Lifespan

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David A. Sinclair, PhD and Matthew D. LaPlante
एजिंग की वजह और बचाव के तरीके

दो लफ्जों में
साल 2019 में आई ये किताब जेनेटिक्स की फील्ड में हुई बिल्कुल ताजा रिसर्च को आधार बनाकर हमें ये बताती है कि एजिंग क्या है और हम इससे कैसे बच सकते हैं। अब इस फील्ड में बहुत काम हो रहा है। नई रिसर्च से मिली नॉलेज और अपने खानपान में मामूली से बदलाव की मदद से हम पहले ही उस जगह पहुंच चुके हैं जब हम पहले से ज्यादा लंबी उम्र और हेल्दी लाइफ जी सकें। आने वाला कल इस समय और क्वालिटी को और बढ़ा सकता है। 

ये किताब किनको पढ़नी चाहिए?
• यंग लोग जो एजिंग रोकना चाहते हैं
• बुजुर्ग लोग जो एजिंग के असर को कम करके फिर से एनर्जेटिक बनना चाहते हैं
• हर वो इंसान जो एक लंबी और हेल्दी लाइफ जीना चाहता है 

लेखकों के बारे में
डेविड एक जाने माने साइंटिस्ट हैं जो हावर्ड मेडिकल स्कूल में जेनेटिक्स पढ़ाते हैं। वो टाइम्स मैग्जीन के टॉप 50 हेल्थकेयर प्रोफेशनल्स और दुनिया के टॉप 100 महत्वपूर्ण लोगों की लिस्ट में जगह बना चुके हैं। मैथ्यू, साइंस राइटर और जर्नलिस्ट हैं जो जेनेटिक्स और लांगिविटी पर लिखने के एक्सपर्ट हैं।

हमारी सोच के उलट एजिंग से बचा जा सकता है।
आप दुनिया कि किसी भी बीमारी से बच सकते हैं। लेकिन एक चीज है जो हम सब पर असर करती है और वो है एजिंग। आप सोचेंगे इसमें ऐसा भी क्या है? हम जीते हैं और हमारी उम्र बढ़ती जाती है। पर एजिंग बहुत परेशान करने वाली, शर्मनाक और जेब पर भारी भी पड़ सकती है और तो और जानलेवा भी। क्योंकि ये अपने साथ तरह-तरह की परेशानियां ले आती है। कोई बिस्तर पकड़ लेता है तो कोई लाइलाज बीमारियों पर पैसा फूंकने लगता है। फिर भी अभी तक हम इसे अपनी जिंदगी का एक जरूरी हिस्सा मानकर चलते रहे हैं। हालांकि साइंस अब हमारी सोच को बदल रहा है। जेनेटिक्स में हो रही स्टडीज हमें एजिंग को और गहराई से समझने में मदद कर रही हैं और एजिंग का इलाज और बचाव के लिए रास्ते ढूंढे जा रहे हैं। अब हम एक ऐसी दुनिया में कदम रख रहे हैं जहां एजिंग हमारी चॉइस होगी मजबूरी नहीं। अब हम अपने लिए एक लंबी और हेल्दी लाइफ चुन सकेंगे। 

 

इस किताब को पढ़कर आप जानेंगे

• ओकिनावा आइलैंड के लोग किस तरह खुद को एजिंग से बचाते हैं

• कुछ पॉलिप और जैलीफिश कभी मरते क्यों नहीं

• जब इंसानों की एवरेज एज 100 पार कर जाएगी तब दुनिया कैसी लगेगी 

तो चलिए शुरू करते हैं!

बीसवीं सदी की शुरुआत में आधे से ज्यादा लोग फ्लू, न्यूमोनिया, टीबी और पेट की बीमारियों से मर जाते थे। आज ये गिनती इतनी भी नहीं है कि इसका डेटा तैयार किया जाए। मेडिकल साइंस में हुई तरक्की ने एक वक्त पर लाइलाज समझी जाने वाली इन बीमारियों को आज सर्दी जुकाम की तरह मामूली बना दिया है। अब अगर एजिंग को भी इन्हीं बीमारियों की तरह बना दिया जाए तो? दूसरी किसी भी बीमारी की तरह एजिंग के भी तो अपने लक्षण होते हैं जैसे डिमेंशिया, ऑर्गन फेल्योर, हड्डियां कमजोर होना वगैरह। उम्र बढ़ने के साथ चोट देर से भरती है। हमें इन्फेक्शन होने के चांस बढ़ जाते हैं। हमारे शरीर का फंक्शन धीमा होने लगता है और ब्रेन पर भी असर पड़ता है। जेनेटिक्स में हुई स्टडीज की मानें तो एजिंग भी एक तरह की बीमारी है और इसका इलाज भी किया जा सकता है। अगर ऐसा हो जाए तो हम अपनी जिंदगी में बहुत से साल जोड़ सकते हैं। इतना ही नहीं हम क्वालिटी लाइफ भी जी सकते हैं। 

दूसरी किसी भी बीमारी की तरह एजिंग से निपटने का सबसे अच्छा तरीका यही है कि इसके लक्षणों का इलाज करने की जगह इसकी जड़ को काट दिया जाए। कैंसर का जिक्र यहां जरूरी है। 1960 के दशक तक इसकी वजह ही पता नहीं थी। इसलिए इलाज भी लक्षणों पर फोकस रहता था न कि इसकी वजह पर। शरीर के जिस हिस्से में कैंसर होता वहां की सेल्स को हटा दिया जाता। इससे आसपास की हेल्दी सेल्स भी डैमेज हो जातीं। 70s में रिसर्च से oncogene का पता लगा यानि कैंसर के लिए जिम्मेदार जीन। अब कैंसर का इलाज oncogene को ध्यान में रखकर किया जाने लगा। इससे हेल्दी सेल्स को नुकसान पहुंचना बंद हो गया और ज्यादा मरीजों की जान बचाई जाने लगी। यही तरीका एजिंग के इलाज में भी क्यों नहीं अपनाया जा सकता? कल तक तो इसकी वजह साफ नहीं थी। पर हाल के सालों में काफी जानकारी इकट्ठी की जा चुकी है। आगे हम पढ़ेंगे कि एजिंग क्यों होती है और इसका हमारे जीन्स से क्या लेना देना है।

हमारी जीन्स लंबी उम्र के लिए ही बनी हैं।
ताजे पानी में मिलने वाले हाइड्रा नाम के एक पॉलिप की लाइफ स्पैन बड़ी मजेदार है। जेनेटिक्स की फील्ड में इस पर बहुत स्टडी होती है। इस पर जैसे उम्र का कोई असर ही नहीं होता। हम सबमें सेल डिवीजन होता है। पर जब ऐसी सेल्स डिवाइड होना बंद हो जाती हैं वो शरीर में इकट्ठी होने लगें तो शरीर का फंक्शन धीमा पड़ जाता है। एजिंग की भी यही वजह है। बायोलॉजी की भाषा में इसे senescence कहा जाता है। जंगली इलाके में पाया जाने वाले हाइड्रा में बदलाव दिखते हैं लेकिन जब लैब में रख दिया जाए तो ये बिल्कुल अमर लगने लगता है। क्योंकि इसमें एजिंग होनी बंद हो जाती है। कुछ जैलीफिश, ब्रिसलकोन का पेड़, ग्रीनलैंड की शार्क और बो हैड व्हेल भी ऐसे ही अमर जीव लगते हैं। इनका इवॉल्यूशन ही ऐसे हुआ है कि इन पर उम्र के निशान कभी नजर ही नहीं आते हैं। क्या इंसान भी इसी तरह इवॉल्व हो सकते हैं? हमारा जेनेटिक मेकअप तो यही इशारा करता है। हालांकि ज्यादातर जीव तो उम्र के असर को टाल नहीं सकते पर ये सभी एक से जीन सर्किट में इवॉल्व हुए हैं। यानि एक ऐसा चैनल जहां किसी एक जीन का एक्शन दूसरी पर असर डालता है और ये साइकल चलता जाता है। 

इसे अच्छी तरह समझने के लिए हमें उस दौर में जाना होगा जहां से जीवन की शुरुआत मानी जाती है। यानि जब primordial soup में सेल्स तेजी से डिवाइड होकर बढ़ रही थीं। वैज्ञानिक मानते हैं कि इनमें दो जीन्स थीं। अभी इनको A और B नाम दे देते हैं। जीन A एक तरह की केयर टेकर है जो बाहरी वजहों या खतरों को देखते हुए सेल डिवीजन रोक देती है। सीधी सी बात है खतरा होने पर रिप्रोडक्शन की जरूरत ही नहीं है। जीन B एक साइलेंसिंग जीन है। जब बाहरी खतरे टल जाते हैं तो ये जीन A को शांत करके रिप्रोडक्शन दुबारा शुरू करवा देती है। यानि रिप्रोडक्शन के लिए जीन A लाल बत्ती है तो जीन B हरी बत्ती। लेकिन इवॉल्यूशन के दौरान कुछ सेल्स ने मिलकर अपना एक सर्किट बना लिया जिसमें जीन B, A को रोक तो देती ही है पर वो रिप्रोडक्शन से पहले सेल में हुए किसी DNA डैमेज को भी बदल देती है। यानि डैमेज हो चुका DNA, रिपीट नहीं होता। इसका फायदा ये है कि अगर डैमेज हो चुका DNA ही आगे बढ़ता रहे तो सेल डिवीजन खराब हो सकता है और ये एजिंग की एक बड़ी वजह बनता है। 

इंसानों में इससे भी एडवांस लेवल का सर्वाइवल सर्किट है लेकिन इसका मेन फंक्शन तो यही है। यानि DNA को रिपेयर करना और जेनेटिक इन्फॉर्मेशन के नुकसान को रोकना वरना इससे सेल डिवीजन नहीं होगा और एजिंग को बढ़ावा मिलेगा। इस तरह से देखा जाए तो हम बायोलॉजिकल एजिंग को रोकने के हिसाब से ही इवॉल्व हुए हैं। पर ऐसा है तो हम भी अमर क्यों नहीं हैं? इसका जवाब भी इसी सर्वाइवल सर्किट से मिलता है।

एजिंग को लेकर दी जाने वाली इन्फॉर्मेशन थ्योरी के हिसाब से सेल्युलर इन्फॉर्मेशन का खत्म हो जाना ही एजिंग है।
सेल्युलर इन्फॉर्मेशन के लॉस होने की वजह है DNA का रिपेयर होना जबकि इसी से तो एजिंग रोकी जाती है। लेकिन DNA का डैमेज तब भी हो सकता है अगर ये सही तरह रिपेयर न हो पाए। इससे कोई सेल सही तरह से डिवाइड नहीं हो पाती और इसका फंक्शन रुक जाता है। अगर बात सिर्फ DNA की होती तो भी कुछ नहीं था क्योंकि DNA अपने आप खुद को replicate कर सकता है। लेकिन epigenome का भी इसमें रोल होता है। Epigenome को इस तरह समझा जा सकता है - 

एक फर्टिलाइज हुए एग में माता और पिता दोनों के DNA मिलते हैं और हमारे अपने DNA में बदल जाते हैं। यानि अब ये हमारी जेनेटिक इन्फॉर्मेशन बन गया। Epigenome इस प्रोसेस को दिया गया नाम है या यूं कहें कि ये हमारे शरीर तक इस इन्फॉर्मेशन को ले जाने वाला ट्रांसमीटर है। 

इसकी एक प्रोसेस को जीन मार्किंग कहा जाता है। ये भी इन्फॉर्मेशन लॉस की एक बड़ी वजह बनती है। जीन मार्किंग का मतलब है किसी सेल को ये बताना कि वो क्या है और उसका क्या काम है। यानि किडनी की सेल किडनी का काम करें और ब्रेन की सेल ब्रेन का काम करें और एक दूसरे के काम में कोई गड़बड़ न हो। इस काम में कुछ जीन्स लगी होती हैं। ये भी DNA रिपेयर में मदद करके हमारी उम्र बढ़ाने में मदद करती हैं। इन जीन्स में जिन प्रोटीन का कोड होता है उनको sirtuins कहा जाता है। ये अपनी खुद की सेल में घूमते हुए उसी सेल की दूसरी जीन्स को भी एक्टिव या बंद कर सकती हैं ताकि किसी बीमारी या इन्फ्लामेशन का रिस्पांस दिया जा सके। इनको आप बंजारे की तरह समझ सकते हैं जो हर इधर उधर घूमते हुए जरूरतमंद सेल की रिपेयर करके उसे हेल्दी और काम पर लगाए रखती हैं। इसलिए sirtuin जैसी लांगिविटी जीन्स एजिंग से लड़ने में बहुत काम आती हैं। अब इसका दूसरा पहलू ये है कि अगर इनमें कोई गड़बड़ हो जाए तो भी एजिंग को बढ़ावा मिल सकता है। असल में जब sirtuin किसी खतरे से निपटने के लिए इधर से उधर घूमती हैं तो कई बार अपने घर वापस नहीं लौट पातीं। अब ये उन जीन्स का काम बंद कर देती है जिनको काम पर लगाना चाहिए और उन जीन्स को काम पर लगा देती हैं जिनको रोक देना चाहिए। इस तरह सेल्युलर इन्फॉर्मेशन खत्म हो जाती है और एजिंग शुरू होने लगती है। एजिंग की इन्फॉर्मेशन थ्योरी की मदद से अब रिसर्च करने वाले लोग इसकी जड़ तक पहुंच पा रहे हैं। वो इसके इलाज की तरफ भी बढ़ रहे हैं। लेकिन इस दौरान आप भी खानपान जैसे मामूली बदलाव करके अपनी लांगिविटी जीन्स को फिट रखने के लिए बहुत कुछ कर सकते हैं।

आप अपनी लांगिविटी जीन्स को ज्यादा मजबूत बना सकते हैं।
आज भले ही जेनेटिक्स में एजिंग के इलाज पर काम किया जा रहा हो पर दुनिया के कुछ हिस्सों में लोग सदियों से एजिंग को पीछे छोड़ते आए हैं। इसके बारे में सबसे पहले साल 2000 में पता चला जब इस किताब के लेखक डेन, लांगिविटी एक्सपर्ट डॉ मिशेल पॉलेन और डॉक्टर गिआन्नी पेस ने लांगिविटी पॉकेट की पहचान की। इन्होंने Blue Zone ढूंढ निकाला। ब्लू जोन में 90s या उससे ऊपर की उम्र के लोग आते हैं। इतना ही नहीं इस उम्र में भी ये पूरी तरह फिट और चुस्त होते हैं। इसके पीछे क्या राज है? पहली बात तो ये कि ब्लू जोन वाले लोगों के भोजन में प्लांट बेस्ड डाइट सबसे ज्यादा होती है। जाहिर है ऐसी डाइट से एनिमल प्रोटीन तो कम मिलता है। प्रोटीन से हमारे शरीर को जरूरी अमीनो एसिड मिलता है जो बिल्डिंग ब्लॉक का काम करता है। अमीनो एसिड का इकलौता जरिया है हमारा भोजन। एनिमल प्रोटीन में ये अमीनो एसिड भरपूर मात्रा में पाए जाते हैं। फिर तो ये बड़ी अच्छी बात है कि एनिमल प्रोटीन खाइए और हेल्दी रहिए। पर ऐसा नहीं है। जब हमारे पास ज्यादा अमीनो एसिड इकट्ठा हो जाता है तो शरीर सर्वाइवल मोड से बाहर आ जाता है। इस वजह से जरूरत पर अपने आप हो जाने वाला DNA का रिपेयर और हेल्दी सेल replication बंद हो जाता है। जबकि प्लांट बेस्ड प्रोटीन हमें उतना ही अमीनो एसिड देती हैं जो हमारे शरीर का फंक्शन सही बनाए रखे और थोड़ी सी कमी रह जाए ताकि शरीर को हमेशा थोड़ी जरूरत बनी रहे। 

इस तरह शरीर सर्वाइवल मोड में रहता है। इस तरह DNA का रिपेयर चलता रहता है और कभी भी ऐसी इमरजेंसी नहीं आती जब हालत काबू से बाहर हो जाएं। ब्लू जोन वाले लोग और भी बहुत कुछ करते हैं। वो इस बात का ध्यान रखते हैं कि उनको कितना खाना है। 1978 में हुई एक स्टडी से ये पता चला कि ओकिनावा आइलैंड के लोग जापान के बाकी लोगों से 20% कम कैलोरी खाते हैं। इसी तरह ग्रीस के इकारिया में रहने वाले लोग आज भी पुराना ग्रीक कैलेंडर फॉलो करते हैं जिसमें कुछ दिन फास्टिंग के भी होते हैं। ये माना जाता है कि लांगिविटी जीन्स को एक्टिव मोड में रखने के लिए फास्टिंग बहुत मददगार साबित होती है। साल 1935 में कॉर्नेल यूनिवर्सिटी में चूहों पर हुई रिसर्च से ये पता चला कि जिन चूहों को थोड़ा कम खाना दिया जा रहा था वो बाकी से लंबे समय तक जिए। लेकिन जरूरी नहीं कि यही तरीका सब पर असर करे। येशीवा यूनिवर्सिटी में 2011 में हुई एक स्टडी ये बताती है कि जिन लोगों ने महीने के पांच दिन इंटरमिटेंट फास्टिंग की उन पर भी वही असर हुआ जो रोज कम कैलोरी खाने वालों पर होता है। तीन महीने इंटरमिटेंट फास्टिंग करने वालों में IGF-1 यानि Insulin Growth Factor 1 के लेवल कम हो गए। इसके हाई लेवल को एजिंग और बीमारियों से जोड़कर देखा जाता है। एक जेनेटिस्ट, नीर बार्जिलाई ने ये देखा कि जिन परिवारों में लोग 100 से ऊपर जीते हैं उनमें IGF-1 के लेवल कम होते हैं। फास्टिंग का चलन तो बहुत पुराने जमाने से है जबकि इसका एजिंग पर असर आज के किसी भी नए तरीके से ज्यादा है। आगे हम इन दोनों तरीकों और इनके असर को अच्छी तरह समझेंगे।

एजिंग का इलाज हमारी उम्मीद से जल्दी मिल सकता है।
एक ऐसी दुनिया जहां एजिंग नाम की कोई चीज ही न हो किसी साइंस नॉवेल की कहानी लगती है। लेकिन जेनेटिस्ट इसे हकीकत में बदलने पर लगे हुए हैं। एंटी एजिंग दवाएं भले ही आज बनाई जा रही हों पर इनका सामान हमें नेचुरल चीजों से ही मिल रहा है। फिर वो चाहे मिट्टी में पाए जाने वाले बैक्टीरिया हों या जंगली फूल, नेचर के पास एंटी एजिंग का जवाब है। एजिंग का इलाज का एक रास्ता हमें चिली के रापा नुई आइलैंड की तरफ ले जाता है। इसे ईस्टर आइलैंड के नाम से जाना जाता है। 60s में वैज्ञानिकों को यहां की मिट्टी में एक नई तरह का बैक्टीरिया मिला। इसमें एंटी फंगल कंपाउंड था जिसे rapamycin कहा गया। शुरुआत में इसे उन मरीजों को दिया जाता था जिनमें ऑर्गन ट्रांसप्लांट किए गए हों। ताकि इम्यून सिस्टम दबा रहे और नए ऑर्गन को अपना दुश्मन समझकर उस पर वार न करने लगे। आज की तारीख में ये भी पता चला है कि इसमें life-extending ताकत भी होती है। 

फ्रूट फ्लाई पर स्टडी की गई और ये देखा गया कि जिनको rapamycin की डोज दी जाती है वो बाकी फ्लाई से 5% ज्यादा दिन जिंदा रहती हैं। इसे लेने पर चूहे भी 9 से 14% दिन ज्यादा जिए। इसके पीछे वजह ये है कि rapamycin, लांगिविटी के लिए जिम्मेदार  mTOR नाम की जीन को दबा देती है। पर इससे भला लांगिविटी कैसे बढ़ जाएगी? वैसे तो mTOR सेल ग्रोथ को बढ़ाती है पर उम्र बढ़ने के साथ सेल डिवीजन को रोककर ये जीन्स उल्टा असर भी दिखा सकती हैं बिल्कुल sirtuins की तरह। Rapamycin इनको कंट्रोल करता है ताकि वो हमारे खिलाफ काम न करें। 

फिलहाल इस बारे में काफी रिसर्च की जरूरत है कि इसका इंसानों पर क्या असर पड़ता है। फिलहाल एक दवा तो चलन में है जो एंटी एजिंग के लिए काम आ सकती है। इसका नाम है metformin. हालांकि इसे डायबिटीज के इलाज के लिए दिया जाता है। ये goat’s rue नाम के एक जंगली फूल से बनती है। 

स्टडीज से ये पता चलता है कि metformin, AMPK नाम के एक एंजाइम को एक्टिवेट कर देती है जो माइटोकॉन्ड्रिया का फंक्शन सही रखता है। माइटोकॉन्ड्रिया हमारी सेल का एक छोटा सा हिस्सा हैं जो भोजन को एनर्जी में बदलते हैं। इनको सही या फिट रखने का मतलब है कि हम सेल्स को उनके फंक्शन और रिपेयर के लिए भरपूर एनर्जी दे रहे हैं। Metformin, कैंसर सेल का मेटाबॉलिज्म भी रोकती है। 2017 में हुई एक स्टडी से पता चला कि जिन बुजुर्ग लोगों को metformin की खुराक दी गई उनमें डिमेंशिया 4%, दिल की बीमारियां 19% और कमजोरी 24% तक कम हो गई। हो सकता है कि हमारे सामने ही metformin, rapamycin या ऐसी कोई और दवा एंटी एजिंग के लिए चलन में आ जाए। इस बीच वैज्ञानिक इस बात पर भी काम कर रहे हैं कि senescent cells जिनको जॉम्बी सेल भी कहा जाता है उनसे कैसे निपटा जाए।

एजिंग से छुटकारा पाने के लिए जॉम्बी सेल से निपटना जरूरी है।
जॉम्बी शब्द फिल्मों में जितना डरावना होता है सेल्स के लिए भी उतना ही डरावना है। इसलिए एजिंग से दूर रहने के लिए इनको सबसे पहले टार्गेट करना जरूरी है। सेल्स पर समय का असर होने लगता है। उनका DNA डैमेज हो जाता है और उनमें replicate करने के लिए जरूरी नॉलेज खत्म हो जाती है। इतना ही नहीं जब senescent सेल्स इकट्ठी होने लगती हैं तो वो एजिंग को और तेज बना देती हैं। ये अपना सही काम तो नहीं करतीं पर काम करना बंद भी नहीं करती हैं। चुपचाप खत्म हो जाने की जगह वो गलत और झूठे पैनिक सिग्नल भेजकर शरीर को इमरजेंसी की हालत में बनाए रख सकती हैं। इसकी वजह से आसपास की सेल्स भी senescent बनकर एजिंग को बढ़ावा देने लगती हैं। अब ये जॉम्बी सेल्स, साइटोकिन्स नाम की प्रोटीन रिलीज करती हैं जो इन्फ्लामेशन की वजह बनता है और ये इन्फ्लामेशन, दिल की बीमारियों और डिमेंशिया जैसी उम्र से जुड़ी कई बीमारियों की जड़ है। DNA के डैमेज होने की बहुत सी वजह हो सकती हैं। एनाटॉमी के एक्सपर्ट लियोनार्ड हेफ्लिक के हिसाब से टीलोमरेज का आकार घटते जाना इसकी एक बड़ी वजह है। टीलोमरेज को एक तरह की कैप समझ लीजिए जो हर सेल के DNA सीक्वेंस के आखिरी हिस्से को कवर करती है। सेल डिवीजन को ध्यान से देखने पर लियोनार्ड ने पाया कि जैसे जैसे सेल डिवाइड होती जाती हैं उनके टीलोमरेज छोटे होते जाते है और एक वक्त ऐसा आता है जब DNA strand खुला रह जाता है। 

इसकी वजह से दो चीजें हो सकती हैं। एनाटॉमी के एक्सपर्ट लियोनार्ड हेफ्लिक के हिसाब से टीलोमरेज का आकार घटते जाना इसकी एक बड़ी वजह है। टीलोमरेज को एक तरह की कैप समझ लीजिए जो हर सेल के DNA सीक्वेंस के आखिरी हिस्से को कवर करती है। सेल डिवीजन को ध्यान से देखने पर लियोनार्ड ने पाया कि जैसे जैसे सेल डिवाइड होती जाती हैं उनके टीलोमरेज छोटे होते जाते है और एक वक्त ऐसा आता है जब DNA strand खुला रह जाता है। 

इसकी वजह से दो चीजें हो सकती हैं। एक तो सेल ये समझ ले कि DNA की चेन टूट रही है और वो टूटी कड़ियां जोड़कर उसे रिपेयर करने की कोशिश करे। लेकिन अगर ये कड़ियां गलत ढंग से जुड़ जाएं तो वही सेल कैंसर सेल में बदल सकती है। इसकी जगह ये भी हो सकता है कि epigenome एक्टिव हो जाए और sirtuins को उस सेल को रोक देने का सिग्नल भेज दे। इस तरह कैंसर सेल तो नहीं बनतीं पर senescent जॉम्बी सेल जरूर इकट्ठी होने लगती हैं। इससे बचने का क्या तरीका है? जवाब थोड़ा मुश्किल है। हमें इन सेल्स से इस तरह छुटकारा पाना है जिससे आसपास की सेल्स को कोई नुकसान न पहुंचे। इसमें Senolytics ग्रुप की दवाएं कारगर साबित हो सकती हैं। ये दवाएं खास तौर पर senescent सेल्स को टार्गेट करती हैं। मेयो क्लीनिक में चूहों पर दो तरह के senolytic से रिसर्च की जा चुकी है। एक है केल और प्याज में पाया जाने वाला quercetin और दूसरा है कीमोथेरेपी में इस्तेमाल होने वाला dasatinib. जिन चूहों को ये दोनों दवाएं दी गईं वो अपनी एवरेज उम्र से 36% ज्यादा जिए। हालांकि इतनी रिसर्च से किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा जा सकता पर इस बात की उम्मीद मिलती है कि एजिंग पर इन दवाओं का असर जरूर हो सकता है।

एजिंग को रीसेट करने का बटन मिल सकता है।
साल 1996 में भेड़ की एक सेल लेकर डॉली नाम की क्लोन भेड़ बनाई गई थी। दुनिया इस चमत्कार पर हैरान रह गई। हालांकि कुछ वैज्ञानिकों के लिए इससे बड़ा चमत्कार था वो पैरेंट सेल जिससे क्लोनिंग की गई। इसके लिए एक बुजुर्ग भेड़ की सेल इस्तेमाल की गई थी। यानि बड़ी उम्र वाली सेल्स में भी यंग सेल्स बनाने की ताकत होती है जिनके DNA तक में यंग सेल्स के फीचर होते हैं। तो अगर हमारे DNA में ही युवा रहने की क्वालिटी है तो क्या हम एजिंग के बटन को घुमाकर वापस पहले की तरह नहीं हो सकते? इसका जवाब हां हो सकता है। अब हम ये समझ चुके हैं कि सेल्युलर इन्फॉर्मेशन के घटने की वजह से एजिंग होती है। हालांकि इसका डेटा हैरान कर देता है। वैज्ञानिकों का मानना है कि अपनी लाइफ में हम लगभग 80% सेल्युलर इन्फॉर्मेशन खो देते हैं। हालांकि क्लोनिंग की वजह से इतना तो साफ हो गया है कि ये इन्फॉर्मेशन हमारे DNA में किसी जगह सेफ रहती है जिसे वापस निकाला जा सकता है। 

जापान के वैज्ञानिक शिनया यमानाका के हाथ शायद इस ताले की चाबी लग चुकी है। इन्होंने चार ऐसी जीन्स की खोज की है जिनको pluripotent stem cells में बदला जा सकता है यानि ऐसी यंग सेल्स जिनको epigenome ने अभी तक काम पर नहीं लगाया हो। इन जीन्स को यमानाका फैक्टर कहा जाता है। इनको शरीर के किसी भी काम में लगाया जा सकता है। हार्वर्ड के वैज्ञानिकों ने चूहों पर इसका एक्सपेरिमेंट करके अच्छे नतीजे हासिल किए हैं। अगर इंसानों पर ये एक्सपेरिमेंट सफल हो जाए तो दुनिया का नजारा कैसा होगा? हो सकता है अपने 30s में हमें यमानाका फैक्टर का इंजेक्शन दे दिया जाए। चालीस की उम्र तक कुछ नहीं होगा पर जैसे ही अब हमें doxycycline जैसी कोई अगली बूस्टर डोज मिलेगी तो वो यमानाका फैक्टर को एक्टिवेट करके सेल्स को रीप्रोग्राम करने लगेगी। फिर 60s, 70s और 80s या शायद उससे आगे भी हम बूस्टर डोज लेते रहेंगे। लेकिन एक ऐसी दुनिया जहां एवरेज एज 100 से ऊपर हो जाए वो कैसी नजर आएगी?

एजिंग दुनिया के लिए एक वरदान भी हो सकती है।
आज तक दुनिया में 100 बिलियन से भी ज्यादा लोग आ चुके हैं। इनमें से बस एक ही इंसान 120 साल से ज्यादा जी पाए। ये थीं फ्रांस की जीन कैलमेंट। इनकी मृत्यु साल 1997 में हुई। इनकी सही उम्र तो नहीं पता चली पर ये माना जाता था कि वो 122 साल तक जीवित रहीं। हममें से लगभग 99% लोग 100 साल भी पूरे नहीं कर पाएंगे। लेकिन जल्द ही ये पर्सेंटेज घट सकती है। एक किताब है जिसका नाम है The 100 Year Life जिसे एल ग्रेटॉन और ए स्कॉट ने लिखा है। 

इसकी मानें तो जापान में साल 2019 में पैदा हुए आधे से ज्यादा बच्चे 107 साल तक जिएंगे जबकि इसी साल यूएस में पैदा हुए बच्चे 104 साल तक। जैसे जैसे वैज्ञानिक एजिंग का इलाज ढूंढने के नजदीक आ रहे है वैसे वैसे लांगिविटी का समय भी बढ़ता जा रहा है। हर महीने की जिंदगी के साथ हम अपनी उम्र को एक हफ्ता बढ़ाते जा रहे हैं। आज भले ही जीन कैलमेंट अपने आप में इकलौता नाम हैं पर आगे इस लिस्ट में उनसे भी ज्यादा जीने वाले लोगों के नाम जुड़ते जाएंगे। 

पर यहां ये सवाल आता है कि वो दुनिया कैसी लगेगी जहां हर इंसान 100 साल से ज्यादा जी रहा होगा? हमारे पास पहले सी ही बुजुर्ग आबादी है। जो लोग रिटायरमेंट की उम्र पार कर जाते हैं उनके लिए जीना कई मायनों में मुश्किल हो जाता है। वे न तो काम करके देश की इकॉनमी में मदद कर पाते हैं ऊपर से उनकी सेहत पर भी कई खर्च होने लगते हैं। इस वजह से वो सरकारी खजाने पर वजन डालते हैं। जब हर इंसान लंबी उम्र जीने लगेगा तो ये वजन और बढ़ जाएगा। लेकिन ये चिंता तब नहीं होगी जब आने वाले कल में इंसान पहले से ज्यादा फिट और हेल्दी होंगे। हम उम्र तो बढ़ा ही रहे हैं पर इसके साथ अगर फिटनेस पर भी काम हो जाए तो आने वाले कल की तस्वीर बदल सकती है। 

सदर्न कैलीफोर्निया यूनिवर्सिटी के इकॉनमिस्ट ये कहते हैं कि एजिंग को आगे बढ़ा दिया जाए तो लोग लंबे समय तक काम करते रहेंगे और GDP की ग्रोथ में पहले से ज्यादा हाथ बंटाते रहेंगे। अगर ऐसा हुआ तो सिर्फ यूएस में ही साल 2069 आने तक $7 ट्रिलियन का मुनाफा हो जाएगा। यूरोप में 2009 में हुई एक स्टडी भी ये कहती है कि जिन देशों में रिटायरमेंट की उम्र कम है वहां GDP भी कम है। अगर लोग लंबे समय तक काम करेंगे तो उनके खर्च करने की ताकत भी लंबे समय तक बनी रहेगी जबकि रिटायर हो जाने के बाद लोग अपने खर्चों में कटौती करने लगते हैं। अगर जिंदगी लंबी होगी तो वो पैसा जो रिटायरमेंट के लिए जमा हो जाता, मार्केट में घूमता रहेगा। इस तरह ग्लोबल इकॉनमी मजबूत होगी। फायदे यहीं खत्म नहीं हो जाते। हम एक ऐसी सोसाइटी में बदलने लगेंगे जो पहले से ज्यादा सेहतमंद, प्रोडक्टिव और खुशहाल होगी। यानि आने वाला कल हमारी मुट्ठी में होगा।

कुल मिलाकर
अगर आप लंबी और हेल्दी लाइफ जीना चाहते हैं तो एजिंग से दूर रहना होगा। एजिंग हमारे जीवन की सच्चाई नहीं बल्कि एक बीमारी है। यानि इसे ठीक किया जा सकता है और इससे बचा भी जा सकता है। जेनेटिक्स में हो रही नई रिसर्च इस पर काम कर रही हैं कि एक रिवर्स गियर मिल जाए और एजिंग को वापस मोड़ दिया जाए। हम जल्द ही ऐसी दुनिया में कदम रख सकते हैं जहां एजिंग का नामोनिशान तक नहीं होगा और लोग पहले से ज्यादा लंबी जिंदगी जी रहे होंगे। 

 

क्या करें?

जिम की तरफ कदम बढ़ाएं।

फास्टिंग की मदद से ब्लू जोन के लोग अपने शरीर को एक जरूरी स्ट्रेस में बनाए रखते हैं। इस वजह से लांगिविटी जीन्स एक्टिव तो रहती हैं पर एग्रेशन में नहीं आतीं। लेकिन इसके लिए फास्टिंग के अलावा भी रास्ते हैं। रोज एक्सरसाइज करने से भी वही असर पड़ता है जो फास्टिंग से होता है। तो तैयार हो जाइए। जिम में बिताया एक घंटा भी आपकी जिंदगी में कई हफ्ते बढ़ा सकता है। 

 

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