Thomas A. Harris
अपने इनर माइंड के पेरेंट और चाइल्ड को पहचानिय
दो लफ़्ज़ों में
आय एम ओके, यू आर ओके (I’m Ok, You’re Ok) (1969) एक ऐसी शानदार बुक है जो आपको बताती है कि किस तरह आपके पुराने अनुभव और मेमोरीज आपके आज के जीवन को प्रभावित कर सकते हैं. हमारे बचपन के कुछ बुरे अनुभव भी हमें हमारा मनचाहा जीवन जीने से रोक सकते हैं. इस बुक के जरिये आप अपनी भावनाओं को कंट्रोल करना और पास्ट की बातों से मुक्त होना सीखकर एक स्वस्थ और खुशहाल जीवन जीना सीख सकते हैं.
ये किनके लिए है?
• जिन्हें निर्णय लेने में परेशानी होती है
• उन इमोशनल लोगों के लिए जिन्हें अपनी चिंता का कारण पता लगाना है
• साइकोलोजिस्ट और ऐसे लोग जो इस तरह प्रोफेशन में मदद करते हैं.
लेखक के बारे में
थॉमस ए. हैरिस एक बहुत ही सफल साइक्रियाट्रिस्ट है जिन्होंने यूनाइटेड स्टेट्स की नेवी में काम किया है. बाद में वे यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर बने और डॉक्टर एरिक बर्न नामक एक साइकोलोजिस्ट के विचारों पर आधारित थ्योरापेटिक मेथड पर एनालिसिस करने के लिए एक एसोसिएशन की स्थापना की.
यह किताब आप को क्यों पढनी चाहिए
जब भी कभी हम लोग किसी खास मुद्दे पर बात करते हैं तो आर्ग्युमेंट्स तो होते ही हैं और आप अचानक अपने माँ-पापा की तरह बात करने लगते हैं. अब चाहे ये वो बात हो जैसे आपकी माँ आपको फीमेल ब्यूटी मेंटेन रखने पर जोर देती थी या आपके पापा की वो सलाह कि आप किसी मैन की तरह बिहेव करे. अब जब आप अपने लाइफ पार्टनर के साथ झगड़ा करते हैं तो बचपन की वो एंग्जाइटी इस तरह के वाक्यों के रूप में सामने आ जायेगी.
आपको वापस अपने उस बचपन को याद करना या डांटते हुए पेरेंट्स को याद करना; बहुत बैचेन करेगा. लेकिन इस किताब के लेखक का मानना है कि हम सभी में ये दो तरह के फ़ोर्स होते हैं. ये कोई बड़ी बात नहीं है. हम इन्हें पहचान भी सकते है और कंट्रोल भी कर सकते हैं. इस तरह हम अपनी थॉट और बिहेवियर को बेहतर बना सकते हैं.
- क्या ट्रौमा भी हमें हेरिडिटी में मिल सकता है?
- कई लोग अपने बनाये विचरों के जाल में उलझे रहते हैं.
- आपको अपने बचपन की जिंदादिली क्यों बनाये रखनी है.
अक्सर हमारी पुरानी यादों में इमोशन्स जुड़े रहते है जिनका विश्लेषण करके हम उन्हें आसानी से समझ सकते हैं.
क्या आपकी फैमिली में आपने किसी को नींद में बोलते हुए सुना है? आपको रात में इस तरह से बडबडाना काफी रहस्य वाली बात लग सकती है लेकिन इसमें कोई रहस्य नहीं है. उन लोगों के माइंड में कुछ यादें भरी हुई है इसी वजह से वे बोलते हैं. हमारे माइंड के कुछ हिस्से इन मेमोरीज और फीलिंग्स के लिए ज़िम्मेदार होते हैं जिसकी वजह से हम उनसे जुड़े होते हैं.
1951 में मोंट्रियल ब्रेन सर्जन विल्डर पेनफील्ड ने अपने पेशेंट्स के ब्रेन के कुछ हिस्सों को इलेक्ट्रोड से स्टिम्युलेट किया. तब पहली बार इस बात का पता लगा कि ब्रेन का टेम्पोरल कोर्टेक्स आँखों से देखी गई मेमोरीज, इमोशन व लैंग्वेज के जुड़ा हुआ है. पेशेंट्स को उन्होंने पूरी तरह से बेहोश न करके केवल एक पार्ट को एनेस्थीसिया दिया था. इसी कारण वे स्टिम्युलेट हुए पार्ट्स पर जो रिस्पांस महसूस हो रहा था; बता रहे थे. जैसे ही पेनफील्ड पेशेंट के ब्रेन के किसी निश्चित पार्ट को टच करते तो वो कुछ अजीबोगरीब बातें करने लगता. किसी फेमस टीवी एड का जिंगल गाने लगता या पहले किसी से हुई बातचीत के बारे में बताता. खास बात ये थी कि पेशेंट न सिर्फ उस मेमोरी के बारे में ही बता रहा था बल्कि उससे जुड़े हर एक इमोशन उसे अच्छी तरह से याद थी. वो सिर्फ एक याद नहीं थी बल्कि वो उस एक्स्पीरियंस को फिर से जैसे लाइव दिखा रहा था. आप भी अनकांशियस होते हुए भी मेमोरीज को फिर से दिखा सकते हो .
रोजमर्रा के जीवन में अक्सर किसी आवाज, संगीत व गंध से हमारी मेमोरीज एक्टिव हो जाती है. एक बार ट्रिगर होते ही ये मेमोरीज बीती हुई बातों को एक मूवी की तरह हमारे सामने लाकर खड़ा कर देती है. हालाँकि ये बातें अनकांशियस रहते हुए ही होती है लेकिन हम जागरूक रहकर भी इन पास्ट एक्सपीरियंस की इमोशन्स को एनालाइज कर सकते हैं.
अक्सर कोई गीत या ग़जल सुनते ही हम उदास हो जाते हैं. आप उस उदासी का कारण नहीं जानते हो. लेकिन अगर आप किसी थेरेपिस्ट से इस बारे में बात करो तो आपको इस गाने से जुड़े पास्ट एक्सपीरियंस और इमोशन का पता चल जायेगा.
थॉमस ए. हैरिस की एक पेशेंट अक्सर एक गाना सुनकर उदास हो जाती थी. उन्होंने पता लगाया कि ये वही गाना है जो उसकी माँ गाया करती थी. माँ की मृत्यु बहुत जल्दी हो गई थी तब वो पेशेंट मात्र 5 साल की थी. लेकिन वो गाना उसकी यादों से बाहर निकल नहीं पाया और कारण न जानते हुए भी वो उसे सुनकर रो पड़ती थी.
ट्रांजेक्शनल एनालिसिस -चाइल्ड, पेरेंट और एडल्ट- पर्सनालिटी के तीन पार्ट्स मानता है.
“मल्टीपल पर्सनेलिटी” सुनते ही आपके मन में ऐसे इन्सान की तस्वीर आती है जिसे साइकोलॉजिकल डिसऑर्डर हो. ऐसे कई लोग होते हैं जिनकी पर्सनालिटी में अलग-अलग शेड्स होते हैं.
साइकोलोजिस्ट एरिक बर्न की 1970 में मृत्यु हो गई थी लेकिन जाने से पहले वे हमें एक थेरेपी के बारे में बता गए जिसे ट्रांजेक्शनल एनालिसिस कहते हैं. इसका एक मुख्य सिद्धांत है कि हर व्यक्ति के व्यक्तित्व के तीन प्रमुख पार्ट्स होते हैं.
बर्न ने अपने पेशेंट्स का इलाज करते-करते इन अलग-अलग पर्सनालिटी शेड्स को 1950 में ही नोट करना शुरू कर दिया था.
उनका एक पेशेंट अपने समय का काफी जाना-माना वकील था लेकिन थेरेपी के दौरान वो एक छोटे बच्चे जैसा व्यवहार करता था. वो बिना किसी परवाह के जोर से आवाजें निकालता था. हर कोई इस तरह का व्यवहार कर सकता है. बेहद शांत दिखने वाला बच्चा भी; उसका मनपसंद खिलौना टूटने पर उसी समय जोर से रोने लगता है. एक बेहद शांत व्यक्ति भी बिजनेस के दिवालिया होने पर बैचेन हो ही जायेगा. पर्सनालिटी के इन्हीं तीन पार्ट्स को डॉक्टर बर्न ने चाइल्ड, पेरेंट व एडल्ट का नाम दिया है.
जब हम इतने छोटे थे कि अपने हाथ से कोई काम नहीं कर सकते थे – तब के अनुभव चाइल्ड केटेगरी में आते हैं. वो मेमोरीज जो हमारे पेरेंट के व्यवहार और आदतों से जुड़ी है – उन्हें पेरेंट कहेंगे.
इन पहली दोनों पर्सनालिटी को मिलाकर जो बढ़िया संतुलन होता है जिसकी वजह से हमारा व्यवहार काफी अच्छा होता है –वह एडल्ट कहलाता है. आपको लगेगा कि जब भी हमारे व्यवहार में इन तीनों में से कोई पर्सनालिटी रिफ्लेक्ट होती है तो उसे पहचानना कोई बड़ी बात नहीं है.
डॉक्टर बर्न की एक महिला पेशेंट को नींद न आने की बीमारी थी. उसके एक छोटा बच्चा था. उसे हमेशा चिंता लगी रहती थी कि उसके इस नर्वस व्यवहार से उसके बच्चे पर बुरा असर होगा. ये बात उसके अंदर का एडल्ट ही तो कह सकता है. इस बारे में डिसकस करते-करते कभी वो इतना बैचेन हो जाती कि उसकी आवाज बदल जाती, वो रोने लगती. ये उसके अंदर का चाइल्ड था.
तभी अचानक ही वो तेज, कड़क आवाज में कहती कि बच्चों को हर हालत में अपने माता-पिता का सम्मान करना ही चाहिये –ये बात उसके अंदर के इनर पेरेंट ने कही.
शिशु अवस्था के अनुभव की वजह से इनसिक्योरिटी की भावना आ जाती है और व्यक्ति दूसरों को ज्यादा स्ट्रांग मानने लगता है.
अगर आप अपने बचपन की मेमोरीज को याद करें तो कितनी पुरानी यादें ताज़ा कर सकते हैं? हममें से ज्यादातर लोगों को अपने दो साल की उम्र तक की बातें बिल्कुल याद नहीं होती फिर भी इस उम्र की बातों का प्रभाव भी हमारे जीवन पर पड़ता है. आपको लग रहा होगा कि कान्शियस होकर उस मेमोरी को याद करने और अनकांशियस रहकर उसे फिर से ध्यान में लाने में आखिर क्या अंतर है? ट्रांजेक्शनल एनालिसिस से ये बात पता चली कि भले ही हमें अपने बचपन की बातें याद न हो पर हमारे इमोशनल रिएक्शन उस समय के एक्सपीरियंस को रिफ्लेक्ट करते हैं.
बचपन की इन मेमोरीज से कई लोगो में असुरक्षा की भावना भी आ जाती है. उन्हें ये भी लगता है कि बाकी सभी लोग सिक्योर हैं.
इन बातों का असर सपनों पर भी हो सकता है. हैरिस की एक पेशेंट को अक्सर सपना आता कि इस बड़े-से यूनिवर्स में वो एक छोटा-सा मिट्टी का धब्बा है जो बहुत बड़े सामानों से घिरा हुआ है. लेकिन तकलीफ ये थी कि इस सपने के बाद उसका दम घुटने लगता था. उसे साँस लेने में दिक्कत होती थी.
जब एनालिसिस की गई तो पता चला कि उसकी माँ का मानना था कि बच्चों को बहुत अच्छी तरह से खिलाना-पिलाना चाहिये ताकि वे कहीं भूखे न रह जाये. बस इसी जिद के चलते उसे वे भूख न होने पर भी जबर्दस्ती दूध पिलाती थी. बस यही बात उसकी मेमोरी में फिट हो गई कि उसके साथ इतनी जबर्दस्ती हो रही है कि वो ब्रीदलैस हो रही है. और यही सपना उसे बार-बार डराता था. जब आप इतने छोटे थे कि किसी अत्याचार का विरोध भी नहीं कर सकते थे – उस समय के अनुभव भी हमें असहज महसूस करवा सकते हैं.
लेकिन उस समय हम इतने छोटे होते हैं कि कुछ कर भी नहीं सकते. गर्भ में पूरी सुरक्षा के साथ रहते हुए जब हम इस दुनिया में आते है तो हमारा नरिश होने का तरीका भी बिल्कुल बदल जाता है. हम असुरक्षा महसूस करते है. साथ ही ये मानते हैं कि दुसरे लोग सिक्योर हैं. लेबर पेन के समय होने वाली तकलीफ से भी हममें असुरक्षा की भावना आ जाती है. माता-पिता के लाड-प्यार से हमें आराम मिलता है. इसलिए हम खुद को कमजोर और उन्हें सक्षम मानकर उन पर डिपेंड हो जाते हैं.
आगे के अध्याय में आपको पता चलेगा कि किस तरह हम इस थॉट पैटर्न को बदल सकते हैं.
लोग स्वाभाविक तौर पर इन्हीं पुराने पैटर्न के आधार पर बिहेव करते हैं लेकिन इन्हें बदला भी जा सकता है.
चाहे आप कितना ही पक्का इरादा कर लें कि आप अपने पेरेंट्स की तरह बिहेव नहीं करेंगे लेकिन ऐसे अवसर आ ही जाते हैं जब आप वैसा बिहेव करने लगते हैं. हमारी पर्सनालिटी में पेरेंट, चाइल्ड पार्ट्स का इतना ज्यादा असर रहता है कि हमारे माइंड की प्रोग्रामिंग वैसी ही हो जाती है. पेरेंट पार्ट में तो कठोर नियम रहते है जो हर जेनेरेशन अपनी अगली जेनेरेशन को पास करती है. उन्हें बेहतर रिजल्ट्स चाहिये –बस इसीलिए बच्चा डर जाता है.
कल्पना कीजिये कि 1960s में आप एक वाइट मैन है और अमेरिका में ऐसे समय में रह रहे है जब नागरिक-अधिकारों को लेकर आन्दोलन चल रहा है. आपके सभी पड़ौसी गोरे है और आपके पास एक पिटीशन साइन के लिए आती है जिसमें लिखा है कि अभी के हाउसिंग लॉ ठीक नहीं है और यहूदी लोगों के लिए घर बनाने की मांग करते हैं. एक वाइटमैन होने के नाते आप इस डिसीजन से काफी बैचेन होंगे. आपका पेरेंट पार्ट नस्लीय भेदभाव में विश्वास करते हुए आपको पिटीशन साइन करने से रोकेगा. चाइल्ड पार्ट ने भी फियर दिखाते हुए आपको साइन करने से रोक दिया है.
लेकिन एक एडल्ट अपने निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र है तो आप बदल सकते हैं. हमारे अंदर का एडल्ट इस बारे में सवाल-जवाब करेगा और हमें ज्यादा जानकारी लेने के लिए प्रेरित करेगा. इस तरह और ज्यादा रिसर्च करके ही वो कोई निर्णय पर पहुंचेगा.
बस यही वो पार्ट है जो हमें प्रोग्रेस करने के लिए प्रेरित करता है. लेकिन इसके लिए पहले हमें अपने चाइल्ड और पेरेंट पार्ट को कंट्रोल करना होगा. अगले अध्याय में हम इन्हें पहचानना सीखेंगे.
हम अपने भीतर के चाइल्ड, पेरेंट और एडल्ट को पहचानना सीख सकते हैं.
आप दूसरों के चेहरे के एक्सप्रेशन देखकर उनकी इमोशन को जान लें तो इसका मतलब है कि आप ग्रो कर रहे हैं. बस इसी तरह अब खुद के इनर चाइल्ड, पेरेंट और एडल्ट को पहचानना सीखिए.
इसे समझने के लिए जरूरी है कि आप अपनी बॉडी लैंग्वेज को समझे.
अगर कोई पेरेंट वौइस् में बोल रहा है तो निश्चित रूप से उसकी ऑयब्रो ऊपर उठी हुई होगी, होठ सिकुड़े हुए होंगे. वो किसी बात या व्यक्ति के बारे में अपना एक्सप्रेशन दे रहे होंगे. अक्सर वे गुस्से में दिखेंगे. आर्म्स क्रॉस करते हुए डर और गुस्से से बोल रहे होंगे.
एक बहुत ही खास एक्सप्रेशन आपको बहुत कुछ बता देगा. अगर वे किसी का हाथ थपथपाये तो समझ जाइये कि उनमें पेरेंट फीलिंग बहुत ज्यादा है. इसमें वो व्यक्ति पहले से ही कोई थॉट क्रिएट करके रखता है जिसे पूर्वाग्रह कहते हैं.
चाइल्ड पार्ट को पहचानने के लिए जो संकेत होते हैं वे काफी आसान होते हैं - रोना, सुबकना, चिल्लाना, अजीब आवाजें निकलना. बच्चा दूसरों को चिढाता भी है, दांतों से अपने नाखून काटता है, अक्सर बैचेन होता है, कभी जोर से रोता है तो कभी खिलखिलाकर हँसने लगता है.
सबसे ज्यादा मुश्किल होता है एडल्ट फेस को पहचानना. इसमें चाइल्ड और पेरेंट वाले एक्सट्रीम बिहेवियर नहीं होते.
लेकिन इसका ये मतलब भी नहीं कि एडल्ट का चेहरा डल और न्यूट्रल होता है. इसमें अक्सर चेहरा खिला हुआ, जीवंत लगता है और बहुत ज्यादा इमोशन या उत्तेजना चेहरे पर नहीं दिखती. एडल्ट को पता होता है कि कहाँ पर चाइल्ड वाली ख़ुशी और एक्साईट्मैंट दिखाना है.
अभी तक आप चाइल्ड, पेरेंट और एडल्ट को पहचानना सीख रहे थे; अब देखिये वे कैसा व्यवहार करते हैं.
पेरेंट, चाइल्ड और एडल्ट दबाव बनाने और माहौल खराब करने के लिए ज़िम्मेदार होते हैं.
एक कहावत है – “दो मिले तो कंपनी और तीन मिले तो भीड़.” यही बात हमारी पर्सनालिटी के अलग-अलग पार्ट्स पर भी लागू होती है. जब संख्या ज्यादा होगी तो उन्हें एक-दूसरे के साथ शांति से रहने में परेशानी होगी. इसमें सबसे ज्यादा समस्या तब आती है जब पेरेंट और चाइल्ड उस एडल्ट को ठीक से काम करने से रोकते हैं.
ट्रांजेक्शनल एनालिसिस में इसे स्थिति बिगाड़ने वाला पार्ट माना जाता है. पिछले अध्याय में हम पढ़ ही चुके हैं कि जब पेरेंट किसी एडल्ट के साथ ऐसा व्यवहार करे तो उसका रिजल्ट पूर्वाग्रह होगा. आप ये मानते हैं कि लोग गरीब इसलिए होते हैं क्योंकि वे आलसी होते है. ये विचार आपकी पूरी सोच को बिगाड़ सकता है. शायद बचपन में आपने ये सवाल किया भी होगा. जरूर आपकी पिटाई हुई होगी और ये समझाया गया होगा कि कोई काम न करना तो टाइम बर्बाद करना है.
अपने पेरेंट्स से मिले इन्हीं प्रीजुडिस को आप अपने व्यवहार में भी इस्तेमाल करते हैं. अगर कोई आपको बहुत ही तर्कपूर्ण तरीके से समझाए कि इस तरह आपका व्यवहार ठीक नहीं है. आपको ये पूर्वाग्रह छोड़ देने चाहिये तो आप ध्यान ही नहीं देंगे. आपको कोई बाहरी व्यक्ति नहीं समझा सकता. आपको सिर्फ आपका एडल्ट पार्ट ही समझा सकता है कि पेरेंट की कौनसी बातें है जिन्हें आपको पूरी तरह से छोड़ देना चाहिये.
एक दूसरी समस्या जो अक्सर देखने में आती है, वो ये है कि पेरेंट पार्ट चाइल्ड को साथ नहीं रखता और चाइल्ड भी पेरेंट को लिस्ट से हटा देता है.
शायद आप भी ऐसे लोगों को जानते होंगे जिनके लिए उनका काम ही सबकुछ है. वे अपने परिवार और मौज-मस्ती के लिए कोई टाइम नहीं निकालते हैं. इसके पीछे कारण उनकी परवरिश है जो बहुत ही डिसिप्लिन में होती है. जो व्यक्ति अपने बचपन वाली मस्ती को भुला देता है अक्सर आप उसे ये कहते हुए सुन सकते हैं, “बच्चों को बड़ों की बातें सुननी तो चाहिये लेकिन उन्हें बोलने का कोई अधिकार नहीं है.”
ऐसे ही पेरेंट्स बच्चों पर प्रेशर बनाते हैं और उनकी हँसी-ख़ुशी उनसे छीन लेते हैं. अब हम उन प्रोब्लम्स पर डिस्कस करेंगे जो आपका चाइल्ड पार्ट क्रिएट कर सकता है.
हमारा चाइल्ड वाला शेड तरह-तरह के खेल खेलकर सुपीरियर होना चाहता है.
बच्चों को हर तरह के खेल पसंद होते हैं चाहे ये हाइड एंड सीक हो या मोनोपाली. लेकिन कभी-कभी हमारे भीतर का बच्चा कुछ खतरनाक साइकोलोजिकल खेल भी खेलने लगता है. मान लो उसे दूसरों पर अपना रौब जमाना है तो वो इसके लिए कुछ गलत भी कर सकता है. ये भावना आपको 2 साल के छोटे बच्चे में भी देखने को मिल सकती है अगर वो ये बात मनवाने की कोशिश करे कि उसके खिलौनें दूसरे बच्चों के टॉयज से ज्यादा अच्छे हैं.
इन हालात में आपको ये समझ लेना चाहिये कि वो इनर चाइल्ड इनसिक्योर है और इस तरह से खुद को बेहतर दिखाने की कोशिश कर वो झूठा आत्मविश्वास हासिल करना चाहता है. हालाँकि उसकी ये फीलिंग भी ज्यादा टिकाऊ नहीं होती है. इसलिए कभी जो बात नजर आती है वो होती नहीं है.
इस बात से आप ये भी अंदाजा लगा सकते हैं कि जब किसी भी ग्रुप में कोई झगड़ा होता है तो वो बलि का बकरा ढूंढते है ताकि सारा दोष उसके ऊपर डालकर वो खुद को निर्दोष साबित कर सकें. इस तरह अपने लिए जो डॉउट्स होते हैं वो भी दूर कर लेते हैं और खुद को सुपीरियर भी साबित कर देते हैं. कभी-कभी ये इनर चाइल्ड सहानुभूति और केयर पाने के लिए विक्टिम की भूमिका में भी आ जाता है मतलब खुद को पीड़ित बताता है ताकि लोग उससे सहानुभूति रखे.
अक्सर लोग कोई समस्या बताते हुए उसके बारे में मदद मांगते हैं और साथ ही अगर कोई समाधान दिख रहा है तो उसके रास्ते बंद कर देते हैं. मतलब समस्या को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करना और समाधान से दूर भागना. इसके पीछे उनकी भावना खुद को बेचारा दिखाकर सहानुभूति लेने की होती है.
इस बात को आप इस उदहारण से समझ सकते हैं. मान लीजिये किसी को अपनी जॉब में कुछ प्रोब्लेम्स आ रही है. तो वो अपनी सहेली से राय लेगी. फ्रेंड उसे सुपरवाइजर से बात करने की सलाह देगी तो वो मन में सोचेगी, “कोई फायदा नहीं! सुपरवाइजर मेरी बात नहीं सुनेगी.” अगर फ्रेंड नई जॉब ढूँढने की सलाह देगी तो भी उसका इनर चाइल्ड वाला पार्ट बोलेगा, “न तो मुझे अभी जॉब तलाश करने का टाइम है और वैसे भी अभी अच्छी जॉब्स मिलना बहुत मुश्किल हो रहा है. तो यही ठीक है.”
यहाँ इस एग्जाम्पल से इनर चाइल्ड के डर और इनसिक्योरिटी को बताने की कोशिश की गई है. ये फीलिंग्स बहुत नुकसान करती है. बच्चा जिस तरह अपने पेरेंट्स की सहानुभूति लेना चाहता है यहाँ उसी तरह से इनर चाइल्ड फ्रेंड को पेरेंट मानते हुए उसकी सहानुभूति लेने की कोशिश में है.
आखरी अध्याय में हम सीखेंगे कि किस तरह हमें माइंड के इन सभी गेम्स को कंट्रोल करते हुए उस स्थिति में पहुंचना है जहाँ हम कह सके कि मैं भी सही हूँ और आप भी ठीक है.
“मैं बिल्कुल ठीक हूँ” – इस पॉइंट तक पहुँचने के लिए आपको अपने इमोशन ल पैटर्न्स पहचानकर उन्हें बदलना होगा.
कभी-कभी हम भावनाओं में इतने ज्यादा डूब जाते हैं कि हम मानने लगते है कि अब ये मुश्किलें कभी आसान नहीं होंगी. लेकिन अगर आप उन भावनाओं को एक तरफ हटाकर बिल्कुल नए नजरिये से देखेंगे तो आपको महसूस होगा कि कई रास्ते अभी खुले हैं. आपका ये नजरिया पूरी तरह से सही नहीं था.
“मैं अब ठीक हूँ” – इस फीलिंग तक पहुँचने के लिए आपको अपना इमोशनल नजरिया पहचानना होगा; जिसके लिए एक और प्रोसेस है.
चलिये इस बात को क्लीयर करने के लिए हम आपके करियर की ही बात करें. आपको समझ ही नहीं आ रहा है कि वो कौनसी बात है जो आपको सक्सेसफुल होने से रोक रही है. अगर आप अपने पेरेंट वाले माइंड पार्ट की सुनेंगे तो आपको वो प्रेशर याद आयेगा कि आपको डॉक्टर या लॉयर जैसा रेस्पेक्ट वाला करियर ही चूज करना है. क्योंकि शुरू से आपको यही चॉइस दी गई थी. इस तरह आप पेरेंट्स की इच्छा तो पूरी कर देंगे पर अपने प्रोफेशन से खुद कभी खुश नहीं रह पायेंगे. लेकिन आपका इनर चाइल्ड पेरेंट्स को नाखुश करने से डरता है इसलिए अपनी इच्छाओं को आप दबा देंगे.
अगर एक बार आप इन पैटर्न्स को समझ गए तो आपके अंदर का एडल्ट आसानी से अपना करियर खुद चुन लेगा. आपके मन में ये दुविधा भी नहीं रहेगी कि मैं अपने पेरेंट्स की बात मानूँ या अपने मन की सुनूँ? आपके अंदर का एडल्ट वही करियर चुनेगा जो वास्तव में आपको सूट करता है.
लेकिन इसके पहले आपको इग्नोर करना सीखना पड़ेगा. आप अपने पसंदीदा कामों में कभी भी किसी और से न अप्रूवल मांगेंगे और न ही उनकी ऐसी कोई आवाज सुनेंगे जो आपको रोक रही हो. इससे आपके चाइल्ड वाला पार्ट डर को हटाना सीख जायेगा और एडल्ट को इस बात का अहसास दिलाएगा कि वे डिसीजन लेने से आपको रोके नहीं. इस तरह आप अपने माइंड के चाइल्ड और पेरेंट –दोनों को ही सही तरीके से हैंडल कर पायेंगे. अगर आपने ये करना सीख लिया तो आप जान जायेंगे कि एडल्ट किस तरह से सिचुएशन को समझकर अच्छी तरह से डिसीजन ले सकता है और उसके रिजल्ट्स भी पॉजिटिव ही आयेंगे.
हम सभी का जीवन वैसा ही होना चाहिये जैसा हम चाहते हैं; न कि वैसा जैसा दूसरे हमसे उम्मीद करते हैं. ये तभी होगा जब हम अपने माइंड के अंदर देखना-समझना सीखेंगे और अपनी पर्सनालिटी के अलग-अलग पार्ट्स को पहचानेंगे. अगर हमने ये सीख लिया तो सारा कंट्रोल हमारे पास होगा. फिर कोई और हमें कंट्रोल नहीं करेगा.
कई लोग बस इसी विचार में उलझ जाते हैं कि “मैं ठीक नहीं हूँ.” लेकिन अगर आपने अपने इनर पेरेंट और चाइल्ड को कंट्रोल कर लिया मतलब अपने माइंड में आने वाले थॉट्स को कंट्रोल कर लिया तो आपके बहुत शानदार नतीजे मिलने लगेंगे. फिर आप अपना जीवन अपने खुद के तरीके से जियेंगे और संतुष्ट रहेंगे.
कुल मिलाकर
दुनिया में ज्यादातर लोग यही सोचते हैं कि दुनिया में सब मजे में हैं और मैं अकेला दुखी हूँ. ये फीलिंग हमारे बर्थ से ही आनी शुरू हो जाती है क्योंकि पहले तो लेबर पेन का दर्द सहना फिर बच्चे होते हुए अपनी हर छोटी-मोटी जरूरत के लिए दूसरों पर डिपेंड रहना. लेकिन अगर हम इन पुराने पैटर्न्स को अपने माइंड से हटाकर नए पॉजिटिव एक्सपीरियंस क्रिएट करें तो एक दिन हम खुद से कहेंगे कि “मैं भी ठीक हूँ, तुम भी ठीक हो.”
केवल अपनी विचारों को ही सुनिये.
जब भी आपके माइंड में कोई नेगेटिव थॉट आये तो उसे जज कीजिये कि वो कितना सच्चा हो सकता है. इस बात का पता लगाने में पेरेंट, चाइल्ड और एडल्ट वाला कंसेप्ट आपकी मदद करेगा. उदहारण के लिए अगर आपको ये विचार आये कि ‘मैं आलसी हूँ’ तो सबसे पहले खुद से कहिये कि ऐसा बिल्कुल नहीं है. आपके पेरेंट्स इस बारे में क्या कहते थे, उसे भूल जाइये. इस टेक्नीक के द्वारा आपका चाइल्ड शायद आपको एक सुरक्षित जगह पर खना चाहता है. इस तरह अपने माइंड की ये बातें सुनेंगे तो आप खुद को आलसी मानकर कोई बड़ा फैसला ले ही नहीं पायेंगे. इसलिए इन नेगेटिव विचारों को हटाकर सिर्फ खुद की सुनिए. आपको अपने माइंड के एडल्ट पार्ट को सबसे ज्यादा तवज्जो देनी है. क्योंकि वही आपकी एबिलिटीज को सही तरह से सामने ला सकता है. उसी की सुनकर आप सफल हो सकते हैं.
