Farhad Manjoo
न्यूज़ और मीडिया आपके सामने किस तरह के सच को पेश कर रहे हैं?
दोफ़्ज़ों में
True Enough किताब आज के दौर के फैक्ट्स के ऊपर है, ये किताब बताती है के आज के समय न्यूज़ और मीडिया आपके सामने किस तरह के सच को पेश कर रहे हैं, ये किताब बताती है कि किस तरह हमारी सोच या फिर हमारी ओपिनियन हमारी जिंदगी पर प्रभाव डालती हैं, इसी के साथ किताब ये भी बताएगी कि किस तरह न्यूज़ प्रोड्यूसर हमारी सोच को उनके फायदे के लिए उपयोग में लाते हैं.
ये किताब किसके लिए है
· कोई भी जो मीडिया के साथ अपने संबंध को जानना चाहता हो
· कोई भी जिसकी दिलचस्पी सोशियोलॉजी पर हो
· कोई भी ऐसा जिसकी दिलचस्पी साइकोलॉजी पर हो
लेखक के बारे में
इस किताब के लेखक फरहाद मंजू पेशे से मशहूर पत्रकार हैं, ये साल 2014 से लगातार न्यू यॉर्क टाइम्स के लिए भी लिख रहे हैं, वॉल स्ट्रीट ऑफ़ जर्नल के लिए भी ये काम कर चुके हैं.
हम हमेशा उसी सच की तलाश में रहते हैं जो हम मानते हैं
हमारी मान्यता या फिर कहें बिलीफ हमे इस कदर मजबूर कर देता है कि हम ये भी फैसला कर लेते हैं कि हमें पहले क्या देखना है. हम उसी तरह की चीजें देखते हैं जो हमारी मान्यताओं से मेल खाती हैं. इस पर साल 1967 में रिसर्च भी हुई थी कि आखिर लोग कैसा रियेक्ट करते हैं, जब उनके सामने आप उनकी मान्यताओं से अलग चीज परोसी जाती है? उस रिसर्च का रिजल्ट भी यही था कि हम वही देखना चाहते हैं, जो हम मानते हैं.
हमें इस बात से फर्क नहीं पड़ता है कि वो चीज हमारे लिए अच्छी है कि नहीं है, हम हमेशा हमारे बिलीफ सिस्टम के हिसाब से ही काम करते हैं. इसी सिस्टम के कारण कई बार हम मुसीबत में भी फंस जाते हैं.
क्रीस्टीन इसकी एक दुखद उदाहरण हैं, वो ये सोचती थीं कि एचआईवी से एड्स नहीं होता है, यहां तक कि उनको खुद एचआईवी हो चुका था, तब भी वो अपनी मान्यता को ही मानती रहीं, और अपनी बच्ची को स्तनपान भी करवाती रहीं, उनकी 3 साल की बच्ची बीमार पड़ गई, उन्होंने डॉक्टर को नहीं बताया कि उन्हें एचआईवी है, क्योंकि वो इसे मानती ही नहीं थीं.
अंत में रिजल्ट ये आया कि उनकी बेटी मर गई, और बाद में पता चला कि उसकी मौत एड्स से ही हुई थी. हम अपनी सोच से इतनी बुरी तरह से चिपके हुए रहते हैं कि कई बार इसके बहुत खतरनाक परिणाम हमें भुगतने पड़ते हैं. इसलिए हमें समझना पड़ेगा कि सच क्या है और झूठ क्या है, क्या हम अभी इन दोनों के बीच में फर्क कर पाते हैं या नहीं कर पाते हैं.
क्या आपने कभी नोटिस किया है कि अलग-अलग राजनीतिक विचारधारा के लोग अलग-अलग तरह की न्यूज़ देखना पसंद करते हैं? नहीं किया है तो आप यूएस रिपब्लिकन और डेमोक्रेट्स को देख लीजिये. रिपब्लिकन वाले डेमोक्रेट्स की अपेक्षा ज्यादा इनफार्मेशन के पीछे भागते हैं, वो अपने बिलीफ को ज्यादा मानते हैं. ये बात साइकोलॉजी में रिसर्च करने के बाद की जा रही है.
मनोवैज्ञानिक लोविन ने अपने अध्ययन के लिए एक ब्रोशर दोनों पार्टियों के नेताओं को भेजा, इस ब्रोशर में अलग-अलग तरह के मैसेज थे, लोविन ने अपने अध्ययन में पाया कि डेमोक्रेट्स ने हर तरह के ब्रोशर का आर्डर दिए हैं लेकिन रिपब्लिकन्स सिर्फ वैसे ब्रोशर का आर्डर दिए हैं जो उनके बीलीफ सिस्टम के हिसाब से मजबूत मैसेज देते थे.
आज के दौर में भी आप ये देख सकते होंगे कि हर पार्टी की या फिर हर इंसान की एक सोच होती है, जिसे हम विचारधारा भी कहते हैं, इसी विचारधारा के अनुसार लोग काम करने लगे हैं.
ख़ास बात तो ये है कि रिपब्लिकन्स और डेमोक्रेट्स दोनों ही पार्टियाँ अलग-अलग तरह की खबरें देखना पसंद करती हैं, लेकिन दोनों ही पार्टिया ये समझती हैं कि मीडिया उनके विपक्ष के साथ काम करती हैं. दोनों पार्टियाँ ये मानती हैं कि मीडिया दूसरी तरफ झुकी हुई है, और इस बात का पुख्ता सबूत किसी के पास नही है.
क्या न्यूज़ चैनल भी प्रोपगेंडा चलाते हैं?
गलत जानकारी को फैलाना अब बहुत आसान हो गया है, लेकिन किसी भी मीडिया संस्थान को अपनी विचारधारा को लेकर सतर्क रहना चाहिए, सबसे ज़रूरी है कि न्यूज़ चैनल को ये कोशिश करनी चाहिए कि वो किसी भी कठिन विषय को अपनी विचारधारा के अनुसार ना घुमाएं बल्कि सच को सच ही रहने दें.
अगर आप न्यूज़ देखोगे कि आपकी फेवरेट फ़ुटबाल की टीम कोई चैंपियनशिप जीत गई है तो उसे आप कहीं और से भी कन्फर्म करोगे, अगर टीम का खराब साल रहा होगा तो, अगर ये खबर गलत निकली तो फिर आप कभी उस चैनल पर नहीं जाओगे, इसलिए न्यूज़ चैनल को फैक्ट्स के साथ खिलवाड़ नहीं करना चाहिए.
क्योंकि अब कन्फर्म करना आसान हो गया है तो फिर न्यूज़ चैनल कभी भी अब हाई फीडबैक टॉपिक के साथ खिलवाड़ नहीं करते हैं.
इस बात में भी कोई दो राय नही है कि न्यूज़ चैनल रियल फैक्ट्स को दिखाकर अपने गलत आर्गुमेंट्स को प्रूफ करते हैं, ऐसा करते हुए आप कई चैनल्स को देखते होंगे.
कई बार तो हमें मीडिया सीधे तौर पर इफ़ेक्ट कर देता है, लेकिन कई बार चीजें प्लांट की जाती हैं, ये प्लांट करने का काम पीआर फर्म्स का होता है, ये एक कैम्पेन चलाते हैं, और उस कैम्पेन को इस तरह से प्रस्तुत किया जाएगा कि आप गलत चीज को भी सही माननें में मजबूर हो जाएंगे.
आधिकारिक तौर पर नहीं अनअधिकारिक तौर पर ही सही लेकिन पीआर फर्म हमको इफ़ेक्ट तो काफी कर जाती है, इसकी चोट ऐसी होती है कि दिखती भी नहीं और दर्द भी बहुत देती है. प्रोडक्ट के लॉन्च होने से लेकर उसके आपके दिमाग में बैठाने तक का काम पीआर फर्म्स करती हैं. किसी नेता की इमेज चमकाने का काम भी पीआर फर्म्स करती हैं.
1990 के दौर में यूएस में नये नियम बने थे, इन नियमों के आने के बाद से सिगरेट कम्पनी को काफी ज्यादा नुकसान हो रहा था. यूएस की एक तम्बाखू की कम्पनी है आरजेआर. ये कम्पनी वहां की दूसरी सबसे बड़ी कम्पनी है. इस कंपनी ने उस दौर में अपने पीआर डिपार्टमेंट को एक्टिव कर दिया था. उन्होंने एक कैम्पेन चलाया जिसका नाम दिया गया ‘चॉइस’, इसकी टैग लाइन थी कि स्मोकर्स भी नॉन स्मोकर्स की ही तरह सोसाइटी का हिस्सा हैं, स्मोक करना उनकी चॉइस है.
हर जगह आरजेआर का प्रचार हो रहा था, लेकिन ये कैम्पेन फेल हो गया था, उसके पीछे का कारण ये था कि स्मोकर्स ने खुद ही सिगरेट कम्पनी का विरोध कर दिया था. आरजेआर कम्पनी को पता चल चुका था कि उनका कैम्पेन फेल हो चुका है, लोगों ने इसका विरोध किया, ये फैसला कम्पनी का गलत निकल गया था.
फिर कंपनी ने एक और कैम्पेन डिजाईन किया, इस बार ये थोड़ा छोटा कैम्पेन था, इस कैम्पेन को उन्होंने नाम ‘गेट द गवर्नमेंट ऑफ़ ऑउर बैक्स’ (Get the Government Off Our Backs). ये कैम्पेन इसलिए नहीं था कि आप स्मोकिंग करें बल्कि सरकार की नीतियों को लेकर था. उनका कहना था कि सरकार ने आज सिगरेट पर पाबन्दी लगाईं है, कल शराब पर लगा देगी, फिर फ़ास्ट फ़ूड पर भी लगा देगी और पता नहीं किन किन चीज़ों पर पाबन्दी लगा देगी. इस कैम्पेन के द्वारा इनडायरेक्ट तरीके से कम्पनी लोगों टार्गेट कर रही थी, बात सिंपल सी इतनी है कि लोगों को पता चले या ना चले लेकिन लोग पीआर के चंगुल में हमेश फंस ही जाते हैं.
वीडियो प्रोडक्शन आसान होने से झूठ भी आसान हो गया है
पहले के समय की बात करें तो वीडियो प्रोडक्शन का काम काफी ज्यादा महंगा हुआ करता था, सब लोग इस काम को नहीं कर सकते थे, कुछ बड़े चैनल ही बस हुआ करते थे, या फिर ऑडियो की बात करें तो बस कुछ रेडियो चैनल हुआ करते थे.
डिजिटल क्रांति का धन्यवाद करना होगा कि आज के समय में एक क्रान्ति सी आ गई है, अब कोई भी वीडियो प्रोडक्शन कर सकता है, कोई भी रेडियो चैनल बना सकता है, सब कुछ आसान हो चुका है, इसलिए न्यूज़ भी कई जगह से जल्दी जल्दी आती हैं.
लेकिन इस डिजिटल चेंज से एक चीज और बढ़ी है वो ये कि आप अपनी बिना सर पैर की थ्योरी से भी लोगों को भड़का सकते हैं.
इसके लिए हम साल 2005 का उदाहरण लेते हैं, यूएस के 9/11 हमले पर एक मूवी बनी थी, इस मूवी को डेलान एवरी नाम के निर्देशक ने बनाया था, इसमें उन्होंने उसी विचारधारा को दिखाया था, जिसमे ये कहा गया है कि यूएस की सरकार ने ही हमला करवाया था, उस फिल्म को किसी ने नहीं खरीदा था, किसी सिनेमा घर में नहीं रिलीज हुई थी. लेकिन वो मूवी गूगल के वीडियो चार्ट में टॉप पर थी.
अब आप समझ रहे होंगे, डिजिटल क्रान्ति को, एवरी ने उस फिल्म को 2000 डॉलर से भी कम पैसों में बना लिया था, क्योंकि उन्होंने सिर्फ एक लैपटॉप से मूवी का निर्माण किया था. अब तो मूवी बनाना और आसान हो चुका है, अब तो आप अपने मोबाइल से भी मूवी बना सकते हो.
ऐसा नहीं है कि सिर्फ विचारधारा तेजी से फैलती है बल्कि प्रचार भी लोग अपना अब डिजिटल के माध्यम से बहुत तेजी से करते हैं.
अब इसमें जो सबसे खतरनाक बात छुपी हुई है, वो ये है कि जब इतने सारे लोग वीडियो बना रहे हैं, तो सही खबर कैसे मिलेगी, आज के दौर की पत्रकारिता इसी द्वन्द से जूझ रही है कि सही खबर से पहले फेक न्यूज़ लोगों तक पहुंच जाती है. अब अगर हम न्यूज़ पढ़ते हैं तो ये हमारी जिम्मेदारी है कि हमारा सोर्स ऑफ़ न्यूज़ सही होना चाहिए, तभी इस डिजिटल क्रांति का सही उपयोग हो पायेगा.
एक चीज सोचिये आप कि आप अपने बच्चे को दिखाने किसी डॉक्टर के पास गये हैं, और बाद में आपको पता चलता है कि वो डॉक्टर फर्जी था, उसके पास तो डिग्री भी नहीं थी, कैसी हालत होगी आपकी? ऐसा ही कुछ अब हो रहा है न्यूज़ इंडस्ट्री में भी, क्योंकि इस ऑनलाइन के जमाने में सभी की आवाज सुनाई दे रही है, तो कैसे पहचाने की सही कौन है और गलत कौन है?
2004 का उदाहरण लेते, अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव के बाद, एक गणितग्य जिनका नाम कैथी डोप है, उनको राष्ट्रपति चुनाव के रिजल्ट में कुछ गड़बड़ी महसूस हुई तो उन्होंने रिपोर्ट किया.
उन्होंने कम्प्लेन किया कि रिपब्लिकन्स ने हैक कर लिया था चुनाव, और इस बात को उन्होंने ऑनलाइन पोस्ट कर दिया, उनकी कैलकुलेशन सही थी, लेकिन इंटरप्रिटेशन गलत. गलत इसलिए था क्योंकि वो राजनीतिक वैज्ञानिक तो थी नहीं, कई सारे एक्सपर्ट ने उनके व्यूज को नकार दिया था, लेकिन उनकी खबर इतनी ज्यादा फ़ैल चुकी थी कि कई लोग भ्रमित भी हो गये थे. मतलब साफ़ है कि आज के डिजिटल समय में गलत चीजें भी वायरल बहुत जल्दी होती हैं.
टेलीविज़न एक्टर डॉक्टर फॉक्स कहते हैं कि आप कोई भी चीज जिस लहजे से कह रहे हैं वो हमेशा आपके कंटेंट से भी ज्यादा महत्व रखता है. एक रीडर और एक व्यूअर के तौर पर आपकी भी एक बड़ी जिम्मेदारी बनती है कि आपके पार कोई भी न्यूज़ आये, चाहे आपने वह किसी मशहूर न्यूज़ चैनल पर ही क्यों न देखी हो या कोई भी वाट्सएप फॉरवर्ड आये तो आप उसे फॉरवर्ड करने से पहले या उसे सही मानने से पहले उसकी बहुत अच्छी तरह से छान बीन कर ज़रूर कर लें.
गलत जानकारी फैलने से मीडिया के ऊपर हमारा विश्वास भी कम होता जा रहा है
सबसे बड़ा सवाल खड़ा होता है हमारे सामने भी और मीडिया के सामने भी कि इतनी गलत जानकारियों का हमारी रोज की जिन्दगी पर क्या प्रभाव पड़ रहा है? इसका जवाब सिंपल सा ये है कि आम लोगों का भरोसा मीडिया से कम होता जा रहा है.
इसका असर समाज के ऊपर भी पड़ सकता है, समाज की सूरक्षा के लिए हमें इस पहलु पर गौर करने की जरूरत है, साल 1954 में रिसर्चर एडवर्ड ने एक अध्ययन किया था.
उन्होने ये अध्ययन इटली में किया था, इस अध्यन के माध्यम से उन्होंने बताया कि ना सिर्फ इंसान के लिए बल्कि किसी भी समाज के लिए भरोसा एक बहुत ज़रूरी चीज होती है, किसी का भी भरोसा पाना इतना आसान काम नहीं होता है, ये एक तपस्या की तरह होता है, जिसे आपको निरंतर करते रहना पड़ता है.
भरोसा किसी भी समाज में इसलिए भी ज़रूरी है कि अगर ये खत्म हो गया तो जीवन भी खत्म होने लगेगा, किसी को किसी पर विश्वास नही होगा तो सोसाइटी में काम भी नहीं होगा, एक रहवासी होने के नाते हमारी ये नैतिक ज़िम्मेदारी बन जाती है कि हम समाज से विश्वास को बिलकुल भी कम नहीं होने दें, अब इसके लिए खबरों को कैसे चलाना है, इसका फैसला भी मीडिया को लेना ही पड़ेगा.
एक बात गौर करिए, ध्यान से, गलत खबरों के प्रभाव से सोसाइटी में विश्वास कम हो रहा है कि नहीं? इसकी कितनी जिम्मेदारी मीडिया को लेनी चाहिए?
हम एक डराने वाले आंकड़े पर नजर डालते हैं, साल 1960 में 60 प्रतीशत अमेरिकन एक दूसरे पर भरोसा करते थे, साल 1990 में ये आंकड़ा 40 प्रतिशत हो गया, वहीँ साल 2006 आते-आते ये आंकड़ा 32 प्रतिशत पर आ गया. एक राजनीतिक वैज्ञानिक के अनुसार अमेरिकन्स 1960 के बाद से लगातार एक दूसरे से बातचीत कम करते जा रहे हैं, इसका मतलब साफ़ है कि उनके बीच का विश्वास भी कम होते जा रहा है.
राजनीतिक वैज्ञानिक ने बताया भी है कि इसके पीछे का कारण और कुछ नहीं भरोसे की कमी ही है, भरोसे की कमी क्यों हो रही है, क्योंकि हम लोगों से डिजिटली ज्यादा कनेक्ट होते हैं. हम डिजिटल न्यूज़ फीड देख रहे हैं, न्यूज़ हमें अपना गुलाम बना रही है. इससे बचने का तरीका भी हमारे पास है कि न्यूज़ सही और सटीक देखिये, मीडिया समाज को नुकसान तभी पहुंचा सकती है जब वो गलत न्यूज़ दे और हम देखते रहें, हमको आज से बल्कि अभी से फेक न्यूज़ को ना कहना ही होगा. एक अच्छे समाज के लिए एक अच्छा भरोसा होना भी ज़रूरी है. कौनसा चैनल प्रोपगंडा फैला रहा है ये पता करने का एक आसान तरीका है. अगर कोई चैनल दिन रात बस अपने देश की सरकार की तारीफ ही करता रहता है तो समझ जाइएगा कि वह चैनल किसी प्रोपगंडा के तहत चल रहा है.
कुल मिलाकर
अगर आप आज की मीडिया पर नजर डालेंगे तो आपको काफी ज्यादा निराशा ही देखने को मिलेगी, आज की मीडिया में विचारधारा का बोल बाला है, मीडिया को जज नहीं बनना चाहिए, लेकिन आज की मीडिया फैसला पहले ही सुना देती है, आज के समय में अब मीडिया ट्रायल आम सी बात हो गई है, हर मीडिया हाउस के पास फर्जी एक्सपर्ट की फ़ौज है, जो किसी भी मुद्दे को उठाकर गलत तरीके से आपके सामने पेश कर देंगे, खुद को और अपने समाज को ऐसे मीडिया से बचाकर ही रखिये, अब ये हमारे ऊपर निर्भर करता है कि क्या हम भी ऐसी खबरों में आकर खुद को नीचा गिरा देंगे, जितनी जल्दी ये मीडिया बदल रहा है, हमारा भरोसा भी उस पर कम होता जा रहा है. अगर आपकी सोच दूर की है तो आप समझ सकते हैं कि इसके परिणाम कितने खतरनाक होने वाले हैं.
कई बार या अधिकतर बार लोग इसलिए किसी के बहकावे में आ जाते हैं क्योंकि उसका व्यक्तित्व काफी आकर्षक होता है, इसलिए ज़रूरी नहीं कि जो अच्छा दिखता हो वो सच्चा भी हो, आपने सुना तो होगा कि सच हमेशा कड़वा होता है. इसलिए सच के पास जाने की कोशिश करिए, ना कि इस झूठ के जंजाल में फंसने की, यहां बहुत से ऐसे लोग हैं जो सफ़ेद कपड़ों में झूठ बेचते हैं.
इसलिए अगली बार आप किसी को सुनियेगा तो ध्यान दीजियेगा कि वो क्या बोल रहा है, उसकी शक्ल सूरत कैसी है, इससे कुछ लेना देना नहीं होना चाहिए, अब आपको तय करना है कि सुंदर झूठ चाहिए या फिर कड़वा सच. चलते-चलते एक बात और, किसी भी कैम्पेन से जुड़ने से पहले उसके पीआर को देख लीजिएगा, पीआर के चंगुल में अब आपको नहीं फंसना है, सत्य, सटीक और सुंदर जीवन के लिए दिमाग खोल लीजिये.
