Real Change

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Real Change

Sharon Salzberg
माइंडफुल रहकर खुशियां बिखेरिए

दो लफ्जों में
साल 2020 में आई ये किताब हमारे अंदर सकारात्मक बदलाव लाकर दुनिया को बेहतर बनाने का रास्ता साफ करती है। मॉडर्न लाइफस्टाइल बहुत सी परेशानियों की वजह बनती है। काम का दबाव और ढेरों तनाव हमें घेर लेते हैं। ये किताब सिखाती है कि किस तरह मेडिटेशन और माइंडफुलनेस की मदद से इनको दूर रखा जा सकता है। 

ये किताब किनको पढ़नी चाहिए
• जो लोग दूसरों का भला करना चाहते हैं
• सोशल वर्कर्स
• हर वो इंसान जो मेडिटेशन के फायदे जानना चाहता है 

लेखिका के बारे में
शेरॉन साल्जबर्ग एक मेडिटेशन एक्सपर्ट और स्पिरिचुअल ट्रेनर होने के साथ-साथ इनसाइट मेडिटेशन सोसाइटी की को फाउंडर भी हैं। उन्होंने न्यूयॉर्क टाइम्स के लिए लविंग काइंडनेस और रियल हैप्पीनेस एट वर्क जैसी ढेरों बेस्ट सेलर किताबें लिखी हैं।


माइंडफुलनेस की वजह से आपका मनोबल मजबूत होता है।
फरवरी 2018, सैरी कॉफमैन के लिए एक बहुत डरावनी सुबह लेकर आई। सैरी, फ्लोरिडा में मार्जोरी स्टोनमैन डगलस हाईस्कूल में पढ़ती थी। उस सुबह एक शूटर ने उसके स्कूल में अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी। सैरी के पास तीन रास्ते थे। या तो वो उससे लड़ती या वहां से भाग जाती या जहां थी वहीं रह जाती। उसने भाग जाने का रास्ता चुना। खुशकिस्मती से वो बच गई। हालांकि अगले कुछ महीनों तक उसके दिलो दिमाग पर इस हादसे का असर बना रहा। इस दौरान सैरी के पास बचकर भाग जाने का विकल्प ही नहीं था। वो उसी हालत में भी नहीं रह सकती थी। सैरी ने इसका सामना करने का रास्ता चुना। उसने अपनी क्लास के बच्चों के साथ मिलकर नो गन वायलेंस नाम का मिशन शुरू कर दिया। बंदूक के खिलाफ सैरी का संघर्ष आज भी जारी है। हर तरह की रुकावट का सामना करते हुए वो आज भी डटी हुई है। सैरी की कोशिश ये बताती है कि बुरे से बुरे हालात का सामना करते हुए भी दुनिया को बेहतर बनाने के लिए काम किया जा सकता है। 

आज बहुत से लोग निराशा और उदासी के बोझ तले दबे हैं। लेकिन इसमें उनकी गल्ती भी क्या है? क्लाइमेट चेंज से लेकर तेजी से बदलते राजनीतिक माहौल तक हमारा समाज चारों तरफ समस्याओं से घिरा हुआ नजर आता है। किसी मुश्किल घड़ी में हमें अक्सर ये ख्याल आता है कि सब छोड़कर कहीं और भाग जाएं। किसी दूसरी जगह गुजर बसर कर लें। लेकिन अगर हम एक बेहतर समाज का निर्माण करना चाहते हैं तो भाग जाने या अपनी आंखें बंद कर लेने से काम नहीं चलेगा। बदलाव लाने के लिए हमें ताकत जुटानी होगी। ये इतना आसान तो नहीं है पर माइंडफुलनेस और लविंग काइंडनेस मेडिटेशन की मदद से इसे आसान बनाया जा सकता है। 

आम धारणा है कि मेडिटेशन जैसी चीजें दुनिया से भागने या सच को नजरअंदाज करने का जरिया हैं पर ये सच नहीं है। इस तरह की आदतें बहुत सी परेशानियों से निपटने की ताकत दे सकती हैं। मेडिटेशन आपके दिमाग इतना मजबूत बना देता है कि आप अपने आसपास हो रही बातों से मिलने वाले तनाव का सामना अच्छी तरह कर सकें। रोजाना मेडिटेशन करने से आपको अपनी परेशानियों से उबरने में मदद मिलती है। मेडिटेशन आपकी ऊर्जा को पॉजिटिव बातों पर फोकस पर देता है जैसे एक अच्छे समाज का निर्माण, दूसरों से जुड़ना, और परेशानियों के उस पार देख पाना। चाहें तो आजमा कर देख लें। अपनी आँखें बंद करके सांसों पर ध्यान लगाएं। आपको महसूस होगा कि हवा आपकी नाक से अंदर और बाहर जा रही है और आपका डायाफ्राम फैल और सिकुड़ रहा है। अपने शरीर में हो रही हलचल पर ध्यान दें। शायद आपको गर्दन के पिछले हिस्से में खिंचाव सा लगे या दिमाग में कुछ बुरे ख्याल चल रहे हों। जो भी हो आप सांस लेते रहें। कुछ समय बाद ये सब गायब होने लगेगा।

अगर आप बदलाव चाहते हैं तो अपनी पूरी ताकत का इस्तेमाल करना होगा।
स्टैच्यू ऑफ लिबर्टी सिर्फ एक ऊंची सी मूर्ति या कोई अजूबा नहीं है। ये एक सिंबॉल है। हाथ में मशाल लिए तन कर खड़ी ये मूर्ति अमेरिका के गौरवशाली इतिहास और दृढ़ संकल्प की भावना को दिखाती है। ये आशा की किरण है। जैसा इसके बोर्ड पर लिखा है ये दुनिया के हर कोने से आ रहे लोगों का बाहें फैलाकर स्वागत करती है। लेकिन इसकी एक बात अक्सर नजरअंदाज कर दी जाती है। इसका पिछला पैर इस तरह है जैसे वो एक बड़ा कदम आगे बढ़ाने वाली हो। यानि बनाने वाले ने उसकी कल्पना एक चलती हुई मूरत की तरह की है। वो सिर्फ कथनी नहीं करनी का एहसास दिलाती है। ये हमें सिखाती है कि हम जिन उसूलों को सही मानते हैं हमारा व्यवहार भी वैसा ही होना चाहिए। जब एक बेहतर दुनिया के निर्माण की बात आती है तो हम बस बातें करके या कुछ अच्छे विचार मन में लाकर ही रुक जाते हैं। हम ये तो सोचते हैं कि क्या परेशानियां हैं, किन जगहों पर सुधार की गुंजाइश है और इनके क्या हल हो सकते हैं पर ज्यादा से ज्यादा इसे लिखकर रख लेते हैं। अपना कदम कभी नहीं बढ़ाते। इसे किसी सरकारी मीटिंग की तरह समझ लीजिए जहां मुद्दों पर बहस तो होती है पर अक्सर कोई नतीजा नहीं निकलता। ज्यादा से ज्यादा अगली मीटिंग की तारीख तय कर दी जाती है। इस तरह की हरकतें हमारा ही नुकसान करती हैं। इससे बाहर निकलने का एक तरीका ये है कि हम खुद को यकीन दिलाएं कि हम इस दुनिया में बदलाव कर सकते हैं। 

एडी बरकन एक जानेमाने वकील हैं जिन्होंने न्यूयॉर्क पुलिस के पक्षपाती रवैये "स्टॉप एंड फ्रिस्क पुलिसिंग" के खिलाफ लड़ाई लड़ी। लेकिन सिर्फ 32 साल की उम्र में उनको ALS नाम की लाइलाज बीमारी हो गई। ये बीमारी पहले लकवा और आखिर में मृत्यु की तरफ ले जाती है। एडी ने मायूस होकर घर बैठ जाने की जगह इसे अपनी ताकत बना लिया। उन्होंने अपनी कोशिशों को दोगुना कर दिया और सब लोगों को अच्छी स्वास्थ्य सेवाएं दिलाने वाले अभियान से जुड़ गए। भले ही उनका शरीर काम न करे पर एडी इतना जानते हैं कि वो अब भी बहुत कुछ कर सकते हैं। 

आपके रास्ते में हमेशा रुकावटें आएंगी और आपको कमजोर करने की कोशिश करेंगी। आत्मविश्वास की कमी आपको आगे बढ़ने से रोकेगी। आपके अंदर असफल होने का डर आ सकता है। जातिवाद, नस्लवाद और पितृसत्ता यानि पैट्रीआर्की जैसी सामाजिक बुराइयां आपको ये सोचने पर मजबूर कर सकती हैं कि आप अपने या समाज के लिए कुछ करने के लायक नहीं हैं। लेकिन सच्चाई ये है कि हर इंसान कुछ न कुछ जरूर कर सकता है। रिकवरी कैफे का उदाहरण ले लीजिए। इसे होमलेस लोग अपने जैसे लोगों के लिए ही चलाते हैं। आपसी सहयोग से कैफे के लोग एक-दूसरे की जिंदगी को बेहतर बनाने में लगे हुए हैं। यहां उनको ये बात सीखने को मिलती है कि उनके पास अपनी सोच से भी ज्यादा स्किल और ताकत है। आज की तारीख में लगभग 20 रिकवरी कैफे पूरे उत्तरी अमेरिका में अच्छी तरह चल रहे हैं। ये सब वहां के लोगों की मेहनत से ही हो पाया है।

बुरे विचारों का सामना करना आपकी आत्मिक शक्ति को मजबूत बनाता है।
कुछ उदाहरण देखिए। एक सैनिक जो PTSD का शिकार होकर युद्ध से वापस लौट रहा है। एक कपल जो तलाक की परेशानी से जूझ रहा है। पर्यावरण के लिए पूरी लगन से काम कर रहा कोई एक्टिविस्ट जिसने अभी-अभी पोलर आइस पिघलने की खबर देखी। ये सारी परेशानियां लगती तो अलग-अलग हैं पर इनके शिकार इंसान एक जैसे दुख दर्द और तकलीफ से गुजरते हैं। ये सब कुछ न कुछ खो रहे हैं। चाहे दिमागी सुकून हो, रिश्ता हो या फिर ऐसी दुनिया का नुकसान जिसकी उसे बहुत परवाह हो। 

जो भी हो इस नुकसान से आपकी उम्मीदों का खात्मा नहीं होना चाहिए। भले ही हम ऐसी घटनाओं से दूर रहना चाहते हों पर अगर सही तरीके से इनका सामना करना सीख लिया तो खुद को पहले से कहीं ज्यादा मजबूत बना सकते हैं। पश्चिमी देशों में ऐसी परेशानियों के लिए आम तौर पर इनको अवॉइड करने का चलन है यानि हर कीमत पर इनको नजरअंदाज करना और अगर फिर भी इनसे सामना हो जाए तो जल्द से जल्द इनसे छुटकारा पा लेना। लेकिन अगर सही तरीके से सह लिया जाए तो ये दुख दर्द भी बहुत काम आ सकता है। अगर आप इसे स्वीकार करते हैं, इस पर ध्यान देते हैं और इसे समझने की कोशिश करते हैं तो आप सही तरह से इससे निपटना सीख सकते हैं। आपके मन में करुणा आ जाती है और दूसरों की तकलीफ समझना ज्यादा आसान हो जाता है। 

किसी हादसे से उभरकर जिंदगी की तरफ वापस लौट आना लचीलेपन की निशानी है। लचीलेपन की वजह से आप अपनी चोट को स्वीकार करते हैं पर आपको ये एहसास भी रहता है कि आपके पास इसे दूर करने की मानसिक ताकत है। उदाहरण के लिए PTSD से जूझ रहे उस सैनिक को पैनिक अटैक आ सकते हैं। वो हमेशा बहुत चौकन्ना रह सकता है या फिर उसे दूसरों पर विश्वास करना मुश्किल लग सकता है। लेकिन खुद को ऐसी हालत में लाने वाली चीजों की पहचान करके, खुद को शांत रखने वाले तरीके समझकर और उनको अपनाकर वो खुद पर काबू पाना सीख सकता है। मन में चल रही तकलीफ को एक शारीरिक परेशानी के तौर पर सोचकर देखें। मान लीजिए कि आपके पैर में चोट लग गई। चोट इतनी बड़ी है कि चलने में दर्द होता है। अगर आप अपना पैर चलाना ही बंद कर देते हैं तो ये पूरी तरह ठीक नहीं होगी। 

अगर आप किसी डॉक्टर या फिजियोथेरेपिस्ट की मदद लेंगे तो वो पैर को सही करने के लिए कुछ एक्सरसाइज बताएगा। शुरुआत में थोड़ी परेशानी और दर्द होगा पर समय के साथ आप इसे आसानी से करने लगेंगे। धीरे-धीरे आपकी चोट भी सही हो जाएगी और आपको ये भी अच्छी तरह समझ आने लगेगा कि आपका शरीर कैसे काम करता है। इसी तरह मन की चोट ठीक की जा सकती है। इसकी शुरुआत का एक तरीका लव काइंडनेस मेडिटेशन है। ये मेडिटेशन आपकी छिपी हुई ताकतों को पहचानने की राह बनाता है। जब आपको कोई तनाव हो तो अपनी आंखें बंद करें। गहरी सांस लें और मन को आराम देने वाले शब्द बोलें जैसे "मैं सुरक्षित हूं" या "मैं आराम से हूं।" दर्द से आगे बढ़ जाने की कल्पना करें। कुछ समय बाद आप खुद में ज्यादा आत्मविश्वास महसूस कर पाएंगे।

अगर सफलता लंबे समय तक बनाए रखना चाहते हैं तो खुद की परवाह कीजिए और जो भी काम कर रहे हैं उसमें मन लगाना सीखिए।
एक ह्यूमन राइट्स एक्टिविस्ट की कल्पना करें जो पूरी लगन से अपना काम करती है। वो उन सभी मुद्दों को  उठाती है जो उसे जरूरी लगते हैं। जैसे जेंडर की वजह से हो रहे भेदभाव को खत्म करना, काम के बदले सही तनख्वाह दिया जाना और लोगों को बेहतर हेल्थ सर्विस दिलाना। मान लीजिए कि एक दिन वो लंच लाना भूल जाती है। दोपहर में उसे भूख लगने लगेगी। दोपहर ढलने तक उसकी हालत भूख से बेहोश होने वाली हो जाएगी। लेकिन ऑफिस में एक ही चीज रखी है केले। मुश्किल ये है कि जब भी वो केलों की तरफ देखती है तो एक कश्मकश में फंस जाती है। उसे भूख तो लगी है पर वो ये भी नहीं भूल पा रही है कि केले उगाने वाले किसानों और मजदूरों को कितने शोषण से गुजरना पड़ता है और इस प्रोसेस में पर्यावरण को भी कितना नुकसान पहुंचता है। उसका काम करते रहना भी जरूरी है पर भूख के मारे उसकी जान भी निकल रही है। उसे क्या करना चाहिए? सीधी सी बात है इतनी बुरी हालत में पहुंचने से पहले ही उसे केला खा लेना चाहिए। 

सामाजिक मुद्दों के लिए काम करना, लोगों की देखभाल और ऐसे दूसरे बहुत से काम जिनमें सेवा दी जाती है उनके लिए असाधारण जुनून और समर्पण की जरूरत होती है। लेकिन बेहतर से बेहतर जुनूनी लोग भी अपना 100 प्रतिशत एफर्ट नहीं दे सकते। अगर वो ऐसा करने भी लगें तो तरह-तरह की शारीरिक और दिमागी परेशानियों का शिकार हो जाएंगे। इसलिए आप चाहे कितने ही भलाई के काम करें खुद के लिए समय निकालना जरूरी है ताकि आपको रीचार्ज होने का मौका मिल जाए। जब आप खुद का ख्याल रखेंगे तभी लंबे समय तक ऐसे काम करने की ताकत बचा पाएंगे। इस सेल्फ केयर को कोपिंग बैंक बनाना कहा जाता है। ये आप कई तरह से कर सकते हैं। जैसे कि हाइलैंडर फोक स्कूल के फाउंडर, माइल्स हॉर्टन अपने ऑफिस  के आसपास ही प्रकृति में थोड़ी देर समय बिताकर बर्नआउट का मुकाबला करते हैं। 15 मिनिमम वेज मूवमेंट शुरू करने वाली शांटेल वॉकर, लांग ड्राइव पर जाकर अपना दिमाग शांत रखती हैं। 

काम के तनाव से कुछ देर का ब्रेक लेना इन दोनों को तरोताजा कर देता है। जब ये वापस अपने काम पर लौटते हैं तो पहले से ज्यादा एनर्जेटिक होकर काम करने लगते हैं। इसके लिए अलग से समय निकालना बिल्कुल जरूरी नहीं है। आप अपने काम के दौरान भी खुद पर ध्यान दे सकते हैं। अक्सर हम ये मान लेते हैं कि अगर हमारी जॉब सीरियस या जिम्मेदारी वाली है तो हमको भी गंभीर रहना चाहिए। लेकिन सच इससे उलट है। आप किसी भी काम में खुशी और आनंद ढूंढ सकते हैं। 1960 के दशक में प्रोटेस्ट मार्च करते हुए लोग दुख मनाते हुए रोते नहीं थे। इसकी जगह वे एक दूसरे के साथ अपनी आवाज मिलाते और खुशनुमा गीत गाते।   बौद्ध इस तरह के अभ्यास को मन को आनंद देने वाला कहते हैं। ये आपके मुश्किल से मुश्किल वक्त को आसान कर सकता है।

हमें ये समझना चाहिए कि हर चीज आपस में किसी न किसी तरह जुड़ी है।
पेड़ क्या होते हैं? ये कितना आसान सवाल है ना। पेड़ एक बड़ा पौधा है जिसमें जड़ें, तना, शाखाएं, पत्तियां और छाल होती है। पर हम अलग नजरिये से देखें तो पेड़ अकेले खड़े हुए एक विशाल आकृति से कहीं ज्यादा है। पेड़ हमारे इको सिस्टम का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। ये सूरज की रोशनी, पानी और मिट्टी में मौजूद पोषक तत्वों पर जिंदा रहता है। एक पेड़, दूसरे बहुत से जीवों को आधार देता है। पक्षियों को घोसले की जगह देना, छोटे-बड़े जीवों को छाया और भोजन देना इसका काम है। यानि एक पेड़ कभी अकेला नहीं खड़ा होता है। इसके साथ अनेक जीवन जुड़े होते हैं। इसी तरह हम इंसान भी एक दूसरे से जुड़े होते हैं भले ही हम इस बात को समझें या नहीं। 

जाने माने ज़ेन टीचर थिच न्हात हान अक्सर इंटरबीइंग नाम के एक कॉन्सेप्ट की बात करते रहे। इंटरबीइंग का मतलब है इस ब्रह्मांड में सब कुछ गहराई से और अटूट रूप से जुड़ा हुआ है। इस आपसी निर्भरता की वजह से यहां हर छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी चीज मायने रखती है और सम्मान, देखभाल और करुणा की हकदार है। दुख की बात ये है कि आज की दुनिया अक्सर इस सच्चाई से अनजान रहती है। जरा सोचिए कि आप एक दिन में कितने बेघर लोगों को देखते हैं। अगर उनकी जगह आपके पड़ोसी हों तो तो आप यकीनन उनकी मदद करेंगे। लेकिन आपको दिखने वाले लोग अजनबी हैं इसलिए आप बिना दो पल रुके आगे बढ़ जाते हैं। अगर आप अपनी सोच का दायरा थोड़ा बढ़ा दें तो ये लोग भी आपको अपनी दुनिया का हिस्सा ही लगेंगे। हो सकता है इनमें से कोई आपके पड़ोसी का भाई, मंदिर के सत्संग का सदस्य या स्कूल में साथ पढ़ा हुआ दोस्त निकल आए। 

ये समझना भी बहुत जरूरी है कि आपसी मतभेदों को कैसे दूर किया जा सकता है। राॅब टिबेट्स की कहानी को ही ले लीजिए। साल 2018 में रॉब की बेटी मॉली को एक मैक्सिकन इमिग्रेन्ट ने मार डाला था। इस घटना ने लोगों में पूरी हिस्पैनिक कम्यूनिटी के खिलाफ नफरत की भावना फैला दी। लेकिन रॉब ने गुस्से में बह जाने की जगह समझदारी से काम लिया। मॉली के अंतिम संस्कार में उन्होंने कहा कि हिस्पैनिक कम्यूनिटी उनकी कम्यूनिटी से अलग नहीं है। उन्होंने कहा कि सभी ने मॉली की मौत का दर्द महसूस किया है और मेरे साथ खड़े रहे हैं। किसी एक की गलती के लिए सबको दोष देना ठीक नहीं है। मेडिटेशन भी इंटरबीइंग की भावना को अच्छी तरह महसूस करने और सामने लाने में मदद करता है। अगली बार जब आप लव काइंडनेस मेडिटेशन का अभ्यास करें तो उस दिन मिले हुए किसी इंसान की छवि बनाएं। इस बारे में सोचें कि उसकी भलाई से आपकी भलाई कैसे जुड़ी है और उसके नुकसान से आपका नुकसान। उसकी तरफ अच्छे विचार भेजें और फिर ध्यान दें कि इससे आपका मूड को कैसे सुधर जाता है। आखिरकार आप दोनों एक दूसरे से जुड़े जो हैं।

अपनी सोच का दायरा बढ़ाकर आप बहुत सी परेशानियों को दूर कर सकते हैं।
एक सवाल पर गौर करिए। एक आदमी और उसका बेटा कार हादसे का शिकार हो जाते हैं। आदमी मर जाता है और लड़के को अस्पताल ले जाया जाता है। उसे देखकर सर्जन ने कहा कि "मुझसे इस बच्चे का ऑपरेशन नहीं हो पाएगा, ये मेरा बेटा है।" अब सवाल आता है कि सर्जन कौन है? इसका जवाब अक्सर तेज से तेज दिमाग वाले इंसान को भी हैरान कर देता है। जब पिता की मृत्यु हो गई है तो वो डॉक्टर उसके पिता तो नहीं हो सकते। लेकिन जरा गहराई से सोचें तो जवाब साफ है। डॉक्टर उस लड़के की मां है। 

बड़ी हैरानी की बात है कि लगभग 80 प्रतिशत लोग इसका जवाब नहीं दे पाते । यह इस बात का एक मजबूत उदाहरण है कि हम कितनी आसानी से बाएस्ड होकर चीजों को नजरअंदाज कर देते हैं। हमारा दिमाग मेहनत करने की जगह शॉर्टकट ले लेता है, लॉजिक को भुला देता है और हमारे आस-पास क्या हो रहा है इसे समझने के लिए बिना ध्यान दिए ही नतीजे पर पहुंच जाता है। कुछ मामलों में तो ये आदत हमारे लिए फायदेमंद होती है पर ज्यादातर इससे हमारे फैसले लेने की ताकत पर बुरा असर होता है। ऐसा ही एक उदाहरण नजर आता है जब हम अपने और अनजान लोगों के एक ही बर्ताव पर अलग तरह से रिएक्शन देते हैं। जैसे आपका कोई करीबी दोस्त गुस्से या बदतमीजी से पेश आता है तो आप इस बात को ज्यादा महत्व नहीं देंगे। आप सोचेंगे कि शायद आज उसका मूड किसी बात पर ऑफ है। लेकिन अगर कोई अनजान आदमी ऐसा करे तो आप एक जनरलाइजेशन बना देते हैं कि इस ग्रुप या कम्यूनिटी के लोग तो ऐसे ही होते हैं। 

इस तरह की धारणाएं बनाना नुकसानदायक है क्योंकि इस वजह से हम लोगों या घटनाओं को गहराई से देखने और समझने से दूर हो जाते हैं। ऐसी आदतें हमारी सोच पर इस तरह परदा डाल देती हैं कि हम आगे चलकर रेस, जेंडर या सोशल भेदभाव को बढ़ावा देने वाले बन सकते हैं। शेरॉन के हिसाब से इतना पढ़े लिखे और बहुत जागरूक होने के बावजूद डॉक्टर जाने अनजाने अक्सर रेसिज्म का शिकार हो जाते हैं और गोरों की तुलना में काले मरीजों के पर्चे में कम पेनकिलर दवाएं लिखते हैं। आप अवेयरनेस मेडिटेशन की मदद से इस आदत को दूर करने की शुरुआत कर सकते हैं। ये मेडिटेशन आपको अपनी सोच की सही पहचान कराता है और आप ये भी समझने लगते हैं कि इससे दुनिया पर किस तरह का असर पड़ सकता है। इसका अभ्यास करने के लिए बस शांत होकर ध्यान लगाना शुरू करें और अपने अनुभवों और उनसे आए विचारों पर गौर करें। आप हैरान रह जाएंगे कि आपके अंदर कितने बाएस भरे पड़े हैं।

खुद को भावनाओं में बहने से रोककर आप दिलो दिमाग का बैलेंस बनाए रख सकते हैं।
मान लीजिए कि आप एक बच्ची को देख रहे हैं जो अपने खिलौने के साथ खुशी-खुशी खेल रही है। अचानक वो खिलौना टूट जाता है। वो बच्ची दुखी होकर रोने लगती है। आप क्या करेंगे? आप उसको गले लगाकर उसका दर्द बांट सकते हैं और वहीं बैठकर उसके साथ रो सकते हैं। या आप इसका उल्टा तरीका अपनाकर उसे सख्ती से बता सकते हैं कि एक खिलौने का टूटना कैंसर जैसी बीमारी या युद्ध के कहर के सामने कुछ नहीं है। लेकिन ये दोनों तरीके बहुत एक्स्ट्रीम लेवल पर हैं। सही रास्ता इन दोनों के बीच है। न तो बचपना दिखाते हुए बहुत नरमी दिखाएं और न बहुत सख्ती। उसे किसी और खेल में लगा दें। ज्यादातर लोग एक बैलेंस लाइफ जीना चाहते हैं पर उनके लिए इसका क्या मतलब होता है? कुछ लोगों के लिए इसका मतलब है कि सभी चीजों का बराबर का होना। चाहे काम हो या आराम। जितना दुख उतना ही सुख। लेकिन जिंदगी में इस तरह का बैलेंस हो पाना थोड़ा अनरियलिस्टिक लगता है। आपको हर बार सब कुछ इतना बराबर-बराबर नहीं मिल सकता। 

बैलेंस बनाने का एक बेहतर तरीका समभाव यानि equanimity है। इसे बौद्ध लोग उपेक्खा कहते हैं। इसका मतलब है अपने अंदर ही बैलेंस ढूंढना। यानि गुस्सा, उदासी, खुशी और डर जैसी भावनाएं महसूस तो की जाएं पर इनमें पूरी तरह से डूबा न जाए। ऐसा इंसान सारी भावनाओं को एक्सेप्ट करेगा, उससे उपजे विचारों को महसूस करेगा लेकिन फिर धीरे-धीरे शांत हो जाएगा। जैसे कोई घूमता हुआ जायरोस्कोप काम करता है जहां बाहरी ताकतों को अंदरूनी ताकत बैलेंस कर देती है। Equanimity का विकास उन लोगों के लिए बहुत महत्व रखता है जो इस दुनिया को एक बेहतर जगह बनाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। उदाहरण के लिए अगर आप क्लाइमेट चेंज या रेसिज्म के मुद्दों पर जी जान से काम कर रहे हैं तो आसानी से निराशा का शिकार हो  सकते हैं कि जब ये इतनी गंभीर और उलझी हुई परेशानियां हैं तो इतनी आसानी से कैसे ठीक हो सकती हैं? 

ऐसे मामलों में दो बातें समझकर चलना जरूरी हो जाता है। पहले तो आप इस कड़वी सच्चाई को मान लें और दूसरा आने वाले कल को बेहतर बनाने की कोशिश करें भले ही आप छोटे-छोटे कदम क्यों न रखें। जैसे कोई टीचर अपने स्टूडेंट्स को पढ़ाते हुए सब कुछ एक ही दिन में नहीं सिखा सकता। शायद सौ दिन में भी न सिखा पाए। फिर भी समय बीतने के साथ स्टूडेंट्स सीखते हैं और आगे बढ़ते हैं। एक दिन वो टीचर तो चला जाएगा पर वो स्टूडेंट्स इस दुनिया में बदलाव लाने के लिए तैयार हो चुके होंगे।

कुल मिलाकर
ये दुनिया एक ऐसी जगह लगती है जो बद से बदतर होती जा रही है। इसके बावजूद बहुत से लोग इसे बेहतर बनाने के लिए कमर कसकर खड़े हैं। माइंडफुलनेस और मेडिटेशन बुरे से बुरे हालात का सामना करने में मददगार साबित हो सकते हैं। अपनी ताकत बनाए रखने के लिए निगेटिव भावनाओं को स्वीकार करके अपने हंसने खेलने के लिए थोड़ा समय निकालकर और हमेशा equanimity के साथ आगे बढ़कर काम करें। 

 

क्या करें

याद रखें कि आपको महसूस हो रही हर भावना बस थोड़ी देर के लिए ही है न कि ये हमेशा टिक जाएगी।  यहां तक​कि सबसे शांत और चुप रहने वाला इंसान भी कभी-कभी गुस्से या नफरत का अनुभव कर सकता है। जब कभी ऐसा होता है तो खुद से बस इतना कहें कि ये बस थोड़ी देर की बात है। माइंडफुलनेस मेडिटेशन का एक सेशन मन को वापस शांत करने में आपकी मदद करेगा। 

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