How Brands Grow...

0
How Brands Grow

Byron Sharp
मार्केटिंग के साइंटिफिक तरीके

दो लफ्जों में
ये किताब मार्केटिंग की दुनिया में चले आ रहे टिपिकल तरीकों को खारिज करते हुए कुछ नए और साइंटिफिक तरीकों की जानकारी देती है। इनकी मदद से मार्केटर बहुत फायदा उठा सकते हैं।

  ये किताब किनको पढ़नी चाहिए?
• मार्केटिंग की फील्ड से जुड़े लोग
• जिनको मार्केटिंग सब्जेक्ट में दिलचस्पी है
• जो लोग ये समझना चाहते हैं कि विज्ञापन कैसे अपना असर दिखाते हैं 

लेखक के बारे में
बायरन शार्प, साउथ ऑस्ट्रेलिया यूनिवर्सिटी में मार्केटिंग साइंस के प्रोफेसर हैं। उन्होंने मार्केटिंग में रिसर्च के महत्व और जरूरत पर सौ से ज्यादा आर्टिकल लिखे हैं। उनका फोकस इस बात पर रहता है कि मार्केटिंग के नियम आम जीवन में मिले अनुभवों पर आधारित हों।

  ये किताब आपको क्यों पढ़नी चाहिए? 
ताकि आप जान सकें कि मार्केटिंग की सफलता के पीछे कौन से राज़ होते हैं।
कभी आपने सोचा है कि मार्केटिंग एक्सपर्ट ये कैसे तय करते हैं कि किसी खास ब्रांड की मार्केटिंग कैसे करनी है? वो प्रेक्टिकल और नए तरीके अपनाते हैं या फिर वही करते हैं जो दशकों से होता आया है? ब्रायन का मानना है कि वो ज्यादातर वही घिसे-पिटे और पुराने तरीकों से ब्रांडिंग कर देते हैं। ये किताब इस आदत को बदलने की बात करती है। किसी मार्केटर के दिमाग में कोई स्ट्रैटेजी बनाते हुए तरह-तरह के सवाल आते हैं। जैसे किसी प्रोडक्ट को सेल में रखकर बिक्री बढ़ाई जाए या पुराने ग्राहकों को जोड़े रखने पर ध्यान दिया जाए या फिर नए ग्राहक बनाने पर फोकस किया जाए? ये किताब इन सब सवालों के जवाब देकर आपकी मदद करती है। आपको ये भी पता चलेगा कि ग्राहक कुछ खरीदते हुए optimize की जगह satisfice पर जोर क्यों देते हैं। अगर आपको इन शब्दों की जानकारी नहीं है तो वो भी इस किताब को पढ़कर मिल जाएगी। आप ये भी जानेंगे कि विज्ञापन पुराने ग्राहकों को बनाए रखने के लिए जरूरी नहीं है बल्कि इससे नए ग्राहक बनाने में मदद मिलती है और जहां भी कॉफी की जरूरत होती है आसपास Starbucks कैसे मिल जाता है।

मार्केटिंग में आपको पुराने तरीकों पर आंख बंद करके भरोसा करने की जगह उन तरीकों का इस्तेमाल करना चाहिए जो साइंस के नजरिए पर खरे उतरते हों।
सदियों से डॉक्टर bloodletting के तरीके से इलाज करते आ रहे थे। चाहे कोई बीमारी होती सबका यही इलाज होता। फिर विज्ञान ने तरक्की की और पता चला कि ये तरीका बिल्कुल भी असरदार नहीं था। इसी तरह मार्केटिंग में भी एक जमाने से वही पुराने तरीके और नियम चलते आ रहे हैं। जबकि ये कितने असरदार होते हैं इसका कोई सबूत नहीं है। ऐसी ही एक मान्यता ये है कि हर ब्रांड के पास बराबर संख्या में पक्के ग्राहक और स्विचर्स होने चाहिए। स्विचर्स उनको कहा गया है जो एक ब्रांड से दूसरे ब्रांड को चुनते रहते हैं। इसके उदाहरण के लिए टूथपेस्ट के ब्रांड कोलगेट और क्रेस्ट को लेते हैं। साल 1989 में एक मार्केट स्टडी से पता चला कि कोलगेट के कस्टमर बेस में 21 प्रतिशत पक्के ग्राहक थे और 68 प्रतिशत स्विचर। जबकि क्रेस्ट के पास 38 प्रतिशत पक्के ग्राहक और सिर्फ 46 तिशत स्विचर थे। इस डेटा ने कोलगेट के मार्केटिंग मैनेजरों के माथे पर चिंता की लकीर खींच दी। उनको ये महसूस हुआ कि पक्के ग्राहक बनाए रखने के लिए उनको और ज्यादा असरदार विज्ञापन बनाने चाहिए। हालांकि मार्केटिंग के दूसरे कई नियमों की तरह ये भी गलत है। मार्केटिंग से जुड़ा एक साइंटिफिक फैक्ट है जिसे double jeopardy law कहा जाता है। ये नियम कहता है कि जिन ब्रांडों का मार्केट शेयर कम होता है उनके पास ग्राहक भी कम होते हैं और ये ग्राहक बड़े मार्केट शेयर वाले ग्राहकों की तुलना में कम लॉयल होते हैं। यानि ये कभी भी स्विचर में बदल सकते हैं। इससे पता चलता है कि ग्राहकों का बाइंग पैटर्न, ब्रांड के साइज से प्रभावित होता है। कोलगेट का मार्केट शेयर 19 प्रतिशत और क्रेस्ट का 37 प्रतिशत होने की वजह से ये स्वाभाविक है कि कोलगेट के पास क्रेस्ट की तुलना में पक्के ग्राहक कम और स्विचर ज्यादा होंगे। इस नियम को देखते हुए कोलगेट की मार्केटिंग टीम को परेशान नहीं होना चाहिए क्योंकि ये डेटा उनकी कमजोर मार्केटिंग की वजह से नहीं है बल्कि मार्केट शेयर की वजह से है। इस उदाहरण से हमें ये समझ आता है कि मार्केटिंग में हमें वो तरीके अपनाने चाहिए जो साइंस की कसौटी पर जांचे परखे गए हों। क्योंकि इसी तरह आपके पास आपकी कोशिश और उसके नतीजों की एक क्लीयर इमेज उभर पाती है। 

अपना कस्टमर बेस बढ़ाने के लिए पुराने ग्राहकों को जोड़े रखने के बजाए नए ग्राहक बनाने पर फोकस कीजिए। कोई ब्रांड बड़ा कैसे बनता है? इसका सीधा सा जवाब है कि जितने ज्यादा लोग किसी ब्रांड से जुड़ते हैं वो उतना बड़ा ब्रांड होता है। लेकिन बड़ा कस्टमर बेस आखिर बनता कैसे है? इसके दो तरीके होते हैं। नए ग्राहक बनाना और पुराने ग्राहकों को खुद से दूर न होने देना। हालांकि मार्केटिंग की पुरानी थ्योरी ये मानती है कि कंपनी के लिए नए ग्राहक बनाने से ज्यादा जरूरी है कि पुराने ग्राहक आपके ब्रांड के साथ बने रहें। साल 1990 में कस्टमर मैनेजमेंट के टॉपिक पर एक फेमस आर्टिकल छपा था। इसमें ये कहा गया था कि अगर कंपनी सिर्फ 5 प्रतिशत पुराने ग्राहक भी रोके रखती है तो उसका मुनाफा 100 प्रतिशत तक बढ़ सकता है। लेकिन ये गलत है। इस बात का कोई आधार नहीं था। इसके अलावा एक गलत फैक्ट को घुमा फिराकर परोस दिया गया था। सही कैलकुलेशन के हिसाब से यहां उनको 5 की जगह 50 प्रतिशत कहना चाहिए था। किसी भी ब्रांड की ग्रोथ के लिए सबसे जरूरी है नए ग्राहक बनाना। किसी कंपनी के ग्राहकों की स्विचिंग काफी हद तक उसके मार्केट साइज पर आधारित होती है। यानि इस पर रोक लगा पाना मुश्किल है। इस वजह से मार्केट लीडर के पास लॉयल कस्टमर सबसे ज्यादा होंगे जबकि सबसे छोटी कंपनी के पास स्विचर्स सबसे ज्यादा होंगे। ऑस्ट्रेलियाई बैंकों की स्टडी से भी यही बात सामने आई है। CBA ऑस्ट्रेलिया का सबसे बड़ा बैंक है। इसका मार्केट शेयर 32 प्रतिशत है। इसमें स्विचिंग बस 3.4 प्रतिशत थी। जबकि 0.8 प्रतिशत मार्केट शेयर वाले सबसे छोटे एडिलेड बैंक की स्विचिंग 8 प्रतिशत थी। अब ब्रांड और खास तौर पर छोटे ब्रांड इस बात को तो कंट्रोल नहीं कर सकते कि ग्राहक स्विचिंग न करें। इसलिए उनको नए ग्राहक बनाने पर जोर देना चाहिए।

कंपनी की लगभग आधी सेल्स उन ग्राहकों से आती है जो उसके परमानेंट ग्राहक नहीं हैं।
आप कोका कोला किस हिसाब से खरीदते हैं? रोज, हफ्ते में एक बार या साल में एकाध बार? अगर हम खपत की बात करें तो दो तरह के लोग होते हैं। ज्यादा खपत करने वाले यानि हैवी कन्ज्यूमर और कम खपत करने वाले यानि लाइट कन्ज्यूमर। लाइट कन्ज्यूमर किसी प्रोडक्ट को कभी कभार ही खरीदते हैं। जबकि हैवी कन्ज्यूमर किसी चीज को अक्सर खरीदते रहते हैं। कोका कोला के पास भी ऐसे ग्राहक हैं। कुछ तो लगभग रोजाना या कम से कम हफ्ते में एक बार तो इसे खरीदते ही हैं जबकि कुछ बस गिने चुने मौकों पर ही। ज्यादातर ब्रांड इस बात को मानते हैं कि दोनों तरह के ग्राहक परेटो के सिद्धांत का पालन करते हैं। इसके हिसाब से 80 प्रतिशत इफेक्ट के पीछे 20 प्रतिशत cause होता है। सेल्स के नजरिए से इस बात का ये मतलब निकलता है कि किसी प्रोडक्ट के हैवी बायर यानि 20 प्रतिशत ही सेल्स के लगभग 80 प्रतिशत हिस्से के भागीदार होते हैं। इस वजह से ज्यादातर ब्रांड अपनी मार्केटिंग में हैवी बायर्स को बनाए रखने पर फोकस करते हैं। लेकिन सबूत कुछ और ही कहते हैं। सही आंकड़ा 80/20 का नहीं बल्कि 60/20 का है। यानि सेल्स में इन ग्राहकों का योगदान 80 नहीं बल्कि 60 प्रतिशत होता है। मतलब आधे से बस थोड़ा ज्यादा। साल 2007 की एक स्टडी में डव, निविया और एडिडास जैसे ब्रांडों के बॉडी स्प्रे और डिओडोरेंट की बिक्री में इस बात की जांच की गई। इसमें ये पाया गया कि हैवी बायर्स टोटल सेल्स में बस 46 और 53 प्रतिशत हिस्सेदार थे। मार्केटर आमतौर पर हैवी बायर्स को अपने साथ बनाए रखने की कोशिशों पर ध्यान लगाते हैं और लाइट बायर्स को नजरअंदाज करते हैं। क्योंकि उनके हिसाब से ऐसे लोग सेल्स में बस 20 प्रतिशत भागीदार बनते हैं। लेकिन यही लाइट बायर्स सेल्स में लगभग 50 प्रतिशत हिस्सा देते हैं। इसलिए अगर मार्केटिंग स्ट्रैटेजी में ऐसे खरदारों पर भी फोकस किया जाए तो बहुत अच्छे नतीजे मिल सकते हैं। 

ग्राहक किसी ब्रांड को लेकर इतने भी वफादार नहीं होते जितना मार्केटिंग की किताबें कहती हैं। मार्केटिंग की दुनिया में अक्सर ग्राहक और ब्रांड का रिश्ता मजबूत बनाने की बात की जाती है। यानि जब ग्राहक किसी ब्रांड से पूरी तरह जुड़ जाएगा तो वो कोई और ब्रांड नहीं लेगा। इसके पीछे ये माना जाता है कि ब्रांडिंग, ग्राहक की खरीद्री पर बहुत असर डालती है। इस पर एक बहुत फेमस स्टडी की गई है। इसमें भाग ले रहे लोगों को सोडा पीना था पर उनको ये नहीं पता था कि वो कोका कोला पी रहे हैं या पेप्सी और फिर अपनी पसंद बतानी थी। इनको दो तरह के सैम्पल दिए गए। एक पर कोक या पेप्सी लिखा था और दूसरे पर कुछ नहीं लिखा था। हालांकि वो भी पेप्सी या कोक में से ही कोई एक था। हकीकत में दोनों सैम्पल एक जैसे ही थे। टेस्टिंग खत्म होने के बाद जब लोगों से ये कहा गया कि लेबल किया गया सोडा कोक है तो ज्यादातर लोगों ने कहा कि ये बिना लेबल वाले सोडा से अच्छा है। इसके उलट जब ये कहा गया कि लेबल वाला सोडा पेप्सी है तो इन लोगों का कहना था कि बिना लेबल वाला सोडा ज्यादा अच्छा है। इस व्यवहार के लिए वजह दी गई कि कोका कोला के ग्राहक इस ब्रांड को लेकर वफादार हैं जो कंपनी की अच्छी मार्केटिंग स्ट्रैटेजी का नतीजा है। पर सच इससे बिल्कुल अलग है। ग्राहकों और ब्रांडों के बीच भावनात्मक बंधन बहुत कमजोर रहता है। असल में लोगों का बर्ताव बदलता रहता है। अगर आप लोगों से कोई सवाल दो बार अलग वक्त पर पूछेंगे तो आधे लोग दोनों बार अलग-अलग जवाब देंगे। ऑस्ट्रेलिया में फाइनेंशियल सर्विस दे रहे ब्रांडों पर ये स्टडी की गई। इसमें भाग ले रहे लोगों से दो बार अलग-अलग वक्त पर ये सवाल पूछा गया कि क्या ये ब्रांड आपको एक पर्सन के तौर पर महत्व देगा या फिर बिजनेस देने वाले एक ग्राहक के तौर पर? इसमें ANZ और NAB के ग्राहक शामिल थे। पहली बार 11 प्रतिशत लोग ब्रांड के सपोर्ट में थे। उन्होंने पहला जवाब चुना। लेकिन दूसरी बार ANZ के लिए इनमें से 53 प्रतिशत और NAB के लिए 44 प्रतिशत लोगों ने अपना जवाब दुहराया। लगभग आधे लोगों ने जवाब बदल दिया। ज्यादातर ग्राहक इस बात की खास परवाह नहीं करते हैं कि वो कौन सा ब्रांड खरीद रहे हैं। हालांकि बहुत से ग्राहक एक ब्रांड के साथ टिके रहते हैं। पर इसकी वजह ये होती है कि उनको वो खास प्रोडक्ट पसंद होता है न कि ब्रांड।

मार्केटिंग का फोकस ब्रांड को नोटिसेबल बनाने पर होना चाहिए।
जब हम किसी नई या अनजान जगह पर जाते हैं और हमें भूख सता रही होती है तो हम किसी भी नजदीकी रेस्टोरेंट में चल देते हैं। पर कभी आपने ये सोचा है कि हम कोई खास ब्रांड क्यों चुनते हैं? मार्केटर अपने प्रोडक्ट और सर्विस को दूसरों से अलग बनाकर आपका ध्यान आकर्षित करने पर जोर देते हैं। सबका यही कहना है कि उनका प्रोडक्ट यूनीक है। क्योंकि जब आपके सामने एक प्रोडक्ट के इतने ब्रांड होंगे तो आप किसी एक को कैसे चुनेंगे? उदाहरण के लिए मैकडॉनल्ड्स, पिज्जा हट और केएफसी सभी किसी खास तरह का भोजन बेचते हैं। यानि बर्गर, पिज्जा और फ्राइड चिकन। ये सब चीजें एक-दूसरे से अलग हैं इसलिए इनसे अलग-अलग ग्राहकों को आकर्षित होना चाहिए। लेकिन लोगों की नजर में किसी एक सेक्टर में मौजूद ब्रांडों के बीच ज्यादा अंतर ज्यादा नहीं होता है। भले ही ये तीनों स्टोर अलग-अलग चीजें बेचते हैं फिर भी लोगों के लिए ये सब फास्ट फूड ही है बस। ब्रांड डिफरेंस के हिसाब से देखा जाए तो मैकडॉनल्ड्स का कॉम्पिटीशन बर्गर किंग जैसे किसी दूसरे बर्गर बनाने वाले के साथ है न कि केएफसी और पिज्जा हट के साथ। पर सच तो ये है कि ये सभी ब्रांड, फास्ट फूड मार्केट में एक दूसरे के साथ कॉम्पीट कर रहे हैं। इसलिए किसी ब्रांड को दूसरों से अलग करने की कोशिश के बजाए मार्केटर को चाहिए कि वो ब्रांड को और ज्यादा नोटिसेबल बना दे। उसकी विजिबिलिटी ज्यादा कर दे। ये बात मायने नहीं रखती कि आपके ब्रांड के पास कितनी वेरायटी है। लोग किसी ब्रांड को कितनी जल्दी पहचान जाते हैं ये जरूर मायने रखता है। इसके लिए ब्रांड को विजिबल और लोगो (logo) को खास बनाइए। कोका-कोला का लाल बैकग्राउंड या ऊंचाई पर लगा मैकडॉनल्ड्स का गोल्डन आर्च अब हर कोई पहचानता है। आपको भी अपने ब्रांड के लिए इस तरह के रंग और डिजाइन का चुनाव करना चाहिए जो लोगों का ध्यान खींचे। इसलिए जब आप किसी नई जगह पर जाते हैं तो भूख लगने पर कोई खास रेस्टोरेंट या भोजन नहीं ढूंढते। आपको जो भी रेस्टोरेंट सबसे पहले दिख जाता है वहीं चल देते हैं। अब ऐसे में कहीं आपको मैकडॉनल्ड्स का बोर्ड या उसके गोल्डन आर्च दिख जाए तो आपके कदम खुद ब खुद उसकी तरफ बढ़ जाएंगे। 

विज्ञापन हमारी यादें ताजा करके अपना असर छोड़ जाते हैं लेकिन इनको लाइट बायर्स के लिए फोकस किया जाना चाहिए। अभी आपने पढ़ा कि विज्ञापन, ब्रांड की कोई खास मदद नहीं करते। पर क्या इसका मतलब ये है कि इनको सिरे से नकार दिया जाए? इसका जवाब हमें इस बात से मिलेगा कि विज्ञापन अपना काम कैसे करते हैं। विज्ञापनों का मुख्य उद्देश्य ये होता है कि वो हमारी पुरानी यादें ताजा कर दें और इस तरह हम जो खरीदने जा रहे थे उसकी जगह विज्ञापन में दिखाई गई चीज ले आएं। विज्ञापन नई यादें बनाते भी हैं। जैसे गिल्ली डंडा हमें अपने बचपन की याद दिला देता है। किसी बच्चे का टाइम टेबल देखकर हमें अपने एग्जाम के दिन याद आ जाते हैं। इस तरह किसी ब्रांड के साथ हमारी ऐसी जितनी यादें जुड़ी होती हैं हमारी उसे खरीदने की संभावना उतनी ज्यादा हो जाती है। इनको मेमोरी स्ट्रक्चर कहा गया है। ये स्ट्रक्चर हमेशा ताजा किए जाने चाहिए। जैसे-जैसे समय बीतता है लोग बदलते हैं। इसलिए ब्रांड को भी अपडेट करते रहना चाहिए। ताकि वो पुराना न पड़ जाए। कोका कोला जैसे बड़े ब्रांड भी ये नियम फॉलो करते हैं। इसलिए समय-समय पर उनके विज्ञापन भी बदलते रहते हैं। पहले यूएस में कोका कोला को दवा की दुकानों में बेचा जाता था। इसलिए इसके विज्ञापन में उसी दौर की झलक दिखाई दी जब किशोर होते बच्चे गर्मी की छुट्टियों में अपने दोस्तों के साथ मौज मस्ती करते हुए इसे दवा दुकानों से खरीदते थे। ये विज्ञापन लोगों को उनके जीवन के उस मजेदार वक्त की याद दिलाने लगा जब बाकी लोग रम पीते थे और वो अपने दोस्तों के साथ नाइट आउट करते हुए कोका कोला के मजे लेते थे। ऐसे विज्ञापनों ने लोगों को उसी दौर में वापस पहुंचाकर उनको फिर से कोका कोला खरीदने के लिए मजबूर कर दिया। किसी ब्रांड के विज्ञापन में उसके पूरे कस्टमर बेस को टार्गेट करने की जरूरत नहीं होती है। क्योंकि मुख्य रूप से लाइट बायर्स ही इससे प्रभावित होते हैं। हैवी बायर्स को इस तरह से पुश करने की जरूरत नहीं होती है क्योंकि वो तो हर हाल में अपने ब्रांड के साथ ही रहते हैं। लाइट बायर्स अपनी सोच लगातार बदलते रहते हैं। कभी उनको कुछ खरीदना होता है तो कभी कुछ और। आखिर में वो क्या खरीदेंगे इसका फैसला बहुत सी बातों पर आधारित होता है और विज्ञापन उनमें से एक हैं। विज्ञापन की वजह से लाइट बायर्स ब्रांड को याद भी रखते हैं।

प्राइसिंग की स्ट्रैटेजी बहुत सोच समझकर बनानी चाहिए।
हम सबने दुकानों में "सेल" वाले बोर्ड लगे देखे हैं। कभी आपके मन में ये सवाल आया कि ब्रांड अपनी कीमतों को भी प्रमोशन के लिए इस्तेमाल क्यों करते हैं? क्योंकि उनको इसका बहुत अच्छा नतीजा मिलता है और थोड़े ही समय में बिक्री बहुत बढ़ जाती है क्योंकि इस तरह का प्रमोशन उन ग्राहकों को भी आकर्षित कर लेता है जो ज्यादा खरीदारी नहीं करते। ऐसे लोगों के लिए कोई खास ब्रांड उतना मायने नहीं रखता और ये लोग कीमत देखकर चीजें लेना ज्यादा पसंद करते हैं। लेकिन इस तरह के प्रमोशन का असर बहुत कम देर के लिए रहता है। क्योंकि सेल खत्म हो जाने पर चीज अपनी पुरानी कीमत पर आ जाती है। इस वजह से बिक्री भी पुराने लेवल पर आ जाती है। लेकिन ज्यादा सेल्स का मतलब ज्यादा मुनाफा हो ये भी जरूरी नहीं है। क्योंकि कीमत घटाने का मतलब है प्राॅफिट मार्जिन कम करना। इसलिए जब कभी आप सेल लगाने की सोचते हैं तो आपको बहुत सोच समझकर कीमत तय करनी चाहिए। इसे एक उदाहरण से समझते हैं। मान लीजिए आप एक स्वेटर बेच रहे हैं। आप इसे 100 रुपए में बेचते हैं पर इसकी असल कीमत है 70 रुपए। ऐसे में अगर आप 10% की सेल लगाते हैं तो आपको 100 रुपए के बदले 90 रुपए ही मिलेंगे। यानि 30 रुपए के बदले 20 रुपए का प्रॉफिट। अब अगर बाकी दिनों में आप चार स्वेटर बेचकर 120 रुपए कमाते थे तो सेल लगाने पर इतनी कमाई के लिए 6 स्वेटर बेचने पड़ेंगे। वरना पांच स्वेटर बेचकर भी आपका नुकसान ही है। प्राइस प्रमोशन का एक साइड इफेक्ट ये भी होता है कि सेल खत्म हो जाने के बाद ये उल्टा असर कर सकता है। जो लोग 90 रुपए पर स्वेटर खरीद चुके हैं वो भला अब इसके 100 रुपए क्यों देंगे? अब उनको ये समझ आ गया है कि स्वेटर तो 90 रुपए की ही है न कि 100 रुपए की। जितने लंबे समय तक सेल लगेगी उनकी सोच और गहरी हो जाएगी। लेकिन ऐसे में अगर ब्रांड अपना प्रॉफिट मार्जिन बनाए रख सकता है तो उसके लिए बहुत फायदेमंद साबित हो सकता है। लेकिन अगर वो हाई प्रोडक्शन कॉस्ट जैसी बातों की वजह से प्रॉफिट मार्जिन नहीं मेंटेन कर पाएंगे तो उनको दिवालिया होने से कोई नहीं बचा सकता। 

जब किसी ब्रांड की पहुंच लोगों तक आसानी से होती है तब वो जल्दी ग्रो करता है। अब आपने ये समझ लिया कि प्रॉफिट तभी बढ़ेगा जब ज्यादा ग्राहक होंगे। यही वजह है कि मार्केटिंग की सही समझ रखने वाले लोग नए और ज्यादा ग्राहक बनाने पर जोर देते हैं। पिर भी ग्राहक को किसी ब्रांड की तरफ लुभाना इतना आसान नहीं है। इसकी एक वजह ये भी है कि लोग अब पहले से कहीं ज्यादा समय मीडिया पर बिताते है। साल 2005 में अमेरिका में इस पर एक स्टडी की गई। इसमें ये पता चला कि एक आम आदमी अपने दिन का लगभग 30 प्रतिशत समय टीवी, ऑनलाइन कंटेंट और अखबारों में लगा देता है। इस तरह लोगों की नजरों के सामने रोज सैकड़ों विज्ञापन आ जाते हैं। इस वजह से किसी एक विज्ञापन का प्रभाव बहुत कम होता है। दूसरी वजह ये है कि ग्राहक ठीक ठाक या काम चलाऊ जैसी चीजों पर भी समझौता कर लेते हैं। क्योंकि वो किसी प्रोडक्ट की बारीकियों में अपना समय और ताकत खर्च नहीं करना चाहते। यानि उनके लिए optimize करने की जगह satisfice करना ज्यादा आसान रास्ता है। ऐसे में ब्रांड अपने ग्राहकों की संख्या बढ़ाने के लिए क्या कर सकते हैं? इसका सबसे आसान और असरदार तरीका ये है कि ग्राहकों के लिए खरीदारी को आसान बना दिया जाए। इसके लिए दो दिशाओं में काम करना होगा। अपने प्रोडक्ट को लोगों के दिमाग और हाथ दोनों तक आसानी से पहुंचाना होगा। दिमाग तक पहुंचाने का मतलब है कि जब कभी ग्राहक कुछ खरीदने का सोचे तो उसके दिमाग में आपके ब्रांड का नाम आए और ये सीधे तौर पर मार्केट शेयर से जुड़ा है। जितना बड़ा मार्केट शेयर, लोगों की सोच तक उतनी बड़ी पहुंच। जब आप कॉफी पीना चाहते हैं तो कौन से ब्रांड दिमाग में आते हैं? बहुत से लोगों को सबसे पहले Starbucks याद आता है। दूसरा पहलू है आपके ब्रांड को लोगों तक आसानी से पहुंचाना। भले ही कोई ग्राहक आपका प्रोडक्ट खरीदने का सोच ले पर अगर वो उसे आसानी से मिले ही ना तो क्या होगा? इसलिए ये बहुत जरूरी है कि वो जब चाहे तब आपकी चीज उसे मिल जाए। यानि भले ही आप Starbucks में जाकर कॉफी पीना चाहते हों पर अगर आपके आस पास कोई स्टोर है ही नहीं तो आप क्या करेंगे? जाहिर है कि कोई दूसरा ब्रांड चुनेंगे जो उस वक्त आपके सामने होगा। यही वजह है कि हर शहर में इतने सारे Starbucks के स्टोर हैं।

कुल मिलाकर
एक मार्केटर को कभी भी आंख बंद करके उन थ्योरीज को फॉलो नहीं करना चाहिए जो मार्केटिंग की फील्ड में सालों से चली आ रही हैं। भले ही अतीत में उनके अच्छे नतीजे मिले हों पर जरूरी नहीं कि वो बदलते दौर में भी इतनी असरदार साबित हों। आपको नए तरीके अपनाने चाहिए खास तौर पर ऐसे तरीके जिनको विज्ञान सही साबित कर चुका है। इस तरह किसी गल्ती की गुंजाइश बहुत कम और सफलता की संभावना बहुत बढ़ जाती है। 

 

क्या करें

अपने ब्रांड को दूसरों से अलग बनाएं। जब आप अपना ब्रांड बना रहे हों तो आपको ये समझना पड़ेगा कि पहले से चल रहे कॉम्पिटीशन के बीच आप कैसे इसको मार्केट में जमा पाएंगे। लोगों के पास तो पहले से ही ढेरों ऑप्शन हैं तो कोई आपके ब्रांड को नोटिस क्यों करेगा? आपको इसका तरीका ढूंढना होगा। ज्यादातर कंपनियां ये मानती हैं कि उनको अपने प्रोडक्ट दूसरे ब्रांड से अलग बनाने चाहिए लेकिन ये पूरी तरह सही बात नहीं है। इसके लिए आपको एक अलग से नाम या पैकिंग जैसी बुनियादी चीजों पर ध्यान देने की जरूरत है ताकि आपका प्रोडक्ट भीड़ से अलग नजर आए। 

 

येबुक एप पर आप सुन रहे थे How Brands Grow By Byron Sharp. 

ये समरी आप को कैसी लगी हमें yebook.in@gmail.com  पर ईमेल करके ज़रूर बताइये. 

आप और कौनसी समरी सुनना चाहते हैं ये भी बताएं. हम आप की बताई गई समरी एड करने की पूरी कोशिश करेंगे. 

अगर आप का कोई सवाल, सुझाव या समस्या हो तो वो भी हमें ईमेल करके ज़रूर बताएं. 

और गूगल प्ले स्टोर पर ५ स्टार रेटिंग दे कर अपना प्यार बनाएं रखें. 

Keep reading, keep learning, keep growing.


Post a Comment

0Comments
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.
Post a Comment (0)

YEAR WISE BOOKS

Indeals

BAMS PDFS

How to download

Adsterra referal

Top post

marrow

Adsterra banner

Facebook

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Accept !