After the Fall Ben Rhodes

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After the Fall
Ben Rhodes


अमेरिका ने दुनिया को क्या बना दिया?
दो लफ्ज़ों में 
साल 2021 में रिलीज़ हुई किताब ‘After the Fall’ हंगरी,चाइना, रशिया और यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ़ अमेरिका में राष्ट्रवाद और सत्तावाद के उदय की कहानी बताती है. ये किताब बताती है कि कैसे कोल्ड वॉर के बाद से अमेरिका की स्थति में भारी बदलाव देखने को मिले थे. इसी के साथ ये किताब इस पहलू पर भी रोशनी डालने का काम करती है कि मौजूदा दौर में कैसे दुनिया के बड़े देशों की  डेमोक्रेसी काम कर रही है? ये किताब किसके लिए है? 
- पॉलिटिकल जंकीज़ के लिए 
- डेमोक्रेसी के पक्षधरों के लिए 
- सभी फील्ड के स्टूडेंट्स के लिए 
- ऐसे लोग जिन्हें इतिहास में रूचि हो 
लेखक के बारे में 
आपको बता दें कि इस किताब का लेखन ‘Ben Rhodes’ ने किया है. ये अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति ‘Barack Obama’के स्पीच राइटर और एडवाईज़र भी रह चुके हैं. इसी के साथ ये पॉपुलर पॉडकास्ट ‘Pod Save the World’ के को-होस्ट भी हैं. इन्होने अपने सालों के अनुभव का सार इस किताब में लिख दिया है.Post Cold War Era के बाद का अमेरिका
किसी ने क्या खूब कहा है कि “इक परिंदा अभी उड़ान में है, तीर हर शख़्स की कमान में है..”इस पंक्ति से आपको अंदाज़ा लग चुका होगा कि आज युद्ध की बात होगी. लेकिन आपको बता दें कि आज केवल युद्ध की बात नहीं बल्कि युद्ध के साथ-साथ लोकतंत्र के बारे में बारीकी से चर्चा होगी. इस किताब में कई टिप्स और ट्रिक्स के बारे में चर्चा की गई है. जिन STRATEGIES को सीखकर आप अपनी पर्सनल से लेकर प्रोफेशनल लाइफ को भी 360 डिग्री बेहतर कर सकते हैं. इस बुक समरी में आप जंग, बहादुरी, जीत और हार की दिलचस्प कहानियों से रूबरू होंगे. इसमें बताईं गईं स्ट्रेटेजीज़ को आप अपनी पर्सनल और प्रोफेशनल लाइफ में अप्लाई कर सकते हैं. अगर आपने ऐसा कर लिया तो लाइफ में पॉजिटिव बदलाव भी आपको बहुत जल्द देखने को मिलने लगेंगे. 

1980 के दौर का अंत अगर आपको याद होगा, तो आपको ये भी याद होगा कि उस समय डेमोक्रेसी बहुत अच्छे से चल रही थी. बर्लिन वॉल की गलियों में लोग नाचते हुए नज़र आ जाया करते थे. तब ऐसा लग रहा था कि यूएस के साथ-साथ बाकी दुनिया लोकतंत्र की तरफ तेजी से बढ़ रही है. लेकिन फिर 1990 का दशक आते-आते चीज़ें तेजी से बदलने लगीं थीं. राजनीतिक सिचुएशन से लेकर करप्शन तक यूएस की असेम्बली में पाँव फैला रहा था. इसी के साथ अमेरिका में राष्ट्रवाद के उदय का समय भी आने वाला था. 

इस किताब की मदद से हम उसी राष्ट्रवाद को अच्छे से समझने की कोशिश करेंगे. 

हमें इन चैप्टर्स में ये भी सीखने को मिलेगा

-आखिर ‘Authoritarian playbook’ का मतलब क्या होता है? 

  -डेमोक्रेसी के बारे में 

  -राष्ट्रवाद के बारे में काफी कुछ जानने को मिलेगा 

तो चलिए शुरू करते हैं! 

1980 के दशक में जो लोग भी अमेरिका में बड़े हो रहे थे. उनके सामने एक फाल्स नरेटिव रखा जाता था. इस फाल्स नरेटिव में कहा जाता था कि अमेरिका कोई साधारण देश नहीं है. ये देश पूरी दुनिया से अलग है. लोग आसानी से इस बात को मान भी जाया करते थे. 

उस दौर के हॉलीवुड में भी ऐसी ही मूवीज़ बना करती थीं. जिनमे साफ़ तौर पर यही दिखाया जाता था कि अमेरिका से टक्कर लेने वाला पूरे विश्व में कोई दूसरा देश नहीं है. इस तरह के नरेटिव से सभी को यही बताने की कोशिश की जाती थी कि अमेरिका से बड़ी शक्ति इस दुनिया में कोई दूसरी नहीं है. 

ऐसा इसलिए भी किया जाता था क्योंकि उस दौर के अमेरिका की इकॉनमी बहुत तेजी से ऊपर जा रही थी. लोगों को ऐसा लगने लगा था कि अमेरिका में कोई भी इंसान ग़रीब नहीं रहेगा. 

कोल्ड वॉर भी खत्म हो चुका था, अमेरिकन्स को लगता था कि उन्होंने कोल्ड वॉर को जीत लिया है. कोल्ड वॉर के बाद अमेरिका के सामने बड़ा सवाल यही था कि अब अमेरिका का क्या पर्पस है? 

सेकंड वर्ल्ड वॉर के बाद अमेरिका को अपना पर्पस मिल चुका था. उसका पर्पस डेमोक्रेसी को आगे बढ़ाने का था. पूरी दुनिया में अमेरिका डेमोक्रेसी को आगे बढ़ाने का काम किया करता था. लेकिन डेमोक्रेसी को बढ़ावा देने में अमेरिका का मकसद पर्सनल फ्रीडम को बढ़ावा देने का नहीं था. बल्कि दुनिया के सामने अमेरिका अपना हिडन अजेंडा चला रहा था. वो डेमोक्रेसी के नाम पर डॉलर का प्रचार कर रहा था. 

अजीब बात ये थी कि उस दौर में अमेरिका के इस नेचर पर कोई सवाल खड़ा करने वाला नहीं था. लेकिन हंग्री और रशिया ने अमेरिका के ऊपर ये इलज़ाम ज़रूर लगाया था कि अमेरिका डॉलर के नाम पर पूँजीवाद का प्रचार कर रहा है. इस बात में कितनी सच्चाई थी? वो तो उस वक्त अमेरिका के पॉलिसी मेकर्स को ही पता होगा? लेकिन दुनिया के नज़रों में उदार बनने के लिए अमेरिका कई तरह की तरकीबें अपना रहा था. 

उसी में से एक डॉलर का प्रचार करना भी था, अमेरिका चाहता था कि पूरी दुनिया में डॉलर की ही तूती बोले.. उसी दौर में राजनीति और करप्शन भी साथ ही साथ आगे बढ़ रहा था. कोल्ड वॉर के बाद ये साफ़ तौर पर नज़र आ रहा था कि अमेरिका की पैसों को लेकर नीतियों की वजह से मार्केट में inequality को भी बढ़ावा मिल रहा है. इन नीतियों की वजह से पैसे वालों के पास ही पॉवर भी आती जा रही है. जिसकी वजह से जो लोग अमीर हैं, वो लोग गरीबों से आगे बढ़ने का मौका छीनते जा रहे हैं. 

क्या उस दौर में भी इस तरह की चीज़ें सही थीं? इसका जवाब है कि बिल्कुल नहीं.. उस दौर में भी इस तरह की हरकतें बिल्कुल सही नहीं थीं. 

इस बात में कोई दो राय नहीं है कि तब अमेरिका ने एक ऐसा सिस्टम तैयार किया था. जिस सिस्टम में अमीर और भी ज्यादा अमीर बनता जा रहा था. इस सिस्टम में पूरी दुनिया का बहुत ज्यादा नुकसान किया है. इसलिए आज जो लोग अमेरिका की वाह वाही करते थकते नहीं हैं. उन्हें पता होना चाहिए कि अमेरिका ने पूरी दुनिया का बहुत ही ज्यादा नुकसान भी किया है. ये एक ऐसा लालची देश रहा है, जिसकी मानसिकता में ही केवल पैसों के दम पर राज़ करना था. इसनें कभी भी इंसानियत को बढ़ाने का काम नहीं किया है.

Hungarian leader Viktor Orbán ने दिखाया था कि राष्ट्रवाद और सत्तावाद साथ ही साथ आगे बढ़ते हैं
“Identity politics” हाल ही के सालों में आप लोगों ने इस टर्म के बारे में ज़रूर सुना होगा. ये टर्म किसी भी राष्ट्र के राष्ट्रवाद का दिल है. लेकिन पोस्ट कोल्ड वॉर ईरा के दौर में ये टर्म भी स्ट्रगल के दौर से गुज़र रहा था. 

इस टर्म का ज्यादातर उपयोग राईट विंग के राजनेता करते हैं. राजनेता लोग इस टर्म को नेशनल प्राइड के एंगल से जोड़ने की कोशिश करते हैं. और इसी तकनीक की मदद से वो लोग वोटर्स के दिमाग से भी खेलते हैं. 

हम लोगों ने देखा और ओब्सर्व किया है कि डोनल्ड ट्रम्प की राजनीति भी रियलिटी को बेंड करने वाली ही हुआ करती थी. उन्होंने भी लोगों को अपनी तरफ ये बोलते हुए किया था कि अब अमेरिका को फिर से ग्रेट बनाएंगे. 

लेकिन उन्होंने नहीं बताया था कि आखिर वो किस ग्रेट अमेरिका की बात कर रहे हैं? आखिर अमेरिका कब और किन मायनों में ग्रेट हुआ करता था? 

वोटर्स को भी समझना चाहिए कि इस तरह के नेता केवल और केवल रियलिटी को तोड़ मरोड़कर जनता के सामने पेश करते हैं. अब यहाँ पर Hungarian leader Viktor Orbán को भी याद कर लेना चाहिए. 

2010 में प्रधानमंत्री बनने के बाद से ही इन्होने हंगरी की मीडिया पर कब्ज़ा करने की शुरुआत कर दी थी. इनकी मानसिकता हुआ करती थी कि मीडिया को अपने कब्ज़े में कर लो और सत्ता में हमेशा बैठे रहो. क्योंकि लोग वैसे ही सोचने लगते हैं, जैसा मीडिया उन्हें सोचने के लिए कहता है. 

इसके बाद Viktor Orbán ने ज्यूडिसियल सिस्टम को कब्ज़े में करने की कोशिश शुरू कर दी थी. Viktor Orbán का मानना था कि लोकतंत्र के चारों स्तम्भ उसके लिए काम करने चाहिए. इसलिए वो ये भी मानता था कि राष्ट्रवाद और सत्तावाद साथ ही साथ आगे बढ़ते हैं.

मतलब साफ़ है कि Viktor Orbán खुद को राष्ट्रवादी मानता था और चाहता था कि सत्ता में हमेशा वही काबिज़ रहे.

अब बात Vladimir Putin और उनके राइज़ ऑफ़ पॉवर की होगी
विडंबना यह है कि, ओर्बन ने अपने करियर की शुरुआत भ्रष्टाचार और रूस के खिलाफ लड़ते हुए की थी. लेकिन रशिया के खिलाफ उनकी मुहीम का समापन भी जल्द ही हो गया था. 

इसके पीछे का कारण ये था कि कई लीडर्स ने पुतिन से बेहतर राजनीतिक गुण दिखाए थे. लेकिन फिर भी अगर आप सत्ता और पॉवर के अधिकारी बनना चाहते हैं. तो आपको व्लादिमीर पुतिन के बारे में ज्यादा से ज्यादा पढ़ने की कोशिश करनी चाहिए. 

आपको बता दें कि पुतिन के कैरियर का उदय भी कोल्ड वॉर के खत्म होने के बाद ही शुरू हुआ था. पुतिन का जन्म 7 अक्टूबर 1952 को सोवियत संघ के रूसी गणराज्य के लेनिनग्राद (वर्तमान सेंट पीटर्सबर्ग, रूस) में हुआ। उनके पिता का नाम व्लादिमीर स्पिरिदोनोविच पुतिन (1911–1999) और माता का नाम मारिया इवानोव्ना शेलोमोवा (1911–1998) था.

जर्मनी के दो हिस्से थे. ईस्ट जर्मनी और वेस्ट जर्मनी. ईस्ट जर्मनी पूरी तरह से रूस के समर्थन में था. तो वेस्ट जर्मनी पश्चिमी दुनिया के प्रभाव में था. पुतिन को ईस्ट जर्मनी के केजीबी ऑफिस में नौकरी मिली थी. लेकिन इसी बीच जर्मनी में एक नई क्रांति आती है. 

दोनों जर्मनी के बीच बर्लिन की दीवार को लोग गिरा देते है. और पूरा जर्मनी एक हो जाता है. रूस के खिलाफ यहां आक्रोश पनपने लगता है. हजारों लोगों ने ईस्ट जर्मनी में केजीबी की ऑफिस को घेर लिया.

जिस वक्त लोगों ने केजीबी ऑफिस को घेरा. तब व्लादिमीर पुतिन इसी ऑफिस के अंदर सीक्रेट दस्तावेजों को जला रहे थे. ताकि दुश्मन के हाथ न लगे. भीड़ चारों तरफ से ऑफिस को घेरे थी. लेकिन पुतिन शांत दिमाग से अपने काम में लगे रहे. जब सारे सीक्रेट दस्तावेज जला दिए. तब पुतिन बाहर आए. 

हजारों की भीड़ रूसी एजेंटों को मारने की तैयारी में थी. लेकिन पुतिन का हौसला काम आया. पुतिन ऑफिस से बाहर निकले. और हजारों की भीड़ से बोले- हमारे पास बंदूकधारी गार्ड है. अगर आपने कोई गलत कदम उठाया. तो सबको भून दिया जाएगा.

ये तरीका कामयाब रहा. भीड़ वहां से लौटने पर मजबूर हो गई. और पुतिन भी अपनी जिंदगी बचाने में कामयाब रहे. जबकि असल में उनके पास कोई बंदूकधारी गार्ड नहीं थे.

इसी घटना के बाद से ही पुतिन के राजनैतिक करियर में राइज़ ऑफ़ पॉवर का दौर शुरू हुआ था.

अमेरिका ने दुनिया की सत्ता में पॉवर हासिल करने के लिए कई तकनीकों का इस्तेमाल किया है
11 सितम्बर 2001 में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के ऊपर आतंकी हमला हुआ था. वो हमला पूरी तरह से आतंकी और गलत था. 

लेकिन इस तारीख के बाद अमेरिका का दुनिया की तरफ बदलने वाला रवैया भी बिल्कुल सही नहीं था. 

इसके बाद अमेरिका छोटे-छोटे देशों को अपना गुलाम बनाना चाहता था. जिसके लिए उसने उनकी सैन्य बल के तौर पर मदद करने का प्लान भी बनाया था. 

War on Terror के नाम पर अमेरिका दुनिया की सबसे बड़ी शक्ति बनना चाहता था. लेकिन उसकी इस ख्वाइश का पता रूस के व्लादिमीर पुतिन को चल गया था. 

पुतिन को पता चल गया था कि अमेरिका टेरर पर हमले की नीति बनाकर, अपने पड़ोसी और छोटे-छोटे देशों पर अस्थायी रूप से कब्ज़ा करना चाहता है. 

आज के समय पर जो काम रूस, युक्रेन जैसे पड़ोसी देश पर कर रहा है. इस तरह की हरकतों को अमेरिका ने ही दुनिया के सामने नार्मल बनाया था. 

9/11 हमलों के बाद, अमेरिका का एक्शन, पुतिन के लिए आसान कर दिया था. कि वो अपनी हरकतों को जस्टीफाई कर सके. उन्ही सब चीज़ों के बाद से रूस ने भी टेरर को रोकने के नाम पर कई पड़ोसी देशों को परेशान किया है. 

इसका ताजा उदाहरण अभी युक्रेन के तौर पर सभी के सामने ही है.

आज के समय का सबसे बड़ा दमनकारी चीन भी शीत युद्ध के बाद उभरा
अगर आज के समय में हम हंगरी के तरफ देखते हैं तो हमें मॉडर्न राष्ट्रवादी नज़र आते हैं. रूस की तरफ देखते हैं तो अग्रेसिव राष्ट्रवादी नज़र आते हैं. और चाइना की तरफ नज़र जाती है तो एक ऐसा देश नज़र आता है, जिसे फ्यूचर के साथ खेलना बाखूबी आता है. 

इस बात में भी कोई दो राय नहीं है कि इन तीनों ही देशों में कहीं ना कहीं यूएस का प्रभाव रहा है. लेकिन ये प्रभाव अब चीन के ऊपर ज्यादा नज़र आता है. 

अगर आप कोल्ड वॉर के बाद के यूएस में रह रहे हैं. तो आपके पास कई चीज़ें होंगी जो कि चीन से बनकर आई हैं. ये चीज़ बताती है कि चीन को पता है कि मार्केट को कैप्चर कैसे करना है? 

ये कहना भी गलत नहीं है कि यूएस और चीन के बीच में इकॉनोमिक पार्टनरशिप का दौर चल रहा था. इन दोनों देशों का मोटिव ही सस्ते और खराब प्रोडक्ट तैयार करके, ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाना था. 

ये सब इसलिए ही था क्योंकि यूएस की सोच ही पूंजीवादी हो चुकी है. ऑथर कहते हैं कि चीन में माओत्से तुंग के बाद वहां आर्थिक क्रांति लाने का श्रेय डांग श्याओपिंग को दिया जाता है. श्याओपिंग ने 1978 में जिस आर्थिक क्रांति की शुरुआत की थी उसके 2018 में 40 साल हो गए हैं. डांग श्याओपिंग इसे चीन की दूसरी क्रांति कहते थे.

इस आर्थिक सुधार के बाद ही चीन ने दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में मज़बूत दस्तक दी.

डांग श्याओपिंग ने जब आर्थिक सुधारों को 1978 में शुरू किया था तो चीन का दुनिया की अर्थव्यवस्था में हिस्सा महज 1.8 फ़ीसदी था जो 2017 में 18.2 फ़ीसदी हो गया.

चीन अब न केवल एक उभरती हुई अर्थव्यवस्था है बल्कि वो अपने अतीत की उस ताक़त की ओर बढ़ रहा है जब 15वीं और 16वीं शताब्दी में दुनिया की अर्थव्यवस्था में उसका हिस्सा 30 फ़ीसदी के आसपास होता था.

दूसरों का शोषण करने के लिए चीन ने अमेरिकी तकनीक का इस्तेमाल किया है
वैसे तो चीन के प्रेसिडेंट ‘Xi Jinping’ और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री में कुछ ज्यादा अंतर नहीं है. दोनों ही अपने बेहूदा बयानों के लिए जाने जाते हैं. 

लेकिन इस बयान से चीन के प्रेसिडेंट आगे निकल गए थे. चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग इंटरनेट पर टिप्पणी कर रहे थे जब उन्होंने कहा, “Freedom is what order is meant for, and order is the guarantee of freedom.”

रूस की ही तरह चीन ने भी पिछले 20 वर्षों में सोशल मीडिया के महत्व को काफी ज्यादा समझने की कोशिश की है. 

इसी वजह से चीन के राष्ट्रपति ने सोशल क्रेडिट सिस्टम की शुरुआत की है. मतलब साफ़ है कि चीन में रहने वाले सभी लोगों की सोशल मीडिया एक्टिविटी पर गहरी नज़र रखी जाती है. 

इसे आप ‘Xi Jinping’ का लोगों के ऊपर technological surveillance भी कह सकते हैं. इस तकनीक को भी चीन ने अमेरिका से ही सीखा है.

क्या सत्ता की लड़ाई कभी खत्म हो सकती है? इस सवाल का कोई जवाब नहीं है
बर्लिन वॉल के गिरने के बाद से, इस दुनिया में बहुत कुछ हुआ है. इस दुनिया की राजनीति में भी बहुत कुछ हुआ है. 

यहाँ के लोगों ने खराब से लेकर बहुत काबिल राजनेताओं को भी देखा है. लेकिन हमें समझना चाहिए कि पूरी कहानी इन नेताओं से बढ़कर है. ये कहानी इस दुनिया में रहने वाले आम इंसान की है. 

हमें पता होना चाहिए कि पूरे विश्व में जो कुछ भी फैसले लिए जाते हैं. उनका घूम फिरकर असर आम लोगों की ज़िन्दगी पर ही पड़ता है. 

इसलिए बहुत ज़रूरी हो जाता है कि हम लोग लोकतंत्र को बचाने की कोशिश करें. ये लोकतंत्र किसी एक देश के लिए ज़रूरी नहीं है. बल्कि लोकतंत्र  का होना दुनिया के हर देश के लिए ज़रूरी है. 

दुनिया में कुछ बड़े प्रोटेसटर हुए हैं, जिन्होंने अपनी-अपनी जगह डेमोक्रेसी के लिए काफी काम किए हैं. जब ऑथर ने उनसे सवाल किया कि क्या वाकई डेमोक्रेसी जीवित रहेगी? 

जब लेखक ने बराक ओबामा से उनकी लिखी किताब के बारे में बात की, तो ओबामा ने बताया कि शीत युद्ध के बाद के युग में बहुत से बदलाव देखने को मिले हैं.  पूरे इतिहास में, लोकतंत्र में गिरावट आई है और इसे नुकसान भी पहुंचाया गया है, और इस बात में भी कोई दो राय नहीं है कि राजनेता हमेशा लोकतंत्र को बाधित करने का प्रयास करते रहेंगे. 

एक रूसी लेखिका और कवि मारिया स्टेपानोवा हैं, इन्होने वर्तमान महामारी में एक संभावित चांदी की परत देखती हैं जिसने दुनिया में लगभग सभी को प्रभावित किया है.

वो कहती हैं कि “हो सकता है कि यह वैश्विक संकट लोगों को याद दिलाए कि, जातिवादी षड्यंत्र के सिद्धांतों और प्रतिशोधी राष्ट्रवाद की तुलना में सत्य, ज्ञान और दुनिया के लिए एकता और प्रेम  अधिक उपयोगी हैं. हो सकता है कि लोग नफरत को भूलकर लोकतंत्र पर भरोसा करने लगें. 

लेकिन ऐसा भी हो सकता है कि इसका जस्ट अपोजिट देखने को मिले, ऐसा हो सकता है कि लोग सोशल मीडिया की तरफ ज्यादा आकर्षित हो जाएँ और उनके पास दूसरे लोगों के लिए समय ही ना बचे. फिर तो किसी भी देश का लोकतंत्र वहां के लोगों के लिए खत्म ही हो जाएगा. 

इसलिए किसी भी देश का नागरिक होने के नाते, ये आम लोगों की ज़िम्मेदारी है कि वो लोग अपने देश की डेमोक्रेसी को ज़िन्दा रखें. क्योंकि जब तक डेमोक्रेसी ज़िन्दा है, तभी तक इंसानियत भी ज़िन्दा है.

कुल मिलाकर
बर्लिन की दीवार गिरने और शीत युद्ध की समाप्ति के बाद, अमेरिका दुनिया में एक उद्देश्य के बिना रह गया था. लोकतंत्र के लिए लड़ने के बजाय, इसने पूंजीवाद के एक संस्करण को बढ़ावा दिया जिसने आर्थिक असमानता को जन्म दिया. जिसकी वजह से दुनिया ने साल 2008 की फाइनेंसियल क्राइसिस को भी देखा था. इन सबका ज़िम्मेदार एक ऐसा देश था, जिसे सभी के ऊपर राज़ करने का मन था. उसनें दुनिया से नफरत को खत्म करने का ढ़ोंग रचाया और खुद छोटे-छोटे देशों को परेशान करता रहा. लेकिन अभी एक उम्मीद है, वो ये है कि शायद लोग किताबों को पढ़ने की शुरुआत करें. और देश में डेमोक्रेसी को बचाने के लिए अपनी आवाज़ बुलंद करें. 

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