है कि जिन लोगों को पैसे मिलने थे उन्होंने पहेली सुलझाने में कम मेहनत की। जबकि बाकियों ने कड़ी मेहनत की क्योंकि वे इसे अपनी खुशी के लिए कर रहे थे। ईनाम के बारे में सोचना भी नुकसान कर सकता है। एक और रिसर्चर ने देखा कि जब कुछ लेखकों को बेस्टसेलिंग लेखकों को मिलने वाले पैसों के बारे में फोकस करके लिखने के लिए कहा गया तो उनके काम की क्वालिटी घट गई। लेकिन जब उन्होंने अपने मन को खुशी देने के लिए लिखा तो उनका काम कहीं बेहतर था। यानि ईनाम की जगह आप "As If" सिद्धांत अपनाकर लोगों को बेहतर ढंग से मोटिवेट कर सकते हैं। 

जब कोई खुद को एक खास तरीके से काम करते हुए देखता है तो वो उसे जारी रखने के लिए मोटिवेट होता है। एक छोटे से बदलाव का बड़ा असर हो सकता है। रिसर्चर, पेट्रीसिया प्लिनर ने एक चैरिटी एक्सपेरिमेंट से ये बात साबित की है। लोगों के दो ग्रुप चुने गए और उनसे कैंसर के मरीजों के लिए दान करने को कहा गया। एक ग्रुप से सीधे-सीधे पैसे मांगे गए तो उनमें से लगभग 46 प्रतिशत ने दान की मंजूरी दी। जबकि दूसरे ग्रुप के लोगों को दो हफ्ते पहले अप्रोच किया गया। उनसे कहा गया कि वो इस अभियान से जुड़ जाएं और सिर्फ एक बैज लगाकर ऐसे मरीजों का सपोर्ट करें। उस समय उनसे चंदा नहीं मांगा गया। जब वालंटियर्स उनसे दुबारा मिले और चंदे की बात की तो 90 प्रतिशत से ज्यादा लोगों ने हां की। उन लोगों ने महसूस किया कि वे पहले से ही इस अच्छे काम और चैरिटी का सपोर्ट कर रहे थे और इसलिए इसे जारी रखना चाहते थे।

अगर आप बुराई की एक्टिंग करें तो सच में बुरे बन सकते हैं।
हमने देखा कि कैसे शारीरिक हावभाव हमारी भावनाओं को बदल सकते है। लेकिन क्या आपका व्यवहार आपके व्यक्तित्व को बदल सकता है? मनोवैज्ञानिक जेम्स लैयर्ड ये देखना चाहते थे कि अपमान से गुजरने के बाद क्या किसी का आत्म सम्मान कम हो जाता है। उनके साथ-साथ बाकी रिसर्चर्स की स्टडी ने इस बारे में "As If" सिद्धांत की ताकत सबके सामने रख दी। लैयर्ड ने अपनी टीम को दो ग्रुप में बांटा। उनको एक सिक्का उछालकर ये तय करना था कि वे या तो भारी वजन उठाएंगे या एक कीड़ा खाएंगे। इससे पहले कि कोई कीड़ा खाता लैयर्ड के असिस्टेंट ने उनसे कहा कि उन्हें इसे खाने की जरूरत नहीं है। फिर भी सिर्फ 20 प्रतिशत लोगों ने अपनी चम्मच नीचे रखी। बाकी पहले ही इसे अपनी किस्मत का लिखा मानकर हार मान चुके थे और उन्होंने कोई हरकत नहीं की। 

ऐसा क्यों हुआ? इस टास्क में भाग ले रहे लोग कीड़े खाने जैसे अपमान का सामना कर रहे थे। इसकी वजह से उनके आत्म सम्मान को चोट पहुंची। हालांकि आखिर में किसी को एक भी कीड़ा नहीं खाना पड़ा। लेकिन लोग खुद को इस बात के लिए तैयार कर चुके थे। लैयर्ड की स्टडी पर सवाल उठाते हुए दूसरे मनोवैज्ञानिकों ने इसी तरह के प्रयोग किए। कीड़ों की जगह कैटरपिलर ले लिए गए। लेकिन नतीजे वही रहे। आपका पहनावा भी आप पर असर डाल सकता है। काले या टाइट कपड़ों से आप दबंग और गुस्सैल बन सकते हैं जबकि हल्के रंग के, ढीले और आरामदायक कपड़े आपको नरम दिल और सहनशील बना सकते हैं। कॉर्नेल यूनिवर्सिटी के रिसर्चर मार्क फ्रैंक ने स्टडी करके देखा कि अलग-अलग रंगों की वर्दी पहनने पर एथलीटों के व्यवहार में क्या बदलाव आते हैं। फ्रैंक ने देखा जब खिलाड़ी काले रंग के कपड़े पहनते थे  तो ज्यादा एग्रेसिव होते थे भले ही खेल कोई भी हो। 

रोल प्ले करने से आप भी उसी भूमिका में ढलने लग जाते हैं। 1970 के दशक में मनोवैज्ञानिक फिलिप जोम्बार्डो के "स्टैनफोर्ड जेल एक्सपेरिमेंट" ने इसे और पक्की तरह साबित कर दिया। जोम्बार्डो ने एक जेल का सेटअप बनाकर कुछ को कैदी और कुछ को गार्ड की भूमिका दी। गार्ड तुरंत ही अपने रोल में ढल गए और कैदियों के साथ मारपीट और बुरा बर्ताव शुरू कर दिया। ये प्रयोग दो हफ्तों तक चलना था पर इसे छह दिनों में ही बंद करना पड़ा। शुरुआत में गार्ड बने हुए लोगों को बस जबानी तौर पर थोड़ी सख्ती दिखानी थी पर सिचुएशन के हिसाब से उनका बर्ताव एकदम से बदल गया और वे हिंसा पर उतर आए।

"As If" प्रिंसिपल की मदद से आप अपनी मेंटल हेल्थ बेहतर बना सकते हैं।
दुनिया में लाखों लोग फोबिया और डिप्रेशन जैसी बहुत सी दिमागी परेशानियों से जूझते हैं। क्या "As If" सिद्धांत उनकी भी मदद कर सकता है? बिल्कुल कर सकता है। ये उन भावनाओं को कम करने में मदद कर सकता है जो हम नहीं चाहते हैं। 1990 के दशक में रिसर्चर्स ने उन लोगों की स्टडी की जिन्होंने कॉस्मेटिक ट्रीटमेंट लेने के लिए बोटॉक्स इंजेक्शन लगवाए थे। इसे लोग झुर्रियां दूर करने के लिए लेते हैं और ये चेहरे की मसल्स को पैरालाइज कर देता है। इन लोगों को कुछ वीडियो दिखाए गए पर इनमें बाकियों की तुलना में इमोशनल रिएक्शन कम दिखा। 

ये घटना "As If" सिद्धांत पर खरी उतरती है। अगर आपका शरीर भावनाएं नहीं जता पाएगा तो आप उनको इतनी गहराई से महसूस भी नहीं कर पाएंगे। इसलिए अगर आपको दर्द महसूस हो पर आप ऐसे बिहेव करें जैसे दर्द है ही नहीं तो आपका दर्द सच में कम हो जाता है। 1970 के दशक में पीटर ब्राउन नाम के एक ब्रिटिश डॉक्टर ने देखा कि चीन में बच्चे टॉन्सिल के ऑपरेशन  से डरते नहीं हैं। उन्हें इस सर्जरी को पॉजिटिवली देखना सिखाया गया था और इसलिए ऑपरेशन से पहले वे शांत रहते थे और अक्सर मुस्कुराते थे। इस वजह से उन्हें दर्द भी कम महसूस हुआ। "As If" सिद्धांत दूसरी बहुत सी निगेटिव फीलिंग्स को भी कम करने में हमारी मदद कर सकता है। जैसे आप शांति का बर्ताव करके गुस्से को कम कर सकते हैं। 

एक स्टडी से पता चला है कि जो कपल्स एक-दूसरे के साथ जबानी लड़ाई करते हैं उनके हाथापाई करने की संभावना ज्यादा होती है। अगर हम उदास होने की एक्टिंग करें तो सच में उदास होने लगते हैं। एक रिसर्चर ने एन्जाइटी और पैनिक अटैक का शिकार लोगों को रिलैक्स होना सिखाकर ये देखा कि अब उनके शरीर किस तरह पॉजिटिव रिस्पांस दे रहे हैं। इसलिए जब आपको कोई चिंता हो तो सोचें कि इससे आपको क्या फायदा हो सकता है। एग्जाम से पहले की घबराहट  आपको अच्छी तरह पढ़ाई करने में मदद कर सकती है। किसी इंटरव्यू के दौरान एड्रीनलीन बढ़ना अच्छा हो सकता है। आप जैसा महसूस करना चाहते हैं वैसा ही एक्ट करें और वही सच बन जाएगा।

उम्र का सालों से कोई लेना देना नहीं है। अगर आप युवा लोगों की तरह रहेंगे तो खुद को युवा ही समझेंगे।
हेल्दी रहने के लिए हेल्दी इंसान की तरह एक्ट करिए। "As If" सिद्धांत की मदद से आप खुद को स्वस्थ रख सकते हैं। ये खानपान के साथ खास तौर पर लागू होती है। 1960 के दशक में एक रिसर्चर ने देखा कि हमारे पास भोजन करने की दो वजह होती हैं। या तो हमें अपने शरीर से भूख लगने का अंदरूनी इशारा मिलता है या कोई बाहरी इशारा जैसे कि केक, मिठाई जैसी कोई स्वादिष्ट चीज सामने आ जाना। पतले लोग अंदरूनी इशारों पर चलते हैं जबकि ज्यादा वजन वाले लोग बाहरी इशारों पर। इसका मतलब ये है कि अगर आप ऐसे बर्ताव करें जैसे कि आपको भूख लगी है या खाने पीने की बढ़िया चीजों को देखते हैं तो आप जरूरत न होने पर भी खा लेंगे। 

इसलिए अगर आप डाइटिंग करना चाहते हैं तो बाहरी इशारों से दूर रहें और खुद पर ध्यान दें कि आपके शरीर को कब क्या चाहिए। जब आपको भूख लगे तब खाएं और जब आपका पेट भर जाए तो रुक जाएं। इसके अलावा खाना खाते हुए टीवी न देखें, गाने न सुनें और न ही कुछ पढ़ें। सिर्फ भोजन पर ध्यान दें। अगर ये सब करना मुश्किल हो तो शीशे के सामने उस हाथ से खाने की कोशिश करें जो आप कम इस्तेमाल करते हैं। इतना ही नहीं युवा होने की तरह एक्ट करके आप बढ़ती उम्र के असर को भी धीमा कर सकते हैं। एलन लैंगर नाम के मनोवैज्ञानिक ने 70 और 80 के दशक में पुरुषों के ग्रुप के साथ ये स्टडी की। 

एक ग्रुप से कहा गया कि वो 1959 में बिताए गए दिन याद करें। उन्होंने उस समय के रेडियो प्रोग्राम सुने और अपनी यादों के बारे में बात करते हुए प्रेजेंट टेंस का इस्तेमाल किया। दूसरे ग्रुप से कहा गया कि वो अपने वर्तमान जीवन के बारे में बातचीत करें। एक हफ्ते बाद पहले ग्रुप की स्किल्स, स्पीड, मेमोरी, नजर, सुनने की ताकत और बीपी में सुधार दिखा। एक इंटेलिजेंस टेस्ट में पहले ग्रुप के लगभग 60 प्रतिशत लोगों ने बेहतर प्रदर्शन किया जबकि दूसरे ग्रुप के सिर्फ 40 प्रतिशत लोगों की परफार्मेंस बेहतर थी। यंग होने की एक्टिंग करते हुए उनके शरीर और दिमाग से सालों की उम्र कम हो गई थी।

कुल मिलाकर
हमारी भावनाएं हमारे बर्ताव को नहीं बदलतीं बल्कि हमारे बर्ताव पर हमारी भावनाएं निर्भर करती हैं। अगर आप मुस्कुराते हैं तो आपको खुशी मिलती है। अगर आप युवा होने जैसा बर्ताव करें तो सच में यंग और एनर्जेटिक फील करने लगते हैं। अगर आप अपने जीवन में "As If" नाम के सिद्धांत को उतार लें तो मन से ही नहीं शरीर से भी खुद को बदल सकते हैं। 

 

क्या करें

अगर आपका दिल कुछ खाने को ललचे तो क्या करना है? बस प्लेट को खुद से दूर सरका दें।

अगर आप अपने हाथों से प्लेट को दूर कर देते हैं तो आपके शरीर और दिमाग को ये सिग्नल जाता है कि आपको वो खाना पसंद नहीं है। इसके रिस्पांस में आपको भूख कम लगती है। यानि अगर आपको कोई चीज नहीं खानी है तो बस ऐसे जताइए कि आपको उसकी जरूरत नहीं है बाकी काम खुद ब खुद हो जाएगा। 

 

येबुक एप पर आप सुन रहे थे The As If Principle By Richard Wiseman. 

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