The Life of Swami Vivekanand

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The Life of Swami Vivekanand

Mani Shankar Mukharjee
स्वामी विवेकानंद की आत्मकथा

दो लफ्जों में
‘उठो जागो और तब तक नहीं रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त नहीं हो जाता’ ये बेहतरीन बात आज भी उतनी ही अहमियत रखती है जितनी की 19वीं सदी में थी जब स्वामी विवेकानंद नें अपने मुख से इसे कहा था. इश्वर क्या है, कौन है, क्या किसी नें उसे देखा है जैसे गहरे सवाल पूछने वाला 7-8 साल का एक बच्चा किसे पता था कि एक दिन शिकागो में ‘वसुदेव कुटुम्बकम’ की बात कहेगा. एक मिडिल क्लास परिवार में जन्म लेने से विश्व गुरु बनने तक स्वामी विवेकानंद के जीवन से जुड़े हर पहलुयों पर आज हम चर्चा करेंगे. हम इस बायोग्राफी के जरिये  जानने की कोशिश करेंगे कि आखिर उनके व्यक्तित्व में वो क्या बात थी जिससे भारत नही बल्कि भारत को तुच्छ समझने वाले अमेरिका जैसे देशों नें भी बाहें फैला कर उनका स्वागत किया. उनके लाइफ गोल्स, लाइफ अचिवमेंट्स, मेजर माइलस्टोन के बारे में जानकर हम उनके जीवन से अपने जीवन की रूपरेखा तैयार करेंगे.

ये किताब किसके लिए है?
- स्वामी विवेकानंद की लाइफ और उनकी टीचिंग में दिलचस्पी रखने वालों के लिए.
- लाइफ में नए आयामों की खोज में जूते लोगों के लिए.
- जो अपनी लाइफ में शांति और स्पिरिचुअलिटी (spirituality) को ढूँढ रहे हो.
- हर उस इंसान के लिए जो लाइफ में सक्सेसफुल होना चाहता है.

लेखक के बारे में
इस किताब के लेखक मणि शंकर मुखर्जी रीडर्स के बीच शंकर नाम से फेमस है. वो बंगाली और इंग्लिश साहित्य के जाने माने लेखक है. शंकर नें स्वामी विवेकानंद के जीवन और उनकी शिक्षाओं पर आधारित कई किताबें लिखी हैं. वो बंगाली साहित्य के सबसे सीनियर लेखक है. अपनें बेहतरीन लेखन के लिए उन्हें 18 मार्च 2021 को ‘साहित्य कला अकैडमी’ पुरुस्कार से नवाज़ा गया है.

बचपन के दिन और शुरुवाती शिक्षा
कलकत्ता से शिकागो तक अपने वक्तव्य, ज्ञान और सरल स्वाभाव से अपनी अमिट छाप छोड़ने वाले स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी सन्1863को कलकत्ता के एक कायस्थ परिवार में को हुआ था. वो मकर संक्रांति का पावन दिन था मंदिर से घंटी और आरती की आवाज़ आ रही थी. भुनेश्वरी देवी और विश्वनाथ दत्त के घर में एक नन्हे से बालक नें जन्म लिया. उसके चेहरे से मानो ऐसा नूर टपक रहा था जैसे इश्वर स्वयं प्रकट हुए हैं. भुनेश्वरी देवी भगवान शिव की बहुत बड़ी भक्त थी इसलिए वो चाहती थी कि उसके बेटे का नाम वीरेश्वर (Vireshwar) रखा जाए. लेकिन उनके पंडित नें उनका नाम नरेंद्रनाथ तय किया और घर पर सब उस दिव्य बालक को नरेन कहकर बुलाने लगे.किसे पता था अपने घर का लाडला नरेन् एक दिन विश्व गुरु स्वामी विवेकानंद बनने वाला है.

उनका पूरा परिवार काफी पढ़ा लिखा और खुले विचारों का था.उनके पिता विश्वनाथ दत्त कलकत्ता हाईकोर्ट के एक जाने माने वकील थे. अंग्रेजों के साथ उनका उठाना बैठना था इसलिए वो वेस्टर्न कल्चर से काफी प्रभावित थे. वो चाहते थे कि नरेन्द्र भी किसी बड़े अंग्रेजी स्कूल से पढ़कर ब्रिटिश गवर्नमेंट में बड़ी पोस्ट पर काम करे. उनकी माता भुवनेश्वरी देवी धर्म-कर्म में बहुत विश्वास रखती थीं. उनके घर में आये दिन कोई न कोई पूजा या कथा होती थी. घर में ऐसे धार्मिक माहौल के कारण नरेन्द्र के मन में छोटी उम्र से ही भगवन के बारे में जानने की और उसे हासिल करने की इच्छा जाग उठी. उनकी माँ अक्सर उन्हें रामायण और महाभारत की  कहनियाँ सुनाया करती थी. उनके तर्कों को सुन कर कई बार उनकी माता भी दंग रह जाती थी. उनके पिता भौतिक सुख सुविधायों के प्रति रूचि रखते थे लेकिन इसके विपरीत नरेन्द्र का मन सन्यासी जीवन और धर्म को समझने में ज्यादा लगता था.

अपने क्यूरियस नेचर के कारण वो हर किसी से सवाल पूछते रहते थे. आप एक 7 साल के बच्चे की समझ का अंदाज़ा यहीं से लगा सकते हैं कि उसनें अपने पिता से पूछा कि “आपने मेरे लिए क्या किया?”. उनके पिता नें उसे कहा कि आईने में खुद को देखो और समझ लो कि मैंने क्या किया अब इसके आगे अपने लिए तुम्हे सब खुद करना. उसके पिता नें इतनी बड़ी बात इतने छोटे शब्दों में बता दी कि माँ-बाप बस जन्म दे सकते हैं लेकिन हर एक की तकदीर उनके ही हाथों में होती है. फिर नरेन्द्र नें पूछा पिताजी मुझे दुनिया के सामने कैसे रहनाचाहिए.उनके पिताजी नें कहा बस किसी भी चीज़ को देखकर हैरान मत होना चाहे वो कितनी भी अच्छी हो, बुरी हो, बड़ी हो या छोटी हो. इसलिए चाहे गाँव का चौपाल हो या शिकागो का मंच नरेन्द्र कभी घबराया नहीं.

सभी माता-पिता की तरह नरेन्द्र के पिता भी चाहते थे कि वो पढ़ लिखकर अपना भविष्य बनाये. इसी सोच के साथ उन्होंने सन 1871 में 8 साल की उम्र में नरेन्द्र को इश्वर चन्द्र विद्यासागर के मेट्रोपोलिटन संस्थान में दाखिला दिला दिया.जहाँ बाकी बच्चे खेल कूद के सपने देखते वहीँ नरेन् को इश्वर की रौशनी से जुड़े सपने आते थे. उन्हें सपने में अक्सर रौशनी का एक गोला दिखाई देता जो उनके ऊपर रौशनी की बरसात किया करता था. उस रौशनी में नाहा कर उनका तन मन भी उसी रौशनी की तरह चमकदार हो जाता. उन्होंने कई लोगों से अपने इस सपने का मतलब पूछा पर कोई उन्हें संतोषजनक जवाब नहीं दे पाया सिवाय उनके गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस के.

स्कूली शिक्षा ख़त्म करने के बाद वो आर्ट्स में ग्रेजुएशन करने के लिए प्रेसीडेंसी कॉलेज गए. वो उस समय के पहले ऐसे भारतीय छात्र थे जिसनें अपनेकॉलेज के एडमिशन टेस्ट में फर्स्ट डिवीज़न अंक प्राप्त किया हों.कॉलेज में दाखिले के बाद उन्होंने कई साहित्य,कला और धार्मिक किताबें पढ़ी.किताबों के प्रति उनकी रूचि देखकर उनके प्रिंसिपल विलियम हेस्टी नें कहा था कि उन्होंने आज तक नरेन्द्र जैसा स्टूडेंट नहीं देखा.

रामकृष्ण परमहंस से मुलाक़ात
हमारे जनरेशन की सबसे बड़ी प्रोब्लम ये ही कि हम अपना गोल ही नहीं समझ पाते.लेकिन नरेन्द्र नें अपने टीनएज के दिनों में ही अपनी लाइफ का गोल डिसाइड कर लिया था. एक दिन उनके सपने में दो लोग आये एक पढ़ा लिखा वेल सेटल्ड (well-settled) व्यक्ति जिसके पास अच्छी नौकरी, अच्छा घर, एक खुशहाल परिवार सभी भौतिक सुख सुविधाएं थी. वहीँ दूसरा एक साधू जो इश्वर की तलाश में सारी दुनिया घूमता हुआ रोज़ नए लोगों से मिले दुनिया के हर कोने को देखे वो भी बिना मोह माया के. सुबह उठ कर उन्होंने दोनों रास्तों पर विचार किया और फिर एक संन्यासी बनने का निर्णय लिया.

उनका बस एक ही गोल था कि उन्हें भगवान से मिलना था उन्हें देखना था और उन्हें एक्सपीरियंस करना था. इसके लिए वो एक ऐसे व्यक्ति की तलाश में थे जिसनें खुद भी इस  एहसास को जिया हो. वो कई लोगों से मिले उन्होंने ब्रहम समाज (Brahm samaaj) भी ज्वाइन किया. हर किसी से वो एक ही सवाल पूछते थे कि ‘क्या आपने भगवन को देखा है?’. लेकिन हर कोई उन्हें बहलाने के लिए अलग-अलग उपाय बताता रहता. उनका मन बहुत उदास और निराश हो गया. एक दिन किसी नें उन्हें रामकृष्ण परमहंस के बारे में बताया. उनसे मिलने की आशा में वो दक्षिणेश्वर मंदिर गए. अपना शिष्य बनाने से पहले रामकृष्ण नें उनकी परीक्षायें ली. उन्होंने देखा कि कैसे नरेन्द्र कोभजन गाते समय किसी भी चीज़ का ख्याल नही रहता ना अपने कपड़ों का, ना ही मौसम का,ना भूख-प्यास का,वो बस लीन हो जाता. नरेन्द्र की आंखें देखकर ऐसा लगता मनो वो हरदम साधना में लीन हैं. उनकी इश्वर को जानने के प्रति निष्ठा को देखकर रामकृष्ण खुशहो गए और उन्हें अपने शिष्य के रूप में स्वीकार कर लिया. धीरे-धीरे नरेन्द्र उनके सबसे प्रिय शिष्य बन गए जिससे वो अपने मन की सारी बातें शेयर किया करते.नरेन्द्र नें उनसे भी वही सवाल पूछा कि क्या आपने कभी भगवान को देखा हैं?”. रामकृष्ण नें  कहा हाँ जैसे मैं तुन्हें देख रहा हूँ वैसे ही मैंने भगवन को भी देखा है. दुनिया में अधिकतर लोग परिवार, पद और पैसे को लेकर चिंता में रहते हैं और भगवन से भी उसी से जुडीमनोकामनायें  मांगते हैं किसी नें आजतक भगवान से ये नहीं कहा कि मैं आपसे मिलना चाहता हूँ. जो ये मांगता है उसे भगवन जरुर दिखते हैं. आप भगवान से बात कर सकते हैं, उनके साथ भोजन कर सकते हैं. इस बात को सुन कर नरेन्द्र बहुत खुश हो गए . इसी चर्चा के बाद रामकृष्ण परमहंस जी नें उन्हें विवेकानंद का नाम दिया. वो नाम जो दुनिया के लिए अमर हो गया.

अपने गुरु के प्रति उनकी इतनी आस्था थी कि जब रामकृष्ण गले के ट्यूमर से ग्रसित हुए तो उनकी देख रेख की सारी जिम्मेदारी उन्होंने अपने ऊपर ले ली उनके कमरे में खून और थूक के छींटे साफ़ करने से लेकर उनके कपडे बदलने तक का सारा काम वो खुद करते थे. एक दिन किसी काम में फँस जाने की वजह से वो ये काम किसी दुसरे सिष्य को सौंप कर गए उसनें इस काम को लेकर घृणा का भाव दिखाया इसपर विवेकानंद बहुत नाराज़ हुए और उन्होंने थूक से भरा प्याला पीकर गुरु के प्रति अपनी सच्ची भक्ति साबित की.

विवेकानंद से स्वामी विवेकानंद बनने का सफ़र
स्वामी रामकृष्ण की मुत्यु के बाद अब सारे शिष्य बेघर और बेसहारा हो गए थे. उधर विवेकानंद जी के पिता का भी देहांत हो गया और घर मैं बड़े होने के नाते परिवार की  जिम्मेदारियाँ भी उनपर आ गयी. जैसे तैसे उन्होंने सभी शिष्यों के लिए एक कमरे का इंतज़ाम किया और यहीं से बारानगर मठ की शुरुवात हुयी. दिनभर वो अपने परिवार की जिम्मादेरियाँ निभाते और रात में शिष्यों को सिखाने-पढ़ाने का काम करते. रामकृष्ण की शिक्षा और विवेकानंद के साथ से सभी शिष्य एक दुसरे के साथ प्यार और विश्वास से रहते थे. सांसारिक मोह माया से परे वो दो जोड़ी कपडे और सादा खाना खाकर अपना गुजरा करते थे. जब थक जाते तो मन बहलाने के लिए भजन कीर्तन किया करते. 

लेकिन विवेकानंद चाहते थे कि उनके मठ में रहने वाले हर शिष्य को धर्म के साथ-साथ दुनिया का ज्ञान भी होना चाहिए इसलिए वो उन्हें महान शासकों और विचारकों की किताबें पढकर  सुनाते थे. प्लेटो, एरिस्टोटल, और बुद्ध जैसे महापुरुषों की जीवन गाथायें सुना कर वो अपने शिष्यों को प्रेरित किया करते थे. यहीं से वो विवेकानंद से स्वामी विवेकानंद कहलाने लगे.

एक भटकते हुए साधू के रूप में स्वामी विवेकानंद का सफ़र
सबकुछ ठीक चल रहा था विवेकानंद अपने मठ और घर की जिम्मेदारियों में व्यस्त थे एक दिन उन्हें फिर वही सपना आया जो वो बचपन में देखता करते थे जिसमें वो भगवा वस्त्रधारण करके दुनिया घूम रहे हैं नए-नए लोगों से मिलकर नयी-नयी संस्कृतियों को जान रहे हैं. अब विवेकानंद का मन व्याकुल हो उठा वो पैदल ही भारत भ्रमण पर जाना चाहते थे. वो खुद की तलाश कर अपनी आत्म-शक्ति को परखना चाहते थे. उन्होंने अपने मठ के शिष्यों से कहा कि अब उनके आत्मनिर्भर बनने का समय आ गया है और इतना कहकर एक लाठी और एक कटोरे के साथ वो भारत भ्रमण पर निकल गए.

अपनी यात्रा के पहले पड़ाव में वो भारत की पवित्र जगह वाराणसी गए जहाँ बुद्ध और शंकराचार्य जैसे महापुरुषों को ज्ञान की प्राप्ति हुयी थी. वराणसी के घाटों में उन्हें अनंत शांति और सुकून का अनुभव हुआ. एक दिन उनके पीछे बंदरों की एक फौज पड़ गयी वो आगे-आगे और बन्दर पीछे-पीछे. तभी एक साधू नें उनसे कहा कि भागो मत सामना करो और जब विवेकानंद नें उन बंदरों का सामान किया तो सारे बंदर डर कर भाग गए. तब विवेकान्द नें समझा कि हमें लाइफ की हर प्रॉब्लम का सामना करना चाहिए तभी वो ख़त्म होगी जब तक हम डरते रहते हैं वो प्रॉब्लम और बड़ी होती जाती है.

वाराणसी से वो भगवन राम की नगरी अयोध्या गए, फिर दिल्ली से होते हुए आगरा वहाँ मुग़लों द्वारा बनाई गयी इमारतो खासकर ताज महल को देखकर बहुत प्रभावित हुए. यहाँ से वो कृष्ण की नगरी मथुरा गए जहाँ उन्हें कृष्णा की लीलाओं का अनुभव हुआ.

एक बार घाट किनारे कुछ लोगों का झुंड हुक्का पी रहा था विवेकानंद जी नें उनसे हुक्के की पाइप मांगी उन्होंने कहा स्वामी आप ठहरे साधू और हम शुद्र हम आपके साथ ये कैसे बाँट सकते हैं. विवेकानंद नें उनसे कहा अब समय आ गया है कि हम अपने देश को जात-पात के जाल से बाहर निकलें. ऐसा कहकर उन्होंने उनसे पाइप लिया और हुक्का पीने लगे. यहीं से हमारे देश में जातिवाद  के खात्मे की नीव डली.

स्वामी विवेकानंद जी की अमरीका ट्रिप
उत्तर भारत से मध्य भारत और फिर दक्षिण भारत के कन्याकुमारी तक का सफ़र स्वामी जी नें बिना पैसों के पैदल चलकर तय किया. कन्याकुमारी जाकर उन्होंने समुन्द्र के बीचों बीच एक पत्थर नुमा आइलैंड पर मैडिटेशन सेंटर बनायाजिसका नाम उनकी याद में विवेकानंद रॉक मेमोरियल रखा गया. यहाँ से वो रामेश्वर गए जहाँ के रजा रामनाद उनसे इंस्पायर होकर उनके शिष्य बन गए. रामनाद ही वो व्यक्ति थे जिन्होंने विवेकानंद को अमेरिका की ट्रिप पर जाने की बात बताई. उन्ही नें विवेकानंद जी को ये एहसास करवाया कि भारतीय संकृति और हिन्दू धर्म का प्रचार-प्रसार अमेरिका जैसे देशों में भी होना चाहिए. 

विवेकानंद सोच रहे थे कि उन्होंने तो अपना जीवन भगवान के नाम किया है फिर वो इन सबमें क्यूँ पड़ें. उसी रात उन्हें सपना आया जिसमें उनके गुरु रामकृष्ण उन्हें समुद्र के रास्ते अमरीका कि तरफ इशारा करते हुए कह रहे थे,‘जन सेवा ही इश्वर सेवा है इश्वर तो हर व्यक्ति में बस्ता है’. सुबह उठते ही वो समझ गए कि उनके गुरु भी यही चाहते हैं कि वो अमेरिका जाकर भारत के कीर्तिमान की गाथा उन्हें सुनाएं और अमरीकियों का ध्यान भारत की ओर खींचे. उन्हें आईडिया आया कि वो अमेरिका के लोगों को भारत की संकृति और ग्रंथों का ज्ञान देंगे जिसके बदले वो लोग भारत को टेक्नोलॉजी और साइंस का ज्ञान दे सकते हैं.

लेकिन समस्या ये थी कि अमेरिका जाने से पहले वो अपने ज्ञान और बोलने की क्षमता को परखना चाहते थे. इसलिए उन्होंने मद्रास में लेक्चर लेना शुरू किया इस लेक्चर सीरीज का नाम उन्होंने ‘my mission to the west’ रखा. अब धीरे-धीरे लोग स्वामीजी को जानने लगे और उनकी कला और ज्ञान से प्रभवित होकर उनके शिष्य बन गए. देखते-देखते उनके शिष्यों की संख्या बढती गयी. एक दिन उनके शिष्यों नें पैसे जमा कर के उन्हें दिए और कहा कि वो इसका इस्तेमाल अपनी अमरीका की ट्रिप के लिए करें. लेकिन स्वामीजी नें उसे लेने से इंकार कर दिया और कहा कि इससे गरीबों की मदद कर दें. फिर रजा रामनाद नें उन्हें अमेरिका में होने जा रही ‘द पार्लियामेंट ऑफ़ रिलिजन’ के बारे में बताया और इस तरह वो अमेरिका के लिए रवाना हुए. उनकी ट्रिप को रजा रामनाद नें फाइनेंस किया.

भारत से शिकागो का सफ़र स्वामी जी नें पानी के रास्ते तय किया. इसमें उन्हें करीब 3 महीने लगे वो सिंगापुर, होंग कोंग से होते हुए जापान और फिर 30 जुलाई 1983 को अमेरिका पहुँचे. रास्ते में उन्हें कई लोग मिले जिनसे उन्हें बाहरी देशों की संस्कृति और उनके रहन-सहन के बारे में जानने को मिला.

अमेरिका पहुँचने पर उन्हें पता चला कि वो ‘ द पार्लियामेंट ऑफ़ रिलिजन’कांफ्रेंस शुरू होने के एक महीने पहले ही वहाँ आ गए थे. अब ना तो उनके पास रहने का कोई ठिकाना था न पैसे और ना ही खाने पीने के लिए कुछ. लेकिन जब भी विवेकानंद जी को किसी चीज़ की जरुरत पड़ती तो कोई न कोई अजनबी आकर उनकी मदद कर देता. मानोभगवान स्वयं अलग-अलग रूपों में आकर उनकी मदद कर रहे हो, जैसे वो चाहते हों कि वो अपने मिशन में कामयाब हों.

फाइनली 11 सितम्बर 1893 का वो दिन आ गया जिस दिन ‘ द पार्लियामेंट ऑफ़ रिलिजन’ स्टार्ट होना था. असल में ये वर्ल्ड कोलमबियन एक्सपोजीशन का एक पार्ट था. यह समारोह एक मेले की तरह सेलिब्रेट होता है. क्रिस्टोफर कोलंबस द्वारा अमेरिका की खोज की याद में ये दिन दुनिया को ये दिखने के लिए मनाया जाता है कि आज अमेरिका नें साइंस और टेक्नोलॉजी जैसे  लाइफ के जरुरी पहलुओं में कितनी तरक्की कर ली है. क्यूंकि धर्म भी जीवन का एक अभिन्न अंग है इसलिए इसे भी इस मेले का हिस्सा बनाया गया.

अमेरिका में पहले किसी नें भगवा वस्त्र और पगड़ी पहने ऐसे इंसान को आज तक नही देखा था सब उन्हें देखते रह गए. कई बच्चे तो स्वामी जी कि नक़ल भी करने लगे. द पार्लियामेंट ऑफ़   रिलिजन का वो हॉल 7000 लोगों से भरा हुआ था. दुनिया के कई धर्मों के गुरु वहाँ मौजूद थे सब अपनी स्पीच तैयार कर के लाये थे. विवेकानंद जी थोडा नर्वस महसूस करने लगे लेकिन उन्हें अपने पिता की बात याद आ गयी कि किसी चीज़ से हैरान मत होना. वो उठे और उन्होंने अपना भाषण शुरू करते हुए कहा, “मेरे अमेरिकी भाई बहनों”. इससे पहले किसी नें इतनी सौहाद्रपूर्ण तरीके से बात नहीं की थी सब उनके भाषण के कायल हो गए. वो बोलते गए और लोग सुनते रहे. अपने भाषण में उन्होंने सबको एक दुसरे की रिस्पेक्ट करने और जो जैसा है वैसे ही उसे एक्सेप्ट करने की बात कही. उन्होंने लोगों को समझाया कि सभी धर्म एक ही इश्वर तक  जाने के अलग-अलग रास्ते हैं. यहीं से शुरुवात हुयी सर्व धर्म समानता और वासुदेव कुटुम्बकम के नारे की, जो आज भी भारत देश की आत्मा में शामिल है. इस कांफ्रेंस के अंत तक स्वामीजी एक विश्व प्रसिद्ध धर्म गुरु बन गए. अमेरिका में भी उन्हें बोस्टन, न्यू यॉर्क और लन्दन जैसे शहरों में लेक्चर के लिए बुलाया जाने लगा इससे इक्कठे हुए फण्ड को वो भारत में गरीबों की मदद के लिए भेजने लगे. इस तरह उन्हें अपना मकसद पूरा होता हुआ दिखाई देने लगा.

अमेरिका में वेदांत की स्थापना
अमेरिका में बिताये सभी दिनों में अगर कुछ स्वामी जी के दिल के सबसे करीब था तो वो था नवम्बर 1894 में वेदांता समिति की स्थापना. हुआ ये कि गरीब बच्चों का एक ग्रुप स्वामी जी के पास आया और उनसे वेदों और योग के बारे में सीखने की इच्छाजताई कुछ पैसे इक्कठे करके उन्होंने एक हॉल किराये पर लिया और स्वामीजी वहीँ उन्हें लेक्चर देने लगे.

कुछ नया सीखने की उनकी लगन से स्वामीजी इतने प्रभावित हुए कि वो खड़े-खड़े घंटों उन्हें लेक्चर दिया करते. उन्हें योग, मैडिटेशन और वेदों का ज्ञान दिया सिखाते. अपने इन लेक्चरों को समराइज करकेउन्होंने राज योज, भक्ति योग, कर्म योग और ज्ञान योग नाम की किताबेंलिखी जिसे अमेरिका के लोगों नें बहुत पसंद किया. आज भी उनकी ये किताबें भारत ही नहीं बल्कि पश्चिमी देशों में भी पढ़ी जाती है. यहीं से न्यूयॉर्क में वेदांता समिति की नीव डली जिसकी शुरुवात चंद  गरीब बच्चों से होकर अमेरिका के बड़े-बड़े लोगों तक पहुँच गयी.

अमेरिका में भारत का परचम लहराने के बाद स्वामीजी भारत वापस लौटे. जब उनका जहाज़ मद्रास के पोर्ट पर आया तो लाखों लोग श्रद्धा भरी नज़रों से उनकी एक झलक का इंतज़ार कर रहे थे.ये सब देख कर उनकी आँखें भर आई उन्होंने सबका शुक्रिया किया.

स्वामीजी ना तो एक रजा थेना कोई अमीर व्यापारी, ना ही किसी ऊँची पोस्ट पर बैठे कोई अधिकारी वो तो बस साधारण से संयासी थे फिर भी लोग उनकी इज्ज़त करते थे. इस बात से हम ये सीख सकते है कि रिस्पेक्ट के लिए बस ज्ञान और योग्यता की जरुरत है.

कुछ लोग उनके पास उनसे कुछ सीखने आते, कुछ उनपर सवाल उठाने, कुछ उनके ज्ञान की परीक्षा लेने तो कुछ अपनी समस्याओं का हल ढूँढनें. लेकिन जो भी जिस भी इरादे से आता स्वामीजी खुले दिल से उसका स्वागत करते.

जो लोग उनके पास ज्ञान के लिए आते उन्हें वो सिखाते और जो शांति प्राप्त करने के लिए आते उन्हें बस स्वामीजी यही कहते कि इश्वर किसी मूर्ति में ढूँढनें से नही मिलेगा. बल्कि अपनेआस-पास के लोगों की जितनी हो सके उतनी मदद करने से मिलेगा. उनका कहना था कि अगर वो भूखे है तो उन्हें खाना दो, अगर बीमार है तो इलाज दो और अगर अज्ञान है तो उन्हें पढाओ. यही सच्ची भक्ति है.

स्वामीजी के जीवन के आखरी दिन
ज़िन्दगी के आखरी दिनों में स्वामीजी अस्थमा के शिकार हो गए. डॉक्टरों नें उन्हें दक्षिण छोड़कर फिर से उत्तर की ओर जाने को कहा क्यूंकि वहाँ के मौसम में नमी कम थी जो उनके स्वस्थ के लिए अच्छा था. उनके अमेरिकी शिष्यों के साथ मिलकर स्वामीजी नें बेलूर मठ की स्थापना की जो आज भी स्वामीजी के ज्ञान को महेसूस करने की सबसे अच्छी जगह मानी जाती है. ये सभी रामकृष्ण परहंस और विवेकानंद के फॉलोवर्स के लिए हेड क्वाटर बन गया.

अपनी बीमारी के वाबजूद भी स्वामीजी अपने मिशन में लगे रहे वो चाहते थे कि इस देश का हर इंसान अच्छा बने उसके अंदर सेवा भाव हो तभी हमारा देश तरक्की करेगा वरना हम जाती और धर्म के बंधनों में ही उलझ कर रह जायेंगे. जब वो किसी स्कूल या कॉलेज में लेक्चर के लिए जाते तो टीचरों से कहते कि आप केवल एक अच्छा क्लर्क, कर्मचारी या डिप्लोमेट मत बनाईये आपका लक्ष्य एक अच्छा इंसान बनाना होना चाहिए.

स्वामीजी की नज़रों में एक अच्छा इंसान वो है जिसके अन्दर, सेल्फ रिस्पेक्ट, हिम्मत, प्यार और दूसरों की मदद का जज्बा हो. चूँकि वो हर धर्म और जाती को एक समान मानते थे  इसलिए वो अक्सर इंटरकास्ट मैरिज का भी काफी सपोर्ट करते थे.

धीरे-धीर उनकी सेहत और बिगडती गयी डॉक्टरों नें अब उन्हें भ्रमण करने से मना कर दिया. अब ज्यादातर समय वो बेलूर मठ में ही बिताया करते. कई बार हजारों की भीड़ बेलूर मठ में उन्हें सुनने आया करती थी. ऐसी हालत में भी ना उन्होंने मैडिटेशन छोड़ा ना अपना पढने और पढ़ाने का रूटीन.वो बीमारी में भी हमेशा खुद को बिजी रखते थे. अक्सर ओग उनसे पूछते कि वो थकते नहीं तो वो कहते कि’ भार्गवन के काम में कैसी थकान’.

39 साल की उम्र में स्वामीजी ये समझ गए थे कि अब उनकी ज़िन्दगी के कुछ ही महीने बचे है और वो 40 कि उम्र तक नहीं पहुँच पाएंगे. उन्होंने अपने मठ के सीनियर साधू को बुलाया और कहा कि अब मेरा अंतिम समय आ गया है अब मठ की जिम्मेदारी और मेरे द्वारा शुरू किये हुए कामको आगे बढानेका जिम्मा तुम सबके उपर है. उन्होंने ये भी बताया कि वो अपना अंतिम संस्कार कहाँ करवाना चाहते हैं.

आखिर वो 4 जुलाई 1902 की निर्मम तारिख आ ही गयी रोज़ की तरह स्वामीजी नें उठ कर ध्यान और भजन किया. शाम करीब 7 बजे वो अपने कमरे में ये कहकर गए कि कोई उन्हें डिस्टर्ब ना करे. कुछ देर में उन्होंने सभी को कमरे में आवाज़ दी स्वामीजी अपनी अंतिम साँसें ले रहे थे. उन्हें बिस्तर पर लिटाया गया उनके चेहरे पर मौत का डर नही बल्कि परमात्मा से मिलने की शांति थी. रात करीब 9 बजे उन्होंने अपना शरीर छोड़ दिया. 

अगले दिन उनका अंतिम संस्कार ठीक उसी ढंग से किया गया जैसा वो चाहते थे और इस तरह सदी का एक महापुरुष पंचतत्व में विलीन हो गया. जाते-जाते उन्होंने कहा कि ‘एक समय आएगा जब मैं अपने शरीर को किसी वस्त्र की तरह छोड़ दूंगा लेकिन ये मुझे लोगों को प्रेरित करने से नहीं रोक पायेगा. मैं तब तक नही रुकूँगा जब तक सब समझ नही जाते कि हम सब एक ही इश्वर की संतान हैं और एक दिन हमारी आत्मा उसी इश्वर में जाकर मिल जाएगी.’

कुल मिलाकर
स्वामी विवेकानंद एक ऐसे महापुरुष थे जो कई सालों में एक बार जन्म लेते है. वो ये बात समझ चुके थे कि इश्वर को पाने का एक ही तरीका है वो है लोगों की सेवा क्यूंकि इश्वर हम सबमें बस्ता है. इसलिए उन्होंने अपने टैलेंट को अपने लिए भौतिक सुख सुविधायें इक्कठा करने की जगह लोगों की मदद करने में लगा दिया. वो देश के हर गरीब की आवाज़ बनना चाहते थे. उनकी लाइफ से हम प्यार, आत्म-विश्वास, सेवा और एक दुसरे को एक्सेप्ट करना सीख सकते हैं.

स्वामी विवेकानंद के अनमोल वचन:-

- उठो जागो और तब तक नहीं रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त नहीं हो जाता।

- हर आत्मा ईश्वर से जुड़ी है, करना ये है कि हम इसकी दिव्यता को पहचाने अपने आप को अंदर या बाहर से सुधारकर। कर्म, पूजा, अंतर मन या जीवन दर्शन इनमें से किसी एक या सब से ऐसा किया जा सकता है और फिर अपने आपको खोल दें। यही सभी धर्मो का सारांश है। मंदिर, परंपराएं , किताबें या पढ़ाई ये सब इससे कम महत्वपूर्ण है।

- एक विचार लें और इसे ही अपनी जिंदगी का एकमात्र विचार बना लें। इसी विचार के बारे में सोचे, सपना देखे और इसी विचार पर जिएं। आपके मस्तिष्क , दिमाग और रगों में यही एक विचार भर जाए। यही सफलता का रास्ता है। इसी तरह से बड़े बड़े आध्यात्मिक धर्म पुरुष बनते हैं।

- एक समय में एक काम करो और ऐसा करते समय अपनी पूरी आत्मा उसमे डाल दो और बाकि सब कुछ भूल जाओ।

- पहले हर अच्छी बात का मजाक बनता है फिर विरोध होता है और फिर उसे स्वीकार लिया जाता है।

- एक अच्छे चरित्र का निर्माण हजारो बार ठोकर खाने के बाद ही होता है।

- खुद को कमजोर समझना सबसे बड़ा पाप है।

- सत्य को हजार तरीकों से बताया जा सकता है, फिर भी वह एक सत्य ही होगा।

- बाहरी स्वभाव केवल अंदरूनी स्वभाव का बड़ा रूप है।

- विश्व एक विशाल व्यायामशाला है जहाँ हम खुद को मजबूत बनाने के लिए आते हैं।

- शक्ति जीवन है, निर्बलता मृत्यु है। विस्तार जीवन है, संकुचन मृत्यु है। प्रेम जीवन है, द्वेष मृत्यु है।

- जब तक आप खुद पर विश्वास नहीं करते तब तक आप भागवान पर विश्वास नहीं कर सकते।

- जो कुछ भी तुमको कमजोर बनाता है – शारीरिक, बौद्धिक या मानसिक उसे जहर की तरह त्याग दो।

- चिंतन करो, चिंता नहीं, नए विचारों को जन्म दो।

- हम जो बोते हैं वो काटते हैं। हम स्वयं अपने भाग्य के निर्माता हैं।

 

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