Free to Focus

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Free to Focus

Michael Hyatt
A Total Productivity System to Achieve More by Doing Less

दो लफ्ज़ों में 
साल 2019 में रिलीज़ हुई किताब ‘Free to Focus’ में लेखक Michael Hyatt ने प्रोडक्टिविटी के बारे में कुछ सामान्य मिथकों को चुनौती दी है और हमारे वर्किंग कल्चर को सुधारने के लिए एक नया तरीका भी बताया है. इस किताब में आपको रियल्टी चेक के साथ-साथ प्रैक्टिकल एडवाइस भी मिलेगी. 

ये किताब किसके लिए है? 

- परफेक्शनिस्ट जो अपनी दक्षता बढ़ाना चाहते हों 
- सभी फील्ड्स के स्टूडेंट्स के लिए 
- ऐसे लोग जिन्हें कुछ नया सीखने में अच्छा लगता हो 
- प्रोफेशनल्स जिन्हें अपनी लाइफ को बेहतर करना हो

लेखक के बारे में 
आपको बता दें कि इस किताब के लेखक Michael Hyatt हैं. ये अमेरिकन ऑथर, पॉडकास्टर और टेक्नोलॉजी एक्सपर्ट भी हैं. इन्होने अपने करियर का ज्यादातर समय पब्लिशिंग इंडस्ट्री में बिताया है. थॉमस नेल्सन नामक पब्लिशिंग हाउस में इन्होने सी.ई.ओ के पद पर कार्य भी किया है. 
प्रोडक्टिविटी के बारे में हमारे कांसेप्ट में ही कमी है
हमारे कल्चर में एक शब्द काफी ज्यादा चलता है. ये शब्द है ‘मोर’ यानी ज्यादा, हर किसी को ज्यादा ही चाहिए होता है. ज्यादा काम, ज्यादा नाम और फिर इससे पैदा होता है ज्यादा स्ट्रेस. हम अपने बिज़ी स्केड्यूल में भी इस मोर को एडजस्ट करते रहते हैं. यही वजह है कि हर इंसान काम में ज्यादा प्रोडक्टिविटी चाहता है. इसी चाहत की वजह से इंसान खुद को ही खत्म भी करता जा रहा है. इस किताब के लेखक Michael Hyatt हमको दूसरा रास्ता बताते हैं. जिसकी मदद से हम प्रोडक्टिविटी भी बढ़ा सकते हैं और दिमागी तौर पर शांति भी पा सकते हैं. इस किताब में लेखक कहते हैं कि हमारा टारगेट ही गलत है. हमें ‘मोर’ यानी ज्यादा के ऊपर फोकस नहीं करना चाहिए, इसकी बजाए हमें राईट यानी सही के ऊपर फोकस करना चाहिए.  इस समरी में आप जानेंगे कि डिस्ट्रेकशन वाली इकॉनमी में क्या करें?  और जीरो-सम-गेम क्या होता है? 

तो चलिए शुरू करते हैं!

आज के समय में वर्किंग डे कैसा होता है? इस वर्किंग डे में हमें बहुत कुछ करना होता है. ऐसी कई मीटिंग्स होती हैं, जिन्हें हमें अटेंड करना होता है. ऐसे कई मेल्स होते हैं, जिनका जवाब हमें देना होता है. कई रिपोर्ट्स होती हैं जिन्हें लिखना होता है. ये कहना बिल्कुल गलत नहीं होगा कि पूरा दिन काम में कैसे खर्च हो जाता है? पता ही नहीं चलता है. इन सबको पूरा करने में हमारे एफर्ट्स शायद ही कभी पूरे पड़ते हैं. कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि हम किसी ऐसी नांव में सवार हैं. जिसमें लीकेज हो रहा है. धीरे-धीर वो नांव में पानी भरता जा रहा है और आगे जाकर नांव पूरी तरह से पानी में डूब जाएगी. इन ख्यालों के बाद ही हम मिथ ऑफ़ प्रोडक्टिविटी के जंजाल में फंस जाते हैं. हमें लगता है कि अगर हम ज्यादा से ज्यादा काम के ऊपर फोकस करेंगे तो हम अच्छी सिचुएशन में पहुँच जाएंगे. लेकिन हम भूल जाते हैं कि हम जितना तेजी से काम करने की कोशिश करेंगे, हमारी प्रोडक्टिविटी उतनी ही कम होती जाएगी. ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हमारा स्केड्यूल पहले से भरा हुआ है. हम इसे और ज्यादा भरते जा रहे हैं. ये अप्रोच कुछ इस तरह होती है कि हमें आज तेज मेल लिखने हैं. इसके लिए हम कल के मेल्स अभी से लिखने लगे हैं. इसके बाद नंबर आता है एक और विफल अप्रोच का, हम प्रोडक्टिविटी बढ़ाने के लिए एक और फ़ालतू सा तरीका लगाते हैं. हमें लगता है कि ओवर टाइम काम करने से काम की प्रोडक्टिविटी बढ़ जाएगी. लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं होने वाला है. इस हरकत को हम खुद को ही बहाना देकर खुद का मन भी बहलाते रहते हैं. हम खुद से कहते हैं कि ये ओवर टाइम बस अभी के लिए ही है. बाद में सब कुछ सही और ठीक हो जाएगा. 

हमें पता होना चाहिए कि प्रोडक्टिविटी को बढ़ाने के ये सब तरीके सरासर बकवास हैं. इनसे हमें कभी भी कोई फायदा नहीं होने वाला है. इसलिए हमें प्रोडक्टिविटी का लक्ष्य ही नहीं रखना चाहिए. अब सवाल उठता है कि फिर प्रोडक्टिविटी के अलावा क्या लक्ष्य रखा जा सकता है? 

इसका जवाब देते हुए लेखक कहते हैं कि आप प्रोडक्टिविटी के अलावा फ्रीडम का लक्ष्य रख सकते हैं. 

फ्रीडम के कई मायने हो सकते हैं. उसी में से इसका एक मतलब फ्रीडम ऑफ़ फोकस भी है. इसका मतलब है कि खुद के लिए समय निकालकर फोकस को बढ़ाने के ऊपर काम करना चाहिए. ये काम बहुत महत्वपूर्ण है और काफी कठिन भी है. इस काम को करने में दिमागी मेहनत लगती है. जिसकी वजह से इंसान का शरीर भी थक जाता है. 

यह प्रोडक्टिविटी के एक अन्य उद्देश्य को और भी महत्वपूर्ण बना देता है - वह है, कुछ भी ना करने की फ्रीडम. ये सुनने में उल्टा लगता है, लेकिन हमारे अधिकांश सफल विचार वास्तव में तब आते हैं. जब हमारा दिमाग आराम की अवस्था में होता है. इसलिए हफ्ते में कुछ समय आप खुद को भी दे सकते हैं. खुद के समय में आपको कुछ नहीं करना है. शांत रहने की कोशिश करनी है. आपके दिमाग के पास बहुत ज्यादा पॉवर है. वो कुछ ना कुछ ज़रूर कर ही लेगा. याद रखिएगा कि जब दिमाग कुछ नहीं करता है. तभी सबसे बड़े क्रिएटिव आईडिया भी आते हैं.

कायाकल्प के लिए समय निर्धारित करना कोई विलासिता (लग्जरी) नहीं है - यह आवश्यक है
जैसे-जैसे साल आगे बढ़ता जाता है, हमारा कैलेंडर भी टू-डू लिस्ट से भरता जाता है. एक समय तो ऐसा आता है कि हमारा कैलेंडर किसी शॉपिंग लिस्ट से भी ज्यादा भरा लगने लगता है. ऐसे में हम सबसे पहले अपनी लाइफ से रिलैक्स के पलों को काटने की शुरुआत कर देते हैं. हम तुरंत दोस्तों के साथ बाहर डिनर का प्लान कैंसिल कर देते हैं. कई लोग तो सोने के समय को भी कम करने की शुरुआत कर देते हैं. लेकिन हमें पता होना चाहिए कि ऐसा करने से हमारी मेंटल हेल्थ बुरी तरह से प्रभावित होती है. इसी के साथ-साथ हमें ये भी पता होना चाहिए कि ऐसा करने से कुछ ज्यादा फायदा भी नहीं होता है. हम लोगों में से कई लोगों को ऐसा लगता है कि हम दिन भर एक ही एनर्जी के साथ काम कर सकते हैं. कई लोगों को तो ऐसा भी लगता है कि हम लगातार अपने काम करने की पॉवर को 20 प्रतीशत की दर से बढ़ा सकते हैं. लेकिन लेखक कहते हैं कि हमें पता होना चाहिए कि टाइम फिक्स है और साथ ही हमारे शरीर की एनर्जी भी फिक्स है. यही वजह है कि सुबह जब हमारा दिमाग फ्रेश रहता है. तब हम बेहतर काम कर पाते हैं. दोपहर आते-आते हमारे शरीर की एनर्जी कम होती जाती है. यही कारण है कि शाम होते-होते हम लेस प्रोडक्टिव हो जाते हैं. यह दैनिक प्रमाण है कि एनर्जी लेवल फ्लेक्सिबल हैं, और फोकस और इच्छाशक्ति सीमित संसाधन हैं जिन्हें फिर से भरना चाहिए.

अब यहाँ लेखक प्रोडक्टिविटी बढ़ाने के लिए एक प्रिंसिपल बताने वाले हैं. वो कहते हैं कि अगर हमें अपने दिमाग और शरीर की प्रोडक्टिविटी को बढ़ाना है तो हम अपने कायाकल्प यानी आराम को नज़र अंदाज़ नहीं कर सकते हैं. यही एक प्रोसेस है जिससे हमारा शरीर और दिमाग फिर से मेहनत करने के लिए तैयार होता है. लेकिन हमारी आदत है कि हम कायाकल्प को सबसे ज्यादा इग्नोर करते हैं. इसके एग्जाम्पल के तौर पर आप खुद की नींद को देख सकते हैं. जब भी कुछ महत्वपूर्ण आता है आप अपनी नींद को नज़रंदाज़ कर देते हैं. 

लेखक कहते हैं कि स्लीप प्रोडक्टिविटी की नींव की तरह होती है. David K. Randall ने अपनी किताब ड्रीमलैंड में रिसर्च की मदद से स्लीप के बारे में बताया है कि कम सोने से हमारे अंदर प्रॉब्लम सॉल्विंग कैपासिटी खत्म हो जाती है. इसी तरह कुछ न्यूरो साइंटिस्ट Penelope A. Lewis भी कहते हैं. उनके हिसाब से कम नींद लेने वाले लोग कभी भी प्रोडक्टिव नहीं हो सकते हैं. ऐसे लोगों के दिमाग में ओरिजिनल आईडिया आने बंद हो जाते हैं. इसलिए लेखक सलाह देते हैं कि प्रोडक्टिव बने रहने के लिए सबसे ज्यादा ज़रूरी है कि अपने शरीर और दिमाग के कायाकल्प में ध्यान देते रहा करें. काम करना जितना ज़रूरी है, उतना ही ज़रूरी रेस्ट करना भी है. इसी के साथ ऑथर ये भी कहते हैं कि हमें पॉवर ऑफ़ प्ले को भी नहीं भूलना चाहिए. इससे भी हमारे शरीर और दिमाग की गज़ब की मरम्मत होती है. किसी भी तरह की प्लेइंग एक्टिविटी हमारी प्रोडक्टिविटी को बढ़ाने के लिए काफी है. 

अब तक ये क्लियर हो चुका है कि प्रोडक्टिविटी की मदद से आपके पास कायाकल्प (rejuvenation) के लिए ज्यादा समय हो सकता है. आप ज्यादा फोकस रह सकते हैं. आप ज्यादा एक्टिव भी हो सकते हैं. लेकिन आप इसे अचीव कैसे करेंगे? इसके लिए लेखक पहला स्टेप बताते हैं कि आपको एक ‘माली’ की तरह अभिनय करना होगा. 

समय बचाने के लिए, आपको हर रोज़ गैर ज़रूरी कामों को अपनी लाइफ से हटाना होगा. कम काम करते हुए भी ज्यादा प्रोडक्टिव बने रहना. ये सुनने में थोड़ा अजीब सा लग रहा होगा. लेकिन यही इफ़ीशिएन्सी का सीक्रेट है. 

प्रोडक्टिविटी का ये मतलब नहीं होता है कि हर काम को ज्यादा करने की ज़रूरत है. प्रोडक्टिविटी का मतलब होता है कि हम ज्यादा से ज्यादा राईट थिंग्स करें. इसका मतलब है कि हमें अपनी प्राईयोरटीज़ के ऊपर फोकस करना होगा. बाकी की फ़िज़ूल चीज़ों को एलिमिनेट करना होगा. 

जैसे-जैसे आप फ़िज़ूल के टास्क को एलिमिनेट करते जाएंगे, वैसे-वैसे आपको खुद का पैशन भी पता चलता जाएगा. 

लेखक कहते हैं कि अपने टाइम को सही से यूटीलाइज करने के लिए आपको खुद के पैशन के बारे में पता होना चाहिए. लेकिन इसी के साथ आपको ये भी पता होना चाहिए कि क्या उस पैशन को फॉलो करने के लिए आपके पास पर्याप्त स्किल्स हैं? 

पैशन और स्किल्स के कॉम्बिनेशन से आप अपनी टाइम का सही उपयोग कर सकते हैं.

फ्री टू फोकस बनने के लिए, आपको पॉवर ऑफ़ ‘यस’ और ‘नो’ के बारे में जानना होगा
आज के दौर में बिज़ी स्केड्यूल करना आसान है. अधिकत्तर लोग ये कहते हुए मिल जाते हैं कि उनकी लाइफ में समय की बहुत कमी है. लेकिन ऐसे लोग कम ही मिलते हैं जिन्हें प्राईयोरटीज़ के बारे में श्योरटी रहती हो. इसका मतलब साफ़ है कि आज के समय में लोगों के लिए डिसीप्लीन के साथ प्राईयोरटाईज़ करना मुश्किल हो गया है. लेकिन फिर भी कुछ लोग कम समय में ही बहुत कुछ अचीव कर लेते हैं. आखिर इसके पीछे का कारण क्या होता है? इसके पीछे का सिम्पल रीज़न होता है. वो होता है कि उन्हें पता होता है कि पॉवर ऑफ़ ‘नो’ क्या चीज़ है? 

ऑथर कहते हैं कि आपको पॉवर ऑफ़ ‘यस’ और पॉवर ऑफ़ ‘नो’ के बारे में पता होना बहुत ज़रूरी है. लेखक बताना चाहते हैं कि प्रोडक्टिविटी सुपरस्टार्स किसी भी गैर ज़रूरी टास्क को ‘नो’ कह देते हैं. भले ही वो टास्क उनके किसी करीबी ने ही क्यों ना दिया हो. उन्हें पता रहता है कि अगर उन्होंने इस टास्क को हाँ कह दिया तो इसकी वजह से उनका बहुत सारा कीमती समय और एनर्जी बर्बाद हो जाएगी. आपके लिए ‘ना’ कहना आसान हो जाएगा, जब आपको पता चल जाएगा कि टाइम किसी जीरो-सम-गेम की तरह ही होता है. आपको पता होना चाहिए कि हफ्ते में बस 168 घंटे ही होते हैं. आप दिन में एक भी घंटा एक्स्ट्रा एड नहीं कर सकते हैं. 

जिनको भी हर काम को ‘हाँ’ कहने की आदत हो, उन्हें ये पता होना चाहिए कि जब भी वो किसी गैर ज़रूरी काम को हाँ कहते हैं. तब उनसे कोई एक ज़रूरी काम छूट जाता है. अगर वो सुबह 7 बजे किसी से मीटिंग को हाँ कहते हैं. तो मतलब साफ़ है कि उनकी मॉर्निंग रनिंग छूट जाएगी. ये एक बहुत छोटा सा एग्जाम्पल है. लेकिन इसका असर बहुत ही ज्यादा गहरा पड़ने वाला है. अपने समय को बचाने के लिए और प्रोडक्टिविटी को बढ़ाने के लिए आप रिच्वल्स का सहारा ले सकते हैं. इसकी मदद से आप अपने हफ्ते को बेहतर बनाने के लिए छोटी-छोटी रूटीन्स को फॉलो कर सकते हैं. इन रूटीन्स का मतलब है कि आपको दिन की शुरुआत से पता होना चाहिए कि आज के आपके गोल्स क्या-क्या हैं? इसी के साथ आपको ये भी पता होना चाहिए कि आज के दिन को आपको खत्म कैसे करना है? इन आदतों को बनाकर आप अपना काफी ज्यादा समय बचा सकते हैं. किसी भी रूटीन को बनाने में मेहनत लगती है. लेकिन एक बार आदत बन जाने के बाद वो आपके लिए किसी वरदान की तरह ही साबित होती है. अगर आपके मन में सवाल आ रहा हो कि सबसे अच्छी आदत कौन सी होती है? इसके लिए लेखक आपको मॉर्निंग रिच्व्ल की सलाह देते हैं. सुबह की आदत से मतलब है कि सुबह-सुबह खुद के लिए चाय या कॉफ़ी तैयार करना, थोड़ा मेडिटेट करना, थोड़ी कसरत करना और अपने दिन की प्लानिंग करना, ऐसी एक आदत आपको डाल लेनी चाहिए. इससे आपकी प्रोडक्टिविटी काफी अच्छी हो जाएगी. 

हम लोगों में से अधिकत्तर लोग अपने काम की शुरुआत बिना किसी प्लान के साथ करते हैं. अब ये हमारी आदत भी बन चुकी है. यही सबसे बड़ी वजह है कि हम फेल भी हो जाते हैं. 

ऑथर रोबिन शर्मा ने कहा भी है कि “टारगेट को बिना देखे आप उसे अचीव नहीं कर सकते हैं.”

ये कोट एकदम सटीक बैठता है. हमारे प्रोडक्टिव होने का कोई मतलब नहीं है अगर हमें हमारे टारगेट के बारे में नहीं पता है. प्रोडक्टिविटी के यूज के लिए हमारा फोकस रहना बहुत ज़रूरी है. उसके लिए हमारे पास सही डायरेक्शन भी होना चाहिए. इसलिए लेखक कहते हैं कि ये बहुत ज़रूरी हो जाता है कि हम अपने दिन की शुरुआत एक प्लानिंग के साथ करें, हमें पता होना चाहिए कि आज हमें क्या-क्या अचीव करना है? ऐसा करने से हमारा माइंड भी फोकस रहेगा. इसके लिए हम अपने दिनभर का फोकस बिग थ्री के ऊपर रख सकते हैं.  ये बिग थ्री क्या है? ऐसे तीन टास्क जो हमारी आज की प्राईयोरिटी हैं. आज हमें इन्हें कम्प्लीट करना ही है. इनके अलावा अगर हम कुछ और भी अचीव कर लेते हैं तो वो हमारा बोनस होगा. ऐसे माइंडसेट के साथ हमें अपने दिन की शुरुआत करनी चाहिए. इसी मानसिकता के साथ हम प्रोडक्टिविटी के साथ भी न्याय कर पाएंगे. इसके अलावा भी एक तकनीक है, जिसकी मदद से आप प्रोडक्टिविटी को सुपरचार्ज कर सकते हैं. वो ये है कि आपके पास पूरे हफ्ते का एक सटीक प्लानर होना चाहिए. आपको कोशिश करनी चाहिए कि आप अपने आने वाले हफ्ते का पूरा प्लान तैयार कर सकें. ऐसा करने से आपका माइंड सेट और ज्यादा प्रोडक्टिव हो जाएगा. फोकस बढ़ेगा और धीरे-धीरे सफलता भी आपके कदमों में होगी.

यदि आप डिस्ट्रेकशन इकॉनमी को चुनौती दे सकते हैं, तो आप रिवार्ड्स भी हासिल कर सकते हैं
इंस्टेंट मैसेजिंग, पुश नोटिफिकेशन, वेब सर्फिंग और सोशल मीडिया का अंतहीन स्क्रॉल –ये चीजें हमारे दैनिक जीवन का हिस्सा बन चुकीं हैं, और सभी हमारे ध्यान और एकाग्रता को खत्म भी कर रही हैं. ये हमारे लिए मददगार भी साबित होती हैं. लेकिन इन्हीं की वजह से इंसान के अंदर चीज़ों को टालने की आदत भी आती जा रही है. 

नई तकनीक से हमें तुरंत ख़ुशी का अनुभव होता है. यही वजह है कि इन तकनीकों के ऊपर हमारा ध्यान लगा हुआ रहता है. और यही कारण है कि इन चीज़ों ने एक अलग ही इकॉनमी का निर्माण किया है. जिसे डिस्ट्रेकशन इकॉनमी भी कहा जाता है. इसी इकॉनमी की वजह से हमारी फोकस करने की क्षमता भी कम होती जा रही है. आप बहुत कुछ लिखना चाहते हैं. लेकिन आपका ध्यान तो फेसबुक में लगा रहता है. इसलिए आप लिख नहीं पाते हैं. अगर हमें अपने फोकस को बढ़ाना है तो हमें इस इकॉनमी को चुनौती भी देनी होगी. डिस्ट्रेकशन इकॉनमी को चुनौती देने के लिए आपको काफी मेहनत भी करनी पड़ सकती है. आपको खुद के विल पॉवर से लड़ाई करनी होगी. आपको खुद के ऊपर लगाम लगानी होगी, आपको वादा करना होगा कि आप दिन में बस दो बार ही सोशल मीडिया को चेक करेंगे. अगर आप ऐसा करने में कामयाब होते हैं. तो फिर आप खुद ओब्सर्व करेंगे कि आपकी प्रोडक्टिविटी अपने आप ही बढ़ गई है. आप अब कम समय में ज्यादा प्रोडक्टिव काम करने लगे हैं. इसलिए इस चैप्टर की शुरुआत में ही लेखक ने कह दिया था कि “यदि आप डिस्ट्रेकशन इकॉनमी को चुनौती दे सकते हैं, तो आप रिवार्ड्स भी हासिल कर सकते हैं.”

कुल मिलाकर
प्रोडक्टिविटी बस एक टास्क से कुछ मिनट बचाकर बेहतर नहीं की जा सकती है. हमें समझना होगा कि ये एक तपस्या की तरह होती है. हमें इसे रोज़ प्रैक्टिस करने की ज़रूरत है. हमें पता होना चाहिए कि राईट टास्क कौन से होते हैं? सही टाइम पर सही काम के चुनाव से ही प्रोडक्टिविटी को बढ़ाया जा सकता है. 

 

क्या करें?

पॉवर ऑफ़ ‘नो’ को पहचानिए और हर काम को हाँ कहना बंद कर दीजिए. एक लिस्ट बनाने की कोशिश करिए, जिसमें आपको नोट डाउन करना है कि आगे से आपको क्या-क्या नहीं करना है? कुछ सिम्पल स्टेप्स हैं, जिन्हें इस किताब की समरी में बताया गया है. उन्हें फॉलो करने की कोशिश करिए. 

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