Johann Hari
डिप्रेशन की असली वजह और अनोखे इलाज
दो लफ्जों में
साल 2018 में आई ये किताब आपको इतिहास और विज्ञान दोनों रास्तों से ले जाकर उस जगह ले आती है जहां डिप्रेशन से जुड़े बहुत से मिथ टूट जाते हैं। इतना ही नहीं आपको ये भी समझ आने लगता है कि आखिर डिप्रेशन के इतना ज्यादा नजर आने की क्या वजह है। आपको ये भी पता चलता है कि डिप्रेशन पर साइंस बिल्कुल आज की तारीख में क्या तरक्की कर रहा है और इसके कौन से नए इलाज सामने लाकर रख रहा है।
ये किताब किनको पढ़नी चाहिए?
• साइकोलॉजी, मेंटल हेल्थ और सोशल वर्क के स्टूडेंट्स
• डिप्रेशन से गुजर रहे लोग
• जिनका कोई अपना डिप्रेशन या एंजायटी का शिकार है
लेखक के बारे में
जोहान की लिखी किताब Chasing the Scream, बेस्ट सेलर की गिनती में शामिल है। वो अपने TED Talk शो "Everything You Think You Know About Addiction Is Wrong" के लिए भी जाने जाते हैं।
भले ही दवा कंपनियां कितने दावे कर लें पर डिप्रेशन की वजह केमिकल्स की गड़बड़ी नहीं है।
इस बात की पूरी संभावना है कि आप या आपका कोई अपना डिप्रेशन से गुजरा होगा। आज की भागमभाग वाली जिंदगी में जहां हर कोई अकेला है और अपनी जगह बचाए रखने के लिए किसी न किसी तरह स्ट्रगल कर रहा है वहां डिप्रेशन हमारी जिंदगी का एक हिस्सा ही बनता जा रहा है। जोहान ये कहते हैं कि डिप्रेशन की असली वजह को समझा ही नहीं गया है। इसमें फार्मा कंपनियों का भी बड़ा हाथ रहा है जो अपने मुनाफे के लिए इस दावे का जोर शोर से सपोर्ट करती रहीं कि डिप्रेशन तो दिमाग में होने वाले केमिकल्स की गड़बड़ी का नतीजा है। लेकिन जिस डिप्रेशन से न जाने कितने लोग हर रोज गुजरते हैं उसके पीछे कोई और ही वजह छिपी है। इसकी असल वजह हमारे शरीर या दिमाग में नहीं छिपी है बल्कि हमारे चारों ओर भरी पड़ी है। इसमें मन पर लगी चोट, अकेलापन, पैसे और स्टेटस की चाहत में बदलती वेल्यूज या कभी-कभार तो सिर्फ ऑफिस का माहौल भी शामिल हैं। पर इन सबसे परेशान होने की जरूरत नहीं है। इस किताब में हम सिर्फ कारण ही नहीं इलाज पर भी बात करेंगे ताकि डिप्रेशन की हालत को बदलकर पॉजिटिविटी लाई जा सके और खत्म हो चुकी उम्मीदों को फिर से जिंदा किया जा सके।
इस किताब को पढ़कर आप जानेंगे
• प्रोजेक किसी जादू की छड़ी की तरह क्यों है
• बाल्टीमोर में एक साइकिल की दुकान किस तरह ऑफिस के माहौल को सही रखने की सीख देती है
• सोसाइटी, दवाओं से ज्यादा असरदार कैसे साबित हो सकती है
तो चलिए शुरू करते हैं!
जोहान ने 18 साल की उम्र में पहली बार डिप्रेशन के लिए दवा ली थी पर वो लंबे समय से डिप्रेशन से गुजर रहे थे। बचपन में भी उन्होंने अकेलेपन का सामना किया था। वो कमरे में अकेले रोते रहते थे। एक उम्र के बाद उनको ये समझ आने लगा था कि उनके अंदर डिप्रेशन के लक्षण मौजूद हैं। जब वो डॉक्टर के पास गए तो उसने कहा कि डिप्रेशन की वजह दिमाग के केमिकल्स की गड़बड़ी है जिसे दवाओं से ठीक किया जा सकता है। जोहान ने Paxil नाम की दवा लेनी शुरू कर दी जो मार्केट में मौजूद कई selective serotonin reuptake inhibitors (SSRIs) में से एक थी। इस तरह कि दवाओं के बारे में कहा जाता है कि ये सेरोटोनिन का लेवल उतना बढ़ा देती हैं जो एक नॉर्मल इंसान में होता है।
SSRIs लेने वाले दूसरे कई मरीजों की तरह जोहान को भी शुरुआत में कुछ फायदा महसूस हुआ लेकिन ये असर जल्द ही खत्म हो गया। अब डॉक्टर ने दवा की पावर बढ़ा दी। कुछ समय फिर आराम से निकल गया। लेकिन कुछ दिन बाद फिर वही हाल होता और डॉक्टर फिर पावर बढ़ा देता। जोहान को एक बात साफ समझ आ रही थी कि Paxil से उनका वजन बढ़ रहा है और पहले से कहीं ज्यादा पसीना आ रहा है। 30 की उम्र आते आते वो ये समझ चुके थे कि दस साल से ज्यादा समय तक दवा लेने के बावजूद वो अभी भी डिप्रेशन का शिकार थे। अब वो डिप्रेशन और इसकी दवाओं पर गहराई से जानकारी इकट्ठी करने लगे। इसमें उनके हाथ जो कुछ लगा वो हैरान कर देने वाला था। इस दावे के सपोर्ट में तो ज्यादा सबूत ही नहीं थे कि डिप्रेशन की वजह केमिकल्स की गड़बड़ी होती है या फिर SSRIs डिप्रेशन के हर मरीज पर असर करती है।
1990 के दशक में हार्वर्ड के प्रोफेसर Irving Kirsch ने एंटी डिप्रेसेंट पर हुई रिसर्च को बारीकी से पढ़ना शुरू किया। उन्होंने ये देखा कि फार्मा कंपनियां तो रिसर्च के नतीजों को घपला करके छाप रही हैं ताकि अपनी दवाएं मार्केट में उतार सकें। जैसे प्रोजेक का उदाहरण ले लीजिए। इसे 245 मरीजों पर टेस्ट किया गया था पर नतीजे सिर्फ उन 27 मरीजों के सामने रखे गए जिनको इससे फायदा हुआ। इसी तरह Paxil की रिसर्च में असल में ये नतीजा निकलकर आया था कि मरीजों पर असली दवा की जगह placebo का ज्यादा असर हुआ था। उन्होंने डिप्रेशन और सेरोटोनिन का लिंक बताने वाले दावों की भी छानबीन की। इससे उनको ये समझ आया कि यहां भी झोल है। वैज्ञानिकों ने नतीजे समझने में गल्ती की और दवा कंपनियों ने इसका फायदा उठाते हुए अपनी दवाएं लॉन्च कर दीं। जब जोहान, लंदन यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर जोआना मॉन्क्रिफ से मिले तो उनका कहना था कि इस बात का कोई सबूत नहीं है कि डिप्रेशन और एंजायटी के मरीजों में केमिकल्स की गड़बड़ी होती है।
डिप्रेशन की दवाओं का जो भी थोड़ा-बहुत असर होता है वो placebo effect की वजह से होता है।
जोहान के लिए इस बात पर यकीन करना मुश्किल था कि दवा कंपनियां मुनाफे के लिए पब्लिक को धोखा दे रही हैं और ये दवाएं तो मरीज की कोई खास मदद करती ही नहीं है। इससे यही बात निकलकर सामने आती है कि हमें सुनाई जा रही कहानियां या सामने रखे जाने वाले उदाहरण किस तरह हम पर placebo effect डाल देते हैं। मेडिकल की दुनिया में इस ताकत को अच्छी तरह जाना पहचाना जाता है। WWII के दौरान काम कर रहे हेनरी बीचर नाम के डॉक्टर का किस्सा बहुत फेमस हुआ है। सैनिकों का इलाज करते हुए एक बार मॉर्फीन खत्म हो गई। उन्होंने मरीजों को बिना बताए इसकी जगह चीनी का पानी दे दिया। हैरानी की बात ये थी कि फिर भी मरीजों पर असर होने लगा। इससे भी ज्यादा बड़ी बात है Haygarth’s wand का किस्सा। जॉन हेगर्थ 18वीं सदी के एक डॉक्टर थे। वे अपने मरीजों को मेटल की बनी एक रॉड देते थे। ये 1799 में बहुत चलन में थी। मरीज को बस अपने बीमारी वाले हिस्से पर इसे घुमाकर ये मान लेना होता था कि वो ठीक हो गया है। इस पर भरोसा करके न जाने कितने मरीजों को अल्सर और इन्फ्लामेशन से राहत मिल गई भले ही वो थोड़े समय के लिए रही हो। ये मरीजों के लिए कोई जादू की छड़ी थी।
इससे ये साबित होता है कि विश्वास में कितनी ताकत होती है। डिप्रेशन की दवाओं पर हुई स्टडी को देखकर भी यही लगता है कि Paxil और Prozac में Haygarth’s wand से ज्यादा फर्क नहीं है। डिप्रेशन के मरीजों को अक्सर यही कहा जाता है कि उनके ब्रेन में सेरोटोनिन का लेवल कम हो गया है जो इस दवा से ये ठीक हो जाएगा। जादू की छड़ी की तरह कुछ समय के लिए तो उनको अच्छा लगता है पर धीरे-धीरे ये जादू खत्म हो जाता है। आप शायद ये सोचें कि अगर placebo effect से भी मरीज को थोड़ी राहत मिल रही है तो आखिर इसमें क्या बुराई है? लेकिन इन दवाओं को लंबे समय तक लेने के side effect का सोचकर देखिए। इसमें वजन बढ़ने से लेकर sexual dysfunction तक शामिल है। इस वजह से इसके थोड़ी देर के फायदे सवालों के दायरे में आ जाते हैं। अब अगर डिप्रेशन के लिए केमिकल्स की गड़बड़ जिम्मेदार नहीं है तो फिर इसकी क्या वजह है? आगे हम यही देखेंगे।
अगर हम ये मानें कि डिप्रेशन जिंदगी की रोजमर्रा की परेशानियों की वजह से होता है तो इसकी कम से कम 9 वजह हो सकती हैं।
अपने खुद के अनुभव और ढेरों एक्सपर्ट्स से बात करके जोहान को डिप्रेशन के लिए 9 बड़े कारण मिले हैं। इन सबको जोड़ दें तो एक ही बात सामने आती है कि डिप्रेशन हमारी रोजमर्रा की जिंदगी और हालात से जुड़ा है। 1970 के दशक में जॉर्ज ब्राउन ने ये थ्योरी दी कि डिप्रेशन के लिए एक साथ दो वजह काम करती हैं। पहली दिमाग में हुई कोई गड़बड़ और दूसरी उस इंसान की निजी जिंदगी की परेशानियां। अपनी बात को साबित करने के लिए उन्होंने ऐसी 144 महिलाओं पर स्टडी की जिनको डिप्रेशन हो चुका था। इसमें 344 ऐसी महिलाएं भी शामिल थीं जिन्होंने डिप्रेशन का सामना नहीं किया था। इसमें ये बात खास थी कि भाग ले रहे सभी लोग एक जैसे फाइनेंशियल बैकग्राउंड से थे।
अगर डिप्रेशन के लिए सेरोटोनिन की कमी ही जिम्मेदार थी तो इन लोगों की जिंदगी के अच्छे बुरे अनुभवों की वजह से इनके मूड पर कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए था। हालांकि जॉर्ज ने ये देखा कि जिन 144 लोगों को डिप्रेशन हुआ था उनमें से 68% की जिंदगी में पिछले कुछ समय के दौरान कोई न कोई बड़ी मुश्किल आई थी। डिप्रेशन का शिकार हो चुकी महिलाओं के हालात लंबे समय से मुश्किल रहे थे। जॉर्ज ने इसे long-term chronic stressor का नाम दिया जिसके होने की संभावना इन महिलाओं में दूसरी महिलाओं से तीन गुना ज्यादा थी। जॉर्ज की स्टडी ने डिप्रेशन को अलग-अलग बांटने में भी मदद की। यानि reactive depression जो हाल में हुई किसी खास घटना से जुड़ा होता है। दूसरा है endogenous depression जिसके पीछे वाकई केमिकल्स की गड़बड़ का हाथ होता है। एक बात खास थी कि इन दोनों ग्रुप के लोगों को किसी न किसी बुरे अनुभव से गुजरना पड़ा है। जॉर्ज ये देखकर हैरान रह गए कि डिप्रेशन के लिए खास तौर पर साइकोलॉजिकल और सोशल कारण जिम्मेदार होते हैं न कि बायोलॉजिकल। उन्होंने अपनी स्टडीज के नतीजे 1978 में पब्लिश किए। दुनिया के बाकी हिस्सों में हुई स्टडीज भी जॉर्ज की स्टडी को सपोर्ट करती हैं। फिर भी मेडिकल इंडस्ट्री केमिकल थ्योरी पर अड़ी रही है।
डिप्रेशन की पहली बड़ी वजह है काम का बिगड़ता माहौल जिसे ठीक कर दिया जाए तो वैसे ही काफी फर्क पड़ सकता है।
अगर ऑफिस में आपके पास कोई मीनिंगफुल काम न हो तो आपका मन उचटने लगता है। ये आंकड़े हैरान कर देते हैं कि साल 2011 से 2012 तक सिर्फ 13 प्रतिशत लोगों ने अपने काम से खुशी जाहिर की। हमारा काम हमारी सेहत पर किस तरह असर डालता है इसकी सबसे अच्छी स्टडीज में से एक है 1970 के दशक में लंदन के साइकिएट्रिस्ट माइकल मर्मोट की स्टडी। सिविल सर्विस के 18,000 लोगों की स्टडी के बाद, मर्मोट ने देखा कि जो लोग ऊंची पोस्ट पर या बड़ी जिम्मेदारियों वाले काम कर रहे थे उनमें दिल का दौरा पड़ने का खतरा चार गुना कम था। ये पता लगाने के लिए कि कौन सबसे ज्यादा तनाव और डिप्रेशन महसूस करता है मर्मोट ने उन लोगों पर स्टडी की जिनकी सैलरी, पोजीशन और यहां तक कि ऑफिस भी एक जैसा था। नतीजे साफ थे।
जिनके पास ऑफिस में अधिकार या खुद के लिए भी फैसले लेने की ताकत कम थी उनके डिप्रेस होने की संभावना ज्यादा थी। ये कमी वाकई बहुत बुरी थी। सालों बाद मर्मोट को ब्रिटिश टैक्स ऑफिस की तरफ से बुलाया गया ताकि वो उनकी मदद कर सकें। कर्मचारियों की आत्महत्या की दर बढ़ती ही जा रही थी। परेशानी ये थी कि काम बढ़ता गया और कर्मचारी इसे रोकने के लिए कुछ नहीं कर सके। उनकी कड़ी मेहनत की सराहना करने वाला भी कोई नहीं था। किसी को परवाह नहीं थी कि कर्मचारियों ने कड़ी मेहनत की या सुस्ती दिखाई। मर्मोट ये बात अच्छी तरह समझ गए कि खुद की मदद तक न कर पाने की वजह से ये लोग अपनी जान ही लेने लगे थे।
यहां राहत की बात ये है कि मीनिंगफुल काम करने के तरीके हैं। बाल्टीमोर में जोहान एक बाइक की दुकान के मालिकों से मिले। इन्होंने बहुत आसान तरीका अपनाकर इस परेशानी से छुटकारा पा लिया था। ये रास्ता था सबको साथ लेकर चलने का। जोश, उनकी पत्नी और कुछ दोस्तों ने बाल्टीमोर बाइक वर्क्स में पार्टनर बनने के लिए अपनी नौकरी छोड़ दी। ये काम cooperatives के मॉडल पर चल रहा था। ये मॉडल कुछ समय पहले तक अमेरिका में बहुत पॉप्युलर था। वहां सभी काम करने वाले हफ्ते में एक बार मीटिंग करते जहां किसी बात पर वोट की मदद से फैसला लिया जाता। यहां कोई भी कर्मचारी अपनी बात रख सकता था। जोहान ने वहां जिन लोगों से बात की उन्होंने कहा कि इस जगह पर काम करना बाकी किसी भी नौकरी से खुशनुमा है। जोश की पत्नी मेरेडिथ अब आराम से सो पाती थी क्योंकि उसके जी का जंजाल बनी नौ से पांच की नौकरी अब उसे नहीं करनी थी।
दुनिया से बढ़ती दूरियां डिप्रेशन की दूसरी वजह बन जाती हैं। अगर अच्छे रिश्तों का साथ मिले तो इस पर काबू पाया जा सकता है।
वेस्टर्न कल्चर और खास तौर पर अमेरिका और ब्रिटेन में अपने पर्सनल स्पेस पर बहुत ध्यान दिया जाता है। वहां सेल्फ हेल्प वाली किताबों की भरमार रहेगी और सोशल मीडिया पर "Only you can help you" जैसे नारे गूंजते रहेंगे। लेकिन इस अकेलेपन या यूं कहें कि प्राइवेसी की चाहत में हम इस बात को नजरअंदाज कर जाते हैं कि सोशल होने के कितने फायदे हैं। हमारे रिश्ते और समाज के माहौल से से डिप्रेशन पर बहुत असर पड़ता है। जब हम दूसरों से कटने लगते हैं तो डिप्रेशन की तरफ बढ़ने लगते हैं। अकेलापन हमारे मूड ही नहीं शरीर पर भी बुरा असर डाल सकता है। न्यूरोसाइंटिस्ट जॉन कैसियोपो ने अपनी रिसर्च से ये साबित करके दिखाया है कि अकेलेपन की वजह से दिल की धड़कन और कॉर्टिसोल नाम का हार्मोन बढ़ जाते हैं। कॉर्टिसोल को स्ट्रेस हार्मोन भी कहा जाता है। उन्होंने स्टडीज में ये देखा कि अकेलापन हमें बिल्कुल उसी तनाव का एहसास कराता है जितना तब होगा जब कोई अनजान आदमी हमें मारकर चला जाए।
इससे भी बुरी बात ये है कि अकेलापन पहले से चल रही किसी परेशानी को और बढ़ा सकता है। जब हम उदास होते हैं तो खुद को एक खोल के अंदर बंद कर लेते हैं। इससे हमारी एंजायटी और बढ़ ही जाती है। इंसान तो हमेशा से सोशल रहा है। हमारा इवॉल्यूशन भी ऐसे ही हुआ है। खुद को दूसरों से जोड़ने के लिए हमें बस अपने अंदर छिपी यही भावना जगाने की जरूरत है। हम एक ऐसा समाज बना सकते हैं जहां लोग एक दूसरे के काम आएं, सुख दुख बांटें और एक दूसरे का ध्यान रखें। सारी दुनिया को तो नहीं बदला जा सकता पर छोटे स्केल पर तो शुरुआत की जा सकती है। बर्लिन के पास कोट्टि शहर में में इसका एक अच्छा नजारा देखने को मिला है। यहां के सब वे स्टेशन का नाम कोट्टबुसर टोर है जिसके नाम पर इस जगह को कोट्टि कहा जाता है। साल 2011 में यहां मकानों के किराए अचानक बढ़ने लगे। व्हीलचेयर पर आ चुकी नूरी नाम की एक बुजुर्ग महिला के सर पर भी बेघर होने का खतरा मंडराने लगा। उसने अपने घर के आगे ये लिख दिया कि वो बेघर होने से मरना ज्यादा पसंद करेगी। पड़ोसियों ने ये नोट देख लिया और उस जगह का घेराव करके किराए बढ़ाने के खिलाफ एकजुट हो गए।
इसमें और लोग भी जुड़ गए और इस आंदोलन को Kotti & Co. का नाम दे दिया। जब ये आंदोलन खत्म हो गया तब लोगों को ये एहसास हुआ कि ये तो बस शुरुआत थी वो एक दूसरे की और भी न जाने कितनी तरह से मदद कर सकते हैं। एक हाई स्कूल का बच्चा भी पढ़ाई में पिछड़कर स्कूल से निकलने ही वाला था। लेकिन जब वो इस आंदोलन से जुड़ा तो किसी ने उसकी पढ़ाई में मदद की और उसका रिजल्ट भी सुधर गया। इन लोगों के बीच एक बेघर आदमी भी था। एक दिन लोगों को पता चला कि उसे जबरदस्ती मेंटल हेल्थ केयर भेज दिया गया है। उसे वहां से निकालने के लिए Kotti & Co. के लोग इकट्ठे हो गए।
डिप्रेशन की तीसरी वजह बनती है घटती हुई वेल्यूज।
लंदन में एक विज्ञापन ने हंगामा मचा दिया था। इसमें एक दुबली पतली महिला को दिखाया गया था जो धूप में रहकर काली हो गई। इसके साथ लिखा था "क्या आप बीच की सैर के लिए तैयार हैं?" लोग इसे देखकर इतना भड़क गए कि इसे रातोंरात हटाना पड़ा और इसकी जगह सड़कों पर ऐसे पोस्टर लग गए जिनमें लिखा था "विज्ञापन आपका दिमाग खराब कर देते हैं।" स्टडीज भी इस बात को सपोर्ट करती हैं कि बढ़ता हुआ कंज्यूमरिज्म हमारे समाज की वेल्यूज घटा रहा है। इसकी वजह से डिप्रेशन में बढ़त हुई है। यहां दो तरह की वेल्यूज की बात हो रही है। Intrinsic और extrinsic. उदाहरण से समझें तो कुछ इस तरह होगा - अगर आप अपनी खुशी या सुकून के लिए बांसुरी बजाते हैं तो आप intrinsic value पर चलते हैं। लेकिन अगर आप सिर्फ पैसे के लिए ये काम करते हैं तो ये हुआ extrinsic value पर चलना। इसी तरह आपकी जिंदगी के गोल्स पर भी इन दोनों वेल्यूज का असर पड़ सकता है।
ऐसी बीसियों स्टडीज हैं जो बताती हैं कि विज्ञापन किस तरह हमें extrinsic values की तरफ ढकेल रहे हैं जो वेल्यूज असल में इतने काम की भी नहीं हैं। साइकोलॉजिस्ट, टिम कैसर ने काफी सारी स्टडीज की हैं जिनसे यही नतीजा निकलता है कि लोग जितने ज्यादा कंज्यूमर माइंडेड और extrinsic वेल्यू वाले होंगे उनके डिप्रेशन की संभावना उतनी ज्यादा होगी। जबकि intrinsic गोल जैसे दूसरों की परवाह और मदद करने वाले और बस अपनी खुशी के लिए म्यूजिक से जुड़ने वाले लोगों का मूड हमेशा अच्छा बना रहता है। अब आपका सवाल होगा कि नया आई फोन भी तो आपको खुशी देता है तो इसे खरीदने में क्या गलत है? अब जरा खुद से पूछकर देखिए कि आपको ये खुशी मिलती क्यों है? असल में इस तरह की ट्रेंडी या महंगी चीजें खरीदकर हम दूसरों के सामने "कूल" लगना चाहते हैं। हम दूसरों के सामने अपनी शान दिखाना चाहते हैं। यानि हमने अपनी खुशियों की डोर दूसरों के हाथों में दे रखी है। जबकि इस तरह की खुशियों की उम्र लंबी नहीं होती। इसी तरह जब हम तरक्की और ज्यादा पैसे कमाने के पीछे पड़ जाते हैं तो intrinsic चीजें जैसे रिश्ते और अपने पीछे छूट जाते हैं। इनसे बचने का तरीका है कि खुद को इस बात का एहसास दिलाते रहें कि आपकी जिंदगी का असली मकसद क्या है और आप अपना समय और पैसा सबसे ज्यादा कहां लगा रहे हैं। इस तरह आप हमेशा सही रास्ते पर चलते रहेंगे। टिम ने इस रिसर्च को अपनी जिंदगी में उतार लिया है। उन्होंने किसी शांत जगह पर जमीन खरीदी जहां उनका परिवार गार्डनिंग, सोशल वर्क और लोगों की मदद करते हुए सुकून की और मीनिंगफुल लाइफ जी रहा है।
बचपन या अतीत में हुआ कोई बुरा अनुभव भी डिप्रेशन की वजह बन सकता है।
मोटापा इन दिनों एक महामारी बनकर उभरा है। इससे बचने के लिए ज्यादातर खानपान सुधारने और एक्सरसाइज करने की सलाह दी जाती है। जबकि इस बात को नजरअंदाज कर दिया जाता है कि किसी तरह का हादसा भी मोटापे या डिप्रेशन की वजह बन सकता है। 1980 के दशक में डॉक्टर विंसेंट फेलिट्टी ने मोटापे पर एक स्टडी की। इसमें पाया गया कि अतीत में हुआ कोई हादसा डिप्रेशन की वजह बन सकता है। मजेदार बात ये है कि डॉक्टर विंसेंट की स्टडी तो इस पर फोकस ही नहीं थी। वो तो ये देख रहे थे कि बहुत ज्यादा भूखा रहकर क्या मोटे लोग तेजी से और बिना अपनी सेहत का नुकसान किए वजन कम कर सकते हैं? शुरुआत में तो नतीजे बढ़िया रहे। एक महिला का वजन 408 पाउंड से घटकर 132 पाउंड हो गया था। लेकिन उसने और बाकी लोगों ने बहुत जल्दी वजन बढ़ा भी लिया।
इस बात को भांपकर कि कुछ तो गड़बड़ हो रही है, डॉक्टर विंसेंट ने इन लोगों से इनकी लाइफ के बारे में बातचीत करनी शुरू की। वो ये जानकर हैरान रह गए कि इनमें से 55% लोगों को अतीत में sexual abuse से गुजरना पड़ा था और इसके बाद से उनका वजन बढ़ने लगा। लेकिन वजन बढ़ा क्यों? भाग लेने वाले ज्यादातर लोगों का कहना था कि अगर वो मोटे हो गए तो लोग उन पर ध्यान ही नहीं देंगे या उनसे किनारा कर लेंगे और इससे वो ऐसी किसी घटना से बच पाएंगे। डॉक्टर विंसेंट ने कुल 17,000 लोगों पर ये रिसर्च की और यही सामने आया कि इन लोगों का अतीत जितना तकलीफदायक था उतना ही उनमें डिप्रेशन की संभावना ज्यादा थी। लेकिन इस स्टडी से ये भी पता चला कि emotional abuse, sexual abuse से भी गहरा असर डालता है।
ये नतीजे हेल्थ सेक्टर को हैरान कर देने वाले थे क्योंकि इससे एक बार फिर इस बात को झटका लगा था कि डिप्रेशन तो दिमाग में होने वाली गड़बड़ से होता है। आपको वर्तमान में नहीं बल्कि अतीत में झांकना होगा। अपने अतीत को स्वीकार करके और इसके बारे में बात करके लोग इन कड़वी यादों को खुद से दूर कर सकते हैं। जोहान को भी बचपन में ऐसे एक हादसे से गुजरना पड़ा था। उनको बिजली की तारों से झटका दिया गया था। जैसे-जैसे वो अपने अतीत को स्वीकार करके आगे बढ़ते गए वो खुद को दोषी ठहराना बंद करते गए। वो इस सोच से बाहर आ गए कि जो भी हुआ उसमें उनकी गल्ती थी और वो इसी के लायक थे।
अपनी जिंदगी में रुतबे, सम्मान और नेचर से दूर हो जाना डिप्रेशन की अगली वजह बनती हैं।
लोग baboons और bonobos कैटगरी के बंदरों की स्टडीज इसलिए नहीं करते हैं कि इसमें बड़ा मजा आता है बल्कि ये जानवर हमें हमारे इवॉल्यूशन को अच्छी तरह समझने में मदद करते हैं और इंसानी स्वभाव के बारे में बहुत कुछ सिखाते हैं। सबसे पहली बात तो ये है कि स्टेटस और रिस्पेक्ट हमारे लिए बहुत मायने रखते हैं। अगर हमें ये चीजें न मिलें तो हम डिप्रेशन की तरफ बढ़ने लगते हैं। Baboons के समाज में hierarchy चलती है। इनके ग्रुप की लीडर फीमेल होती है। इसे अल्फा फीमेल कहते हैं। वो जिससे भी चाहे उससे खाना ले सकती है। ग्रुप में दूसरी पोजीशन का बंदर अपने नीचे वालों से खाना ले सकता है, तीसरा अपने नीचे वालों से और इस तरह ये सिलसिला तब तक जारी रह सकता है जब तक आखिरी पोजीशन का बंदर न बचे। इनके कॉर्टिसोल लेवल को चेक करने पर रिसर्चर्स ने ये देखा कि सबसे आखिरी पायदान पर खड़े बंदर में स्ट्रेस सबसे ज्यादा है। रिसर्च में ये भी पता चला कि अल्फा मेल को जब किसी दूसरे अल्फा मेल से कोई चुनौती मिलती है तो उसका स्ट्रेस भी बहुत बढ़ जाता है। इंसानों को परेशान करने या नीचा दिखाने के बहुत तरीके हैं। इसमें ऐसे विज्ञापन भी शामिल हैं जो आपको ये एहसास दिलाते हैं कि अगर आपके पास फूंकने के लिए ढेर सारा पैसा या फिर एक परफेक्ट फिगर नहीं है तो आप कुछ भी नहीं हैं।
स्टडीज से ये भी पता चलता है कि जिन देशों में अमीर और गरीब के बीच गहरी खाई है वहां डिप्रेशन ज्यादा पाया जाता है जैसे कि यूएस। जबकि जहां ये खाई इतनी गहरी नहीं है वहां डिप्रेशन कम देखने को मिलता है जैसे कि नार्वे। हम कैसा समाज बनाते हैं ये हमारे हाथों में है। जहां पैसे और रुतबे को ज्यादा महत्व दिया जाए या जहां प्यार और अपनेपन को ज्यादा महत्व दिया जाए। इन बंदरों में नेचर से दूरी बढ़ा लेने पर भी डिप्रेशन देखा गया है। इसाबेल बेहंके ने bonobos पर बहुत स्टडी की है। उन्होंने देखा कि जंगल में रहने वाले bonobos किस तरह स्ट्रेस से गुजरते हैं। जब वो अपने ग्रुप से अलग बैठ जाते हैं तो इसका मतलब साफ होता है कि वो डिप्रेस हैं। लेकिन जब उनको नेचर से ही दूर कर दिया जाए तो हालत और खराब हो जाती है। वो अपने आप को तब तक खुजली करते हैं जब तक खून न निकलने लगे। वो चीखने चिल्लाने लगते हैं। नेचर हमारी जिंदगी में भी बहुत बड़ी जगह रखता है। जो लोग हरियाली के आसपास रहते हैं उनको डिप्रेशन कम महसूस होता है। अगर हम खुद को नेचर की गोद में बिठा दें तो उल्टे सीधे ख्याल आने बंद हो जाते हैं और हमारा दिमाग भी अच्छी तरह काम करने लगता है।
अपने भविष्य की चिंता भी डिप्रेशन की वजह बनती है।
अगर आपने कभी डिप्रेशन का सामना किया है तो आपको ये जरूर महसूस हुआ होगा कि अब ये हालात कभी नहीं बदलेंगे। असल में यही बात डिप्रेशन को सबसे बुरा बनाती है कि आप इसके आगे देख ही नहीं पाते। आपको लगता है आपका भविष्य अंधेरे में है। आपकी उम्मीदें ही मरने लगती हैं। आपको इनसिक्योरिटी होने लगती है। लगता है कि अब हाथों से डोर छूट रही है। हम अपने लिए कुछ भी नहीं कर पाएंगे। कनाडा में रहने वाले अमेरिकन्स में आत्महत्या की दर बेतहाशा बढ़ गई थी। साइकोलॉजिस्ट माइकल चांडलर ने इसकी वजह ढूंढने की सोची। उन्होंने ये देखा कि आत्महत्या की दर वहां ज्यादा थी जहां सरकार का कंट्रोल ज्यादा था। यानि जहां स्कूल, कायदे कानून सब सरकार की मर्जी से चलते हैं और नागरिकों के पास कोई अधिकार नहीं रहता। माइकल ने ये भी देखा कि कुछ जगहों पर ऐसे नियम बना दिए गए थे जहां लोग अपने लिए कदम उठा सकते थे। जैसे उनको वोट देने की आजादी थी, वो अपनी जमीन पर अपना हक रखते थे और यहां तक कि वो अपनी भाषा को जिंदा रखने के लिए उसे स्कूल में शामिल भी कर सकते थे। यानि इन लोगों के भविष्य की चाबी इनके हाथों में थी। यहां पर आत्महत्या की इतनी घटनाएं नहीं होती थीं।
इनसिक्योरिटी भी डिप्रेशन को जन्म देती है। कनाडा से ही अगला उदाहरण लेते हैं। साल 1973 में मेनीटोबा के लोगों पर एक एक्सपेरिमेंट हुआ। उनको सालाना कम से कम इतनी सैलरी देना तय किया गया जो आज के $19,000 के बराबर है। लेकिन 1979 में सरकार बदलने पर ये फैसला वापस ले लिया गया। इनकी स्टडी से जो डेटा मिला उससे ये पता चलता है कि सिर्फ तीन सालों के अंदर ही दिमागी परेशानियों का इलाज कराने वालों की गिनती 9% घट गई थी। असल में इस शहर के लोग खेती किया करते थे और सब कुछ फसल पर निर्भर करता था। लेकिन जब उनको एक फिक्स सैलरी मिलने लगी तो उनको भविष्य की चिंता से छुटकारा मिल गया। अब वो इस पैसे का इस्तेमाल अपने बच्चों की पढ़ाई में कर सकते थे। उनकी सारी चिंताएं घट गई थीं।
डिप्रेशन की वजह जीन्स और दिमाग में आने वाले बदलाव भी हैं पर इनका रोल बहुत छोटा होता है।
डिप्रेशन को केमिकल गड़बड़ से जोड़ने वाली थ्योरी वैसे तो सवालों के दायरे में आती है पर इसका ये मतलब भी नहीं है कि ये पूरी तरह गलत है। हमारे दिमाग में हमेशा बदलाव होते रहते हैं। इसे विज्ञान की भाषा में neuroplasticity कहा जाता है। ये कहा जा सकता है कि ये बदलाव डिप्रेशन को सपोर्ट करने वाले भी हो सकते हैं। Neuroplasticity के तो ढेरों उदाहरण मिल जाएंगे। जैसे अगर आप कैब चलाते हैं तो आपको सड़कों के नक्शे अच्छी तरह याद रखने होते हैं। इस वजह से आपके दिमाग का वो हिस्सा जो मेमोरी के लिए जिम्मेदार होता है वो ज्यादा मजबूत हो जाता है। ऐसे ही अगर आप हर समय डर और चिंता से घिरे रहते हैं तो पॉजिटिविटी के लिए जिम्मेदार हिस्से कमजोर होने लगते हैं जबकि नेगेटिविटी वाले हिस्से मजबूत होते जाते हैं। आपने ये भी सुना होगा कि डिप्रेशन तो एक पीढ़ी से दूसरी में जाता है। यानि ये आपकी जीन्स में होता है और आपको एक न एक दिन डिप्रेशन होगा ही। लेकिन ये बहुत ही ऊपरी तौर पर दी गई थ्योरी है।
रिसर्च ये बताती हैं कि जीन्स की वजह से डिप्रेशन की संभावना सिर्फ 37% होती है। जैसे आपकी हाइट कितनी होगी ये तो 90% आपकी जीन्स पर निर्भर करता है। जबकि लैंग्वेज पर ये 0% हो जाता है। इसलिए डिप्रेशन में जीन्स का बहुत छोटा हाथ होता है। रिसर्चर्स को 5-HTT नाम की एक जीन मिली है जो डिप्रेशन के खतरे को बढ़ा सकती है। ये काफी हद तक आपको मोटापे का शिकार बनाने वाली जीन की तरह है। यानि मोटापे की एक वजह तो आपके पास है पर ये इकलौती या सबसे बड़ी वजह भी नहीं है। असल में बायोलॉजी और डिप्रेशन को जोड़ने की भी एक खास वजह है। पहली बात तो ये कि डिप्रेशन को आज भी समाज में बुरी नजर से देखा जाता है। इसलिए अगर किसी को डिप्रेशन होता भी है तो वो बड़ी आसानी से इसकी जिम्मेदारी जीन्स पर डाल देता है और अपनी जिंदगी में चल रही बाकी उलझनों को सामने लाने से बच जाता है जो उसके लिए वाकई डिप्रेशन की वजह हो सकती हैं।
डिप्रेशन से राहत दिलाने में समाज, दवाओं से ज्यादा असरदार साबित हो सकता है।
जोहान ने डिप्रेशन के जितने कारण ढूंढे थे वो अब आप समझ चुके हैं। लेकिन जोहान ने डिप्रेशन की 9 वजह ढूंढीं तो इसे दूर करने के भी 7 रास्ते ढूंढ निकाले। यानि आपके पास मुश्किलों का हल है। लोगों से जुड़ना, मिलना जुलना, खुद को मनपसंद काम में लगाए रखना, अच्छी वेल्यूज पर चलना और भविष्य को लेकर पॉजिटिव रहना ये सारी बातें आपको मदद करती हैं। इसे सोशल दवा कहा जा सकता है। यहां हम लिजा की कहानी देखते हैं। वो लंदन के एक अस्पताल में नर्स थी। अपने स्टाफ की नर्सों की इस बात पर शिकायत करने पर कि वो मरीजों से बुरा बर्ताव करती हैं, दूसरी नर्सों ने अस्पताल में उसका काम मुश्किल कर दिया। उसका बचपन भी परेशानियों से भरा था। ऑफिस में हुई इस बदसलूकी को वो बर्दाश्त नहीं कर पाई और नौकरी छोड़ दी। इसके बाद वो डॉ. एवरिंगटन से मिली। इस दौरान वो प्रोजेक लेना शुरू कर चुकी थी। इसकी वजह से उसका वजन बढ़ गया। अगले सात साल वो घर में बंद रही और बस जंक फूड खरीदने के लिए घर से बाहर निकलती थी। एक दिन उसने हिम्मत करके डॉक्टर से मिलने की सोची।
उसे और ज्यादा दवाइयां देने की जगह डॉक्टर एवरिंगटन ने सोशल दवा लिख दी। उसे अपने जैसे ही कुछ लोगों के साथ मिलकर लंदन की किसी उजड़ी जगह पर गार्डन बनाना था। शुरूआत में सब झिझक रहे थे और उनको गार्डनिंग की ज्यादा जानकारी भी नहीं थी। पर फिर भी वो इस काम के लिए राजी हो गए। धीरे-धीरे वो एक दूसरे से घुलने मिलने लगे और गार्डनिंग भी सीखने लगे। अब वो एक दूसरे से अपनी जिंदगी की बातें भी शेयर करने लगे थे। लिजा को ये जानकर हैरानी हुई कि उस ग्रुप के एक बुजुर्ग के साथ भी ऑफिस में बुरा बर्ताव हुआ था। अपने गार्डन को फलता फूलता देखकर ये लोग बहुत खुश हुए। आसपास के लोग जब इनको थैंक्यू बोलते तो और भी खुशी होती। धीरे-धीरे लिजा ने प्रोजेक लेनी बंद कर दी। वजन भी 62 पाउंड कम कर लिया और दूसरे शहर जाकर अपना गार्डनिंग का काम जमा लिया। पर अगर उसे इस बार भी डॉक्टर दवाएं ही लिख देते तो ये बदलाव कभी नहीं आता।
Psychedelic दवाएं और मेडिकल आपकी मदद कर सकती हैं।
साइकोलॉजिस्ट फ्रेड बारेट कहते हैं कि डिप्रेशन में हम खुद के साथ एडिक्ट हो जाते हैं। हम अपने आप के सिवा कुछ और देख ही नहीं पाते। ये भी एक तरह का ईगो ही है। इसे दूर करने और अपना नजरिया बदलने के लिए कुछ खास तरह की दवाएं होती हैं जिनसे ज्यादातर लोगों को फायदा हुआ है। ये हैं psychedelic दवाएं। जॉन हॉपकिन्स यूनिवर्सिटी के साइकोलॉजिस्ट बिल रिचर्ड्स मशरूम में पाए जाने वाले psilocybin पर रिसर्च कर रहे हैं कि इसका डिप्रेशन पर क्या असर होता है। इसके नतीजे अच्छे रहे हैं। आपने शायद ayahuasca नाम सुना होगा। ये भी एक तरह का psychedelic है। इस दवा के तीन सेशन के बाद 80% लोग ये कहते हैं कि उनको ऐसा अनुभव जिंदगी में कभी नहीं हुआ। Psilocybin लोगों को उनके कड़वे अतीत को स्वीकार करके उससे बाहर निकलने में मदद करती है। उनको नेचर से जोड़ती है, ईगो दूर करती है और आने वाले कल के लिए एक बेहतर नजरिया देती है।
ये सब सुनकर तो बड़ा अच्छा लगता है। लेकिन कुछ दूसरे पहलू भी हैं। सबसे पहली बात तो ये कि दवा से मिलने वाले फायदों को बनाए रखना पड़ता है। यानि जब लोग अपनी जिंदगी की भागदौड़ में लग जाते हैं तो फिर से पुराने दिनों की तरफ लौट सकते हैं। इससे अच्छा तरीका होता है मेडिटेशन। जितना फायदा लोगों को psilocybin से मिलता है उतना ही मेडिटेशन भी देता है। इसका अभ्यास मुश्किल तो है पर एक बार जब आप इसको अच्छी तरह खुद में उतार लेते हैं तो आपको सुकून ही सुकून मिलता है। आप अपने ही नहीं दूसरों के लिए भी खुशी महसूस करते हैं। आपके अंदर से जलन, दुश्मनी जैसी भावनाएं निकल जाती हैं और आपका दिल सबके लिए खुल जाता है। आप रोज इसका अभ्यास करके इसमें महारत हासिल कर सकते हैं। आपको बस इतना ही करना है कि जो अपनापन और प्यार आप अपनों के लिए महसूस करते हैं वही अनजान लोगों के लिए भी करें। इसके बाद उन लोगों को ले आइए जिनसे आपको चिढ़ है। लगातार इस अभ्यास से एक दिन आप अपनी जिंदगी में आनंद और शांति महसूस करने लगेंगे।
कुल मिलाकर
दवा कंपनियां डिप्रेशन के लिए केमिकल्स की गड़बड़ को जिम्मेदार बताकर सालों से अपनी दवाएं बेचती और मुनाफा कमाती रही हैं। जबकि इसे साबित करने वाली रिसर्च बहुत ही कम हैं। डिप्रेशन की 9 मुख्य वजह होती हैं। बुरा हादसा, अकेलापन, अपनी वेल्यूज या नेचर से दूर हो जाना इनमें शामिल हैं। लेकिन हमारे पास इनसे निपटने के तरीके भी हैं। सबसे पहले अपनी परेशानी को स्वीकार कीजिए और खुद को दुनिया और नेचर से जोड़िए। आपको खुद ब खुद फर्क नजर आ जाएगा।
क्या करें
मेडिटेशन करें। अपनी आंखें बंद करके ये सोचें कि आपके साथ कुछ बहुत अच्छा और अनोखा हो रहा है, जैसे प्यार में पड़ना। इस आनंद को खुद में बहने दें। अब सोचें कि आप किसी अपने के साथ इसे महसूस कर रहे हैं। अब किसी ऐसे इंसान को इसमें शामिल कर लें जिसे आप बहुत अच्छी तरह नहीं जानते इस आनंद को चलने दें। अब किसी ऐसे इंसान को सोच लें जिसे आप पसंद नहीं करते हैं और फ्लो में बहते रहें। आखिर में किसी ऐए इंसान के बारे में सोचें जिससे आप चिढ़ते हैं या शायद कोई ऐसा इंसान जिससे आपको जलन होती है। आनंद को खुद में गुजरने दें। ऐसा रोजाना 15 मिनट करने से ईर्ष्या की भावना खत्म होने लगेगी और आपके अंदर खुशी महसूस करने की नई ताकत पनपने लगेगी।
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