Ron Powers
अमेरिका में मेंटल हेल्थ केयर की खामियां
दो लफ्जों में
साल 2017 में आई ये किताब अमेरिका में मेंटल हेल्थ केयर के इतिहास से जुड़ी जानकारी डीटेल में आपके सामने रखती है। मेंटल हेल्थ केयर पर कल क्या नजरिया था, आज की तारीख में इसे लेकर कैसी सोच है और इलाज के बदलते तरीकों ने किस तरह मरीजों और समाज पर असर डाला है ये सब आप इस किताब में पढ़ते हैं।
ये किताब किनको पढ़नी चाहिए?
• जो लोग किसी दिमाग बीमारी से परेशान हैं
• साइकोलॉजी, साइकिएट्री और सोशल वर्क के स्टूडेंट्स
• हर वो इंसान जो किसी कमजोर की आवाज बनना चाहता है
लेखक के बारे में
रॉन पावर्स एक जाने माने नॉवेल राइटर और पत्रकार हैं। साल 1973 में उनको Pulitzer Prize for Criticism से सम्मानित किया गया। साल 2000 में उन्होंने को राइटर के तौर पर न्यूयॉर्क टाइम्स की बेस्ट सेलर किताब Flags of Our Fathers लिखी। दिमागी बीमारियों को लेकर वो बहुत खुला और नरम रवैया रखते हैं क्योंकि उन्होंने इसे बहुत करीब से देखा है।
Schizophrenia एक तरह की दिमागी बीमारी है जो जेनेटिक और आसपास के सामाजिक माहौल की वजह से होती है।
डिप्रेशन, एंजायटी या schizophrenia आप न जाने कितने ऐसे नाम दे दीजिए पर दिमागी बीमारियां इनसे हटकर भी बहुत हैं और कई तरह से सामने आ सकती हैं। इसमें किसी किशोर होते बच्चे का पीयर प्रेशर भी शामिल हो सकता है, ऑफिस में पॉलिटिक्स से परेशान किसी एडल्ट का तनाव भी हो सकता है और किसी इंसान के तरह-तरह के वहम भी। भले ही दिमागी परेशानी शरीर की बाकी बीमारियों की तरह एक बीमारी ही हो जिसे इलाज की जरूरत पड़े लेकिन अमेरिका में ऐसे लोगों को समाज से अलग थलग करके कैद या सड़कों पर छोड़ा जाता रहा है। इसकी शुरुआत साल 1970 से होती है जब वहां मेंटल हेल्थ पॉलिसी में काफी बदलाव किए गए थे। इसकी वजह से मरीजों को बहुत परेशानी उठानी पड़ी, उनके परिवारों को जैसे किसी बुरे हादसे से गुजरना पड़ा और टैक्स भरने वालों की जेब पर वजन भी डाल दिया गया।
इस किताब को पढ़कर आप जानेंगे
• कोर्ट के एक फैसले ने किस तरह दिमागी मरीजों का भविष्य खराब कर दिया
• आजादी हमेशा अच्छी क्यों नहीं होती
• दिमागी मरीजों की वजह से अमेरिका की जेलों में जगह कम क्यों पड़ गई
तो चलिए शुरू करते हैं!
Schizophrenia एक ऐसी दिमागी बीमारी है जो मरीज की सेहत पर बहुत बुरा असर डालती है। इसमें दिमाग की बनावट में तो बहुत से बदलाव आते हैं और मरीज के लिए समाज में उठना बैठना भी बहुत मुश्किल हो जाता है। कुछ ऐसी जीन्स जो इस बीमारी की वजह बनती हैं ऐसे मरीजों में जन्म से होती हैं पर इसके लक्षण अक्सर युवा होने के बाद ही नजर आते हैं जब ब्रेन की सेल्स में कांट छांट होती है। असल में ये बदलाव हर इंसान में लगभग 13 से 20 साल की उम्र तक ही होते हैं। इस दौरान दिमाग में cortical synapses नाम का वो हिस्सा जो दो सेल्स के बीच कम्युनिकेशन बनाता है वो खत्म होने लगता है। दिमाग को ऐसा करना इसलिए जरूरी है ताकि सफाई होती रहे और नए कनेक्शन बनाने की जगह मिलती रहे जो बड़े होने पर बहुत काम आती है। अब परेशानी ये होती है कि इस प्रोसेस में schizophrenia उभरने लगता है और इस खाली जगह में फैल जाता है।
ऐसे में अगर इन जीन्स को किसी मुश्किल हालात, नशे या ऐसे किसी और aggravating factor का साथ मिल जाए तो वो इंसान schizophrenia के prodromal phase में पहुंच जाता है। जरूरी नहीं कि इस समय भी schizophrenia के लक्षण साफ दिखने लगें। लेकिन इसके आगे अक्सर psychotic breakdown की कंडीशन होती है जो कई तरह से नजर आ सकती है। इसमें वहम, शक, खुद को महान या कोई चमत्कारी ताकत समझने लगना जैसी बातें शामिल हैं। किसी इंसान में दिखने वाला ये बदलाव अक्सर परिवार और आसपास के लोगों की नजर में आ जाता है और मरीज भी ये समझने लगता है कि उसके साथ कोई बड़ी परेशानी जुड़ चुकी है। लेकिन schizophrenia के लिए हमेशा कोई बाहरी वजह एक ट्रिगर का काम करती है। तनाव इनमें सबसे ऊपर है। यानि schizophrenia अक्सर कच्ची उम्र के तनावों जैसे स्कूल में किसी स्टूडेंट का बुली करना, प्यार में दिल टूटना, शर्मिंदगी, मजाक उड़ाया जाना जैसी घटनाओं से शुरू होता है। इनमें से कोई भी घटना prodromal phase की वजह बन सकती है। एक और बड़ी वजह है नशा करना गास तौर पर भांग का। नशा तो वैसे भी हर तरह की दिमागी बीमारी की वजह बन सकता है। अगर किसी में schizophrenia के जीन्स हैं तो ये और भी खतरनाक साबित हो सकता है। वॉल स्ट्रीट जर्नल में छपे एक आर्टिकल में बहुत सी रिसर्च को आधार बनाकर भांग और psychosis के बीच कनेक्शन बताया गया था।
दिमागी बीमारी को गैरकानूनी बनाने की वजह से ऐसे मरीजों की जिंदगी नर्क बन गई।
आपने थॉमस सजाज का नाम सुना है? 1960 के दशक के इस जाने माने साइकिएट्रिस्ट ने ये महसूस किया कि दिमागी बीमारी के इलाज को लेकर समाज और कानून का रवैया इंसानियत के खिलाफ है। इस वजह से उसने ठान लिया कि वो दूसरों को दिमागी मरीजों की जिंदगी में दखल देने से रोकेगा। साल 1961 में थॉमस की एक किताब छपी जिसका नाम था द मिथ ऑफ मेंटल इलनेस। ये किताब बहुत पॉपुलर हुई। लेकिन इस किताब ने लोगों के मन में दिमागी बीमारी को लेकर और सवाल खड़े कर दिए। सजाज ने इस किताब में दावा किया कि जिसे आमतौर पर मानसिक बीमारी कहा जाता था वो और कुछ नहीं बल्कि बदला हुआ बर्ताव था जो समाज के बनाए नियमों के खिलाफ था इसलिए दूसरों को बुरा और परेशान करने वाला लगता था।
सजाज के हिसाब से माइंड और ब्रेन दो अलग चीजें थीं और माइंड के intangible होने की वजह से इससे जुड़ी किसी भी बीमारी को गलत नहीं माना जा सकता। साल 1975 में सुप्रीम कोर्ट ने सजाज की बातों को कानून बना दिया। अब किसी दिमागी बीमारी से परेशान इंसान को उसकी मर्जी के बिना अस्पताल में भर्ती करना या दवा देना उसके अधिकारों के खिलाफ था। आज की तारीख में अदालत के ऑर्डर या खुद मरीज की मर्जी के बिना कोई उसकी मदद नहीं कर सकता है। हालांकि ऐसा ऑर्डर मिलने में महीनों लग सकते हैं। और यहां सबसे बड़ी मुश्किल ये है कि सिजोफ्रेनिया के ज्यादातर मरीजों को ये लगता ही नहीं है कि उनको इलाज की जरूरत है। यानि वो अपनी तरफ से शायद ही कभी अपने इलाज के बारे में सोचते हैं। लंबे समय तक इलाज न मिल पाने की वजह से उनकी हालत और खराब हो जाती है। यानि सिजोफ्रेनिया और भी गहरी जड़ें जमा लेता है। इस तरह के खतरे साफ नजर आने के बावजूद सजाज ने अपनी सोच को आगे बढ़ाने के लिए साल 1969 में Citizens Commission on Human Rights की स्थापना की। ये ग्रुप आज भी एक्टिव है। सजाज की सोच और ये ग्रुप दोनों ही साइकिएट्री की जरूरत और मेंटल हेल्थ पर इसके नजरिए को कटघरे में खड़ा करते रहे हैं।
बड़ी संख्या में बंद होते मेंटल हेल्थ सेंटरों की वजह से दिमागी मरीजों का बहुत नुकसान हुआ।
हेल्थ सेंटर में बंद दिमागी मरीजों को आजाद कर देना एक सोचा समझा राजनैतिक कदम था। लेकिन इसके नतीजे सोचे बिना इसे बस अमल में ला दिया गया था। इसके अलावा "wonder drugs" जैसी चीजों का भी हालात बिगाड़ने में बहुत बड़ा हाथ रहा। पूरी बात कुछ इस तरह है- साल 1960 में Thorazine नाम की एक दवा schizophrenia के इलाज के लिए दी जाने लगी। इसलिए जब मेंटल हेल्थ सेंटर बंद हो गए तो यहां से जा रहे लोगों को ढेर सारी खुराक थमा दी गई और ये सोच लिया गया कि अब सब ठीक है। लेकिन सच तो ये है कि ऐसी दवाएं मरीज को कुछ समय के लिए शांत कर सकती हैं पर उसकी बीमारी पूरी तरह सही नहीं कर सकतीं।
इसके बाद भी जब मरीजों को सेंटरों से बाहर भेजा जाने लगा तो फार्मा कंपनियां भी मरीज की परेशानी, ठीक हो जाने की गहरी चाहत और इन बीमारियों से जुड़ी पूरी जानकारी न होने का फायदा उठाती रहीं। इन कंपनियों ने दिमागी बारी के इलाज का झूठा दावा करने वाली दवाओं के विज्ञापनों पर मोटी रकम खर्च की और तो और इस झूठ के लिए बहुत जुर्माना भी भरा। फिर भी ये उनके लिए सच बोलने से कहीं ज्यादा फायदेमंद रहा।
इस तरह के अपराध के लिए किसी भी फार्मा कंपनी के अधिकारी को कभी जेल का सामना नहीं करना पड़ा है। यानि उनके लिए ये रास्ता बड़ा आसान है।
लेकिन हालात बदले जा सकते थे। दरअसल मेंटल हेल्थ केयर सेंटरों से आजाद होने के बाद सरकार को दिमागी बीमार लोगों के लिए काम करना था। साल 1963 में इसकी नींव भी रखी गई थी जब राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी ने Community Mental Health Act पर साइन किए थे। इस एक्ट में ऐसे मरीजों के लिए $150 मिलियन की रकम तय करके कम्यूनिटी ट्रीटमेंट सेंटर बनाए जाने थे। शुरुआत तो अच्छी रही पर वियतनाम युद्ध छिड़ जाने की वजह से इसे बीच रास्ते में ही रोक देना पड़ा और फंडिंग कम कर दी गई। इस वजह से साल 1973 तक आधे से भी कम सेंटर बन पाए और जितने बने वो भी बंद ही पड़े रहे। लगभग 280,000 मरीजों को छुट्टी दे दी गई और उनके पास वहां से निकलकर जाने के लिए कोई जगह ही नहीं थी। ये लोग अपने ही दम पर थे उनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं था।
दिमागी मरीजों को सड़कों पर और जेलों में डाल दिया गया।
दिमागी मरीजों को देखने वाला कोई नहीं रहा। इसके नतीजे बहुत बुरे रहे। सेंटरों से बाहर कर दिए जाने की वजह से होमलेस लोगों की गिनती बेतहाशा बढ़ गई। सेंटरों के मरीज बाहर आ गए। जाहिर है वो अपनी देखभाल नहीं कर सकते थे। वे इस लायक भी नहीं थे कि सरकारी मदद लेने के लिए अपना काम निकलवा सकें। कोई दूसरा सहारा न होने की वजह से वे सड़कों पर सोते थे। लोग उनसे डरे रहते। इनमें से कई लोग अपराधों में शामिल हो गए। वैसे भी इनकी मर्जी के बिना तो इनका इलाज नहीं किया जा सकता था। इसलिए उनमें से बहुत से लोग अपने गुजारे के लिए क्राइम की दुनिया से जुड़ते रहे। उनको गिरफ्तार कर लिया जाता और बीमारी पकड़ में न आने की वजह से जेल की बाकी आबादी के साथ ठूंस दिया जाता।
इतना ही काफी नहीं था। उनको कई बार अकेले बंद रहकर और भी तकलीफ से गुजरना पड़ता। किसी दिमागी मरीज के लिए इससे बुरा शायद कुछ नहीं हो सकता। जेल में बंद होने के अलावा दिमागी बीमारी से जूझ रहे लोगों के पुलिस के जुल्म का शिकार बनने की संभावना भी बहुत होती है। ऐसे बहुत से उदाहरण मिलेंगे जहां पुलिस अधिकारियों ने दिमागी मरीजों को गोली मार दी। ऐसा ही एक नाम है जेम्स बॉयड। वो पैरानॉयड सिजोफ्रेनिया का मरीज था। उसने रास्ते से गुजर रहे किसी इंसान के सामने उल्टी सीधी हरकतें करके उसे चिढ़ा दिया। पुलिस ने पहुंचकर उसे गोली मार दी जबकि वो निहत्था था। इस घटना के बाद दो अधिकारियों पर हत्या का आरोप लगाया गया था।
मेंटल हेल्थ हमारे समाज के लिए प्राथमिकता होनी चाहिए।
दिमागी बीमारी एक छिपा हुआ खतरा है। इससे छिपना आसान है लेकिन तब तक जब तक कि ये आपके दरवाजे पर दस्तक न दे। आंखें मूंद लेना कोई हल नहीं है और सही कदम उठाकर हम न जाने कितने लोगों को इस तकलीफ से हमेशा के लिए बचा सकते हैं। पहला कदम है दिमागी बीमारी का जल्द से जल्द पता लगाने की कोशिश करना। रॉन तो इस अनुभव से गुजर चुके हैं। उनका एक बेटा इस बीमारी की वजह से आत्महत्या कर चुका है। अगर उसकी बीमारी का पहले पता लग जाता शायद उसकी बीमारी इतनी नहीं बढ़ती और उसे मरने से रोका जा सकता था।
रॉन का दूसरा बेटा सिजोफ्रेनिया का मरीज है। रॉन इस बात की गवाही दे सकते हैं कि अपने बेटे को अस्पताल में भर्ती कराने या उसका इलाज कराने की मंजूरी मिलने तक वो कितने तनाव में थे कि कहीं वो अपने या दूसरों के लिए खतरा न बन जाए। जाहिर है कि उनका परिवार एक और बेटे को खोने से डर गया था। उनकी किस्मत अच्छी थी कि इस बेटे ने आत्महत्या नहीं की। लेकिन अगर उसकी बीमारी भी जल्द पकड़ में आ गई होती तो शायद उसकी हालत इतनी बुरी न हुई होती। हमें ये भी समझना चाहिए कि ऐसे लोगों की देखभाल और किस तरह के फायदे पहुंचा सकती है। National Alliance on Mental Illness नाम की संस्था ने ये अनुमान लगाया है कि दिमागी मरीज को जेल की सजा सुनाने तक लगभग $50,000 का खर्च आता है जबकि वहीं अगर उसका इलाज कराया जाए तो बस दो या तीन हजार डॉलर खर्च होंगे। इस तरह टैक्स की बड़ी रकम बचाई जा सकती है।
या साइकिएट्रिस्ट, कर्टनी हार्डिंग का उदाहरण लें। 1950 के दशक में उन्होंने ये देखा कि जिन मरीजों पर दवा काम नहीं कर रही थी उनको समाज में उठने बैठने और आत्मविश्वास बढ़ाने में मदद करने से बहुत फायदा मिला। हार्डिंग की स्टडी के सालों बाद भी इसमें भाग लेने वालों में से 51 प्रतिशत बेहतर ढंग से जी रहे थे। इस कामयाबी को ध्यान में रखकर हार्डिंग ने साइको सोशल रीहैबिलिटेशन का तरीका बनाया। ये दूसरे आम रास्तों से बहुत अलग था। हार्डिंग के बनाए तरीकों से मरीजों को काफी फायदा मिलता है। आखिर में हमें ये याद रखना चाहिए कि दिमागी मरीजों के पास अक्सर अपनी आवाज नहीं होती है। इसलिए ये हम सबकी जिम्मेदारी है कि हम उनके और उनके परिवार के लिए आवाज उठाएं।
कुल मिलाकर
सालों से दिमागी मरीजों को समाज ने हाशिए पर रखा है और उन्हें डिस्पोजेबल माना गया है। मेंटल हेल्थ की खराब नीतियों से हुए नुकसान की भरपाई लगभग नामुमकिन है। फिर भी हम दिमागी बीमारी के बारे में लोगों की जागरूकता बढ़ा सकते हैं, इसके शिकार लोगों की मदद कर सकते हैं और सही दिशा में आगे बढ़ना शुरू कर सकते हैं।
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