Reclaiming Conversation

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Reclaiming Conversation

Sherry Turkle
डिजिटल दुनिया में खोये बिना बात करना सीखो

दो लफ्जों में
आज के दौर को डिजिटल दुनिया का दौर भी कहा जाता है. साल 2015 में रिलीज हुई किताब ‘Reclaiming Conversation’ इसी दौर में बदलते कन्वर्सेशन के तरीके पर रोशनी डालती है. इस किताब के माध्यम से आपको पता चलेगा कि डिजिटल ग्रोथ के बाद से क्या हमारे रिलेशनशिप बेहतर हुए हैं? आगे के समय में डिजिटल कन्वर्सेशन कैसे बदलने वाले हैं? आज के वर्ल्ड में लोगों की कॉल का जवाब ना देना, लोगों के मैसेज को इग्नोर करना. अपने चाहने वालों को ब्लॉक करके रखना. ये सब आज के समय का नया नॉर्मल है. क्या हमें इसी के साथ जीना सीखना पड़ेगा. या फिर हमें इसमें कुछ बदलाव लाने की ज़रूरत है. 

ये किताब किसके लिए है?
ऐसा कोई भी जो अपनी जिंदगी मोबाइल स्क्रीन के सामने बिता रहा है 
आज के युवा लोग जिन्हें डिजिटल वर्ल्ड से प्यार है 
साइकोलॉजी में जिन्हें इंटरेस्ट हो 
पैरेंट्स लोगों के लिए 
ऐसा कोई भी जिसे कन्वर्सेशन में इंटरेस्ट हो 

लेखिका  के बारे में
इस किताब की लेखिका ‘Sherry Turkle’ हैं. लेखिका होने के साथ ही साथ ‘Sherry Turkle’ एक जानी मानी साइकोलॉजिस्ट भी हैं.  ह्यूमन और टेकनोलॉजी के बीच के रिलेशन के बारे में लेखिका ने काफी ज्यादा रिसर्च किया हुआ है.

ह्यूमन कम्युनिकेशन और डिजिटल कम्युनिकेशन
पिछले 10 सालों मे आपने नोटिस किया होगा कि लोगों के अंदर कन्वर्सेशन के तरीके में काफी ज्यादा बदलाव आया है. अगर आपने भी अपने रिलेशनशिप में बदलाव को नोटिस किया है. इसी के साथ ही साथ अगर आपको जानना है कि इसके पीछे का रीजन क्या है और इसे ठीक कैसे किया जा सकता है तो फिर यह समरी आपकी काफी ज्यादा मदद करेगी. 

अगर आप अपने किसी दोस्त से काफी समय बाद किसी कैफे में मिलते हैं. वहां आपका प्लान है कि आप लोग कॉफ़ी पियेंगे और काफी सारी बातें करेंगे. लेकिन आपने नोटिस किया कि आपके दोस्त ने कुछ देर बाद ही अपनी जेब से फोन निकाल लिया और उसी फोन में लग गया.

 क्या आपको इस हरकत पे गुस्सा आयेगा? क्या आपको इस हरकत पर गुस्सा करना चाहिए? 

भले ही आपको बुरा लगे या ना लगे. लेकिन एक सेल फोन आपको अपने दोस्त से अलग कर देता है. भले ही वो आपके सामने ही क्यों ना बैठा हो? कई सारी स्टडी तो ये भी बताती है कि म्यूट फोन भी दो लोगों के बीच के कन्वर्सेशन को बदलकर रख देता है. इसी के साथ ही साथ कई सारी स्टडी में ये भी निकलकर सामने आया है कि लोगों की रिलेशनशिप खराब होने की वजह भी फोन ही रहा है. 

अगर हम अपने दोस्त के साथ बैठे हैं. लेकिन हमारा ध्यान उसकी बातों में नहीं है. फोन में है. तो ये देखा गया है कि उस समय हमारी बात-चीत नकली होती है. इसके पीछे का कारण यही है कि उस दौरान हमारा ध्यान बातचीत में रहता ही नहीं है.

इसी के साथ ही ये भी देखा गया है कि जब फोन टेबल के बीच में भी होता है. तो दो लोगों के बीच के कन्वर्सेशन में दिक्कत आती है. ये दिक्कत सामान्य तौर पर देखी जाने वाली दिक्कतों में शामिल है. ये भी देखा गया है कि डिजिटल दुनिया की वजह से लोग अब आपस में इमोशनली कनेक्ट नहीं होते हैं. आज के समय में अब दो लोगों के बीच में काफी गहरा बांड देखने को भी नहीं मिलता है. 

एक स्टडी करवाई गयी थी. उस स्टडी में ये देखा गया था कि कॉलेज स्टूडेंट्स जो सामने-सामने एक दूसरे मिलते हैं. उन स्टूडेंट्स का डिजिटल मीडियम से मिलने वाले स्टूडेंट्स के साथ कम्पेयर किया गया था. उस स्टडी में ये निकलकर सामने आया था कि जो स्टूडेंट्स एक दूसरे से सामने-सामने मिला करते थे. उनके बीच में दोस्ती का रिश्ता ज्यादा गहरा था. इसी के साथ जो स्टूडेंट्स एक दूसरे से डिजिटली कनेक्ट थे. उनके बीच में दोस्ती का रिश्ता भी हल्का ही था. 

इसके पीछे का कारण यही है कि फेस टू फेस इंटरेक्शन की बात ही अलग है. इस इंटरेक्शन से लोगों की आपस में इमोशन भी एक्सचेंज होते हैं. वैसे इंटरेक्शन डिजिटली मुमकिन  नहीं है. इसलिए हमें अगर दोस्ती और रिश्तों को तवज्जों देना है. तो फिर हमें अपने आपसी रिश्तों को बेहतर करना पड़ेगा. 

कई सारी स्टडीज में ये  निकलकर सामने आ रहा है कि डिजिटल कनेक्शन के बढ़ने के कारण ही अब लोगों के अंदर दूसरों के प्रति सहानुभूति भी कम होती जा रही है. आज से करीब 20 साल पहले लोग एक दूसरे की ख़ुशी में खुश हुआ करते थे. तब लोगों को दूसरे के दुःख से फर्क पड़ा करता था. लेकिन आज के समय में लोगों को सिर्फ और सिर्फ खुद के फायदे और नुकसान ही नज़र में आते हैं. इसके पीछे का रीजन साफ़ यही है कि अब लोगों ने एक दूसरे से मिलना बंद कर दिया है. आज के समय में अब इसी को न्यू नॉर्मल भी कहा जाता है. 

क्या इसी नॉर्मल की तलाश में हमने इतनी तरक्की की है? क्या सच में लोगों को एक दूसरे की ज़रूरत नहीं है?

सॉलीटयूड और रिफ्लेक्शन हेल्दी दिमाग के लिए ज़रूरी है?
आखिरी बार आपको खुद से नाराज़गी का एहसास कब हुआ था? कब आपको ऐसा लगा था कि लाइफ में कुछ ख़ास रखा नहीं है? बहुत पुरानी बात नहीं रही होगी. क्यों हमें ज़्यादातर  ऐसी फीलिंग आती है? 

ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हमें एकांत या फिर यूं कहें की सॉलीटयूड का मतलब  नहीं मालुम है. 

भले ही दिन भर हम अपने मोबाइल में लगे रहते हैं. ऐसा भी हो सकता है की आप अकेले ही इंटरनेट की सर्फिंग करते हों. लेकिन दिन भर मोबाइल या फिर लैपटॉप में अकेले लगे रहने का मतलब ये नहीं होता है की आप एकांत या फिर सॉलीटयूड में हैं. 

अब यहाँ पर ऑथर डेवलपमेंट साइकोलॉजिस्ट के हवाले से बात करना चाहती हैं. वो बताती हैं कि रियल सॉलीटयूड का मतलब क्या होता है. ऑथर के अनुसार रियल सॉलीटयूड का मतलब होता है कि जब आपकी इनर फीलिंग और थॉट्स को कोई भी डिस्टर्ब ना करे. 

इसी के साथ लेखिका ये भी बताती हैं कि रियल सॉलीटयूड ह्यूमन ब्रेन को एक्टिवेट करता है. इसी के साथ हमारी जिंदगी को लेकर समझ भी बढ़ती है. या तो यूँ कहें कि हमारे अंदर सेन्स ऑफ़ आइडेंटिटी की समझ पैदा होती है. 

इस चैप्टर में दुःख के साथ लेखिका ये बताना चाहती हैं कि आज की जनरेशन को रियल सॉलीटयूड का मतलब तक पता नहीं है. वो कभी एकांत में रहती ही नहीं है. वो जब भी अकेले रहती है तो कोई ना कोई ऑनलाइन मीडियम से जुड़ी हुई रहती है. इससे होता ये है कि उन्हें लाइफ का असली मतलब तो पता ही नहीं है.

लेखिका बताना चाहती हैं की रियल सॉलीटयूड और रिफलेकशन से इंसानी दिमाग को शान्ति मिलती है.

रियल सॉलीटयूड ही वो जरिया है. जिससे आप खुद की आत्मा से कनेक्ट हो सकते हैं. 

सेल्फ  रिफलेकशन के लिए भी हमें रियल सॉलीटयूड की ज़रूरत है. जब हम एकांत में होते हैं तो फिर हमारी मुलाक़ात खुद से होती है. तब हम खुद के बारे में और बेहतर से जान सकते हैं. हमारी खुद से पहचान ही तब होती है. जब हम सॉलीटयूड में होते हैं. सॉलीटयूड में रहने से हम किसी भी सिचुएशन को बेहतर ढ़ंग हैंडल करना सीख जाते हैं.

इसी के साथ जब आप कहने को तो एकांत में होते हैं. लेकिन आपका ध्यान ऑनलाइन फोटो पोस्ट करने में लगा होता है. तब आप खुद से कम ईमानदार रहते हैं. इसके पीछे का कारण ये है कि तब आपका दिमाग इसमें लगा होता है कि लोग आपको जज करेंगे. इसलिए उस समय आप अच्छा दिखने के लिए काफी बनावटी चीज़ें भी करते हैं. इसलिए लेखिका ने उस चीज़ को रियल सॉलीटयूड नहीं कहा है.

आज के दौर में ये भी देखा गया है कि लोगों के अंदर से इंसानियत खत्म होती जा रही है. ये कहना भी गलत नहीं होगा कि अब सबसे बड़ा खतरा इंसानी फीलिंग या फिर इंसानियत को है. अगर हमें उसे बचाना है तो फिर हमें रियल सॉलीटयूड का सहारा लेना ही पड़ेगा.

सॉलीटयूड से हमें ये भी फायदा होता है कि हम खुद से कम्फ़र्टेबल हो जाते हैं. जब हम खुद से सहज होंगे तभी हम अन्य लोगों के प्रति भी सहज हो पायेंगे. अगर आप भी दूसरों की बात को सुनना चाहते हैं. तो सबसे पहले आपको खुद को सुनना पड़ेगा.

कई साइकोलॉजिस्ट ये भी कहते हैं कि सॉलीटयूड से इंसान की क्रिएटिविटी भी बढ़ती है. इसके पीछे का रीजन साफ़ है कि सॉलीटयूड की मदद से हमारे दिमाग को रिलैक्स होने का समय मिलता है. इसी के साथ ही साथ दिमाग को ये आज़ादी भी मिलती है कि वो खुलकर सोच सकता है और कुछ क्रिएटिव कर भी सकता है.

पैरेंट्स भी फोन पर बिजी हो चुके हैं
पैरेंट्स बच्चों की छोटी-छोटी हरकतों में रियेक्ट कैसे करते हैं? ये बहुत ज़रूरी है क्योंकि बच्चे उसी रिएक्शन से बहुत कुछ सीखते हैं. 

न्यूरो साइंटिस्ट ‘Nicholas Carr’ ने ब्रेन के बारे में कहा है कि ‘हमारा दिमाग वैसा ही बन जाता है जैसा हम उसे बनाना चाहते हैं. इस बात की ज्यादा सम्भावना तब होती है जब हम बच्चे रहते हैं. इसलिए ज़्यादातर देखा गया है कि जिन बच्चों के माता-पिता ज्यादा ध्यान नहीं देते हैं उनके बच्चे बहुत सी अच्छी आदतें कभी नहीं सीख पाते हैं.

इन सबसे ज्यादा डिस्ट्रेकट माता-पिता अपने बच्चों के अंदर सिम्पेथी यानी सहानुभूति जैसा बेसिक सा गुण भी भी नहीं डाल पाते हैं. 

‘Jenny Radesky’  ने 55 से ज्यादा पैरेंट्स के ऊपर स्टडी की थी. उस स्टडी में उन्होंने पाया कि ज्यादातर पैरेंट्स जब अपने बच्चों के साथ घूमने जाते हैं. तो भी उनका ध्यान उनके फोन से हटता नहीं है.

‘Jenny  Radesky’ के अनुसार इस तरह का व्यवहार बच्चों को पसंद नहीं आता है. यही कारण है कि आज के दौर के बच्चों और पैरेंट्स के बीच में कम्युनिकेशन गैप आ गया है. 

अब समय आ गया है कि पैरेंट्स को एग्जाम्पल सेट करना पड़ेगा. उन्हें अब अपने फोन को टेबल से दूर कर देना चाहिए. उन्हें अपने मूडी टीनेजर्स बच्चों से बात करनी चाहिए.

सोशल मीडिया ने दोस्ती के नए नियम बना दिए हैं
क्या आपको याद है कि आखिरी बार कब आपने बोरियत की वजह से सोशल मीडिया पर लॉग इन किया था? दूसरों से कनेक्ट होने से हमें ख़ुशी मिलती है. लेकिन सोशल मीडिया पर लॉग इन करना उससे बढ़कर कुछ और भी है? सोशल मीडिया ने लोगों को ये फायदा पहुँचाया है कि अब वो बिना मिले भी दूसरों से बात कर सकते हैं.

या तो यूँ कहें कि अब लोग एक दूसरे से मिलना चाहते ही नहीं हैं.

इसको और बेहतर से जानने के लिए लेखिका ने कुछ लोगों से बात करने का फैसला किया. उन्होंने हाई स्कूल की लड़कियों से बात की, उनसे उन्हें पता चला कि सोशल मीडिया पर तुरंत मैसेज का जवाब पाकर उन सबको सुकून मिलता है.

इसी के साथ लेखिका ने ये भी ओब्सर्व किया कि नई जनरेशन मिलकर बात नहीं करना चाहती है. उसे सोशल मीडिया पर अपना एडिटेड रूप ही अच्छा लगता है. उसे फ़िल्टर के साथ सुंदर बनकर चैटिंग करना पसंद है.

आज की जनरेशन रियलिटी से दूर होती जा रही है. 

ऑथर ने ये भी ओब्सर्व किया कि सोशल मीडिया ने दोस्ती का मतलब ही बदलकर रख दिया है. अब लोग किसी से बात  करना नहीं चाहते हैं. बस मैसेज करके ख्याल रखना चाहते हैं. दोस्तों के फोटोज में लाइक्स आ जाएँ उनके लिए बस यही काफी है. 

क्या आपके साथ ऐसा कभी हुआ है कि ऑनलाइन किसी को देखा हो तो बहुत सुंदर लगा हो और जब सामने मिले हों तो पूरा सीन ही पलट गया हो? ऐसा होता है. ऑनलाइन में ये सब होता है. 

खासकर जब बात ऑनलाइन डेटिंग की आती है ज़्यादातर ऐसा ही होता है कि जैसा सोचा होता है वैसा कुछ भी नहीं होता है. 

साइकोलॉजिस्ट ‘Barry Schwartz’ ने अपनी स्टडी में पाया था कि लोगो को लगता है कि उनके पास जितनी ज्यादा चॉइस होती है वो उतने ही ज्यादा खुश होते हैं. लेकिन सच्चाई इससे अलग है, इंसान ज्यादा खुश तब होता है जब उसके पास चॉइस लिमिटेड होती है. 

यही दिक्कत ऑनलाइन डेटिंग के साथ भी है.

वो चॉइस तो दे रही है लेकिन लॉन्ग फॉर्म ऑफ़ कमिटमेंट नहीं दे रही है जिससे आज कल की रिलेशनशिप में तमाम तरह की दिक्कतों को देखा जाता है. 

कई रिसर्च में ये पाया गया है कि विर्चुअल दुनिया में स्टेबल कनेक्शन बनना मुश्किल होता है. इसलिए जब लोगों की रिलेशनशिप सही नहीं रहती है. तो फिर वो डिप्रेशन जैसी बीमारी के चक्कर में भी पड़ जाते हैं.

क्या हम डिजिटल चीज़ों को अवॉयड नहीं कर सकते हैं?
आप किसी लेक्चर में बैठे हुए हैं. वहां पर आपका मन नहीं लग रहा है. फिर आपने सोचा कि क्यों ना फ़ोन चलाकर देखते हैं कि दुनिया में क्या चल रहा है? क्या ये मल्टी टास्किंग सही है? अगर आप इसे मल्टी टास्किंग मानते हैं. तो फिर ऑथर आपको बता देना चाहती हैं कि ऐसा करने से आपके दिमाग के पुर्जे हिल सकते हैं. मतलब साफ़ है कि इस तरह की हरकतों से इंसान की परफॉरमेंस में असर पड़ता है. 

लोगों की गलत फहमी है कि मल्टी टास्किंग अच्छी चीज़ होती है. लेकिन आपको बता दें कि इंसानी दिमाग एक समय में केवल एक ही चीज़ में फोकस कर सकता है. 

अगर हम उसे मल्टी टास्किंग करने को बोलते हैं तो इसका मतलब साफ है कि हम उसके ऊपर प्रेशर डाल रहे हैं.

इसी के साथ ही साथ डिजिटल के ऊपर ज्यादा डिपेंड होने से हमारे सोचने की क्षमता भी कम होती है. 

ये बात कहना भी गलत नहीं होगा कि आप कम इंटेलिजेंट बन जाते हैं.

टेकनोलॉजी के अपने अलग महत्त्व हैं. लेकिन अगर हम उसके ऊपर ज्यादा डिपेंड हो जायेंगे तो फिर उससे हमारा ही नुकसान होने वाला है.

इंटरनेट ने हमारी एक्चुअल इंगेजमेंट को ही नहीं खत्म कर दिया है. बल्कि इन्टरनेट ने हमारी प्राइवेसी को भी बुरी तरह से प्रभावित किया है. अब आपकी निजता या फिर ये कहें कि प्राइवेसी कुछ भी नहीं है. 

आज के दौर में आप ऑनलाइन सर्विस का उपयोग करते हैं. अगर आप ऐसा नहीं करेंगे तो दुनिया से काफी पीछे हो जायेंगे. 

लेकिन अगर आपको आपकी प्राइवेसी का ख्याल है. तो फिर आप काफी ज्यादा भ्रम में जी रहे हैं. आपको पता होना चाहिए कि इन्टरनेट के आ जाने के बाद से आपकी निजी तस्वीरें भी बस आपकी नहीं हैं.

आपने अपने मोबाइल का एक्सेस कई सारी वेब साईट और एप्स को दे दिया है.

ये हुआ कैसे? जब भी आप कोई भी ऑनलाइन सर्विस का यूज करते हैं तो आपसे टर्म्स और सर्विस के नाम पर ब्लू टिक करवाया जाता है. जिसे बिना पढ़े ही आप टिक कर देते हैं. 

उस ब्लू टिक का मतलब ही ये होता है कि आपने मर्जी से अपनी डिटेल्स उस कम्पनी के साथ साझा की है.

डिजिटल मीडिया के चैलेन्ज हमें फेस करना सीखना चाहिए
आपकी लास्ट हॉलिडे कब हुई थी? क्या उस हॉलिडे के लिए आपने अपने लैपटॉप को छोड़ दिया था? क्या आपने ऐसा होटल लिया था जहाँ पर इंटरनेट ना था ? 

क्या आपने अपने फ़ोन से दूरी बनाने की कोशिश की थी?

क्या आपने ऊपर बताई गयी किसी भी बात को फॉलो किया था? नहीं किया था.

आप करेंगे भी कैसे? अब तक आप डिजिटल वर्ल्ड के गुलाम बन चुके हैं.

लेकिन अगर आप ये सब करते हैं. तो फिर आपको रियल हॉलिडे का मतलब भी समझ में आ जायेगा. तब आपको पता चलेगा कि जिंदगी में चैन की सांस लेना किस चिड़िया का नाम है?

क्या आपको डिजिटल मीडिया से ब्रेक लेने के लिए कोई कारण चाहिए? अगर हाँ, तो फिर इस किताब की लेखिका आपको वो कारण दे रही हैं.

आप अपनी क्रिएटिविटी के लिए कुछ समय निकालने की कोशिश करिए. ऐसा तभी होगा जब आप डिजिटल मीडिया से दूरी बनाने की कोशिश करेंगे.

हमें अब समझना चाहिए कि इंटरनेट की वजह से हमारी सोसाइटी के सामने कुछ चैलेन्ज खड़े हुए हैं. क्या हम उन चैलेन्ज का सामना करने के लिए तैयार हैं?

अगर हम नहीं भी तैयार हैं तो भी हमें खुद को तैयार करना पड़ेगा. हमें समझना पड़ेगा कि इस दुनिया ने हमें बहुत कुछ अच्छा दिया हुआ है. ये हमारी ही ज़िम्मेदारी है कि हम उन चीज़ों की कद्र भी करें और उनकी रक्षा भी करें. 

खुद के लिए समय निकालने की कोशिश करिए. जब आप खुद को समय देंगे तब आप अपने आस पास के चाहने वालों के लिए भी समय निकाल पाएंगे. 

कुछ दिनों का ब्रेक ही आपको बता देगा कि लोगों से मिलने में भी अलग ही मजा है. सिर्फ और सिर्फ ऑनलाइन चैटिंग करने को ही मिलना नहीं कहते हैं. 

अगर आप किसी को जानना चाहते हैं तो फिर आपको उसकी आत्मा को भी समझना पड़ता है. आत्मा को समझने के लिए आत्मा का ज्ञान भी होना चाहिए. वो तभी आएगा जब आप खुद के साथ कुछ समय बिताएंगे.

कुल मिलाकर
डिजिटल डिवाइस बहुत उपयोगी हैं लेकिन हमें उन्हें यूज करना सीखना पड़ेगा. हमें ये ध्यान देना पड़ेगा कि उनकी वजह से कहीं हमारी क्रिएटिविटी तो कम नहीं हो रही है. हमें लाइफ टाइम अपनी क्रिएटिविटी के ऊपर काम करते रहना चाहिए. 


आप जो कुछ भी कर रहे हैं. भले ही आप प्यार कर रहे हों, या फिर किताब पढ़ रहे हों. अपना फोकस बस उस एक चीज़ में लगाने की कोशिश करिए. अपनी लाइफ से डिस्ट्रेकशन को हटाकर बाहर फेंक दीजिये. 

 

येबुक एप पर आप सुन रहे थे Reclaiming Conversation By Sherry Turkle

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