Martin Blaser
एंटीबायोटिक्स के अंधाधुंध इस्तेमाल के खतरे
दो लफ्ज़ों में
हम अक्सर गट फीलिंग शब्द का इस्तेमाल करते हैं। किसी की गट फीलिंग सही न भी निकले तो कोई खास बात नहीं है। पर गट में जिन microbes ने अपनी एक छोटी सी दुनिया बसा रखी है उनका सही होना आपकी सेहत के लिए बहुत मायने रखता है। ये किताब बताती है कि ये छोटे और बिना माइक्रोस्कोप के दिख भी ना पाने वाले जीव किस तरह आपको सेहतमंद और यहां तक कि खुश रखने में भी बड़ा रोल प्ले करते हैं और कैसे एंटीबायोटिक्स का ज्यादा इस्तेमाल इनको नुकसान पहुंचाता है।
ये किताब किनको पढ़नी चाहिए?
• जो लोग एंटीबायोटिक्स के खतरों के बारे में जानना चाहते हैं
• जो माता पिता अपने बच्चों की सेहत की फिक्र करते हैं
• मेडिसिन और हेल्थ की बातों में रुचि रखने वाले लोग
इस किताब को पढ़कर आप जानेंगे
• धरती को हरा भरा रखने में माइक्रोब्स किस तरह मदद करते हैं
• भेड़िए, हिरण और आपके आपके गट बैक्टीरिया में क्या समानता है
• जानवरों को एंटीबायोटिक्स देने के क्या नुकसान हैं
लेखक के बारे में
डॉ. मार्टिन ब्लेजर, न्यूयार्क यूनिवर्सिटी के ह्यूमन माइक्रोबायोम प्रोग्राम के डायरेक्टर और माइक्रोबायोलॉजी के प्रोफेसर हैं। उन्होंने हेलिकोबैक्टर पाइलोरी, कैम्पिलोबैक्टर, साल्मोनेला बैसिलस एन्थ्रेसिस और ह्यूमन माइक्रोबायोम की स्टडीज पर बहुत काम किया है।
माइक्रोब्स के घटने की वजह से अस्थमा, एलर्जी और डायबिटीज के खतरे बढ़ते हैं।
आम तौर पर कोई इन्फेक्शन हो तो एंटीबायोटिक्स लिख दी जाती हैं जिससे मरीज ठीक हो जाता है। एक तरह से देखा जाए तो एंटीबायोटिक्स किसी चमत्कार से कम नहीं हैं। लेकिन ये किताब बताती है कि एंटीबायोटिक्स के नुकसान भी होते हैं। जैसे अगर आप बगीचे में कीड़े मकोड़े भगाने के लिए जरूरत से ज्यादा दवा डाल दें तो फूल भी खत्म होने लगते हैं। इसी तरह एंटीबायोटिक्स का ज्यादा इस्तेमाल गट के उन बैक्टीरिया को भी नुकसान पहुंचाता है जो आपको सेहतमंद रहने में मदद करते हैं। ये किताब आपको एंटीबायोटिक्स के फायदे और नुकसान का बैलेंस समझाने में मदद करती है।
मोटापा, डायबिटीज, अस्थमा और कैंसर के मरीजों की बढ़ती हुई गिनती और इनके खतरे हर कोई समझता है। हम ये भी जानते हैं आगे ये बीमारियां और बढ़ती जाएंगी। लेकिन मेडिसिन की दुनिया में तो बहुत तरक्की हो चुकी है। तो वो यहां नजर क्यों नहीं आती? इसके जवाब में हमें जाना पड़ता है अपनी गट के अंदर। हमारी गट में लाखों माइक्रोब्स पाए जाते हैं। इनकी कॉलोनी को माइक्रोबायोम कहा जाता है। माइक्रोब्स छोटे होते हुए भी बहुत बड़ा काम करते हैं। जैसे बीमारियों से लड़ना और इम्यून सिस्टम को मजबूत रखना। लेकिन ये आते कहां से हैं? जब बच्चा नॉर्मल डिलीवरी से पैदा होते हुए बाहर आता है तो तरह-तरह के माइक्रोब्स उस पर लग जाते हैं। ये बच्चे की स्किन और उसकी गट में हमेशा के लिए अपनी जगह बना लेते हैं। लेकिन जब बच्चा ऑपरेशन से पैदा होता है तो उसका माइक्रोब्स के साथ कोई कॉन्टेक्ट नहीं होता। ऊपर से सर्जरी में लगने वाले ढेरों एंटीबायोटिक्स और सैनिटाइजर, माइक्रोब्स को और भी दूर कर देते हैं। इस वजह से इन बच्चों की इम्यूनिटी कमजोर रह जाती है या फिर इनमें ज्यादातर वो माइक्रोब्स बचते हैं जिन पर एंटीबायोटिक्स का असर न हो। जबकि माइक्रोबायोम का कमजोर रह जाना सेहत के लिए बहुत परेशानियां पैदा कर सकता है।
माइक्रोबायोम में जितनी वेरायटी होगी आपकी सेहत की गारंटी उतनी ज्यादा होगी। अगर गट से माइक्रोब्स की कोई एक खास वेरायटी भी हटा दी जाए तो पूरा का पूरा इकोसिस्टम खराब हो सकता है। माइक्रोबायोम के इकोसिस्टम को समझने के लिए एक बड़े इकोसिस्टम का उदाहरण लेते हैं - यलोस्टोन नेशनल पार्क। लगभग सत्तर साल पहले यहां से भेड़ियों को हटा दिया गया था। इसकी वजह से हिरण बहुत ज्यादा बढ़ गए। ये हिरण सारे पेड़ पौधे और घास खा गए। इसकी वजह से छोटे जानवर और चिड़ियाएं घटने लगे क्योंकि उनको न तो पूरा खाना मिलता था और न ही अपना बिल या घोंसला बनाने का सामान और जगह। पेड़ पौधे घटने लगे तो नदी के किनारे भी टूटने लगे। पहले भेड़िए, हिरणों को मारते थे तो उनके मांस से कौवे, चील और गिद्ध अपना काम चला लेते थे। अब मांस न मिलने की वजह से ये भी कम होते गए। भैंसे भी खत्म हो गए थे क्योंकि ये भी पौधों पर ही जिंदा रहते थे। यानि एक जानवर के चले जाने से पूरा इकोसिस्टम ठप हो गया। आपकी गट में भी यही हो सकता है।
धरती पर माइक्रोब्स हमसे पहले से हैं।
अगर इवॉल्यूशन के 3.7 बिलियन सालों को एक दिन मानकर हिसाब लगाया जाए तो शुरुआत के पहले सेकंड के अंदर माइक्रोब्स आ चुके थे। आदिम लोग आधी रात ढलने पर आए और हम यानि Homo Sapiens, दिन खत्म होने के बिल्कुल दो सेकंड पहले ही आए हैं। माइक्रोब्स तो लाखों करोड़ों सालों से धरती पर मौजूद रहे हैं। शायद ये न होते तो धरती पर कुछ पनपता ही नहीं। लगभग तीन बिलियन सालों तक तो धरती पर सिर्फ बैक्टीरिया ही रहते थे। इनकी वजह से ही बायोस्फीयर बनाने के लिए जरूरी केमिकल रिएक्शन हुए। बायोस्फीयर का मतलब है वो बड़ा इकोसिस्टम जो दूसरे कई इकोसिस्टम से मिलकर बना है जिसमें अलग-अलग तरह के जीव रहते हैं। माइक्रोब्स भले ही हमें न दिखते हों पर ये हमारे चारों तरफ हैं। ये हवा, जमीन, पानी हर जगह मिलेंगे। इनकी गिनती और वेरायटी भी बहुत ज्यादा है। धरती पर मौजूद हर जिंदा चीज को मिलाएं तो भी इनकी गिनती सबसे ज्यादा होती है। माइक्रोब्स का हर जगह मौजूद होना हमारे लिए फायदे की बात है। अगर ये न हों तो न हम खा पाएंगे और न ही सांस ले पाएंगे। हमें भले ही हर जगह इनकी जरूरत हो पर ये हमारे बिना भी जी लेंगे। यानि हमें बैक्टीरिया की जरूरत है। लेकिन ये भी नहीं भूलना चाहिए कि इनकी वजह से बीमारियां भी फैलती हैं जो कि हमारी जिंदगी खत्म होने की वजह भी बन जाती हैं।
एंटीबायोटिक्स ने इंसानी समाज को पूरी तरह खत्म होने से बचाया भी है।
जरा सोचिए पहले के लोगों को मौत का सबसे बड़ा खतरा किससे रहता था, चीता या भेड़िए जैसे जंगली जानवर? नहीं। सालों तक मौत की सबसे बड़ी वजह ये बड़े जानवर नहीं बल्कि बैक्टीरिया जैसे छोटे से पैथोजन होते थे। हालांकि आदिम काल में ये परेशानी इतनी गहरी नहीं होती थी क्योंकि दुनियाभर में लोग अलग-अलग कबीले या झुंड बनाकर दूर दूर रहा करते थे। तो अगर किसी कबीले में कोई इन्फेक्शन फैल भी जाता तो ज्यादा लोगों को अपनी चपेट में नहीं ले पाता था। कोई बीमार पड़ा तो तीन ही बातें हो सकती थीं। पूरा कबीला खत्म हो जाता, या उनमें से कुछ लोग ही खत्म होते और बाकी लोगों को इम्यूनिटी मिल जाती या फिर किसी को कुछ भी नहीं होता। यानि इंसानों की तरह पैथोजन भी एक जगह पर ही रह जाते थे। अगर पूरा का पूरा कबीला भी इन्फेक्शन का शिकार हो जाता तो भी महामारी जैसी कोई बात नहीं होती। क्योंकि महामारी जैसे बड़े लेवल के लिए एक ही जगह पर ज्यादा लोगों का साथ साथ होना जरूरी है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो शहर जैसी आबादी। जब शहर बसने लगे थे तब चूहे और pest ने अपनी जगह बनाई। इनके साथ बैक्टीरिया और पैरासाइट आए। ये अपने साथ महामारी लेते हुए आए। महामारी के नाम पर सबसे पहले दिमाग में ब्लैक डेथ का नाम आता है। इसकी शुरुआत तेरह सौ सैंतालीस में हुई और जिसने दस साल तक फैलते हुए अपने साथ यूरोप की लगभग एक तिहाई आबादी को खत्म कर दिया। जैसे जैसे शहर बसते गए और लोग साथ रहने लगे वैसे वैसे पैथोजन को फैलने में आसानी होने लगी।
भले ही अब साफ सफाई और हाइजीन पर ज्यादा ध्यान दिया जाने लगा था पर हैजा और स्मॉल पॉक्स जैसी भयानक महामारियां १९वीं सदी में भी एक चैलेंज बनी हुई थीं। राहत की बात है कि आज हमें इतना डरने की जरूरत नहीं है। इसके पीछे एलेक्जेंडर फ्लेमिंग का सबसे बड़ा हाथ है। साल १९८२ में उन्होंने दुनिया की सबसे पहली एंटीबायोटिक, पेनिसिलीन खोज निकाली। ये एक्सीडेंटल खोज बहुत काम की साबित हुई। इस खोज ने एंटीबायोटिक्स की दुनिया में एक बुनियाद बनाने का काम किया। लेकिन एंटीबायोटिक्स ने उतनी मुश्किलें भी खड़ी कर दीं जितनी इनसे मदद मिली।
एंटीबायोटिक्स वरदान भी हैं और श्राप भी।
एंटीबायोटिक्स किसी मरते हुए इंसान को जिंदा कर देने की ताकत रखती हैं। इसके चमत्कार आपने भी देखे होंगे। मेडिकल फील्ड में एंटीबायोटिक्स को बीसवीं सदी की सबसे बड़ी सफलता कहा जा सकता है। आज हमें जो बीमारियां मामूली सी नजर आती हैं एंटीबायोटिक्स के बिना इनकी वजह से लाखों जानें चली जातीं। मार्टिन खुद इस बात के गवाह हैं। जब वो कुछ महीने काम के सिलसिले में भारत और बांग्लादेश रहकर लौटे तो उनकी तबीयत बिगड़ने लगी। आखिर उनको अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। मार्टिन तो वैसे भी टायफाइड फैलाने वाले Salmonella typhi बैक्टीरिया के एक्सपर्ट थे तो उन्होंने अपने डॉक्टर को बता दिया कि उनको कौन सी एंटीबायोटिक्स दी जाएं। ब्लड टेस्ट से ये पता चला कि उनको Salmonella paratyphi नाम के ट्विन बैक्टीरिया का इन्फेक्शन हुआ था।
एंटीबायोटिक्स की खुराक और दो हफ्ते के आराम के बाद मार्टिन ठीक हो गए। लेकिन अगर वो दवा न लेते तो या तो मर जाते या उनको ठीक होने में बहुत लंबा समय लगता। इससे उनमें कमजोरी भी बहुत हो जाती। किसी बैक्टीरियल इन्फेक्शन के इलाज में एंटीबायोटिक्स बहुत काम के साबित होते हैं लेकिन इनके खतरे भी कम नहीं हैं। आज एंटीबायोटिक्स हमें सिर्फ दवाओं से ही नहीं मिल रहे। ये हर चीज जैसे खाना और पानी में भी फैल चुके हैं। अमेरिका में बनने वाले ज्यादातर एंटीबायोटिक्स इंसानों के लिए नहीं बल्कि फार्म में पल रहे जानवरों के लिए बनाए जाते हैं। इसकी दो वजह हैं। पहली है ऐसी गंदगी जो लगभग हर फार्म हाउस पर मिलेगी। यानि यहां पैथोजन को फैलने के लिए मनचाहा माहौल मिल जाता है। जानवरों को बीमारी से बचाने के लिए एंटीबायोटिक्स जरूरी हो जाते हैं। दूसरी वजह ये है कि एंटीबायोटिक्स देने से जानवरों की ग्रोथ बढ़ जाती है। जो पैथोजन, एंटीबायोटिक्स से बच जाते हैं वो जानवरों को वजन बढ़ाने में मदद करते हैं और जितना ज्यादा वजन उतना ज्यादा मीट। लेकिन जरूरत से ज्यादा एंटीबायोटिक्स देना बहुत बुरा साबित होता है। जानवरों के शरीर में बचा एंटीबायोटिक भोजन में आ जाता है। वो माइक्रोब्स भी हम तक पहुंच जाते हैं जो एंटीबायोटिक्स से बच गए थे।
एंटीबायोटिक्स के बढ़ते इस्तेमाल की वजह से गट माइक्रोबायोम कमजोर होने लगता है।
ये बात आपको जरूर परेशान कर देगी कि एंटीबायोटिक्स उतने भी सेफ नहीं हैं जितना दवा कंपनियां बताती हैं। एंटीबायोटिक्स का जो असर बीमारी फैलाने वाले बैक्टीरिया पर होता है वही असर हमारे गट बैक्टीरिया पर भी होता है। इसकी वजह से गट माइक्रोबायोम में काफी बदलाव आ जाते हैं। पेगी लिलिस का उदाहरण ले लीजिए। वो 56 साल की एक बिल्कुल फिट और खुशमिजाज महिला थी। साल 2010 में दांतों का कोई मामूली इलाज कराते हुए उसने कुछ एंटीबायोटिक्स लिए। इसके डेढ़ महीने के अंदर उसकी मृत्यु हो गई। मरने से पहले उसको
Clostridium difficile (C. diff) नाम के बैक्टीरिया का इन्फेक्शन हुआ था। हेल्दी लोगों की गट में कुछ C. diff बैक्टीरिया तो पाए जाते हैं। बाकी के बैक्टीरिया इनको ज्यादा बढ़ने नहीं देते। लेकिन जैसे ही दूसरे बैक्टीरिया कम हुए तो C. diff तेजी से फैलकर तबाही मचा देते हैं। ये टॉक्सिन बनाते हैं जो बड़ी आंत की दीवार में छेद कर देता है। इसकी वजह से खून में fecal particles मिलने लगते हैं। अक्सर इसकी वजह होती है एंटीबायोटिक्स।
लिलिस के साथ भी यही हुआ था। ये तो नहीं कहा जा सकता कि C. diff उसके शरीर के अंदर ही फैले या कहीं बाहर से आए पर एंटीबायोटिक्स की वजह से ये इन्फेक्शन बढ़ा इतना तय है। इतना ही नहीं एंटीबायोटिक्स की एक आम खुराक भी आपको इन्फेक्शन का शिकार बना सकती है। साल १९८५ में शिकागो में फैला Salmonella इसका उदाहरण है जिसकी वजह से लगभग एक लाख साठ हजार लोगों को इन्फेक्शन हो गया था और कितनी जानें चली गई थीं। पहले तो ये समझ भी नहीं आया कि इसकी शुरुआत कहां से हुई है। लेकिन जल्द ही ये पता लगा लिया गया कि सुपर मार्केट में मिलने वाला एक दूध का ब्रांड इसके लिए जिम्मेदार था। जब हेल्थ डिपार्टमेंट ने जांच पड़ताल की तो ये देखा गया कि दूध पीने वाले उन लोगों में इन्फेक्शन के चांस 5 गुना ज्यादा थे जो दूध पीने के लगभग एक महीने पहले से एंटीबायोटिक्स ले रहे थे। ऐसा भी देखा गया है कि किसी एक बैक्टीरिया के इलाज के लिए एंटीबायोटिक्स लेना आपको किसी दूसरे बैक्टीरिया के इन्फेक्शन के लिए तैयार कर देता है।
एंटीबायोटिक्स का इस्तेमाल घटाकर और प्रीबायोटिक्स को बढ़ाकर आप गट माइक्रोबायोम को हेल्दी रख सकते हैं।
कुछ लोग जरूरत से ज्यादा एंटीबायोटिक्स लेकर अपना नुकसान कर लेते हैं। अगर आप सच में अपनी सेहत की परवाह करते हैं तो आपको ऐसा नहीं करना चाहिए। बल्कि आप ये तय कर लीजिए कि एंटीबायोटिक्स तभी लेंगे जब बहुत जरूरी हो या इसके बिना काम न चल सके। वैसे भी ये बात सबसे अच्छी तरह एक डॉक्टर ही समझ सकता है कि एंटीबायोटिक्स की जरूरत कब है। आप अपने डॉक्टर को ये कह सकते हैं कि अगर हो सके तो आप एंटीबायोटिक्स के बिना काम चलाना चाहेंगे। बच्चों पर भी ये बात लागू होती है। उनको भी एंटीबायोटिक्स देते समय डॉक्टर से चेक कर लें कि क्या बच्चा इसके बिना रह सकता है? फ्रांस जैसे कुछ देश इस बात के लिए लगातार कोशिश कर रहे हैं कि एंटीबायोटिक्स का इस्तेमाल कम किया जाए खास तौर पर बच्चों के लिए। 2001 का डेटा देखें तो फ्रांस, यूरोप के बाकी देशों में सबसे ज्यादा एंटीबायोटिक्स का इस्तेमाल कर रहा था। लेकिन वहां "Antibiotics Are Not Automatic" नाम का कैम्पेन शुरू हुआ जिसकी वजह से 2007 आते आते एंटीबायोटिक्स का इस्तेमाल 26% कम हो गया। तीन साल से कम उम्र के बच्चों में ये लगभग 36% घट गया।
अपनी गट को हेल्दी रखने के लिए आप प्रीबायोटिक्स की मदद ले सकते हैं। प्रीबायोटिक्स उन चीजों को कहा जाता है जो माइक्रोब्स को फलने फूलने में मदद करते हैं। बहुत से लोग ये बताते हैं कि उनको प्रीबायोटिक्स लेने के बाद फायदा हुआ। हालांकि ये कितने काम के हैं इसे पूरी तरह साबित नहीं किया जा सका है। ये भी हो सकता है कि ये किसी placebo effect की तरह काम करता हो। लेकिन हो सकता है कि आगे चलकर प्रीबायोटिक्स और प्रोबायोटिक्स यानि एक्टिव बैक्टीरियल कल्चर हमारी जिंदगी का एक हिस्सा बन जाएं।
कुल मिलाकर
एंटीबायोटिक्स वाकई कमाल की चीज हैं। ये इंसानों को मौत के मुँह में जाने से तो बचाते ही हैं पर इसके साथ फार्म के जानवरों की ग्रोथ में मदद करके मीट प्रोडक्शन भी बढ़ाते हैं। लेकिन इनके साथ खतरे भी जुड़े हैं। नुकसान पहुंचाने वाले बैक्टीरिया को खत्म करने के साथ ये अच्छे बैक्टीरिया को भी खत्म कर देते हैं।
क्या करें
सैनिटाइजर की जगह आम साबुन का इस्तेमाल करें।
ज्यादातर सैनिटाइजर्स में ट्राईक्लोसन होता है जो एंटीबायोटिक नहीं है फिर भी बैक्टीरिया को मारता है। जबकि आम साबुन बैक्टीरिया को नहीं मारता है पर काम लगभग सैनिटाइजर जैसा ही कर देता है। ऐसे बैक्टीरिया जो आपके साथ सालों से रह रहे हैं और इनमें से ज्यादातर ऐसे हैं जो इन्फेक्शन से आपकी रक्षा करते हैं तो आप उनको क्यों मारना चाहेंगे?
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