Happy Ever After

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Happy Ever After

Paul Dolan
परफेक्ट ज़िंदगी के मिथ से बाहर निकलने का वक़्त आ चुका है।

दो लफ़्ज़ों में 
Happy Ever After (2018) हमें उन ताकतवर सोशल नरेटिव्स पर सवाल  उठाने को कहती है, जिनका हमारी ज़िंदगी पर गहरा असर है। ये हमें दिखाती है कि कई विचार जो हम बिना सोचे समझें अपना लेते हैं, चाहे वो ये हो कि हमें कड़ी मेहनत से काम करके खूब पैसा कमाना चाहिए, या ये कि हमें शादी और बच्चे चाहिए, ज़रूरी नहीं कि ऐसे विचार हमें खुश कर सकें। साथ ही ये किताब एक बहुत ही ताकतवर तर्क देती है कि हमें एक भरी-पूरी ज़िंदगी हासिल करने का रास्ता खुद ही ढूंढना चाहिए।

  किसके लिए है? 
- उन लोगों के लिए जो ज़िंदगी में अपनी बनाई राह पर चलना चाहते हैं 
- कोई भी जो सोशल नॉर्म्स और ग्रुप-थिंकिंग में दिलचस्पी रखता हो 
- उन लोगों के लिए जिनकी बिहेवरियल साइंस में दिलचस्पी हो 


लेखक के बारे में 
पॉल डोलन लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में बिहेवरियल साइंस के प्रोफेसर हैं। ह्यूमन बिहेवियर पर पूरी दुनिया में जाने-माने एक्सपर्ट, वे हैप्पीनेस बाय डिज़ाइन जैसी सबसे ज़्यादा बिकने वाली किताब के लेखक भी हैं।

अमीर होते जाना ख़ुशी हासिल करने का बेहतर रास्ता हो, ऐसा ज़रूरी नहीं, खासकर जब आप खुद की तुलना दूसरों से करते हों।
हम सभी पर सोशल नैरेटिव्ज़ का गहरा असर होता है - समाज के बड़े हिस्से में मान लिए गए एक्सपेक्टेशन कि हमें हमारी ज़िंदगी किस तरह जीनी चाहिए। हमसे ये उम्मीद की जाती है कि हम कामयाब, दौलतमंद और पढ़े-लिखे होना चाहें। शादी करना और बच्चे होना ज़िंदगी का बुनियादी और ज़रूरी अचीवमेंट समझा जाता है। बच्चे पैदा न करना चुनना या अडल्ट्री करने को अजीब या शर्मनाक चुनाव के तौर पर देखा जाता है। सोशल नैरेटिव्ज़ मददगार हो सकते हैं, वे इस कन्फ्यूजिंग दुनिया में आगे बढ़ने में मदद कर सकते हैं। लेकिन साथ ही साथ, ये हमें अपनी मर्ज़ी की ज़िंदगी जीने देने की जगह, ज़िंदगी में तय उम्मीदों को पूरा करने के लिए उकसाकर, हमें खुशियों से दूर ले जा सकते हैं। कई लोग होंगे जिन्होंने सामाजिक उम्मीदों वाले सारे बॉक्सेस पर टिक किया होगा - सफल दफ्तरों में बड़ी पोजीशन हासिल करना, कड़ी मेहनत करना, शादी करना और बच्चे पैदा करना - और फिर भी वो बेपनाह दुखी होंगे।  

इसलिए शायद वक़्त आ चुका है कि हम उन सोशल नैरेटिव्ज़ के बारे में थोड़ा गहराई से सोचें, जो हमारी ज़िंदगी के फैसलों पर असर डालती हैं।  इस समरी में, आप सीखेंगे कि कितनी बार जो हम सोचते हैं कि हमें करना चाहिए, वो असल में दुखों का नुस्खा है। आप समझेंगे कि सामाजिक उम्मीदों की जगह जब हम अपने अपने अनुभवों और इंटुइशन को फॉलो करते हैं, तो ज़िंदगी कितनी खुशहाल हो सकती है।  इसके अलावा आप जानेंगे कि क्यों शादीशुदा लोग, तलाकशुदा लोगों से ज़्यादा खुश नहीं हैं?क्यों सेक्रेटरीज की ज़िंदगी में उनके CEO बॉस की तुलना में ज़्यादा सुकून होता है; और क्यों आपके पास उससे कम फ्री विल है, जितना आप सोचते हैं आपके पास है।  

तो चलिए शुरू करते हैं!

जैसा कि मशहूर कहावत है कि निन्यानवे के फेर में नहीं पड़ना चाहिए। ज़ाहिर है, आज की सोसाइटी में पैसा कमाना गहराई से बसा हुआ है। प्यू रिसर्च सेंटर के 2008 के एक सर्वे में पाया गया कि "अमीर होना" आधे से ज़्यादा लोगों के लिए बेहद ज़रूरी था। इसके अलावा, 2014 के अमेरिकन हार्टलैंड मॉनिटर सर्वे में पाया गया कि आधे लोग इस विचार से सहमत थे कि अमीर होना न सिर्फ ज़रूरी है, बल्कि एक अच्छी ज़िंदगी जीने के लिए असल में एक प्रीकंडीशन है। और यूनाइटेड किंगडम में, द संडे टाइम्स एक एनुअल रिच लिस्ट पब्लिश करता है, ये उन लोगों को सेलिब्रेट करने के लिए किया जाता है जिनकी कमाई बहुत ज़्यादा होती है। लेकिन असल में, ये ज़रूरी नहीं कि ज़्यादा से ज़्यादा पैसा कमा लेना, खुशहाल ज़िंदगी की गारंटी होगा। इस पॉइंट पर हमारे पास काफी अच्छा डाटा मौजूद है, और इसके लिए हमें अमेरिकन टाइम ऑफ़ यूज़ सर्वे का शुक्रिया अदा करना चाहिए। इस सर्वे में लगभग 20 हज़ार लोगों से उनकी रोज़मर्रा की गतिविधियों से जुड़ी ख़ुशी, सेंस ऑफ़ मीनिंग, तनाव और थकान के बारे में पूछा गया। ये सर्वे दिखाता है कि इनकम बढ़ने के साथ साथ एक हद तक ख़ुशी भी बढ़ती है, लेकिन फिर जैसे इंसान और अमीर होता जाता है, ये ग्राफ नीचे गिरने लगता है। इस सर्वे के मुताबिक 50,000 से 75,000 डॉलर के बीच कमाने वाले अमेरिकियों में खुशी चरम पर है। 100,000 डॉलर कमाने वाले लोग 25,000 डॉलर कमाने वालों की तुलना में ज़्यादा खुश नहीं हैं, और दोनों ही उन  लोगों से कम खुश हैं जिनकी कमाई 50,000 से 75,000 डॉलर के बीच है।

तो शायद, और भी ज़्यादा कमाने की कोशिश करने की जगह, हमें 50,000-75,000 डॉलर के "जस्ट इनफ" बैंड को एम करना चाहिए। ये ज़्यादातर लोगों के लिए, कमाई में बढ़ोतरी को रिप्रेजेंट करेगा। लेकिन ये, ये भी दर्शाएगा कि बहुत ज़्यादा दौलत भी आपको खुश नहीं कर सकती। यही अहम् मुद्दा है, ये देखते हुए कि दौलत और ख़ुशी के रिश्ते पर कम्पैरिजन का गहरा असर है। स्टेटस और कंसम्पशन के एक्सपर्ट बॉब फ्रैंक द्वारा 2007 में की गई एक स्टडी से पता चलता है कि ज़्यादातर लोग एक 4000 -स्क्वायरफुट के घर, जो 6000-स्क्वायरफुट के घरों से घिरा हुआ है, में रहने के मुकाबले 2000-स्क्वायरफुट के घरों से घिरे एक 3000- स्क्वायरफुट के घर में रहने से ज़्यादा खुश होंगे। हम में से ज़्यादातर लोग इससे खुद को जोड़कर देख सकते हैं।  हो सकता है आप दफ्तर में मिले अपने 500 डॉलर के बोनस से खुश हों, लेकिन जैसे ही आपको पता चलता है कि आपके कलीग को 1000 डॉलर का बोनस मिला है, आपकी ख़ुशी अचानक से गुस्से में बदल जाती है।  

अमीर होना, ख़ुशी हासिल करने का रास्ता नहीं है, खासकर तब अगर आप अपने जितने रईस या खुद से भी ज़्यादा दौलतमंद लोगों से घिरे हुए हों। और जैसा कि अब हम देख सकते हैं, कामयाबी पर भी यही बात लागू होती है।  

अक्सर बहुत सफल भूमिका वाले लोग भी देखा जाए तो खुश नहीं होते और बेहतर होगा कि कम से ही तसल्ली कर ली जाए। क्या कामयाबी आपके लिए ज़रूरी है? हमारे करियर की शुरुआत में, इस सवाल का जवाब आमतौर पर "हां" ही होता है। अमेरिका में सभी 18- से 34 वर्ष के लगभग दो-तिहाई लोगों का कहना है कि ज़िंदगी में कामयाब होना और हाइली-पेड होना या तो "बेहद ज़रूरी" है या "बहुत सारी ज़रूरी चीज़ों में से एक" है। 

हम में से कुछ लोग औसत होने या ऐसी ज़िंदगी का सपना देखते हैं जिसमें बस ज़रूरत पूरी हो जाए।  लेकिन ज़्यादातर लोग अपने असली अनुभवों और काम पर रोज़मर्रा के रूटीन से कामयाबी और उसके साथ आने वाले स्टेटस और पहचान को बहुत ज़्यादा वैल्यू देते हैं।  

हम में से कई लोग ऐसे लोगों को जानते होंगे, जो अपने काम में नाखुश होंगे, लेकिन फिर भी  खुद को ये समझा लिया होगा कि फिर भी उनकी जॉब बहुत अच्छी है, क्योंकि वो काफी प्रेस्टीजियस है।  लेखक की इस बारे में एक दोस्त से चर्चा हुई, जो एक हाई-एंड मीडिया कंपनी में काम करती है। उसने शुरू में थोड़ा वक़्त ये डिसकस करने में गुज़ारा कि वो कितनी बेचारी है, उसने अपने सुपीरियर्स, कलीग और आने-जाने में होने वाली दिक्कतों की शिकायतें की। लेकिन इतना रोना-गाना करने के बाद आखिर में उसने कहा, "लेकिन ये बात तो है कि इतनी नामी कंपनी में जॉब होना बहुत बड़ी बात है।" 

इस बात के ज़ाहिर तौर पर बहुत सारे सबूत हैं जो बताते हैं कि समाज जिन रोल्स को बहुत कामयाब मानता है, ज़रूरी नहीं कि वो ख़ुशी देने वाले भी हों। सोशल नॉर्म्स शायद कहेंगे कि एक फ्लोरिस्ट होने से कहीं ज़्यादा बेहतर है एक वकील होना।  लेकिन साल 2012 में सिटी एंड गिल्ड्स सर्वे में पता चला था कि 87 परसेंट फ़्लोरिस्ट्स ने कहा था कि वो अपने काम से खुश हैं, जबकि इसके मुकाबले सिर्फ 64 परसेंट वकीलों ने खुश होने की बात कही थी। इसी तरह साल 2014 की थिंक-टैंक द लेगाटम इंस्टीट्यूट की एक स्टडी में देखा गया था कि किन ऑक्यूपेशन में ज़्यादा पैसे मिलते हैं और किनमें लाइफ सैटिस्फैक्शन ज़्यादा है। उससे पता चला कि चीफ एग्जीक्यूटिव, हालांकि बहुत ही अच्छी पगार पाते हैं, लेकिन वे अपनी सेक्रेटरीज से ज़्यादा खुश नहीं हैं।  

काम की जगह पर अपनी ख़ुशी बढ़ाने के लिए हम क्या कर सकते हैं? खैर, एक अच्छा कदम ये हो सकता है कि ज़रूरत से ज़्यादा मेहनत करना बंद कर दें। द अमेरिकन टाइम ऑफ़ यूज़ स्टडी के मुताबिक ख़ुशी और परपज़ का सेंस लोगों में तभी अपने चरम पर होता है, जब वे हफ्ते में 21 से 30 घंटे के बीच काम करते हैं। अगर आप इससे ज़्यादा या कम घंटे काम करते हैं, तो बेचैनी और नाखुशी बढ़ती है। 

यही बात पैसों पर भी लागू होती है, ऐसा लगता है कि जब बात कामयाबी की हो, तो "जस्ट इनफ" वाला अप्रोच ही बेस्ट है, अगर आप खुशहाल ज़िंदगी जीना चाहते हैं तो। हमें ये समझना होगा कि सीढ़ी चढ़ने का मतलब ज़्यादा पैसा, स्टेटस और रेस्पेक्ट हो सकता है, लेकिन ये शायद आपको खुशहाल इंसान ना बना सके।

हम मानते हैं कि शादी ज़िंदगी में बुनियादी अचीवमेंट है, लेकिन इसके बहुत कम सबूत हैं कि इससे हमें ख़ुशी मिलती है।
क्या आप किसी रिश्ते में हैं? अगर हां, तो आप शायद भविष्य को लेकर थोड़ा रियलिस्टिक होना चाहें। स्टैंडफोर्ड यूनिवर्सिटी की एक स्टडी के मुताबिक, किसी भी रिश्ते के अंत में टूटने की संभावना ज़्यादा होती है बजाय ज़िंदगी भर ख़ुशी-ख़ुशी साथ रहने के। हम में से ज़्यादातर मानते हैं कि किसी ऐसे इंसान से मिलना जिससे हम प्यार करते हों और उससे शादी करना एक खुशहाल ज़िंदगी के बुनियादी हिस्से हैं। लेखक के साल 2013 से लगभग 7000 जर्मंस पर किये गए सर्वे के एनालिसिस में पता चलता है कि 90 परसेंट से ज़्यादा लोगों ने कहा कि वे लंबी चलने वाली शादी को अपनी ज़िंदगी में बहुत ज़रूरी मानते हैं। और शादीशुदा होने के अपने फायदे हैं। शादीशुदा लोग, सिंगल्स के मुकाबले ज़्यादा सेहतमंद और आर्थिक रूप से बेहतर होते हैं, और सोशियोलॉजिस्ट्स का कहना है कि पार्टनर होना ये दर्शाता है कि आपके पास सपोर्ट और एंकरेजमेंट का एक जरिया है और ज़िंदगी में घटने वाली दुर्घटनाओं के खिलाफ एक बफर मौजूद है। लेकिन क्या शादी हमें वाकई ख़ुशी देती है? शुरुआती खूबसूरत वक़्त के गुज़र जाने के बाद, जवाब अक्सर नहीं होता है।लगभग 20 सालों तक लोगों के एक बड़े ग्रुप को फॉलो करने वाले एक जर्मन सोशियोइकॉनॉमिक पैनल के डेटा ने पाया कि शादी के तुरंत पहले और बाद के साल खासतौर से खुशहाल होते हैं। लेकिन वही आंकड़े बताते हैं कि जितने लोग शादी के बाद ज़्यादा संतुष्ट होते हैं, लगभग उतने ही लोग अंत में कम संतुष्ट पाए जाते हैं। अमेरिकन टाइम ऑफ़ यूज़ स्टडी एक दिलचस्प बारीकी के साथ इसका समर्थन करती है। यह पाया गया है कि शादी शुदा लोग खुद को अपने सिंगल दोस्तों के मुकाबले ज़्यादा खुश तब रिपोर्ट करते हैं, जब ये सवाल पूछते वक़्त उनके पति या पत्नी कमरे में मौजूद हों। जिनके जीवनसाथी कमरे में मौजूद नहीं होते, वे बिना उन्हें आहत किये सच बोल पाते हैं, ऐसे लोगों की रिपोर्ट के मुताबिक उनकी ख़ुशी का लेवल डाइवोर्स ले चुके लोगों की ख़ुशी के लेवल से ज़्यादा नहीं होता।  

अगर हम ये मान लें कि शादी हमेशा ख़ुशी हासिल करने का सही रास्ता नहीं होती, तो हम इस सोच को भी छोड़ पाएंगे कि अकेले रहना शादी करने से ज़्यादा बुरा है। सिंगल्स खुश नहीं रहते ये आईडिया कहीं गहरे हमारी जड़ों में बो दिया गया है। एक इज़राइली स्टडी में लोगों से शादीशुदा और सिंगल लोगों की बायोग्राफीज़ को तुलनात्मक तरीके से देखने को कहा गया और फिर उन्हें संतुष्टि जैसी क्वालिटीज़ के ऊपर रेट करने  कहा गया। इस स्टडी में पाया गया कि लोगों ने लगातार सिंगल्स को कम रेट किया है, ये मानते हुए कि वे नाखुश हैं।  

यह भेदभाव यूनाइटेड किंगडम के मैरिज टैक्स अलाउंस जैसे कानूनों में साफ दिखता है, जो विवाहित जोड़ों को टैक्स रिडक्शन देता है। लेकिन शादी को एक्टिवली एनकरेज करना गलत लगता है, जब सबूत भी यही कहते हैं कि शादी, अकेले रहने के मुकाबले ज्यादा खुशी नहीं लाती है। इसलिए रिश्तों को लेकर अपनी सोच में हमें कम प्रिस्क्रिप्टिव होना चाहिए। और, अब आप देखेंगे कि यही बात इस पर भी लागू होती है कि हम बेवफाई के बारे में कैसे सोचते हैं।  

बेवफाई का कड़ा विरोध हमें खुशहाल ज़िंदगी जीने में मदद नहीं करता है।  

बेवफाई को इतना बुरा पाप माना गया है कि टेन कमांडेंट्स में इसका दो बार ज़िक्र किया गया है। न सिर्फ व्यभिचार यानि अडल्ट्री करना, बल्कि अपने पडोसी की पत्नी पर भी बुरी निगाह न डालना।

बेवफाई को सदियों से अनैतिक माना जाता रहा है। यूनाइटेड किंगडम में, नेशनल स्टेटिस्टिक्स दर्शाते हैं कि 70 परसेंट महिलाएं और 63 परसेंट पुरुष मानते हैं कि चीटिंग करना "हमेशा गलत" होता है।  यूनाइटेड स्टेट्स में प्यू रिसर्च सेंटर के रिसर्च से पता चलता है कि 84 परसेंट लोग अफेयर को मोरल ग्राउंड्स पर सही नहीं मानते हैं। हमने सिर्फ उस सोशल नरेटिव को एक्सेप्ट कर लिया है जिसके मुताबिक बेवफाई अपने आप में गलत है, बजाय इसके कि इस सवाल पर ज़्यादा गहराई से सोचा जाए।

ऐसा इस साधारण सी सच्चाई के बावजूद है, कि बेवफाई ज़िंदगी का एक हिस्सा है। ये शायद इतना सरप्राइज़िंग नहीं है, इस इम्प्रोबैबिलिटी को देखते हुए कि हम अपने पार्टनर के प्रति ज़िंदगी भर सेक्शुअल अट्रैक्शन मेन्टेन कर  सकते हैं।  डेटा साइंटिस्ट सेठ स्टीफेंस-डेविडोवित्ज़ ने दिखाया है कि "सेक्सलेस मैरिज" के गूगल सर्च "लवलेस मैरिज" के सर्च से आठ गुना ज़्यादा है, इससे ये समझ में आता है कि कई लोग लविंग मगर सेक्स-फ्री शादीशुदा रिश्ते में हैं। तो बेवफाई बमुश्किल कोई सरप्राइज़ है, खासकर तब जब आप ये माने कि प्राकृतिक रूप से पूरी तरह नॉर्मल है। सिर्फ एक स्पीशीज़ ऐसी है जिसमें सेक्शुअल मोनोगैमी देखी जाती है, क्योंकि ये उनमें डिफ़ॉल्ट सेटिंग है: ये हैं उल्लू और बन्दर, जो साल में एक बार संभोग करते हैं, जब प्रजातियों की मादा फर्टाइल होती है।  

और ये साफ़ है कि बेवफाई चारों ओर फैली हुई है। हालिया UK रिसर्च में पता चला है कि हर तीन में से एक आदमी और तीन में से एक औरत अपनी शादीशुदा ज़िंदगी के दौरान चीट करते हैं, और साल 2010 में ब्लूमबर्ग में छपे आर्टिकल के मुताबिक यूनाइटेड स्टेट्स में ये फिगर आदमियों के लिए 25 परसेंट और औरतों के लिए 15 परसेंट है।  

तो शायद हमें ये स्वीकार करना शुरू कर देना चाहिए कि इंसान में, और जानवरों की तरह, में संभोग को लेकर ऐसी ख्वाहिशें होती हैं, जो हमेशा लाइफ कम्पैनियन द्वारा पूरी नहीं की जा सकतीं।  यूनिवर्सिटी ऑफ़ मिशिगन के रिसर्चर्स ने एक स्टडी की जिसमें ये पता चला कि इस तरह के रिश्तों में रहने वाले इंसान में उनके मोनोगैमस दोस्तों के मुकाबले भरोसे, इंटिमेसी, दोस्ती और संतुष्टि का लेवल बहुत ऊंचा होता है, और जलन का लेवल बहुत कम होता है।  

तो वक़्त आ चुका है कि ये स्वीकार कर लिया जाए कि ज़िंदगी में हमारे रिश्तों के लिए ऐसे चॉइस हैं जो इंसानी अनुभवों की सच्चाई को रिफ्लेक्ट करते हैं, ना कि सिर्फ मोनोगैमी के प्रचलित सोशल नॉर्म को। डोलन का तर्क है, अगर हम ऐसा कर सकते हैं, तो बहुत से लोग खुश रहेंगे। 

अब, चलिए एक और रिलेशनशिप डिसिशन पर नज़र डालते हैं, जिसकी बड़े तौर पर उम्मीद की जाती है - बच्चे पैदा करना।

हमारा समाज पेरेंटहुड को बढ़ावा देता है, बावजूद इसके कि ये अक्सर काफी तनाव, चिंता और नाखुशी लेकर आता है।
आपको एक ऐसा साथी मिल गया है जो - आपको लगता है - आपको खुश रखता है। आपने मैरिज वाले बॉक्स पर टिक कर दिया है। और आप रिश्ते में  वफादार भी रहे हैं। अभी के लिए। अब अगर आप सोशल नैरेटिव्ज़ को फॉलो करने वाले हैं, तो अगला कदम साफ़ है: बच्चे पैदा करना।

हमने देखा है कि जो लोग इस सोशल नरेटिव के खिलाफ जाकर निसंतान रहना चुनते हैं वे एक तरह से सेल्फ-इंटरेस्टेड लोग होते हैं, जो बच्चों को पालने के सेल्फलेस एक्ट के ऊपर शानदार छुट्टियों और लेज़ी वीकेंड्स चुनते हैं। जिन समाजों में बर्थ रेट कम होता है, उन्हें पोप फ्रांसिस "डिप्रेस्ड" बुलाते हैं। और ज़रा देखिये जेनिफर एनिस्टन के साथ कैसा सलूक किया जाता है, अपनी सारी अचीवमेंट्स के बावजूद उन्हें बच्चा न होने की वजह से दया की नज़र से देखा जाता है। और महिलाओं को ज़्यादा  भुगतना पड़ता है - हर देश में जहां डेटा उपलब्ध है, महिलाओं को बच्चे न पैदा करने का फैसला करने के लिए पुरुषों की तुलना में ज़्यादा बदनाम किया जाता है।लेकिन समाज की इस उम्मीद के बावजूद की हमें बच्चे पैदा करने ही चाहिए, ऐसा न करने की बहुत सारी अच्छी वजहें मौजूद हैं।  

सबसे पहली बात, परवरिश करना बहुत खर्चीला काम है। एक बच्चे को उसके 20वें बर्थडे तक बड़ा करने के लिए यूनाइटेड किंगडम में एवरेज कॉस्ट ढाई लाख यूरो (£250,000) आती है। इसके अलावा, बच्चों की वजह से पर्यावरण पर बहुत ज़्यादा नेगेटिव इम्पैक्ट पड़ता है। ओरेगन स्टेट यूनिवर्सिटी की एक स्टडी ने बहुत सारी एनवायर्नमेंटल एक्टिविटीज की तुलना में एक कम बच्चा होने के इम्पैक्ट को देखा, जैसे कि डबल ग्लेज़िंग फिट करना, कार का माइलेज आधा करना, कचरे की रीसाइक्लिंग और लो-एनर्जी लाइट बल्ब का इस्तेमाल करना। सभी छह एक्टिविटीज को अपनाने से आपके कार्बन फुटप्रिंट में 486 टन की कमी आ सकती है। लेकिन अगर आप एक बच्चा कम पैदा करते हैं तो इससे 9,441 टन कार्बन में कटौती हो सकती है, यानी 20 गुना ज्यादा।

और कड़वी सच्चाई ये है कि बच्चा होने से आपकी ज़िंदगी पर भी कई नेगेटिव इफेक्ट्स देखने को मिल सकते हैं, इसमें बोरियत से लेकर सीरियस मेन्टल हेल्थ इश्यूज शामिल हैं।  जाने-माने साइकोलोजिस्ट डैनियल कन्नमैन के नेतृत्व में एक डायरी स्टडी में 1000 अमेरिकन फीमेल्स ने डेली एक्टिविटीज को इस बेसिस पर रैंक किया कि वे कितनी मज़ेदार हैं।  ऐसे 16 पॉसिबल टास्क की लिस्ट में, बच्चों की देखभाल करना 12वे नंबर पर था। ये लिस्ट में घर के काम करने से ठीक ऊपर और खाना खाने के काफी नीचे था। यूके मेन्टल हेल्थ चैरिटी माइंड का कहना है कि सभी नई माओं में से 20 परसेंट को बच्चे के जन्म के फ़ौरन बाद सीरियस मेंटल हेल्थ प्रॉब्लम्स होती हैं, जबकि 85,000 माताओं पर की गई नॉर्वेजियन स्टडी में पाया गया कि बच्चा होने से सेल्फ-एस्टीम में गिरावट आती है, जो तीन साल तक चलती है।

बेशक, बच्चों के साथ भी एक खुशहाल और भरी-पूरी ज़िंदगी जीना बिलकुल मुमकिन है। लेकिन इसके इतने नुकसान ज़रूर हैं कि हम ऐसा करने से पहले अच्छी तरह सोच लें, कि हमें "तुम्हे बच्चा कर लेना चाहिए" के सोशल नरेटिव को अवॉइड करना चाहिए या नहीं।  बच्चों के बिना, अपनी पूरी आज़ादी वाली ज़िंदगी भी एक ऐसी चीज़ है जिसे सेलिब्रेट करना चाहिए।

हेल्दी लाइफस्टाइल को वैल्यू करने के लिए हम कुछ भी कर सकते हैं।
हेल्थ-ब्लॉगर्स, पौष्टिक खाने की तस्वीरों से भरे हुए इंस्टाग्राम अकाउंट्स और फैड डाइट्स  की दुनिया में हमें लगातार याद दिलाया जाता है कि हमें हेल्दी लाइफ जीनी चाहिए। लेकिन, पैसे और कामयाबी की तरह, हेल्थ के लिए कुछ भी कर जाना, ख़ुशी का रास्ता नहीं बन सकता। 

आज, हम अक्सर उन लोगों को जज करते हैं, जो हमारे आइडियल्स से मैच नहीं करते। मोटापे को ही लीजिये। समाज आमतौर पर मोटे लोगों को पसंद नहीं करता। उन्हें खाने को लेकर ख़राब फैसले लेने के लिए जज किया जाता है, नतीजतन ज़्यादा वज़न वाले लोगों के खिलाफ ठोस भेदभाव देखा जाता है। उदहारण के लिए, एक स्वीडिश स्टडी में, रिसर्चर्स ने नौकरी देने वालों को डुप्लीकेट CV भेजे, जिसमें उन्होंने सिर्फ तस्वीरें बदल दिन, ताकि एक वर्ज़न में कैंडिडेट मोटा दिखाई दे। मोटे कैंडिडेट्स को आमतौर पर मिलने वाले इंटरव्यू के चांस से 8 परसेंट कम चांस मिला।  

लेकिन क्या मोटे होने से आपको दुख होता है?  खैर, बॉडी मास इंडेक्स - मोटापा नापने का एक माप - और खुशी के बीच के रिश्ते की जांच करने वाली स्टडीज में पाया गया है कि ज़्यादा वजन होने से खुशी का लेवल तब तक कम नहीं होता, जब तक आपका मोटापा बीमारी में तब्दील नहीं हो जाता - यानी आपका मोटापा 100 किलो या आपके ऑप्टिमम वेट से भी ज़्यादा हो जाए। जो लोग थोड़े से मोटे होते हैं वे कभी-कभी सामान्य वजन वालों की तुलना में लोअर लाइफ सैटिस्फेक्शन की रिपोर्ट करते हैं, लेकिन ज़रूरी बात यह है कि वे ऐसा ज्यादातर तब करते हैं जब उनके आसपास "सामान्य" वजन के लोग ज़्यादा हों। ये सोशल नॉर्म है जिससे उनकी ख़ुशी पर असर पड़ता है, ना कि उनके वज़न से।  

अगर आपको ये समझने के लिए एक क्लियर इंडिकेशन चाहिए कि कैसे फिजिकल हेल्थ को प्रायोरिटी बनाना ख़ुशी हासिल करने का ख़राब रास्ता है, तो सोचें कि कैसे मेंटल हेल्थ ट्रीटमेंट को नेग्लेक्ट किया जाता है। ज़्यादातर डेवलप्ड देशों में, अगर आपको फिजिकल हेल्थ प्रॉब्लम है तो आप ट्रीटमेंट एक्सपेक्ट कर सकते हैं। लेकिन बात मेंटल हेल्थ की हो, तो ऐसा नहीं होता।  उदहारण के लिए यूनाइटेड किंगडम में एनोरेक्सिया नर्वोसा वाले लोग - ऐसी मानसिक बीमारी जिसकी मृत्यु दर बाकी मानसिक बीमारियों के मुकाबले सबसे ज़्यादा है - अक्सर ये कहकर अपना ट्रीटमेंट कराने से मना कर देते हैं कि उनका वज़न अभी इतना कम नहीं हुआ कि इलाज की ज़रूरत हो। उनका मेंटल हेल्थ ट्रीटमेंट करवाने के सारे सबूत के रहा होता है, लेकिन फिर भी उसे इग्नोर कर दिया जाता है क्योंकि फिजिकल ट्रीटमेंट के लिए अभी सही इंडीकेटर्स नज़र नहीं आये हैं।  

शायद तब हमें हेल्थ को लेकर अलग तरीके से सोचना चाहिए। हमें बहुत क्रिटिकली ये सोचना चाहिए कि हम फिजिकल और मेंटल हेल्थ कंडीशंस को किस तरह ट्रीट करते हैं। और हमें ये मान लेना चाहिए कि कभी-कभी, कुछ लोगों के लिए, अनहेल्दी चॉइस ख़ुशी ला सकते हैं।  उदहारण के लिए लेखक सेहत के मुकाबले ख़ुशी को प्रायोरिटी देते हैं, जब भी वो बाहर जाकर पार्टी करते हैं, जबकि जिन लोगों को हम मोटे होने की वजह से जज करते हैं, वो शायद पिज़्ज़ा से मिलने वाली ख़ुशी हासिल कर सकते हैं, जो सेहत को होने वाले किसी नुकसान से बढ़कर है। लेखक को हैरानी है कि अगर ऐसे चुनाव लोगों को खुशियां दे सकते हैं, तो फिर उन्हें इतनी बेदर्दी से क्यों जज किया जाना चाहिए?

फ्री विल को लेकर हमारा बिलीफ गलत है और ये दुनिया को देखने के हमारे नज़रिये को बिगाड़ता है।

ज़िंदगी में हमारे ज़्यादातर नज़रिये, फ्री विल में बिलीफ पर बेस्ड हैं। लेकिन जितना ज़्यादा हम ह्यूमन बिहेवियर की सच्चाइयों और साइंस के बारे में जानते हैं, उतना ही देख पाते हैं कि हमारी ज़िंदगी को निर्धारित करने की हमारी एबिलिटी - हमारे फ्री विल का कुछ ज़्यादा ही महिमामंडन किया गया है।  

आप कौन हैं और अपनी ज़िंदगी किस तरह जीते हैं, इसपर आपकी परवरिश का बहुत गहरा असर होता है। आपके मां-बाप की समृद्धि का बहुत बड़ा असर होता है। उदहारण के लिए, यूनाइटेड स्टेट्स में फैमिली इनकम स्केल में हर एक परसेंट की बढ़त जो आपके पेरेंट्स हासिल करते हैं, से आपके कॉलेज जाने की सम्भावना 0.7 परसेंट बढ़ जाती है। तो सोचिये एक मुश्किल बचपन होना आपके लिए कितना डैमेजिंग हो सकता है। यूनाइटेड स्टेट्स में 10 में से 9 से ज़्यादा किशोर अपराधियों ने बचपन में ट्रॉमा देखा हुआ होता है। ऐसा नहीं है कि हर वो बच्चा जिसने बचपन में ट्रॉमा झेला हो, अपराधी हो जाता है, लेकिन दोनों के बीच कोई कनेक्शन नहीं है, ऐसा कहना मुश्किल है।  

इसलिए, परवरिश बहुत मायने रखती है लेकिन साथ ही दूसरे फैक्टर्स भी जिनपर हमारा कंट्रोल नहीं है, जैसे किस्मत। किस्मत का हमारी ज़िंदगी में हर तरह प्रभाव होता है।  उदहारण के लिए, स्टडीज बताती हैं कि यूनाइटेड स्टेट्स और यूनाइटेड किंगडम, दोनों जगह जो बच्चे स्कूल ईयर के आखिर में पैदा होते हैं, उन्हें बहुत नुकसान होता है।  उनके दिमाग अपने उन साथियों के मुकाबले कम विकसित होते हैं, जो उसी स्कूल ईयर की शुरुआत में पैदा हुए हैं। इससे उन्हें सीखने में दिक्कत होती है। नतीजतन, वे परीक्षा में अच्छा परफॉर्म नहीं कर पाते, जिसकी वजह से बाद में चलकर उन्हें काफी भुगतना पड़ता है।  

हम जिस कॉन्टेक्स्ट में फैसले लेते हैं, वो भी मायने रखती है। जेर्सी शॉपिंग मॉल में एक एक्सपेरिमेंट हुआ, जिसमें खरीददारों को आईक्यू और कॉग्निटिव फंक्शन के कुछ टेस्ट करने के लिए कहा गया। भाग लेने वालों को पहले से ही कह दिया गया था कि वे सोचें कि उनकी कार को रिपेयर की ज़रूरत है जिसपर 1500 डॉलर खर्च होंगे। इन टेस्ट रिजल्ट के एनालिसिस से पता चला कि जो अमीर थे, उनके दिमाग में 1500 डॉलर के खर्च की बात होने पर भी उनके कॉग्निटिव फंक्शन पर कोई असर नहीं हुआ। जबकि जो गरीब थे, उनके लिए ये एक एक्स्ट्रा खर्चा था, जिसके तनाव ने उनके स्कोर को कम कर दिया। जिन लोगों पर लगातार इस सोच का बोझ होता है कि उनके खर्चे कैसे पूरे होंगे, वो उनके मुकाबले अच्छे से नहीं सोच पाते, जो आर्थिक रूप से मज़बूत हैं।  

ये उदहारण वो चंद तरीके हैं जिनसे हमारी ज़िंदगी का रुख हमारे लिए तय होता है, ना कि उसे हम खुद तय करते हैं। एक बार अगर हम ये कबूल लें कि फ्री विल लिमिटेड है, तो हम दुनिया के बारे में अलग तरह से सोच सकते हैं। हम दूसरों को उनके फैसलों या उनकी परिस्थिति के लिए थोड़ा कम कड़ाई से जज करेंगे और समाज को सभी के लिए अच्छा और खुशहाल बनाने के लिए मेहनत करेंगे।

कुल मिलाकर
हमें अपनी ज़िंदगी कैसे जीनी चाहिए, इसे लेकर बहुत सारी गहरी सामाजिक उम्मीदें हैं: जैसे कि कामयाबी और अच्छी तनख्वाह के लिए कोशिश करना, शादी करना और बच्चे पैदा करना और एक हेल्दी लाइफ जीना।  लेकिन बिना सोचे-समझे इन उम्मीदों पर खरा उतरने का लक्ष्य हमें दुखी कर सकता है। इस बात पर सोचना कि क्या करने से आपको संतुष्टि मिलती है और समाज आपसे क्या करने को कह रहा है, उसे अनदेखा करना ही ज़िंदगी भर के लिए ख़ुशी पाने का बेहतर रास्ता है।  

 

क्या करें?

अपनी ज़िंदगी में फैसलों पर गौर करते वक़्त ये सोचें कि आप अपने दोस्तों के लिए क्या चाहेंगे। 

सोशल नैरेटिव्ज़ के खिंचाव से बचना मुश्किल हो सकता है।  इसलिए अपनी ज़िंदगी के फैसलों के बारे में ऐसे सोचें जैसे वो किसी दोस्त के लिए हों। खुद से पूछें - क्या आप अपने बेस्ट फ्रेंड को शादीशुदा लेकिन अक्सर दुखी देखना चाहेंगे? या सिंगल लेकिन शायद ही दुखी? इस तरह सोचने से समाज हमसे क्या उम्मीद करता है, उसकी जगह ये क्लैरिटी लाने में मदद मिल सकती है कि असल में किस चीज़ से ख़ुशी मिलती है।

येबुक एप पर आप सुन रहे थे Happy Ever Afterby Paul Dolan

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