Josef Pieper
The Basis of Culture
दो लफ्जों में
चाहे स्टूडेंट्स हों, कामकाजी लोग या फिर घर संभालने वाले सब लगभग एक फिक्स रूटीन पर काम करते हैं। लेकिन जब कभी फुर्सत या छुट्टी जैसा शब्द कानों में गूंजता है तो खुशी का ठिकाना ही नहीं रहता। चाहे लंबी छुट्टी पर जाकर लंबा ब्रेक लेना हो या दिन का एक छोटा हिस्सा आराम करने को मिल जाए ऐसा लगता है जैसे कोई खजाना हाथ लग गया हो। पर क्या समाज में हमेशा से इन शब्दों की यही जगह या महत्व था? साल 1952 में आई ये किताब आपको उस दौर में ले जाती है जब आराम, फुर्सत या छुट्टी जैसे शब्दों ने समाज में एक बड़ी भूमिका निभाई जिससे पूजा पाठ, सोच विचार और चिंतन के लिए जगह बनी। दो वर्ल्ड वॉर के बाद की दुनिया में एक ऐसी सोच उभरी जो लोगों को बिना आराम दिए लगातार काम कराते रहने को सही ठहराकर उनका शोषण करने लगी। इस वजह से आज आराम करना आलस की निशानी माना जाता है। लेकिन मामूली सा लगने वाला ये शब्द इतने मायने रखता है कि हमें हर हाल में इसे अपनी जिंदगी का हिस्सा बनाए रखना चाहिए। हमारी जिंदगी में आराम शामिल होना ही चाहिए।
ये किताब किनको पढ़नी चाहिए?
• जो लोग वर्क-लाइफ बैलेंस का फेवर करते हैं
• वर्ल्ड वॉर के बाद के समाज में रुचि रखने वाले स्टूडेंट्स
• जो लोग समाज में leisure, intellectual pursuit और labor के इतिहास को जानना चाहते हैं
लेखक के बारे में
जोसेफ पीपर एक जर्मन दार्शनिक थे जिन्होंने एक्विनास और प्लेटो के काम की स्टडी की थी। वो मुन्स्टर यूनिवर्सिटी में philosophical anthropology के प्रोफेसर भी थे।
पोस्ट वॉर की दुनिया में आराम शब्द का मतलब पूरी तरह बदल गया था।
अब हम दिन में लगभग आठ घंटे काम करते हैं और फिर अगली सुबह तक छुट्टी का मजा लेते हैं। हममें से कुछ लोग थोड़े ज्यादा घंटे काम करते हैं जबकि कुछ ऐसे भी हैं जो कभी भी काम करना बंद नहीं करते हैं। हमारी लाइफ हमारे काम से तय होती है। इस वजह से फुर्सत के लिए बहुत कम समय बचता है। लेकिन फुर्सत का मतलब क्या है? क्या ये आलस है? क्या ये काम से बचने का बहाना है? या फिर फुर्सत का मतलब टीवी, सोशल मीडिया और फोन पर बिताया गया वक्त होता है? या ये इन सबसे अलग कोई वक्त है? इस किताब में पुराने ग्रीक फिलॉस्फरों के विचारों से आपको फुर्सत का सही मतलब समझ आएगा। आप ये जानेंगे कि ये काम से कैसे जुड़ा हुआ है और समय के साथ कैसे बदल गया है। आप इस शब्द के नए मायने समझेंगे और ये भी कि इसका भरपूर आनंद लेने के लिए आपको क्या करना चाहिए।
इस किताब को पढ़कर आप जानेंगे
• ग्रीस में पिछले कुछ समय तक "वर्क" शब्द क्यूं नहीं होता था
• पुराने जमाने में ग्रीस में दिमागी काम को काम क्यों नहीं समझा जाता था
• काफी लोगों को आराम शब्द से नफरत क्यों है
तो चलिए शुरू करते हैं!
आपको आखिरी बार पूरी तरह से फुर्सत कब मिली थी? ज्यादातर कामकाजी लोगों के लिए अपने काम से हटकर किसी मनपसंद चीज में समय बिताना जैसे खत्म ही हो चुका है। जबकि लंच पर क्लाइंट मीटिंग या छुट्टी वाले दिन भी अपने ईमेल पढ़ते रहना जारी रहता है। जबकि किसी जमाने में आराम शब्द अपना महत्व रखता था। फुर्सत और काम कभी समय बिताने के दो अलग-अलग तरीके थे। ग्रीस में पुराने जमाने में इसका सही मतलब था वो समय जब आप intellectual horizons बढ़ाने के लिए कुछ करें। ग्रीक भाषा में leisure के लिए पुराना शब्द skole था। नए जमाने में अंग्रेजी ने उस शब्द को सीखने की जगह या "स्कूल" में बदल दिया। पुराने दौर में भी काम और फुर्सत के बीच के तालमेल पर साफ नजरिया था जो इस कहावत से जाहिर होता है - "हम आराम करने के लिए आराम नहीं कर रहे हैं।" यानि "We are un-leisurely in order to have leisure." जिंदगी में अच्छी चीजों के लिए समय निकालने के लिए काम किया जाना चाहिए ये उस समय की सोच थी। ग्रीस में रोजमर्रा के कामों के लिए "a-scolia," शब्द इस्तेमाल होता था इसका मतलब आप leisure का antonym समझ सकते हैं। Leisure समाज में एक बड़ी जगह रखता था।
बीसवीं सदी आते तक चीजें एकदम से बदल गईं जब "total work" नाम शब्द चलन में आ गया। अब जिंदगी में एक चीज मायने रखती थी कड़ी मेहनत और आराम के लिए बहुत कम समय रहने लगा। दो वर्ल्ड वॉर से तहस नहस हो चुकी दुनिया में इस सोच ने लोगों और परिवारों को घर, शहर और जिंदगी को दुबारा बसाने के लिए ताकत दी। कैपिटलिज्म पर 1934 में की गई स्टडी के बाद समाजशास्त्री मैक्स वेबर का ये कोट बहुत फेमस हुआ था "हम जीने के लिए काम नहीं करते हैं, हम काम करने के लिए जीते हैं।" आगे हम काम और आराम को लेकर पुरानी और नई सोच के बीच आ गए फर्क पर गहराई से बात करेंगे जिसकी शुरुआत intellect को लेकर अलग-अलग नजरिये से होती है।
Total work के आ जाने से intellectual contemplation को ज़ंग लगता जा रहा है।
कल्पना कीजिए कि एक दार्शनिक अपनी मेज पर बैठा है और दुनिया के बारे में सोच विचार कर रहा है। क्या वो काम कर रहा है? या वो खाली समय का मजा ले रहा है? अगर आप पुराने दौर के थिंकर्स से ये सवाल पूछें तो वे कहेंगे कि intellectual activity काम नहीं है। पर उनके ऐसा कहने की क्या वजह है? इसका जवाब देने के लिए पहले contemplation और observation का फर्क समझना होगा। Contemplation एक पैसिव काम है। इसके लिए किसी तरह की फिजिकल एक्टिविटी की जरूरत नहीं होती है। जबकि observation एक active काम है जिसमें आप डेटा पर ध्यान देते हैं। जैसे किसी गुलाब की सुंदरता की तारीफ करना contemplation है और उसके कांटों की गिनती करना, उसकी पंखुड़ियों के पैटर्न को समझना observation है।
अरस्तू जैसे थिंकर्स ने contemplation को intellectual काम समझा जबकि observation को ratio का। Contemplation में कल्पना काम करती है जबकि observation में लॉजिक चलते हैं। इस तरह के दार्शनिकों का ये भी मानना था कि एक सारहीन, न दिखने वाली चीज जैसे किसी भावना को भी physical चीजों की तरह ही देखा जा सकता है। ये सोच मॉडर्न फिलॉसफी के आने के साथ विवाद की बड़ी वजह बनी। जर्मन दार्शनिक इमैनुएल कांट के विचारों से ये साफ जाहिर होता है। कांट ने कहा कि विश्वास जैसी सबसे abstract चीजें भी ratio की वजह से आती हैं। जिसके लिए लॉजिक, राजनिंग और तुलना जरूरी होती है। कांट ने इन सभी चीजों को काम का एक रूप माना है। इस मॉडल ने आज समाज में चल रही total work की सोच को बढ़ावा दिया है। इसने दिमागी कसरत को निगल लिया है। इसकी वजह से "intellectual work" और "intellectual worker" जैसे शब्द चलन में आ गए हैं।
आज फुर्सत को खाली बैठने की तरह समझ लिया जाता है और ऐसा करने वालों को बुरी नजर से देखा जाता है।
आपके लिए सबसे जरूरी क्या है? एक स्किल को मजबूत करना जिसमें आपका समय और मेहनत लगे या एक हफ्ते के अंदर कोई ट्रिक सीख लेना? अगर आपको पहली बात पसंद है तो इस बात की पूरी संभावना है कि आप भी total work की सोच से इत्तेफाक रखते हैं।
हम किसी नॉलेज को पाने के लिए जो कोशिश और मेहनत करते हैं उसे समाज में अच्छी और ऊंची नजरों से देखा जाता है। जैसे किसी जमाने में ग्रीक फिलॉस्फरों का कहना था कि contemplation तो काम है ही नहीं। इस आधार पर ऐसे काम करने वालों को समाज में उतना महत्व नहीं दिया गया जबकि ऐसे काम जो हम आसानी से करते आए या कर सकते हैं उनको सही समझा गया।
इसी वजह से फुर्सत या आराम की जिंदगी को आलस या सेल्फ सेंटर्ड होना मान लिया गया। मेहनतकश जिंदगी को ऊंचे पायदान पर रखा गया यानि काम न करना एक तरह का पाप हो गया। लोग काम न करने का ये भी मतलब निकालने लगे कि खाली बैठा इंसान जीना नहीं चाहता है क्योंकि भगवान ने हमें एक प्रोडक्टिव लाइफ जीने के लिए भेजा है। लेकिन अब समय आ गया है कि फुर्सत और खाली बैठने का फर्क समझा जाए। फुर्सत का मतलब काम या जिंदगी से भागना नहीं है बल्कि दिमागी शांति तक पहुंचना है। Leisure के मायने work से उलट नहीं हैं बल्कि ये काम और इंसानों की जिंदगी का एक जरूरी हिस्सा है। फुर्सत को अपनी जिंदगी में वापस लाकर हम काम करते हुए पड़ने वाले दबाव और तनाव को खुद से दूर कर सकते हैं जो हर वक्त हम पर हावी रहता है।
Total work के चंगुल से निकलने के लिए कामकाजी लोगों को फुर्सत मिलनी ही चाहिए।
कामकाजी लोगों की डिक्शनरी में आराम शब्द आता ही नहीं है। इसे बदलने के लिए कामकाजी होने का मतलब ही बदल दिया जाए तो? लेकिन ये सोचने जितना आसान नहीं है। ये शब्द worker उन दो लोगों के बीच के फर्क को साफ कर देता है जो काफी पढ़े लिखे हैं, दिमागी काम करते हैं और दूसरे वो जो कम पढ़े लिखे हैं और फिजिकल लेबर करते हैं। इसके लिए सबे पहले पढ़े लिखे इंसान और लेबर क्लास के बीच फर्क करने वाली मौजूदा सोच पर ध्यान देना होगा। एक दिमागी काम करने वाले को भी फुर्सत मिलनी चाहिए और एक फैक्ट्री में काम करने वाले को भी। पर इन सबको leisure मिले ये कैसे तय होगा? लोगों की पोजीशन और स्टेटस का भेदभाव न करते हुए सबको एक जैसा समझकर।
इस समय निचले पायदान पर खड़ा इंसान काम करने के लिए मजबूर है। या तो इसलिए क्योंकि उसके पास पैसे नहीं हैं और उसे जिंदा रहने के लिए काम पर निर्भर रहना पड़ता है। या फिर इसलिए कि देश का बुनियादी ढांचा ही ऐसा है जो उसे काम पर लगाए रखता है या फिर वो काम में इतना डूबा हुआ है कि वो काम के अलावा कुछ और सोच ही नहीं सकता है यानि काम के अलावा भी जिंदगी होती है। इनको इस जाल से निकालने की जरूरत है। एक ऐसा जीवन जीने के बजाए जहां काम में अच्छी परफार्मेंस देना ही सब कुछ माना जाए, ऐसे लोगों को फाइनेंशियल सिक्योरिटी, भरपूर छुट्टियां जैसी बुनियादी चीजें दी जानी चाहिए जिसे आज का समाज आजादी की जिंदगी मानता है। बेशक ये बदलाव करना आसान नहीं है। आगे हम इस पर बात करेंगे।
Total work की सोच ने फुर्सत के असली महत्व को खत्म कर दिया है।
चलिए leisure को लेकर एक बार हम उसी जगह पर लौटते हैं जो पुराने थिंकर्स की सोच थी। इसे पूजा पाठ जैसे डिवाइन काम और सेलिब्रेशन से जोड़ा जाता था। फुर्सत के लिए किसी वजह या बहाने की जरूरत नहीं थी ये रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा था। बाइबिल में ईश्वर पर विश्वास रखने वालों के लिए "day of rest" का कॉन्सेप्ट बना था। इस दिन को काम ही समझा जाता न कि आराम या छुट्टी। ये ईश्वर की उपासना का दिन होता। अपने दिल और दिमाग को पूजा में समर्पित करने के लिए आपका फुर्सत में होना जरूरी था। पुराने समाज में फुर्सत का जितना भी महत्व रहा हो आज हम ऐसी दुनिया में जी रहे हैं जहां इस शब्द का मतलब ही बदल दिया गया है और फुर्सत के लिए कोई वक्त ही नहीं रखा गया है।
Total work पर चलने वाली दुनिया में शनिवार, रविवार और सिक लीव जैसे दिन होते हैं लेकिन इनको फुर्सत देने के हिसाब से नहीं बनाया गया है। बल्कि इनको इसलिए बनाया गया है कि हम हफ्ते भर की थकान दूर करके वापस तरोताजा होकर और ज्यादा ताकत से अपने काम पर लौट सकें। भले ही आज हमारे पास तरह-तरह की लक्जरी है पर कोई भी संतुष्ट नहीं है। हमारे पास लाइफ का कोई मकसद ही नहीं है। हम पूजा पाठ, ध्यान जैसी चीजों के लिए समय नहीं देते हैं। इस वजह से फुर्सत का असली मतलब बदलकर बस आलस और खाली बैठना हो गया है। समाज में फुर्सत के सही मायने लाकर हम उस समय का आनंद लेना सीख सकते हैं जो हम काम से दूर रहकर बिताते हैं और खुद को दुनिया, ईश्वर और शांति से जोड़ सकते हैं।
कुल मिलाकर
वर्ल्ड वॉर के बाद की दुनिया में फुर्सत का सही मतलब खो गया है। "Total work" पर चलने वाले समाज के दबाव की वजह से काम से दूर रहने को आलस माना जाता है। यहां तक कि intellectual activity को कड़ी शारीरिक मेहनत के बराबर मान लिया गया है। फुर्सत के पुराने मायने और जिंदगी और समाज में इसकी पुरानी भूमिका को वापस लाकर हम भरपूर और खुशहाल जीवन जी सकते हैं।
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