The Seventh Million

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The Seventh Million

Tom Segev
इजराइल के लोग और होलोकॉस्ट

दो लफ्जों में
साल 1991 में आई ये किताब उन सभी घटनाओं के बारे में जानकारी देती है जिसमें होलोकॉस्ट ने इजराइल को वो आकार दिया जैसा वो आज है। ये किताब नाजीवाद पर जायोनी लोगों के रिस्पांस से लेकर फिलिस्तीन में यूरोपीय यहूदी रिफ्यूजियों के आने, 6 दिन चली लड़ाई और होलोकॉस्ट मेमोरियल डे तक सब कुछ डीटेल में बताती है। 

ये किताब किनको पढ़नी चाहिए?
• यहूदी, इजराइली, जर्मन और अमेरिकी लोग
• इतिहास और होलोकॉस्ट की जानकारी चाहने वाले लोग और स्टूडेंट्स 

लेखक के बारे में
टॉम सेगेव एक बड़े इजराइली अखबार हारेत्ज के लिए लिखते हैं। इस किताब के अलावा उन्होंने One Palestine, Complete: Jews and Arabs Under the British Mandate नाम की किताब भी लिखी है। 

ये किताब आपको क्यों पढ़नी चाहिए? 
ताकि आप समझ सकें कि होलोकॉस्ट ने क्या कहर बरपाया था। ऐसा नरसंहार जिसमें नाजी जर्मनी की सोच रखने वाले हिटलर और उसके साथियों ने लगभग छह मिलियन यहूदियों को मार गिराया उसे होलोकॉस्ट के नाम से जाना जाता है जो यूरोप में 1933 और 1945 के दौरान हुआ था। अब सवाल ये उठता है कि इतने बड़े पैमाने की बर्बादी ने "सातवें मिलियन" की पहचान कैसे बनाई? सातवें मिलियन से मतलब है इजराइल की पूरी यहूदी आबादी जिसमें वे लोग भी शामिल हैं जो होलोकॉस्ट के पहले से ही पूर्वी फिलिस्तीन में रहते थे और वे सभी यहूदी भी जो इस घटना के बाद बचे और वहां चले गए। ये किताब इस बात की खोजबीन करती है कि होलोकॉस्ट का इजराइल के ऊपर एक देश के तौर पर, उसकी राजनीति, कल्चर और पहचान पर क्या असर पड़ा। आप देखेंगे कि फिलिस्तीन में पहले से रह रहे यहूदियों की यूरोपियन रिफ्यूजियों और होलोकॉस्ट से बचकर आए लोगों के साथ कैसे तनातनी होती थी और कैसे नए बने इजराइल ने अतीत की डरावनी परछाईं का सामना किया।

  इस किताब को पढ़कर आप जानेंगे
• नाजियों और जायोनीवादियों में क्या समानता थी
• कैसे एक यहूदी होलोकॉस्ट सर्वाइवर ने बदला लेने की कोशिश की
• इजराइल के न्यूज चैनल साल में एक दिन "गुड इवनिंग" कहने से परहेज क्यों करते हैं नाजियों की बढ़ती ताकत की वजह से जर्मन यहूदियों को फिलिस्तीन भेजा गया फिर भी उनके वहां पहुंचने पर तनाव भर गया।
साल 1933 इतिहास में एक बड़ा मोड़ था। ये वो साल था जब जर्मनी में नाजियों की सत्ता आई। नाजी राज्य के उदय ने जायोनीवादियों को ये इशारा दिया कि जर्मनी के यहूदी खतरे में थे। जायोनीवादी, यहूदियों का वो समुदाय था जो फिलिस्तीन में एक यहूदी देश बनाना चाहते थे।  हालांकि उस समय नाजियों और जायोनीवादियों की सोच एक सी थी। क्योंकि नाजी चाहते थे कि यहूदी जर्मनी छोड़ दें और जायोनीवादी चाहते थे कि वे फिलिस्तीन में रहें। इस वजह से एक समझौता हुआ जिसे हवारा कहा जाता है। ये फिलिस्तीन में नाजियों और जायोनी यहूदी एजेंसी के बीच किया गया था। ये कुछ इस तरह था- 

1930 के दशक में यहूदी एजेंसी ने भविष्य में बनने वाले यहूदी देश के लिए एक सरकार के तौर पर काम किया। जायोनी अधिकारी, जर्मन यहूदियों के इमिग्रेशन और उनकी प्रॉपर्टी को फिलिस्तीन में ट्रांसफर करने जैसी बातचीत के लिए बर्लिन गए। इसकी वजह से एक ट्रांसफर एग्रीमेंट हुआ कि फिलिस्तीन में इमीग्रेट करने वाले किसी भी यहूदी को अपने साथ 4,000 डॉलर ले जाने और 5,000 डॉलर का सामान वहां भेजने की इजाजत दी जाएगी। 1930 के दशक में ये एक बड़ी राशि थी। इस लिहाज से ये समझौता सही था। हालांकि फिलिस्तीन में जर्मन यहूदियों का आना एक बड़े शोरोगुल की वजह बन गया। ये जर्मन इमिग्रेंट्स, नाजी लोगों के आतंक और अपने देश से निकाले जाने से चोट खाए हुए थे। कई लोग अपनी मर्जी न होते हुए भी आए थे। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो जायोनी के रूप में नहीं बल्कि रिफ्यूजी के रूप में। इनकी सोच उन जायोनियों से अलग थी जो फिलिस्तीन में हिब्रू कल्चर और भाषा लागू करना चाहते थे। जो यहूदी जो पहले से ही वहां रहते थे वे इनके आने से खुश नहीं थे। उन्होंने जर्मनी से अपने परिवारों के साथ पहुंचे गरीब लोगों और व्यापारियों के आने पर गुस्सा जताया। वे सिंगल पुरुष और महिलाओं का आना पसंद करते थे क्योंकि उन्हें लगता था कि एक नया देश बसाने के लिए ऐसे लोग सही हैं। 

यहां तक कि 1930 के दशक में यहूदी एजेंसी के एक सदस्य एलियाहू डोबकिन ने जर्मन यहूदियों को "undesirable human material" तक कह दिया।

फिलिस्तीन में बसे यहूदी, इजराइल बनाने पर ध्यान लगा रहे थे और यूरोप में Final Solution को पूरी तरह से नहीं मानते थे।
WWII से पहले यूरोप में लगभग नौ मिलियन यहूदी थे। युद्ध खत्म होने तक इनकी गिनती घटकर बस तीन मिलियन तक हो गई। उन यहूदियों में से कुछ हजार ही जायोनी आंदोलन की वजह से बचे रहे। असल में जब पहली बार यूरोप में बसे यहूदियों को मारे जाने की खबर सामने आई तो फिलिस्तीन के यहूदियों ने इस मामले को इतना गंभीर नहीं समझा जितना समझा जाना चाहिए था। साल 1942 में हारेत्ज ने यूक्रेन के खार्कोव इलाके में यहूदियों के खिलाफ हो रहे अत्याचारों के बारे में छापा। लेकिन इसे बड़ी सुर्खियों वाली खबर की तरह न छापकर बस छोटा सा कॉलम लिख दिया गया। जबकि इसके ठीक ऊपर दमिश्क में यहूदी फुटबॉल टीम की जीत की खबर थी। जाहिर है कि ये खबर ज्यादा बड़ी मानी गई थी। उसी साल के आखिर में जब यहूदी एजेंसी के एक अधिकारी ने बयान दिया कि यूरोप में बसे सभी यहूदियों को मारने की एक बड़ी योजना थी तब अखबारों ने इस खबर को बड़ी जगह देना शुरू कर दिया। फिर भी कुछ ही महीनों बाद ये खबरें अंदर से और अंदर के पेजों पर ढकेल दी गईं।  फिलिस्तीनी यहूदी अभी तक यूरोप में हो रहे नरसंहार को सही तरह पहचान नहीं पाए थे। लेकिन उन्होंने होलोकॉस्ट को पहचानने में भूल क्यों कर दी? 

पहले ही बड़े पैमाने पर हो चुकी मारकाट की वजह से अब ये घटनाएं उनके लिए इतनी बड़ी नहीं रह गई थीं। 
उनका ध्यान वर्तमान पर न होकर अपने देश के भविष्य पर था। इसलिए भले ही यहूदियों को बचाने के लिए कई मिलियन डॉलर खर्च किए गए थे पर इनमें से ज्यादातर पैसा बड़ी जमीनें खरीदने और फिलिस्तीन में बस्तियां बसाने में चला गया। आम धारणा ये बन चुकी थी कि यूरोपीय यहूदियों को बचाने के लिए ज्यादा कुछ नहीं किया जा सकता था।

युद्ध के बाद कुछ यहूदियों ने बदला लेने की ठानी लेकिन होलोकॉस्ट से बचे लोग सदमे में थे और ऐसे किसी कदम के लिए तैयार नहीं थे।
जब युद्ध चरम सीमा पर आ गया और होलोकॉस्ट की चर्चा दुनियाभर में होने लगी तो फिलिस्तीन में रहने वाले यहूदी लोग गिल्ट से घिर गए। क्योंकि उन्होंने यूरोप के यहूदियों को बचाने के लिए अपनी पूरी ताकत नहीं लगाई थी। इस दौरान कुछ यहूदियों ने जर्मन लोगों से बदला लेने की आवाज उठाई। जैसे युद्ध खत्म होने के कुछ महीनों बाद होलोकॉस्ट में बच गया अब्बा कोवनेर नाम का एक युवा बदले का प्लान बनाकर फिलिस्तीन पहुंचा। उसने जर्मनी के पश्चिमी शहरों में पीने के पानी में जहर मिलाने के लिए अपने जैसे दूसरे युवा लोगों को इकट्ठा किया। इन्होंने इस ग्रुप को नाकम कहा जिसका मतलब होता है "बदला।" होलोकॉस्ट का सही तरह से बदला लेने के लिए 6 मिलियन जर्मनों की हत्या करने का फैसला लिया गया और इस कदम को सही साबित करने के लिए बाइबिल के उस सिद्धांत को आधार बनाया गया जो "आंख के बदले आंख और दांत के बदले दांत" की बात कहता है। 

हालांकि इस ग्रुप ने कुछ बड़े जर्मन अधिकारियों को जरूर मारा पर प्लान के मुताबिक बड़े पैमाने पर मारकाट नहीं हो पाई। दरअसल यहूदी एजेंसी ने बदला लेने के इस बड़े कदम को सपोर्ट नहीं किया क्योंकि इस वजह से एक यहूदी देश की स्थापना को झटका लग सकता था जो उस वक्त उनकी सबसे पहली जरूरत थी। इसके अलावा होलोकॉस्ट से बचकर हाल ही में फिलीस्तीन पहुंचे कई लोग बस शांति से रहना चाहते थे। वे सदमे में थे और अपनी जिंदगी के साथ तालमेल बिठाने के लिए संघर्ष कर रहे थे। कई सालों तक होलोकॉस्ट से बचे लोगों को दिलो-दिमाग का ध्यान रखने की जरूरत थी। वे बेचैनी, चिंता, बुरे सपने, डिप्रेशन, गुस्से और एपैथी से गुजर रहे थे। उनको इस बात की गिल्ट भी थी कि वे अपनों को नहीं बचा पाए और उनको दूसरों के साथ घुलने मिलने में भी मुश्किल आई। यहूदी बस्तियों या किबुत्जिम में शामिल होने वाले कई लोगों को वहां अजनबीपन महसूस होता था। ऐसी जगहें उनको concentration camps की याद दिलाती थीं। वे अपनी परेशानियों से निपटने के लिए थोड़ा समय और अकेलापन चाहते थे।

देशवासियों के विरोध के बावजूद इजराइल को जर्मनी से बातचीत करने का फायदा मिला।
साल 1948 में इजराइल नाम का देश बनने की घोषणा हुई। इसके बाद शुरुआत के कुछ महीनों में बहुत से इजराइलियों ने जर्मनी के बॉयकॉट के लिए आवाज उठाई। लेकिन इस तरह के कदम का सफल होना मुश्किल होता और इसके नतीजे भी उल्टे होते। इस तरह के किसी मुहिम की वजह से जर्मनी को होने वाला एक्सपोर्ट बंद हो जाता। इसके बावजूद अगर इजराइल, UN जैसे किसी इंटरनेशनल ऑर्गनाइजेशन 

में शामिल होना चाहता तो उसे कम से कम कुछ जर्मनों के साथ नेटवर्क तो बनाना होता। इस तरह जर्मनी के साथ इजराइल की कंपनसेशन वाली बातचीत फिर बहस का मुद्दा बन गई। 30 दिसंबर, 1951 को इजरायल सरकार ने फैसला किया कि वो जर्मनी के साथ बातचीत करके उस जानमाल के नुकसान की भरपाई करने के लिए कोशिश करेगी जो जर्मनी ने यहूदियों के खिलाफ किए थे। लेकिन कई इजराइलियों ने महसूस किया कि इस पैसे को लेने का मतलब होगा हत्यारों से फिरौती लेना और इसलिए वे ऐसी बातचीत के खिलाफ थे। उनका कहना था कि जर्मन लोग और उनकी सरकार हत्यारे थे और जर्मनी का पैसा यहूदियों के खून से सना हुआ था। 

इजराइली संसद जिसे Knesset कहा जाता है, वहां इस बहस के दौरान विरोध और दंगे भड़क उठे और लोगों ने खिड़कियों से अंदर पत्थर भी फेंके। यानि राजनीतिक माहौल तनाव से भरा था लेकिन इजराइल के नागरिकों के तगड़े विरोध के बावजूद संसद ने 1952 में जर्मनी के साथ बातचीत की और उनके बीच हुए समझौते से इजराइल को फायदा हुआ। जर्मन सरकार लगभग 820 मिलियन डॉलर का मुआवजा देने को तैयार हुई। लगभग 70 प्रतिशत पैसा जर्मनी में बने सामानों के लिए और बाकी 30 प्रतिशत ईंधन खरीदने के लिए अलग रखा गया था। इस पैसे को 12 सालों के दौरान दिया जाना था। इस दौरान इजराइल की GNP तीन गुना हो गई। ये कोई चमत्कार नहीं था। इस तरक्की का लगभग 15 प्रतिशत हिस्सा और 45,000 नौकरियां जनरेट होना सीधे तौर पर मुआवजे के पैसे की बदौलत किए गए इन्वेस्टमेंट को दिया जा सकता है। समय बीतने के साथ मुआवजे ने दोनों देशों के बीच संबंध बेहतर बनाने में मदद की।

इजराइल आगे बढ़ने लगा था पर वहां विवाद खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहे थे।
1950 के दशक में इजराइल और उसके पड़ोसी अरब देशों के बीच लड़ाई छिड़ गई। इजराइल को जर्मनी से लड़ाई में काम आने वाले कुछ हथियार और मशीनें मिलीं। दोनों देशों के बीच बढ़ते मिलिट्री रिलेशन भी मुआवजे की तरह इजराइल के लोगों के लिए विवाद का विषय बन चुका था। साल 1959 में जर्मन मैग्जीन, डेर स्पीगल ने छापा कि इजराइल न सिर्फ जर्मनी से हथियार खरीद रहा था बल्कि उन्हें बेच भी रहा था। जर्मनी और इजराइल की नीतियां बहुत अलग थीं इस वजह से जर्मन मिलिट्री से तालमेल बनाने के इजराइल के फैसले पर बहुत विवाद हुआ। इजराइल के प्रधान मंत्री डेविड बेन गुरियन ने दावा किया कि इजराइल को जर्मनी को हथियार बेचने की जरूरत सिर्फ इसलिए नहीं है कि हमारे देश को फॉरन करेंसी चाहिए बल्कि हमें ऐसा इसलिए भी करना चाहिए ताकि जर्मनी भी हमारे लिए मददगार साबित हो। 

जबकि दूसरों का नजरिया अलग था। उनका मानना था कि जिन लोगों ने पहले यहूदियों की हत्या की उन जर्मन सैनिकों को यहूदी हथियार देना नैतिक रूप से गलत था। विवाद की एक और वजह नाजी और यहूदी कोलैबोरेशन था। इसमें भी इजराइल के कॉमर्स एंड इंडस्ट्री मंत्रालय के प्रवक्ता रुडोल्फ कस्तनर का मामला सबसे ऊपर था। युद्ध के दौरान कस्तनर, हंगरी में सहायता और बचाव समिति के प्रमुख थे। इस समूह ने यहूदियों को होलोकॉस्ट से भागने में मदद की। इस पद पर उन्होंने एक बड़े नाजी अधिकारी एडॉल्फ इचमैन के साथ बातचीत की थी। इसमें ये तय हुआ कि पैसे लेकर 1684 यहूदियों को स्विट्जरलैंड जाने के लिए छोड़ दिया जाएगा। इस समझौते को कस्तनर ट्रेन कहा गया।

इचमैन के साथ कस्तनर की बातचीत ने एक बड़ी बहस छेड़ दी क्योंकि उन पर नाजियों का सहयोग करने का आरोप लगाया गया था भले ही उसके पीछे यहूदियों को बचाने की सोच थी। उन पर मुकदमा चलाया गया और जज ने कहा कि उसने कुछ खास लोगों के लिए बाकी यहूदियों का बलिदान किया था। साल 1957 में राइट विंग यहूदी एक्टिविस्टों ने उनकी हत्या कर दी।

इजराइल ने एक बड़े नाजी अधिकारी एडॉल्फ इचमैन के खिलाफ मुकदमा चलाकर हालात संभालने की कोशिश की लेकिन इस कदम की तगड़ी आलोचना भी हुई।
11 मई 1960 की रात अर्जेंटीना के ब्यूनस आयर्स में मोसाद के एजेंटों ने एक ऐसे इंसान का अपहरण

कर लिया जिसे रिकार्डो क्लेमेंट के नाम से जाना जाता था। इन इजराइली एजेंटों ने उसे नशीली चीज पिलाई, उसे एक एयरलाइन स्टाफ की तरह तैयार किया और एक खास प्लेन में बिठाकर इजराइल ले आए। इस इंसान का असली नाम एडॉल्फ इचमैन था और वो नाजी पार्टी के टॉप के अधिकारियों में से एक था। इसने यहूदियों को मौत के शिविरों में ले जाने में बड़ी भूमिका निभाई थी। साल 1961 में लाखों यहूदियों की हत्या में शामिल होने के लिए इजराइल में इचमैन पर मुकदमा चलाया गया। इचमैन ने बचाव में कहा कि उसे दोषी न माना जाए क्योंकि उसने बस वही किया है जो उसे करने के लिए कहा गया था। यानि वो बस ऑर्डर फॉलो करने का दोषी है न कि हत्याओं का। 

हालांकि इचमैन को यहूदी लोगों और इंसानियत के खिलाफ अपराधों के लिए दोषी ठहराया गया और मौत की सजा सुनाई गई। इजराइल के लिए ये मुकदमा क्या मायने रखता था? एक तरफ तो इससे देश में एकता को बढ़ावा मिला। इस मुकदमे को रेडियो पर लाइव टेलीकास्ट किया जाता था। देशभर में लोग घर, ऑफिस, कैफे, दुकानों, बसों और कारखानों में इसे सुनते थे। 

इस मुकदमे ने एक तरह से पूरे देश के लिए थेरेपी का काम किया। होलोकॉस्ट का शिकार हुए लोगों को एक आवाज मिली। लेकिन मुकदमे को आलोचना का सामना भी करना पड़ा। उदाहरण के लिए यहूदी दार्शनिक हन्ना अरेंड्ट ने मुकदमे को ड्रामेबाजी बताते हुए कहा कि ये साफ था कि यहूदी जज पक्षपात किए बिना इचमैन के सही या गलत होने का फैसला नहीं सुना सकते थे। वो ये भी मानती थीं कि यहूदियों के नरसंहार में इचमैन की भूमिका को इंसानियत के खिलाफ अपराध कहा जाना चाहिए था न कि यहूदियों के खिलाफ। क्योंकि यहूदियों और दूसरे इंसानों के बीच फर्क करना बिल्कुल वैसा ही था जैसा नाजियों ने यहूदियों के साथ किया और अपने अपराधों को सही ठहराने के लिए बहाना बनाया।

अतीत से डरे हुए इजराइलियों ने फिलिस्तीनी इलाकों पर कब्जा कर लिया और 1960 के दशक में अरब के लोगों के साथ भेदभाव किया।
एक देश के तौर पर इजराइल के लिए विज्ञान हमेशा महत्व रखता था। इस देश ने दूसरे कई देशों से पहले ही न्यूक्लीयर एनर्जी की ताकत हासिल कर ली थी। लेकिन ये कदम सिर्फ अपनी जरूरतों के लिए नहीं उठाया गया था। 1960 के दशक के आखिर में टाइम मैग्जीन ने ये खुलासा किया कि इजराइल न्यूक्लीयर वेपन बना रहा था। लेकिन क्यों? इजरायल, अरेबियन पड़ोसियों से घिरा हुआ था और लगातार एक डर के साए में रहता था।ये कोई हैरानी की बात भी नहीं थी क्योंकि जब से इजराइल बना, उसके पड़ोसी देश उसे युद्ध की धमकी देते रहे। 21 जुलाई 1962 को जब मिस्र के राष्ट्रपति जमाल अब्देल नासिर ने काहिरा में परेड के दौरान जमीन से जमीन पर मार करने वाली बीस मिसाइलें दिखाईं तो इजराइल के लिए ये सच में खतरे की घंटी थी। पूरे देश में ये बात चर्चा में थी कि अरब लोगों ने इजराइल को "खत्म" करने की धमकी दी है। नासिर की तुलना हिटलर से की जाने लगी और बहुत से इजराइली ये मानने लगे कि अगर इजराइल, अरबों के खिलाफ लड़ाई हार गया तो फिर एक नरसंहार हो सकता है। 

आखिर 5 जून 1967 को युद्ध छिड़ गया। 6 दिनों में ही इजराइल ने गाजा पट्टी और वेस्ट बैंक सहित फिलिस्तीन के बड़े इलाकों पर जीत हासिल की जो आज भी उसके कब्जे में हैं। इन इलाकों में रहने वाले अरब लोगों को इजराइल के समाज में बहुत निचले पायदान पर रखा गया और इनको 1980 के दशक में भयानक रेसिज्म से गुजरना पड़ा। जैसे कि साल 1984 में लगभग 25,000 इजराइलियों ने रब्बी मीर कहाने को वोट दिया जिन्होंने उन अरबों को बाहर निकालने की मांग की जो या तो इजराइल के नागरिक थे या इजराइल के कब्जे वाले इलाकों में रह रहे थे। वो यहूदियों और अरबों के बीच हर तरह के कनेक्शन को खत्म करना चाहते थे और यहां तक ​​कि यहूदियों और गैर-यहूदियों के लिए अलग बीचेस भी रखना चाहते थे। इसकी वजह से इजराइल के युवाओं ने अरबों पर हमले किए। जिस तरह कभी नाजी लोग "यहूदियों को मारो" का नारा लगाते थे अब वहां "अरबों को मारो" के नारे गूंजने लगे।

इजराइल के समाज ने होलोकॉस्ट मेमोरियल कल्चर को अपना रखा है।
यहूदी राज्य के शुरुआती दिनों से इजराइल के लोगों ने इस बात पर ध्यान दिया कि होलोकॉस्ट को कैसे याद रखा जाए। ऐसा क्या करें कि पूरा का पूरा देश इस घटना को कभी न भूले। 1951 में नेसेट ने फैसला किया और एक आम सहमति बनी कि निसान यानि यहूदी कैलेंडर में पहले महीने का 27वां दिन होलोकॉस्ट और घेट्टो रिबेलियन मेमोरियल डे के तौर पर मनाया जाएगा। इस फैसले के बाद से देश में हर साल ये दिन ध्यान और एकता के लिए समर्पित कर दिया गया है। इजराइल में इस दिन सब कुछ बंद रहता है। घूमने-फिरने की जगहें, मूवी थिएटर और कैफे भी बंद रहते बंद हैं। सरकारी रेडियो और टीवी चैनल शोक का माहौल रखते हैं। रेडियो में होलोकॉस्ट से बचे लोगों के बयान और सैड म्यूजिक चलाए जाते हैं। 

न्यूज भी बिना किसी शोर शराबे के खामोशी के साथ चलाए जाते हैं और एंकर "गुड इवनिंग" नहीं कहते। चैनल अपने रूटीन प्रोग्राम की जगह होलोकॉस्ट के बारे में दिखाते हैं। प्रिंट मीडिया उन कविताओं को छापता करता है जो उस दौर के इतिहास और कल्चर को दिखाती हैं। लेकिन इतनी कोशिशों के बावजूद इजराइल में बच्चे अभी भी होलोकॉस्ट को सही तरह नहीं समझ पा रहे थे। तब 1980 से होलोकॉस्ट को सभी इजराइली स्कूलों में पढ़ाना जरूरी कर दिया गया। इसके बाद से इतिहास के पेपर में लगभग 20 प्रतिशत सवाल होलोकॉस्ट के बारे में होते हैं। 

आज होलोकॉस्ट को प्राइमरी और मिडिल दोनों लेवल में पढ़ाया जाता है। यानि हाई स्कूल पहुंचे इजराइली बच्चे इसे दो बार पढ़ लेते हैं। टॉम, स्टूडेंट्स के एक ग्रुप के साथ नाजी कॉन्सन्ट्रेशन कैंप देखने भी गए जिनमें ऑशविज नाम की जगह भी शामिल थी। किसी न किसी जगह हर स्टूडेंट भावुक हो गया। ऑशविज पहुंचने पर एक स्टूडेंट का कहना था कि अब उनके पास और आंसू ही नहीं बचे।

कुल मिलाकर
इजराइल की राजनीति, कल्चर और पहचान में होलोकॉस्ट गहराई से समाया हुआ है। जहां शुरुआत में जायोनीवादियों ने यूरोपीय रिफ्यूजी और होलोकॉस्ट से बचे लोगों के आने पर संघर्ष किया वहीं एक और नरसंहार के डर ने इजराइल को अपने पड़ोसियों पर हमला करने के लिए तैयार किया जिससे नस्लवाद का माहौल पैदा हुआ। 

 

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