Business Adventures

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Business Adventures

John Brooks
वर्ल्ड ऑफ वाल स्ट्रीट की 12 कहानियाँ

दो लफ्जों में
यह किताब आपको सिखाती है कि आप एक कंपनी को कैसे चला सकते हैं, स्टॉक मार्केट में कैसे इन्वेस्ट कर सकते हैं, और कैसे अपने जॉब को चेंज कर सकते हैं, और इसके अलावा यह किताब पिछली सदी के दौरान बहुत सारी बड़ी कंपनियों और उनके लीडर्स के साथ होने वाले इंटरेस्टिंग अनुभवों को आपके साथ शेयर भी करती है. 

यह किन के लिए है
- हर नौजवान और इंस्पायर्ड शख्स जो बिजनेस में अपनी  नॉलेज को गहरा करना चाहते हैं,
- जो अपने अंदर परफेक्शन लाना चाहते हैं, 
- जो करिअर के साथ - साथ अपनी जिंदगी को भी लगातार डिवेलप करना चाहते हैं, और 
- जो अपने सेल्फ मोटिवेशन को बढ़ाना चाहते हैं.  

लेखक के बारे मे
इनका पूरा नाम जॉन निक्सन ब्रुक्स है. इनका जन्म 5 दिसंबर 1920 को न्यू यॉर्क सिटी में हुआ था. और 27 जुलाई 1993 को इन की डेथ हो गई थी. 1949 में उन्होंने न्यू यॉर्कर मैगज़ीन में फाइनेंशियल टॉपिक्स के लिए स्टाफ राइटर के तौर  पर काम शुरू किया और वहां पर अपने बहुत सालों के काम के दौरान  फाइनेंशियल टॉपिक्स पर उनकी लिखी हुई तीन नोवेल्स पब्लिश हो चुकी हैं, इसके अलावा उन्होंने बिजनेस और फाइनेंस के सब्जेक्ट पर 10 नॉन फिक्शन किताबें भी लिखी हैं. और उनमें से 1969 में पब्लिश होने वाली उनकी किताब ' बिजनेस एडवेंचर्स ' को दुनिया के सबसे अमीर शख्स बिल गेट्स ने अपनी जिंदगी की सबसे फेवरेट बिजनेस बुक बताया है. 1974 में जॉन ब्रुक्स को उनकी किताबों के लिए  जीराल्ड लोएब अवार्ड से नवाजा गया है.

  Business Adventures by John Brooks
माइक्रोसॉफ्ट के संस्थापक बिल गेट्स और इन्वेस्टमेंट गुरु वॉरेन बफेट ने 27 जनवरी, 2017 को न्यूयॉर्क में कोलंबिया बिजनेस स्कूल द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में पत्रकार चार्ली रोज के साथ डिस्कशन करने के दौरान बताया कि हर एक सक्सेस फुल बिजनेस मैन के पीछे किताबों की एक लिस्ट होती है जिनसे उन्हें बिजनेस को चलाने मे और एक कामयाब जिंदगी जीने में मदद मिलती है.और इन दोनों लोगों का यही मानना है कि 1969 की किताब 'बिजनेस एडवेंचर्स'  अब तक की सबसे अच्छी बिजनेस बुक है. क्योंकि इस किताब में काफी इंटरेस्टिंग और विजन से भरी हुई कहानियों का कलेक्शन है जिन को पढ़ कर बिजनेस में इंटरेस्ट रखने वाले सभी लोगों को उनसे सीखना ही चाहिये. एक मशहूर कहावत है दोज हू डोंट रिमेंबर द पास्ट आर कंडेम्न्ड टू रिपीट इट. जिसका मतलब है कि जो लोग हिस्ट्री को नहीं समझते हैं वही लोग दूसरों से सीखे बिना अपनी गलतियों को बार-बार रिपीट करते हैं. और क्योंकि बिल गेट्स ऐसे इंसान नहीं बनना चाहते थे और हिस्ट्री पढ़ने की इंपॉर्टेंस को समझते थे, इसीलिए यह किताब बिजनेस लाइन में उनकी सबसे फेवरेट किताबों में से एक है. और इसलिए हमारे लिए भी यह जरूरी है कि हम हिस्ट्री को समझें और पिछली सेंचुरी में वाकया हुई बड़ी बड़ी घटनाओं से सीखें. और खुद भी सक्सेस फुल हो जाएं.  किताब में लिखी 12 कहानियां इस तरह से हैं :द फ्लक्चुएशन : द लिटिल क्रैश इन 1962
28 मई 1962 को न्यू यॉर्क स्टॉक एक्सचेंज में एक बहुत अनोखा और गैर मामूली फ्लक्चुएशन हुआ था जिसमें 3 दिन तक मार्केट क्रैश एक्सपीरियंस किया गया. इतिहास कार जॉनसन वेला डेगा के मुताबिक इन्वेस्टर्स अपने इन्वेस्टमेंट्स बहुत चतुराई से किया करते हैं. जिसकी वजह से स्टॉक प्राइसेज में अचानक से तेजी और मंदी आती है. यह इन्वेस्टर्स न्यूज़ में पहले से ही तमाम तरह की एनालिसिस, ग्राफ्स, और एक्सप्लेनेशन दे देते हैं लेकिन असल में स्टॉक मार्केट की रियल पोजीशन इन्वेस्टर्स के मूड पर भी डिपेंड करती है. 

दरअसल यह क्रैश तब शुरू हुआ था जब डाऊ जोंस ने यह रिपोर्ट दी थी कि मेजर इंडस्ट्रियल स्टॉक्स घट जाएंगे. जिस  की वजह से मार्केट में लंच टाइम तक घबराहट का माहौल फैलने लगा था. 

उन दिनों न्यूयॉर्क स्टॉक एक्सचेंज में स्टॉक प्राइसेज दिखाने के लिए बड़े-बड़े मॉनिटर्स नहीं हुआ करते थे. बल्कि इसकी जगह टिकट्स या प्रिंट टेप्स इस्तेमाल किए जाते थे. लेकिन इन मशीनों में एक बहुत बड़ी कमी थी कि यह मशीने बहुत तेजी से होने वाले फ्लकचुएशन्स को अपडेट नहीं कर पाती थीं. उस दिन सुबह 11:00 बजे इन टेप्स की रिपोर्ट करीब 30 मिनट लेट हो गई थी. इसकी वजह यह थी कि इन्वेस्टर्स  की सेलिंग एक्टिविटी अचानक से तेज हो गई थी. और लोगों की भीड़ अपने स्टॉक्स लिक्विडेट कराने के लिए टाइम स्क्वायर में बैंक ऑफ अमेरिका के इन्वेस्टमेंट डिपार्टमेंट मेरिल लिंच में इकट्ठा होने लगी थी. बैंक की सेंट्रल लोकेशन होने की वजह से हमेशा यहां पर स्मॉल टाइम सिक्युरिटी ट्रेडर्स और इंडिविजुअल इन्वेस्टर्स  स्टॉक्स में अपना पैसा लगाने के लिए आते थे. और आधे घंटे की देरी  उनके लिए काफी मैटर करती थी. इसके बाद भी दोपहर के 2:00 बजे तक प्रिंट टेप्स ऑलरेडी एक घंटे लेट हो चुके थे. हालांकि उस वक्त वहां इससे होने वाली डैमेज को ठीक करने का कोई तरीका मौजूद नहीं था. ब्रोकर्स अपने कस्टमर्स की कॉल अटेंड करने में बिजी थे. उन्होंने लोगों से शांति बनाए रखने और अपने स्टॉक्स को अपने पास ही रखने की अपील की. लेकिन उनमें से ज्यादातर लोग बात मानने के लिए तैयार नहीं हुए. ब्राजील में रियो द जेनेरो से एक कस्टमर ने टेलीग्राम के जरिए यह रिक्वेस्ट किया कि उसके अकाउंट में मौजूद सारे स्टॉक्स को सेल कर दिया जाए. इसके बाद मेरिल लिंच के पास कोई चॉइस बाकी नहीं बची थी. और फिर उन लोगों को यही करना पड़ा. 

ट्रेड में देरी होने की वजह से ब्रोकर कस्टमर को सिर्फ इतना ही समझा सकते थे कि उनको स्टॉक्स बेचने पर कितना पैसा मिलेगा. मेरिल लिंच में लोग एक दूसरे पर चिल्ला रहे थे. क्योंकि उनको ट्रेडिंग की डिटेल रिपोर्ट चाहिए थी. स्टॉक सेलर्स मे डर और घबराहट का माहौल था. ब्लू चिप शेयर्स के गिरने की वजह से मार्केट तेजी से डाउन होती जा रही थी. ' A T & T ', ' I B M ' और स्टैंडर्ड आयल स्टॉक्स के प्राइस नीचे गिर रहे थे. और सिचुएशन कंट्रोल में रखने के लिए ब्रोकरर्स अपनी पूरी कोशिश कर रहे थे. 

उस दिन मार्केट को करीब दो हजार करोड़ डॉलर से भी ज्यादा का भारी नुकसान उठाना पड़ा था. न्यू यॉर्क स्टॉक एक्सचेंज के क्रैश का असर मिलान, ब्रुसेल्स, लंदन, और स्विट्जरलैंड के ज्यूरिख शहर तक पहुंच गया था. और फिर इस तूफान को शांत करने में म्यूचुअल फंड ने बहुत मदद की. क्योंकि म्यूचुअल फंड के इन्वेस्टर्स अपने स्टॉक्स इतनी आसानी से लिक्विडेट नहीं कर सकते थे. नियम के हिसाब से पहले उन्हें अपने कुछ स्टॉक्स को बेचना होता था. हालांकि 28 मई को स्टॉक प्राइसेज अब तक के सबसे कम थे. लेकिन अगले दिन 29 मई तक सिचुएशन थोड़ी बेहतर होने लगी. इसके 2 दिन बाद 31 मई को फ्लकचुएशंस साइकिल टॉप पर हो गया. डाउ जॉन्स का एवरेज 9.40 पॉइंट्स था लेकिन 4 दिन बाद मंडे मॉर्निंग तक उसके प्राइस थोड़े हाई हो गए थे. फाइनली म्यूच्यूअल फंड्स ने ही मार्केट को स्टेबलाइज किया. म्यूच्यूअल फंड्स  ओनर्स को भी अपने शेयर बेचने पड़े थे. क्योंकि उन्होंने भी मार्केट क्रैश की घबराहट में बहुत ज्यादा शेयर्स खरीद लिए थे. 

इसके बाद डेमोक्रेट और रिपब्लिकन ने मिल कर इस मामले में कुछ और नए नियम लागू किए जिस से शेयर मार्केट को अच्छी तरह से रेगुलेट किया जा सके. हालांकि स्टॉक एक्सचेंज में इस तरह के क्रैश को टाला नहीं जा सकता है. 

 इस पूरे इंसिडेंट से हमें यह सीख मिलती है कि हम लोग कई बार बिना ट्रू फैक्ट्स को जाने हुए ही अपने फालतू के डर की वजह से यह मान लेते हैं कि सब कुछ बहुत बुरा होने वाला है. और बहुत से बड़े-बड़े गलत डिसीजन ले लेते हैं. इसलिए हमें इस घटना से सीख लेनी चाहिए कि बिना प्रॉपर फैक्ट्स को जाने हुए कभी भी डरना नहीं चाहिए. अक्सर हम जिन छोटी बड़ी चीजों की फिक्र किया करते हैं वह असल में या तो होती ही नहीं हैं, या फिर इतने बड़े लेवल पर नहीं होती हैं, जितने बड़े लेवल पर हम उन्हें मानकर डरने लगते हैं. 

द फेट ऑफ द एडसेल : ए कौशनरी टेल
1955 का टाइम ऑटोमोबाइल की फील्ड में एक बहुत बेहतरीन साल था. इसी यू एस जनरल मोटर्स ने 70 लाख से ज्यादा कारें बेची थीं. इसी साल  फोर्ड मोटर कंपनी ने मीडियम प्राइस रेंज में फोर्ड एडसेल नाम से एक नई पैसेंजर  कार बनाने का डिसाइड किया. उन दिनों ज्यादातर अमेरिकन कारें काफी लंबी काफी चौड़ी और काफी नीची हुआ करती थीं. जिनके इंजन बहुत पावरफुल थे. इनमें कुछ गैजेट्स प्रोवाइड किए जाते थे और इनमें क्रोम कलर का एक्सटीरियर भी था. फोर्ड ने अपनी कार एडसेल के लिए बहुत प्रमोशन और एडवर्टाइजमेंट भी किया. क्योंकि उन को इस कार से बहुत उम्मीदें थीं. और उन को पूरा यकीन था कि यह कार मार्केट में धूम मचा देगी. और यह उम्मीद की जा रही थी कि रिलीज के पहले साल में इस कार की दो लाख यूनिट बिक जाएंगी. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. हकीकत में जब वह कार लांच हुई तब लोगों के विचार में वह सबसे बदसूरत कार नजर आती थी. और वह कार लांच होते ही फेल हो गई. रिलीज होने के बाद टोटल 1,09,466  कारें ही बेची जा सकी थीं. और उन्हें भी ज्यादातर फोर्ड के एग्जीक्यूटिव्स और डीलर्स ने ही खरीदा था. फोर्ड कंपनी को एडसेल से करीब 35 करोड़  डॉलर का भारी नुकसान हुआ था. इसके बाद एडसेल कार की प्रोडक्शन रुकवा दी गई थी.

तो आखिर फोर्ड जैसी बड़ी कंपनी ने ऐसी गलती कैसे कर दी थी. दरअसल 1948 में फोर्ड कंपनी मरकरी नाम की मीडियम प्राइस वाली सिर्फ एक ही टाइप की कार बनाया करती थी. उस टाइम लो इनकम ग्रुप वाले लोग शेवरले, प्लाईमाउथ, और फोर्ड खरीदते थे. लेकिन 1955 के दौरान अमेरिका की अर्थव्यवस्था तेजी से आगे बढ़ रही थी. लोगों के पास एक्स्ट्रा पैसे बचने लगे थे. जिसे वह लोग अपने कंफर्ट के लिए खर्च कर सकते थे. और उनमें से ज्यादातर लोग मीडियम रेंज की कार खरीदने में इंटरेस्टेड थे. और जिनके पास कम दाम वाली फोर्स कार थी वह लोग मीडियम प्राइस वाली मरकरी नहीं खरीदते थे. इसकी जगह वह लोग फोर्ड कार के एक्सचेंज में जनरल मोटर्स की मीडियम प्राइस वाली गाड़ियां खरीदते थे.  यही देख कर फोर्ड मोटर कंपनी ने डिसीजन लिया था  कि वह एडसेल कार को लांच करेंगे. लेकिन 1958 में इस कार के लांच होने तक 3 साल के अंदर ही  सब कुछ बदल चुका था. और उस टाइम मार्केट ज्यादा अच्छा नहीं चल रहा था. क्योंकि लोग मीडियम रेंज की जगह सस्ते दामों वाली छोटी कार खरीद रहे थे. 

दूसरा रीजन यह था कि मार्केट में इस कार को लेकर एक्स्पेक्टशन्स इतनी ज्यादा बढ़ गई थीं कि  हकीकत में उनका पूरा हो पाना करीब करीब नामुमकिन सा हो गया था. इस वजह से जब उस कार का फाइनल प्रोडक्ट लोगों के सामने आया तब उन्होंने उसको बिल्कुल भी पसंद नहीं किया. क्योंकि वह कार क्वालिटी के लिहाज  से भी बहुत अच्छी नहीं थी. असल में उसके ब्रेक्स और एक्सीलरेशन में प्रॉब्लम थी. और फोर्ड एडसेल के  फेलियर होने  का तीसरा रीजन यह था कि फोर्ड मोटर कंपनी ने उसके रिसर्च में तो काफी पैसा खर्च कर दिया था, लेकिन वह प्रोडक्ट की बेहतर क्वालिटी पर पैसा खर्च करना भूल गए थे.

इस लिए फोर्ड कंपनी के प्रोडक्ट फेलियर की वजह से हमें यह बातें सीख लेनी चाहिएं : पहली बात यह है कि  हमें कभी भी यह नहीं सोचना चाहिए कि हर चीज़  वैसे ही होगी जैसा  हम चाहेंगे. ऐसा बिल्कुल भी जरूरी नहीं  है कि जो हालात आज हैं वही हमेशा बने रहेंगे. मार्केट में हमेशा उतार-चढ़ाव और बदलाव एक बड़ा रोल प्ले करते हैं. हमें अपने बिजनेस के बड़े फैसले लेते समय मार्केट की अनप्रिडिक्टिबिलिटी को भी ध्यान में रखना चाहिए. दूसरी बात यह है कि हमें अपने एक्सपेक्टशंस को कंट्रोल में रखना चाहिए. हमें कभी भी हद से ज्यादा अच्छा या हद से ज्यादा बुरा एक्सपेक्ट नहीं करना चाहिए. और इसके साथ ही साथ हमें रियलिस्टिक भी होना चाहिए. तीसरी बात यह है कि हमें अपने ज्यादातर एफर्ट्स रिसर्च से ज्यादा प्रोडक्ट की क्वालिटी पर लगाने चाहिएं.

द फेडरल इनकम टैक्स : इट्स हिस्ट्री एंड पिक्यूलियरीटीज
वारेन बफेट दुनिया के सबसे अमीर इंसानों में से एक हैं. लेकिन उनका इनकम टैक्स रेट उनकी सेक्रेटरी से भी कम है. हालांकि उनकी सेक्रेटरी उनके खुद के मुकाबले में बहुत कम पैसे कमाती हैं लेकिन फिर भी वह वारेन बफेट से ज्यादा इनकम टैक्स पे करती हैं. अमेरिका के फेडरल इनकम टैक्स की यही सच्चाई है. 1913 में अमेरिकन गवर्नमेंट को जब पैसों की कमी महसूस होनी शुरू हुई , तब उन्होंने  इनकम टैक्स लेना शुरू किया था. इसकी शुरुआत में उनका टारगेट यही था कि वह देश के अमीर लोगों से ही थोड़ा थोड़ा पैसा लेंगे. लेकिन उस  टाइम के बाद आने वाले सालों में इनकम टैक्स के टारगेट में बहुत बदलाव आ गया. और इनकम टैक्स के रेट तब से लगातार बढ़ते ही चले गए. लेकिन इनकम टैक्स पे करने के मामले में एक बड़ा अंतर यह भी आ गया कि जहां एक टाइम पर सिर्फ अमीर  लोग ही इंकम टैक्स का टारगेट थे, कुछ सालों बाद वहीं पर मिडिल क्लास लोग इनकम टैक्स के टारगेट बन गए. क्योंकि अमीर लोग  स्मार्ट 

निकले और उन्होंने अपने पैसे बचाने के लिए टैक्स सिस्टम में काफी लूप होल्स निकाल लिए. जबकि मिडिल क्लास लोग कड़ी मेहनत करते हैं और अपनी इनकम का एक बड़ा हिस्सा इंकम टैक्स के तौर पर सरकार को दे देते हैं. यह एक बड़ा निर्दयी  सिस्टम बन गया है. जिसमें ज्यादातर मिडिल क्लास के लोग ही पीसे जा रहे हैं. इससे निबटने के लिए दो सलूशन हो सकते हैं : पहला यह कि इस सिस्टम को बदलने के लिए किसी दूसरे बेहतर सिस्टम को डेवलप या अडॉप्ट कर लिया जाए. जो कि एक बहुत बड़ी और मुश्किल चीज है. और दूसरा यह कि मिडिल क्लास लोग भी दूसरे अमीर लोगों की तरह सोचना शुरु कर दें और सिस्टम के  लूप होल्स का  फायदा उठाते हुए  बिजनेस करें.

ए रीज़नेबल अमाउंट ऑफ टाइम : इंसाइडर्स एट टेक्सास गल्फ सल्फर
टैक्सास गल्फ न्यू यॉर्क शहर की एक कंपनी है. जो दुनिया में सबसे ज्यादा सल्फर का उत्पादन करती है. सल्फर की मार्केट वैल्यू कम होने की वजह से यह कंपनी बाकी दूसरे मिनरल्स के सोर्स की तलाश में थी. इसके बाद कंपनी को कनाडा के ओंटारियो  में एक जमीन पर माइनिंग ग्राउंड की ओनरशिप मिली. और फिर वहां पर खुदाई शुरू करवा दी गई. वहां पर ' KIDD -  55 ' नाम का एक पॉपुलर एरिया है. जहां पर गोल्ड के काफी बड़े भंडार का मौजूद होना माना जाता है.  इस एरिया का सर्वे करने वाले पहले आदमी टैक्सास गल्फ के इंजीनियर  रिचर्ड  क्लेटन थे. वह अपनी टीम के मेंबर्स और कंपनी जियोलॉजिस्ट केनेथ डर्क के साथ पहला टेस्ट होल ड्रिल करने के लिए वहां पहुंचे. इन लोगों ने 3 दिन में 150 फीट गहरी खुदाई पूरी कर ली. केनेथ ने वहां से निकले मिनरल डिपॉजिट की स्टडी करने के बाद जल्दी से चीफ जियोलॉजिस्ट वॉल्टर हॉलिक से टेलीफोन पर बात की. और फिर यह खबर हॉलिक से कंपनी के वाइस प्रेसिडेंट रिचर्ड मॉलिसन और इसके बाद कंपनी में नंबर दो की पोजीशन  वाले एग्जीक्यूटिव वाइस प्रेसिडेंट चार्ल्स फोगार्टी तक पहुंच गई.और और फिर अगले दिन यह तीनों लोग साइट विजिट करने कनाडा पहुंच गए. 

 

यह नवंबर का महीना था और वहां पर बर्फ पड़ रही थी. लेकिन चीफ जियोलॉजिस्ट हॉलिक और डर्क ने खुदाई चालू रखी. इसके बाद 600 फीट तक खुदाई करने के बाद ड्रिल कोर में कुछ कॉपर और जिंक का कंटेंट मिला. मिनरल्स ग्राउंड के अंदर ज्यादातर वेंस की तरह फ़्लो करते हैं.  और किसी जगह पर थोड़ा सा भी मिनरल्स मिल जाने पर इस बात के चांसेस बहुत ज्यादा बढ़ जाते हैं कि जमीन के अंदर इनका बहुत बड़ा  भंडार मौजूद हो सकता है. और फिर इस बात का पता लगाने के लिए  टैक्सास गल्फ के इंजीनियरों ने पहले ड्रिल होल से बहुत से होल्स के पेटर्न्स बनाए. इन होल्स ने जमीन को अलग - अलग एंगल्स पर हिट किया. जिसकी वजह से जमीन के नीचे मिनरल्स वाली वेंस की चौड़ाई भर गई. इसके बाद वहां पर जमीन के नीचे जिंक, कॉपर और सिल्वर के बहुत बड़े भंडार का पता लगा लेकिन उन्होंने  इस जानकारी को पब्लिक नहीं किया. हालांकि उन्होंने इस बारे में खामोशी बनाए रखी थी, लेकिन अंदरूनी सूत्रों ने टेक्सास गल्फ के स्टॉक को खरीदना शुरू कर दिया था. इसके बाद अगले कुछ महीनों में कंपनी के इंजीनियर्स, जियोलॉजिस्ट, एग्जीक्यूटिव्स, रिश्तेदारों और दोस्तों ने हजारों शेयरों को खरीद लिया. इन अंदरूनी सूत्रों की शेयर्स की खरीद की वजह से पूरी इंडस्ट्री में तरह-तरह की अटकलें लगाई जाने लगीं और यह अफवाह फैल गई कि टेक्सास गल्फ को मिनरल्स का एक अनोखा खजाना मिला था. टेक्सास गल्फ ने इस तरह की अफवाहों को दबाने के लिए झूठे बयान जारी किए. इस पॉइंट पर कैनेडियन माइनिंग सर्किल को इस डिस्कवरी के बारे में कुछ शक होने लगा था. क्योंकि इस बारे में कनाडा के तमाम अखबारों ने टेक्सास गल्फ की एक्टिविटीज के बारे में रिपोर्ट्स छापनी शुरू कर दी थीं. और फिर जल्दी ही यह खबर वाइट हाउस तक पहुंच गई. इसके बाद प्रेसिडेंट स्टीफेंस ने इस मामले में अपने भरोसेमंद एसोसिएट्स की काउंसिल बुलाई. 

थॉमस लामोंट टेक्सास गल्फ के सीनियर बोर्ड मेंबर और जे पी मॉर्गन के  पार्टनर  थे. उन्होंने प्रेसिडेंट स्टीफेंस को यह बताया कि कनाडियन अखबारों ने सनसनी फैलाने के लिए इस मामले में बहुत बड़ा चढ़ा कर अपनी रिपोर्ट पेश की थी. लेकिन वह गलत साबित हुए थे. अगले ही दिन सुबह अमेरिकन अखबारों में भी टैक्सास गल्फ को मिनरल्स के  बड़े भंडार मिलने की  खबर को फ्रंट पेज पर छापा गया था. इसके बाद वॉल स्ट्रीट में टैक्सास गल्फ के स्टॉक प्राइसेज काफी हाई होकर ट्रेड करने लगे. 

और फिर टैक्सास गल्फ की तरफ से एक प्रेस रिलीज जारी की गई. जिसमें कंपनी में नंबर दो की पोजीशन वाले मिस्टर फोगार्टी और प्रेसिडेंट स्टीफेंस भी शामिल थे. 

इसके बाद कंपनी सेक्रेटरी डेविड क्रॉफोर्ड  ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि कंपनी के हाथ जिंक कॉपर और सिल्वर का एक बड़ा भंडार हाथ लगा था. और शुरुआती डाटा से यह पता चलता था कि जमीन के अंदर कम से कम दो करोड़ 50 लाख मैट्रिक टन  का भंडार मौजूद था. 

 

लेकिन इस खबर की प्रेस रिलीज के होने से पहले ही  इंसाइडर्स यानी अंदरूनी सूत्रों ने स्टॉक खरीदना जारी रखा. यह सब होते देख कर अप्रैल 1964 में अमेरिका की सिक्योरिटीज एंड एक्सचेंज कमीशन यानी ' S E C ' ने  सिक्योरिटीज एक्सचेंज एक्ट के तहत एक स्ट्रांग केस बना कर  टैक्सास गल्फ के खिलाफ इनसाइड ट्रेडिंग के मामले में कोर्ट में अपील कर दिया.

आखिर यह सारा मामला क्या था ? क्या ऐसी जानकारी थी कि टेक्सास गल्फ के स्टॉक की खरीदी की गई थी ? ताकि इंसाइडर ट्रेडिंग को किया जा सके.  इसके बाद ट्रायल्स और हीयरिंग का एक लंबा सिलसिला शुरू हो गया. इस दौरान अदालत की कार्रवाई में कंपनी के ज्यादातर एग्जीक्यूटिव्स इंसाइडर ट्रेडिंग के दोषी पाए गए. अदालत के सामने अंदरुनी सूत्रों के  गलत आचरण उजागर हो गए. जिनमें से पहला यह था कि अंदरूनी सूत्रों ने वाकई में कंपनी के शेयर्स खरीदे थे. दूसरा उन्होंने जान बूझकर सही जानकारी को पब्लिक के बीच में जाने से रोका था तीसरा उन्होंने शेयर्स को उस वक्त के दौरान खरीदा था जब इंफॉर्मेशन नॉन पब्लिक थी. चौथा इस मामले में अंदरूनी सूत्रों को शेयर्स खरीदने के लिए तब तक इंतजार करना चाहिए था जब तक कि पब्लिक को इस मामले में पूरी जानकारी सही तरीके से ना मालूम हो जाए. जिससे  कि पब्लिक भी इस अपॉर्चुनिटी का फायदा उठा सके. और  फिर फाइनली 1968 में ' S E C ' केस जीत गई. इस मामले की जानकारी से हमें यह सीख मिलती है कि 1968 में टेक्सास गल्फ कंपनी के खिलाफ नागरिक मुकदमे ने इंसाइडर ट्रेडिंग के मामले में एक मिसाल कायम कर दी थी. इस मुकदमे के फैसले में अदालत ने यह कहा है कि  डेटा पब्लिक होने के बाद इनसाइड ट्रेडिंग की जा सकती है.

जीरोक्स जीरोक्स जीरोक्स जीरोक्स
जीरोक्स ने 19 वीं सेंचुरी के  बिजनेस ट्रेंड को पूरी तरह से बदल दिया  था. 1880 में जब किसी  वकील  या बिजनेस मैन को डॉक्यूमेंट की कॉपी चाहिए होती थी तो उनका क्लर्क हाथ से लिख कर के कई सारी कॉपियां तैयार किया करता था. फिर 1915 में टाइप राइटर और कार्बन पेपर आए. उस दौरान ऑफिस एम्प्लाइज कार्बन पेपर रख कर के  या टाइप राइटर से कॉपी कर लेते थे. 1930 के दशक में क्वीन्स, न्यू यॉर्क में  रहने वाले 32 साल के इन्वेंटर चेस्टर एफ कार्लसन किसी इलेक्ट्रॉनिक्स कंपनी के पेटेंट डिपार्टमेंट में काम करते थे. वह अपने खाली वक्त में ऑफिस कॉपी मशीन बनाने की कोशिश किया करते थे. उन्होंने एक स्मॉल इन्वेस्टमेंट के तौर पर अपने घर की किचन में एक टेंपरेरी लैब की शुरुआत की थी. उन्होंने वहां पर एक प्रैक्टिकल ऑफिस कॉपियर बनाने की कोशिश की. इसके लिए उन्होंने शुरुआत में काफी मुश्किलों का सामना किया. हालांकि डॉक्यूमेंट कॉपी करने का कांसेप्ट नया नहीं था, बल्कि 1887 में ही ए बी डिक कंपनी ने डॉक्यूमेंट कॉपी करने के लिए ऑलरेडी मिमियोग्राफ मशीन की शुरुआत कर दी थी. लेकिन उस वक्त मशीनों का इस्तेमाल करना आसान नहीं था. क्योंकि मिमियोग्राफ  यूज करने वाले शख्स को एक खास तरह के मास्टर पेज की  जरूरत होती थी. जिसको हीट सेंसिटिव पेपर से बनाया जाता था और इनसे निकलने वाली फोटो कॉपी गीली होती थीं. 

 

22 अक्टूबर 1938 को इलेक्ट्रो फोटो ग्राफी प्रोसेस का इस्तेमाल करते हुए कार्लसन और उनके असिस्टेंट ओटो कोर्नेई एक स्टैंडर्ड ऑफिस पेपर पर सूखी फोटो कॉपी तैयार करने में कामयाब हो गए. इस प्रोसेस में लाइट, हीट, और इलेक्ट्रोस्टेटिक चार्ज का इस्तेमाल किया जाता था और लेकिन इस मशीन को इस्तेमाल करने में काफी धुआं होता था और बदबू भी आती थी. 1944 में कार्लसन अपने इन्वेंशन को और ज्यादा बेहतर बनाने और अपने काम में आगे डेवलपमेंट करने के लिए बैटल मेमोरियल इंस्टिट्यूट  के साथ जुड़ गए. और इसके बदले में उन्होंने इस काम के लिए मिलने वाली रॉयल्टी का तीन चौथाई हिस्सा उस इंस्टिट्यूट को देने के लिए एग्रीमेंट  कर लिया.

1946 में रोचेस्टर, न्यू यॉर्क  की हेलॉयड  कंपनी के प्रेसिडेंट जोसेफ विल्सन ने कार्लसन की फोटो मशीन की पोटेन्षियल को देखा और फिर हेलॉयड कंपनी ने चेस्टर कार्लसन के काम का फुल पेटेंट राइट ले लिया. और इसके साथ ही उन्होंने उस के  डेवलपमेंट का प्रोजेक्ट  कवर भी ले लिया. 

हेलॉयड कंपनी की शुरुआत 1906 में हुई थी. उस वक्त यह कंपनी सिर्फ फोटोग्राफी पेपर बनाती थी. रोचेस्टर की बाकी दूसरी कंपनियों की तरह हेलॉयड भी ईस्टमैन कोडक की बदौलत ही चल रही थी. सेकंड वर्ल्ड वॉर के बाद कंपनियों के  बीच कंपटीशन काफी ज्यादा बढ़ गया था और उनकी लेबर कॉस्ट भी काफी ज्यादा हो गई थी. इसलिए हेलॉयड  कंपनी कुछ नए प्रोडक्ट्स बनाना चाहती थी. 

 

1948 में कार्लसन प्रोसेस के नाम को बदल कर जीरो ग्राफी रखा गया. जिसका मतलब ग्रीक भाषा में सूखी लिखावट होता है.

हालांकि 1950 में तीन कॉपी मशीन मार्केट में रिलीज हुई थीं : थर्मो फैक्स , ऑटो स्टेट और कोडक वेरी फैक्स. लेकिन इन सब में कोई ना कोई प्रॉब्लम मौजूद थी. जैसे कोडक वेरी फैक्स गीली कॉपियां  निकालता था, जिन को इस्तेमाल करने से पहले सुखाना पड़ता था. और इस मशीन में एक खास तरह के पेपर की जरूरत होती थी. जो कंपनी ही सप्लाई करती थी.

1947 से लेकर 1960 के बीच के 13 सालों के दौरान हेलॉयड ने जीरो ग्राफी की रिसर्च और डेवलपमेंट में 7 करोड़ 50 लाख  डॉलर खर्च किए. इस की फंडिंग के लिए विल्सन और बाकी कंपनी एग्जिक्यूटिव्स ने कंपनसेशन के तौर पर स्टॉक लगा दिए थे. इसके लिए कुछ लोगों ने अपनी पर्सनल सेविंग्स  लगाईं, तो कुछ लोगों ने अपने घर गिरवी रख दिए थे.

1958 में कंपनी का नाम हेलॉयड जीरोक्स रख दिया गया. और ' जीरोक्स ' को ट्रेडमार्क के तौर पर अपना लिया गया. उन का यह ट्रेडमार्क भी बहुत फेमस हो गया था. 

 

 1959 में कंपनी ने अपनी पहली ऑफिस कॉपियर मशीन बनाने की शुरुआत कर दी. कॉपी मशीन की रिलीज से पहले कंपनी में काफी टेंशन और नर्वसनेस का माहौल था. लेकिन फाइनली 1960 में यह कंपनी बहुत अच्छे से चल पड़ी और फिर जीरोक्स फोटो कॉपी कंपनी  ने अपने टाइम की सबसे बेहतरीन और रिलायबल कॉपी मशीन बना कर कॉपी मशीन की दुनिया में एक ब्रेक थ्रू किया. यह मशीन ऑर्डिनरी पेपर को इस्तेमाल करके जीरो ग्राफी के  प्रोसेस से परमानेंट और बहुत अच्छी क्वालिटी की ड्राइ कॉपीज तैयार करती थी. 

 

इसके बाद जेरॉक्स कॉपी मशीन  एक बहुत बड़ी सक्सेस स्टोरी बन गई. और कंपनी के स्टॉक प्राइस आसमान छूने लगे थे. और जो भी इस कंपनी में इनवेस्ट करता था, माला माल हो जाता था.

1961 में हेलॉयड जीरोक्स का नाम पूरी तरह से बदल कर जीरोक्स कारपोरेशन कर  दिया गया. इसके बाद कंपनी को वर्ल्ड जीरोक्स के राइट्स लेने पड़े.  क्योंकि अब इस  कारपोरेशन के नाम को कॉमन लैंग्वेज में काफी ज्यादा इस्तेमाल किए जाने लगा था. जीरोक्स की सफलता में सबसे बड़ा रोल उनके पर्पज का था. जिसे कंपनी एग्जिक्यूटिव्स जेरोक्स स्पिरिट कहते थे. क्योंकि कंपनी अपने कस्टमर्स एंप्लाइज और स्टॉक होल्डर्स के लिए अपनी जिम्मेदारी को समझती थी. लेकिन उससे भी बढ़कर जीरोक्स के अंदर एक सोशल रिस्पांसिबिलिटी की फीलिंग थी. 

 

कंपनी प्रेसिडेंट जोसेफ विल्सन एक विनम्र और सादगी से रहने वाले शख्स थे. जो कंपनी  चलाने के साथ-साथ कम्युनिटी सर्विस में भी यकीन रखते थे. इसी वजह से 1965 से लेकर 1966 तक जीरोक्स कारपोरेशन ने तकरीबन 40 लाख डॉलर डोनेट किए थे. 

 

इसके बाद 1966 मे जीरोक्स कारपोरेशन की सेल्स 50 करोड़ डॉलर तक पहुंच गई थी. और अमेरिका के ऑफिसों में सालाना करीब 1400 करोड़ फोटो कॉपीज तैयार होने लगी थीं. फिर जीरोक्स इतनी सक्सेसफुल हुई  कि कंपनी ने मार्केट में धूम मचा दी.  और कॉपी करने का दूसरा नाम ही जीरोक्स बन गया. स्टॉक मार्केट में जीरोक्स के प्राइस लगातार तेजी से बढ़ते  गये. जिसकी वजह से जीरोक्स कारपोरेशन अमेरिका  में 63 वीं सबसे अमीर फर्म बन गई. इसके सैकड़ों शुरुआती इन्वेस्टर्स करोड़पति बन गए. और कार्लसन भी अमेरिका के सबसे अमीर लोगों में शामिल हो गए .

 

कभी - कभी स्टॉक होल्डर्स यह कंप्लेंट करते थे कि कंपनी उनका पैसा चैरिटीज में दे रही है. और यही नहीं जीरोक्स को सोशल इश्यूज पर स्टैंड लेने की वजह से अक्सर क्रिटिसाइज भी किया जाता था. लेकिन जोसेफ विल्सन का कहना था कि यूनिवर्सिटी एजुकेशन, नीग्रो एम्प्लॉयमेंट, और सिविल राइट्स जैसे इशूज उनके अपने इशूज थे. और उन्होंने यह उम्मीद जताई थी कि वह इसी तरह से हमेशा हिम्मत दिखाते रहेंगे. और उस उस पर अपने पॉइंट ऑफ व्यूज रखने के लिए वह वही करेंगे जो उन्हें ठीक लगता था.

मेकिंग द कस्टमर्स होल : द डेथ ऑफ ए प्रेसिडेंट
19 नवंबर 1963 के दिन न्यूयॉर्क स्टॉक एक्सचेंज में एक अनोखा संकट पैदा हो गया था. उस दिन अधिकारियों को यह खबर मिली थी कि स्टॉक एक्सचेंज की दो मेम्बर फर्म गंभीर आर्थिक संकट का सामना कर रही थीं. क्योंकि एक्सचेंज की मेंबर फर्म बने रहने के लिए उनके पास जरूरी कैपिटल रिजर्व  बहुत कम हो गया था. इन दोनों फर्मों  के नाम ' जे आर विलिसटन एंड बीन इनकॉरपोरेटेड' और ' ईरा हॉप्ट एंड कंपनी ' थे. 

 

दरअसल इन दोनों फर्मो की हालत अचानक  सट्टेबाजी किये जाने की वजह से खराब हुई थी. क्योंकि स्टॉक एक्सचेंज के मेंबर्स की बजाए इन दोनों फर्मो के तमाम ब्रोकर्स ने मिलकर सारी गड़बड़ी की थी. इन लोगों ने बेयोन हडसन काउंटी, न्यू जर्सी, की एक सिंगल फर्म के नाम पर बहुत बड़े अमाउंट का सट्टा लगाया था. इस फर्म का नाम था ' द एलाइड क्रूड वेजिटेबल ऑयल एंड रिफायनिंग कंपनी'. यह सट्टेबाजी  कॉटन सीड ऑयल और सोयाबीन ऑयल की बहुत ज्यादा क्वांटिटी  खरीदने के लिए तमाम कॉन्ट्रैक्ट्स में  फ्यूचर डिलीवरी के लिए की गई थी. इस तरह के कॉन्ट्रैक्ट्स का नाम कमोडिटी फ्यूचर्स  है. और इनमें सट्टेबाजी का एलिमेंट इस बात की पॉसिबिलिटी पर निर्भर करता है कि डिलीवरी की डेट तक  कमोडिटी की कीमतें  कॉन्ट्रैक्ट्स की कीमत से कम या ज्यादा हो जाएंगी.

 

वेजिटेबल ऑयल फ्यूचर की ट्रेडिंग रोजाना न्यू यॉर्क प्रोड्यूस  एक्सचेंज, ब्रॉडवे में, और बोर्ड ऑफ ट्रेड शिकागो शहर में की जाती है. जहां पर स्टॉक एक्सचेंज से जुड़ी हुई टोटल 800 फर्मो में से 40 फर्म कस्टमर्स की तरफ से बिजनेस कंडक्ट करती हैं. 

 

20 नवंबर 1963 को स्टॉक एक्सचेंज के बोर्ड ऑफ गवर्नर्स ने मीटिंग कर के दोनों फर्मो की कैपिटल में कमी  की परेशानियों की वजह से उन दोनों फर्मो को सस्पेंड कर  दिया. और इस वजह से दोनों फर्मो के करीब 30,000 कस्टमर्स के अकाउंट को फ्रीज कर दिया गया. 

 

लेकिन इसके बाद विलिसटन एंड बीन फर्म  के बहुत से साथी ब्रोकर्स ने मिलकर 5 लाख डॉलर का इंतजाम कर दिया. जिससे उनका बिजनेस फिर से शुरू हो गया और और उनका सस्पेंशन भी खत्म कर दिया गया. और इस फर्म के करीब 9000 कस्टमर्स को राहत मिल गई. 

 

लेकिन ईरा हॉप्ट फर्म को धन की कोई मदद हासिल नहीं हो पायी. और 2 दिनों बाद उसके फेल हो जाने की अफवाह फैलना  शुरू हो गईं. इसलिए न्यू यॉर्क स्टॉक एक्सचेंज के प्रेसीडेंट जॉर्ज कीथ फंस्टन ने हॉप्ट फर्म के केस को हल करने के लिए बहुत सावधानी और तेजी के साथ  उसके 

लिक्विडेशन की जांच पड़ताल का काम करना शुरू कर दिया. और फिर जल्दी ही फंस्टन के सामने यह क्लियर हो गया कि हॉप्ट फर्म का सिर्फ फाइनेंशियल कैपिटल ही कम नहीं  हुआ था, बल्कि असल में वह फर्म इंसॉल्वेंट भी थी. 

लिक्विडेशन का मतलब है कि फर्म के बिजनेस को  बंद करके उसकी संपत्तियों से बकाए दारों को उनके बकाए पैसे का पेमेंट कर दिया जाए. और किसी फर्म के इंसॉल्वेंट होने का मतलब है कि उसके पास बकायेदारों का कर्जा चुकाने लायक धन नहीं है.

 

और फिर उस से अगले दिन  22 नवंबर 1963 को अमेरिका के 35 वें प्रेसिडेंट जॉन एफ कैनेडी की हत्या कर दी गई. और उनके भाई जो अटार्नी जनरल थे, उन को भी शूट किया गया था. इसके अलावा अमेरिकी वाइस प्रेसिडेंट को दिल का दौरा पड़ गया था. जिसकी वजह से स्टॉक एक्सचेंज के हालात बहुत ज्यादा बिगड़ गए. और स्टॉक एक्सचेंज में लिस्टेड स्टॉक की कीमतें 13 सौ करोड़ डालर तक नीचे आ गईं. जिसके बाद स्टॉक मार्केट को समय से पहले ही बंद कर दिया गया. और इस घटना के संकट की वजह से ईरा हॉप्ट फर्म के 20000 कस्टमर्स के फ्रोजन अकाउंट्स का स्टेटस और भी ज्यादा खराब हो गया. क्योंकि अब अगर हॉप्ट फर्म दिवालिया हो जाती तो उसके कस्टमर्स को बहुत कम दामों में पेमेंट किया जाता जिसकी वजह से उनको बहुत भारी नुकसान उठाना पड़ता. 

 

इन हालातों में प्रेसिडेंट फंस्टन की चिंता और परेशानी बहुत ज्यादा बढ़ गई थी. क्योंकि हॉप्ट फर्म स्टॉक एक्सचेंज की   एक मेम्बर फर्म थी, इसलिए उस के दिवालिया होने के टाइम उस के  इंसॉल्वेंट होने  की सिचुएशन में फर्म के सभी बकाये दारों का बकाया भी स्टॉक एक्सचेंज को ही चुकाना पड़ता.

 फंस्टन की  जानकारी मे आया था कि  हॉप्ट फर्म के ऊपर यूनाइटेड स्टेट्स के एक ग्रुप और और तमाम ब्रिटिश बैंकों के करीब 3 करोड़ 60 हजार डॉलर का कर्जा चुकाने  की जिम्मेदारी बनी हुई थी. हालांकि उस फर्म के पास उस के गोदामों में रखे गए आयल स्टॉक ऐसेट्स की करीब 2 करोड़ और 25 लाख डॉलर की खरीद रसीदें मौजूद थीं. लेकिन जांच करने के बाद यह पता चला कि वह सब रसीदें नकली थीं और असल में उस के पास कोई स्टॉक मौजूद नहीं  था. इसके बाद  फर्म के अपना कर्जा चुका पाने की सारी उम्मीदें भी खत्म हो गईं. 

 

इसके बाद फंस्टन ने हॉप्ट फर्म के मौजूदा सारे ऐसेट्स का वैल्यूएशन किया  तब उनको यह अंदाजा हुआ कि फर्म के लिक्विडेशन का काम  पूरा करने के लिए करीब 70 लाख डॉलर या उससे भी ज्यादा की रकम इकट्ठा करने की जरूरत थी. 

 

इसलिए हालात के थोड़ा शांत होते ही न्यू यॉर्क स्टॉक एक्सचेंज के प्रेसिडेंट जॉर्ज कीथ फंस्टन, चेयरमैन वाट्स, और वाईस चेयरमैन वाल्टर एन फ्रैंक ने मिलकर तमाम लोन देने वाले बैंकों के साथ मीटिंग करके हॉप्ट फर्म के लिए एक बड़ी रकम उधार दिए जाने के लिए डिस्कशन किया. उस मीटिंग में हॉप्ट फर्म के सभी पार्टनर्स को भी बुला लिया गया था लेकिन उस मीटिंग में उन ब्रिटिश बैंकों को शामिल नहीं किया गया था जिनका कर्जा चुकाया जाना था. इस मीटिंग में स्टॉक एक्सचेंज हॉप्ट फर्म को एक बेल आउट पैकेज देने के लिए तैयार हो गया. 

 

और फिर लंबी सौदेबाजी और कुछ शर्तों के साथ सभी लोन देने वाली पार्टियां न्यू यॉर्क स्टॉक एक्सचेंज को जरूरी रकम उधार देने के लिए तैयार हो गईं. 

 

इसके बाद अब चार ब्रिटिश बैंकों का मामला हल करना बाकी रह गया था जिन्होंने हॉप्ट फर्म को करीब 55 लाख डॉलर की रकम उधार दी थी. इस काम के लिए गोल्डमैन सैक एंड कंपनी के गवर्नर गुस्ताव एल लेवी को इसकी जिम्मेदारी सौंप दी गई. उन्होंने चारों बैंकों के रिप्रेजेन्टेटिव्स से मुलाकात करके पूरे मामले की जानकारी हासिल की  तो यह पता चला कि उन सभी बैंकों ने हॉप्ट फर्म को बिना किसी कॉलेटरल सिक्योरिटी यानी जमानत के बिना ही यह रकम उधार में दी थी. यह पता लगने के बाद गुस्ताव ने उन सभी लोगों को इस बात के लिए कन्वेंस किया कि वह फार्म बिजनेस में भारी नुकसान की वजह से लिक्विडेशन में चली गई थी और उस के पास उनके पैसे चुकाने के लिए ऐसेट्स बाकी नहीं बचे थे. ऐसी सिचुएशन में वह लोग उस फर्म से कानूनी तौर पर अपने पैसे वसूल नहीं कर सकते थे इसलिए उन सबको अपनी रकम को छोड़ देना चाहिए. सिर्फ उसके कस्टमर्स को ही अपने बकाया पैसे वसूलने का कानूनी अधिकार था. और फिर काफी नोकझोंक और बहस करने के बाद चारों बैंक अपना बकाया पैसे छोड़ने के लिए तैयार हो गए.

 

इसके बाद स्टॉक एक्सचेंज के एक स्टाफ मेंबर जे पी महोनी को हॉप्ट फर्म का लिक्विडेटर तैनात कर दिया गया. और उस फर्म के लिक्विडेशन बैंक अकाउंट में स्टॉक एक्सचेंज ने 75 लाख डॉलर जमा करवा दिए. 

 

2 दिसंबर 1963 से लेकर 11 मार्च 1964 के दरमियान लिक्विडेटर ने ज्यादातर  कस्टमर्स का सारा बकाया पेमेंट क्लियर कर दिया था. जिसकी वजह से वह बहुत खुश हो गए थे.  बाकी कुछ कस्टमर्स को तलाश नहीं किया जा सका था. लेकिन उनके बकाए पेमेंट को भुगतान करने का इंतजाम कर दिया गया था. और वह कभी भी लिक्विडेटर के पास से अपना पैसा ले सकते थे.

द इंपैक्टेड फिलोसोफर्स : नान कम्युनिकेशन एट 'जी ई'
जनरल इलेक्ट्रिक यूनाइटेड स्टेट्स की पांच बड़ी कंपनियों में से एक थी. जिसमें तीन लाख से ज्यादा एम्पलाइज काम करते थे और इसकी सेल्स 400 करोड़ डॉलर से ज्यादा की थी. इस कंपनी का हेड क्वार्टर लेक्सिंगटन एवेन्यू , न्यूयॉर्क में था. 

1960 में जनरल इलेक्ट्रिक कंपनी एक बड़े घोटाले में शामिल रही थी. उस दौरान कुल 29 कंपनियों पर शर्मन  एक्ट के तहत सरकारी कानूनों को वायलेट करने का केस चल रहा था. और जी ई कंपनी उन सब में शामिल होने वाली सबसे बड़ी कंपनी थी जिस पर ओवर प्राइसिंग का इल्जाम लगा था. यह कंपनी पब्लिक यूटिलिटीज के लिए ट्रांसफॉमर्स, स्विचगियर्स और जनरेटर जैसे बड़े और बहुत महंगे इक्विपमेंट्स को परचेज करती थी. मिसाल के तौर पर 500 किलो वाट का एक टरबाइन जनरेटर जो स्टीम को इलेक्ट्रिसिटी में कन्वर्ट करता है, उसकी कीमत एक करोड़ 60 लाख डॉलर होती थी. लेकिन जी ई कंपनी के लोग वेस्टिंग हाउस और बाकी कंपनियों के साथ मिल कर इलेक्ट्रॉनिक इक्विपमेंट्स के दाम बढ़ा दिया करते थे. और कुछ प्रोडक्ट तो 40 लाख डॉलर तक ओवर प्राइस किए गए थे. यह घोटाला 1956 से 1959 तक चलता रहा. और इस तरह से 3 सालों तक कंपनी एग्जीक्यूटिव्स टैक्स पेयर्स के पैसों पर मौज उड़ाते रहे. इसके अलावा इस बात की जानकारी भी हुई कि एग्जीक्यूटिव्स अपनी सीक्रेट मीटिंग में कंपनियों के लिए कोड नंबर का इस्तेमाल किया करते थे. यह लोग पब्लिक बूथ और अपने घरों से एक दूसरे को कॉल किया करते थे. ताकि उनके पकड़े जाने का कोई चांस ना रहे. लेकिन एक एंपलाई ने उन सबको एक्सपोज कर दिया. और वह एंपलाई स्टेट विटनेस बनने के लिए तैयार हो गया. इसके बाद जस्टिस डिपार्टमेंट के एंटी ट्रस्ट डिवीजन ने इस केस की जांच पड़ताल शुरू कर दी और इस मामले में गुनाह साबित हो जाने के बाद जी ई कंपनी को पेनल्टी के तौर पर 5 लाख डॉलर का सबसे ऊंचा अमाउंट भरना पड़ा. कंपनी के 11 एग्जीक्यूटिव्स पर नियम के खिलाफ काम करने का इल्जाम लगा, और उनमें से 3 को जेल की सजा मिली. हालांकि इसमें सबसे बड़ी कंट्रोवर्सी यह रही कि जी ई कंपनी और वेस्टिंग हाउस  के ऊंचे लेवल के सारे एग्जीक्यूटिव्स इस मामले   में साफ बच कर निकल गए. बल्कि दोनों कंपनियों के प्रेसिडेंट और चेयरमैन ने यह क्लेम किया कि उन्हें इस मामले में कुछ भी पता नहीं था. और इस सब के बावजूद जी ई कंपनी का बिजनेस पहले की तरह ही चलता रहा. हालांकि कंपनी  का जो नुकसान होना था वह हो गया था लेकिन आम पब्लिक से लिया गया पैसा कभी उनको वापस नहीं किया गया.

द लास्ट ग्रेट कॉर्नर : ए कंपनी कॉल्ड पिगली विगली
पिगली विगली यूनाइटेड स्टेट्स की एक सुपर मार्केट कंपनी थी जो मार्केट में सबसे पहले सेल्फ सर्विस का कांसेप्ट  लेकर आई थी. और उस ने अपने कांसेप्ट को पेटेंट भी करवाया था. असल में वह पहली ऐसी सुपर मार्केट थी जिसने अपने यहां हर आइटम्स पर शॉपिंग कार्डस, और प्राइस टैगस लगाए थे. और चेक - आउट स्टैंडस भी लगवाए थे. हालांकि पिगली विगली कंपनी 1920 तक पूरे यू एस में बहुत तेजी के साथ ग्रो कर रही थी, और जून 1922 में न्यू यॉर्क स्टॉक एक्सचेंज में उसके शेयर्स की लिस्टिंग शुरू हो गई थी. लेकिन उसके कुछ फ्रेंचाइजी  न्यू यॉर्क में फेल हो रहे थे. और इन फैलियर्स  को देख कर वॉल स्ट्रीट के कुछ इन्वेस्टर्स ने इस सिचुएशन का फायदा उठाना चाहा.  इस लिए उन्होंने एक बेर रेड  ( BEAR RAID) क्रिएट करने की कोशिश करी. बेर रेड उसे कहते हैं जब इन्वेस्टर्स किसी गिरते हुए स्टाक प्राइस को और ज्यादा गिराने के लिए उसी स्टाक  में इन्वेस्ट करके पैसे कमाते हैं. इसी वजह से उन्होंने यह क्लेम किया कि पूरी पिगली विगली फेल हो रही थी. क्योंकि न्यू यॉर्क में कुछ फ्रेंचाइजी काम नहीं कर रहे थे. जबकि इस बात में कोई सच्चाई नहीं थी. और फिर जब पिगली विगली के ओनर क्लेरेंस सॉन्डर्स को इस बात की जानकारी हुई, तब उन्हें इस बात पर बहुत गुस्सा आया. और फिर उन्होंने दूसरे इन्वेस्टर्स को  सबक सिखाने के लिए अपनी कंपनी के 98% शेयर्स शॉर्ट सेलिंग की बेसिस पर खुद ही खरीद लिए. और इसका नतीजा यह हुआ कि कंपनी के स्टॉक प्राइस बहुत तेजी से ऊपर चढ़ गए. जिस की वजह से उनकी  स्टॉक प्राइस $39 से बढ़ कर $124 पर पहुंच गई. इसके बाद स्टॉक मार्केट में एक्सचेंज के गवर्नर ने पिगली विगली के स्टॉक्स में आगे ट्रेडिंग को रोक दिया और शॉर्ट सेलर इन्वेस्टर्स की डिलीवरी डेड लाइन को पोस्टपोन कर दिया. जिस खबर के बाद शेयर प्राइस एक घंटे के अंदर $124 से ऊपर की तरफ बढ़ने की जगह $82 तक नीचे आ गए. और फिर अगले दिनों में लगातार और नीचे होते चले गए. इसके बाद सॉन्डर्स को अपने सारे शार्ट स्टॉक्स का फुल सेटेलमेंट करने के लिए एक्सचेंज की डेडलाइन के मुताबिक पहले दिन हर एक शेयर के लिए $100 उसके बाद अगले दिन  $150 और फाइनली $250 के हिसाब से पेमेंट करना पड़ा. इस सिचुएशन की वजह से  सॉन्डर्स को ऐसा लगा कि  शॉर्ट सेलर इन्वेस्टर्स को भी बहुत  ज्यादा नुकसान उठाना पड़ गया होगा और उन का सब कुछ बर्बाद हो गया होगा. जबकि हकीकत में ऐसा नहीं था. दरअसल हुआ यह था कि दूसरे शार्ट सेलर इन्वेस्टर्स ने न्यू यॉर्क स्टॉक एक्सचेंज को कन्वेंस कर के अपने पेमेंट चुकाने की डेडलाइन के लिए कुछ टाइम का एक्सटेंशन हासिल कर लिया था. और दूसरी तरफ बहुत ज्यादा शेयर्स खरीदने के लिए बहुत बड़ी रकम खर्च कर देने की वजह से सॉन्डर्स खुद भी एक बहुत बड़े लोन में फंस गए. जिसकी वजह से उन को बहुत ज्यादा लॉस उठाना पड़ा. जिसके बाद उन्हें कंपनी को दिवालिया डिक्लेअर करना पड़ा. इसके बाद उनकी जानी मानी कंपनी पिगली विगली एक गुमनाम फ्रेंचाइजी बन कर रह गई.  जबकि अगर उन्होंने अपने इमोशंस को कंट्रोल कर लिया होता, या स्टॉक मार्केट में उनकी इन्फ्लूएंस ज्यादा बेहतर होती तो यह माना जा सकता था कि  पिगली विगली कंपनी भी वॉलमार्ट जैसे बड़े साइज की एक कंपनी बन सकती थी. इस घटना से हमें यह सीख मिलती है कि बदला लेने के लिए नेगेटिव इमोशंस आप को बर्बाद कर सकते हैं. इसलिए बिजनेस में ऐसे हालातों को अवॉइड कर देना चाहिए. या फिर आप खुद को इतना इनफ्लुएंसिंग और पावरफुल इंसान बनाएं कि कोई भी शख्स आप से लड़ने की हिम्मत ही ना करे. 

 

1928 में क्लेरेंस सॉन्डर्स ने एक बार फिर सोल ऑनर्स स्टोर्स के नाम से एक नई ग्रॉसरी चैन की शुरुआत कर दी. लेकिन 1930 में वैश्विक मंदी की वजह से इस बार भी उनको भारी नुकसान उठाना पड़ा और जिसकी वजह से उन्हें अपने सोल ऑनर्स स्टोर्स को दिवालिया डिक्लेअर करना पड़ा. 

 

लेकिन इसके बाद भी उनकी हिम्मत कम नहीं हुई और उन्होंने  एक बार फिर से ' कीडूजल ' के नाम से एक दूसरी नई ग्रॉसरी चैन की शुरुआत कर दी. जो कि एक बहुत आधुनिक बिजली से चलने वाला स्टोर था. इस स्टोर में आने वाले सभी कस्टमर्स को एक खास तरह की चाबी दी जाती थी जिसके जरिए से वह लोग  अपनी जरूरत की चीजों को तमाम ऑटोमेटिक सिस्टम से सिलेक्ट कर लेते थे. और जब कस्टमर्स की शॉपिंग पूरी हो जाती थी तो वह एग्जिट गेट पर जाकर अपनी चाबी को जमा कर देते थे. जिसके अंदर उनकी शॉपिंग की पूरी डिटेल रिकॉर्ड हो जाती थी. फिर उस चाबी की मदद से उनका बिल तैयार कर दिया जाता था और उनकी शॉपिंग का सारा सामान अच्छी तरह से पैक हो कर एक कन्वेयर बेल्ट की मदद से एग्जिट गेट पर कस्टमर के हाथों तक पहुंचा दिया जाता था. 

 

इसके बाद भी सॉन्डर्स ने मैंफिस और शिकागो शहर में फूड इलेक्ट्रिक की एडवांस टेक्निक से लैस बहुत पेचीदा मेकैनिज्म वाले ' कीडूजल ' के दो और पायलट स्टोर्स शुरू करने की कोशिश की थी. लेकिन उन का यह सपना अधूरा ही रह गया क्योंकि अक्टूबर 1953 में सॉन्डर्स की डेथ हो गई थी. लेकिन इसके 5 साल बाद उनके प्लान किए गए  दोनों पायलट स्टोर्स पूरी शान के साथ शुरू हो गए थे. हालांकि इसके लिए सॉन्डर्स के योगदान को भी हमेशा याद किया जाता है.

ए सेकंड सॉर्ट ऑफ लाइफ : डेविड ई. लिली एंथल, बिजनेस मैन
यह  स्टोरी डेविड एली लिलीएंथल नाम के एक ऐसे अनोखे शख्स के बारे में बताई गई है. जिन्होंने एक लंबे वक़्त तक अहम सरकारी विभागों में ऊंचे लेवल पर काम करने के बाद 50 साल की उम्र में बिजनेस की दुनिया में कदम रखा और न्यू यॉर्क वॉल स्ट्रीट के शेयर मार्केट में भी अपनी धाक जमा ली. 

 

इनका जन्म 8 जुलाई  1899 को अमेरिका के इलिनॉइस काउंटी में हुआ था.1923 में हार्वर्ड लॉ स्कूल से ग्रेजुएशन करने के बाद उन्होंने वकालत की प्रैक्टिस शुरू कर दी और खास कर लेबर और पब्लिक यूटिलिटी के मामलों में एंगेज हो गए. उसी दौरान उन्होंने टेलीफोन रेट मामले का एक केस जीत लिया जिसकी वजह से शिकागो के ग्राहकों को 2 करोड़ डॉलर का रिफंड दिया गया था. 

 

उनकी इस शानदार जीत की वजह से यू एस के विस्कॉन्सिन स्टेट के गवर्नर का ध्यान उनकी तरफ गया और उन्होंने 1931 में लिलीएंथल कोविस्कॉन्सिन पब्लिक सर्विस कमीशन का मेंबर बना दिया. उन्होंने उस स्टेट में पब्लिक यूटिलिटी के यूज फुल कानूनों को इतनी अच्छी तरीके से लागू किया कि वह दूसरे 6 स्टेट्स के लिए मॉडल बन गए.

 

उनकी इस शानदार कामयाबी ने अमेरिका के मौजूदा प्रेसिडेंट फ्रैंकलिन डी रूजवेल्ट का ध्यान अपनी तरफ खींच लिया. 

और फिर जब अमेरिकन कांग्रेस ने टेनेसी वैली अथॉरिटी ( T V A) के फ्लड कंट्रोल प्रोजेक्ट को अप्रूव कर दिया तब प्रेसीडेंट रुजवेल्ट ने 1933 में ' T V A ' के लिए 3 लोगों के बोर्ड ऑफ मेम्बर्स में लिलीएंथल का नाम भी शामिल कर दिया. और फिर 1941 में उनको उस प्रोजेक्ट का चेयरमैन बना दिया गया. जहां पर उन्होंने 1946 तक काम किया. 

 ' T V A '  इलेक्ट्रिक पावर के मामले में एक सरकारी प्रोजेक्ट था और वह देश में  किसी भी प्राइवेट पावर कारपोरेशन से  बहुत बड़ा था. लेकिन वहां पर लिलीएंथल के कामकाज को कुछ लोग बहुत  शक की निगाहों से देखते थे. क्यूंकि उन्हें लगता था कि वह वहां अपने फायदे के लिए गलत काम करते थे. 

 

1946 में वह यूनाइटेड स्टेट्स एटॉमिक एनर्जी के पहले चेयरमैन बनाए गए. वह न्यूक्लियर पावर प्लांट्स को बेहतर बनाने के लिए और उनको और बड़ा बनाने के लिए कमिटेड थे. इसके साथ ही साथ वह एटॉमिक बमो का भंडार तैयार करने और न्यूक्लियर हथियार डिवेलप करने के लिए भी अपने जी जान से लगे हुए थे. 

 

1949 में उनके ऊपर अपने जॉब के मिस मैनेजमेंट करने का   और अपनी पोजीशन का गलत तरीके से फायदा उठाने का इल्जाम लगाया गया. फाइनली वो उस केस में अदालत से बरी कर दिए गए लेकिन इसके बाद उनका गवर्नमेंट जॉब में इंटरेस्ट खत्म हो गया. 

 

फरवरी 1950 में उन्होंने यूनाइटेड स्टेट्स के एटॉमिक एनर्जी कमिशन की पोजीशन से इस्तीफा दे दिया. 

इसके बाद टाइम मैगजीन ने 50 साल की उम्र में लिलीएंथल को  अपनी एक स्टोरी में सेकंड वर्ल्ड वॉर के बाद शायद मोस्ट कंट्रोवर्शियल फिगर करार दिया था. और ऐसा इसलिए था क्योंकि उन्होंने सरकारी काम छोड़ने के बाद पब्लिक मामलों के बहुत सारे काम किए थे. और ताज्जुब की बात थी कि या तो उनके सारे काम वॉल स्ट्रीट से जुड़े हुए थे या फिर प्राइवेट बिजनेस से. और उनके कुछ काम तो दोनों ही जगहों से जुड़े हुए थे. 

 

1951 की शुरुआत में उन्होंने कोलियर मैगजीन की तरफ से इंडिया , पाकिस्तान , थाईलैंड और जापान का दौरा किया. उनकी इस ट्रिप के बाद कोलियर मैगजीन में एक आर्टिकल पब्लिश हुआ था. जिसमें उन्होंने इंडिया और पाकिस्तान के बीच कश्मीर और इंडस रिवर के हेडवाटर्स यानी उस नदी के शुरुआती सोर्स के  डिस्प्यूट को हल करने के बारे में सुझाव दिया था. उनका आईडिया था कि दोनों देशों के बीच में चल रहे तनाव को कम करने के लिए डिस्प्यूटेड इलाके में लोगों की लिविंग कंडीशन को बेहतर करने के लिए एक कोऑपरेटिव प्रोग्राम चलाए जाने की जरूरत थी जिसको इंडस वैली के इकनोमिक डेवलपमेंट के जरिए से किया जाना चाहिए था. 

 

इसके बाद उन्होंने  लाजार्ड फ़्रिर्स नाम के एक इन्वेस्टमेंट बैंक के लिए इंडस्ट्रियल कंसल्टेंट के तौर पर काम करना शुरू कर दिया. लाजार्ड लिमिटेड एक फाइनेंशियल कंसल्टेंट और ऐसेट मैनेजमेंट फर्म है जो खासकर इंस्टीट्यूशनल क्लाइंट्स  के साथ निवेश बैंकिंग, ऐसेट मैनेजमेंट और तमाम दूसरी फाइनेंशियल सर्विसेज प्रोवाइड करती है. यह दुनिया का सबसे बड़ा फ्री इन्वेस्टमेंट बैंक है जिस के मेन एग्जिक्यूटिव  ऑफिस न्यूयॉर्क शहर, पेरिस और लंदन में हैं.

1955 में उन्होंने न्यू यॉर्क में डेवलपमेंट एंड रिसोर्सेज कारपोरेशन ( D & R) के नाम से एक इंजीनियरिंग और कंसलटेंट फर्म की शुरुआत कर दी. उनकी यह फर्म ' T V A ' के कुछ ऑब्जेक्टिव्स को शेयर करती थी : जिनमें बड़े पब्लिक पावर और पब्लिक वर्क्स प्रोजेक्ट शामिल थे. 

लिलीएंथल ने अपनी (D & R ) फर्म की शुरुआत करने के लिए लाजार्ड फ़्रिर्स के सपोर्ट का फायदा उठाने के साथ - साथ ' T V A ' में  काम करने वाले अपने पुराने साथियों को भी हायर कर लिया. और उन्होंने ज्यादातर विदेशी क्लाइंट्स को कंसल्टेंसी प्रोवाइड करने पर फोकस किया. उन्होंने अपनी फर्म के जरिए से विदेशों में नेचुरल रिसोर्सेज के डेवलपमेंट की तरफ मैनेजरियल , टेक्निकल, बिजनेस, और प्लानिंग सर्विसेज प्रोवाइड करना शुरू कर दिया. 

 

इसी दौरान उन्होंने उन्होंने 1953 में बिग बिजनेस, ए न्यू इरा और 1963 में चेंज  होप एंड द बॉम्ब नाम की किताबें  लिखी हैं. 

उन्होंने अपनी फर्म( D & R) के जरिए से  ईरान के दक्षिणी पश्चिमी बॉर्डर से लगे हुए खुज़ेस्तान के सूखे और गरीबी की मार झेल रहे लेकिन भरपूर तेल से मालामाल इलाकों में सुधार करने के लिए एक विशाल योजना बनाई. 

उन्होंने इटली की सरकार को उनके पिछड़े हुए दक्षिणी प्रोविंस के डेवलपमेंट के लिए सुझाव दिए. 

उन्होंने उपजाऊ जमीनों वाली लेकिन हमेशा बाढ़ के संकटों से परेशान रहने वाली कोलम्बिया की काका घाटी  में ' T V A ' जैसी अथॉरिटी सेट अप करने के लिए उनकी  हेल्प करी. 

और उन्होंने घाना देश में पानी की बेहतर सप्लाई से लेकर आइवरी कोस्ट  में मिनरल्स डेवलपमेंट  के बारे में और उत्तरी अमेरिका के पुर्तो रिको में इलेक्ट्रिक पावर और एटॉमिक प्लांट सेटअप करने के लिए अपने सुझाव प्रोवाइड किए थे.

इसके अलावा 1960 में लिलीएंथल ' मिनिरल्स एंड केमिकल कॉरपोरेशन ऑफ अमेरिका ' नाम की फर्म के डायरेक्टर और और एक इंटरप्रेन्योर के तौर पर वॉल स्ट्रीट में लिस्टेड हो गए थे. और और उस वक्त वह 25 डॉलर के हिसाब से 41, 366 शेयर्स के मालिक भी बन गए थे. जबकि यह शेयर्स न्यू यॉर्क स्टॉक एक्सचेंज में 25 डॉलर के ऊपर के रेट के हिसाब से ट्रेड  कर रहे थे. 

 

धन के मामले में उनकी इतनी  बड़ी  हैसियत का खुलासा होने के बाद उनको बहुत शक की निगाहों से देखा जाने लगा था. क्योंकि सब लोगों का यही मानना था कि अपनी जिंदगी का ज्यादातर टाइम सरकारी तनख्वाह पर गुजारा करने वाले किसी शख्स की हैसियत बिना प्राइवेट रिसोर्सेज की मदद से इतनी ज्यादा नहीं हो सकती थी. इसलिए उन्होंने जरूर गलत तरीके से इतना ज्यादा धन कमाया होगा. जबकि सच्चाई यह थी कि उन्होंने अपना ज्यादातर पैसा अपनी फर्म ( D & R) की कंसल्टेंसी से कमाया था. 

 

उसी दौरान  उनकी फर्म ( D & R)  ने घरेलू शहरी डेवलपमेंट में भी फोकस करना शुरू कर दिया. जिसकी वजह से क्वींस काउंटी, न्यूयॉर्क और ऑक लैंड काउंटी, और मिशीगन के लिए प्राइवेट ग्रुप्स को एंगेज कर  दिया गया. जिनका काम यह देखना था कि ' T V A ' की एप्रोच से उन आधुनिक और गंदी बस्तियों को कितना फायदा पहुंच रहा था. 

 

जहां तक D & R की अपनी खुद की  और अमेरिका के बिजनेस में उसकी पोजीशन का सवाल था, तो उस बारे में लिलीएंथल के मुताबिक उन का प्रॉफिट काफी तेजी से बढ़ रहा था उन्होंने अपने ऑफिस का एक्सपेंशन करते हुए वेस्ट कोस्ट में दूसरा परमानेंट ऑफिस शुरू कर दिया था. और सबसे बड़ी बात यह थी कि उनकी फर्म सबसे होनहार नए ग्रैजुएट्स के लिए बहुत आइडियलिस्टिक ऑब्जेक्टिव्स प्रोवाइड कर रही थी.

 

फाइनली लिलीएंथल को उन के  प्राइवेट एंटरप्राइज से बहुत ज्यादा सेटिस्फेक्शन मिल रहा था और ऐसा सेटिस्फेक्शन उन को पूरी जिंदगी में कभी भी सरकारी काम करने के दौरान नहीं मिला था. हालांकि 1951 में उनको नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज की तरफ से पब्लिक वेलफेयर मेडल  से नवाजा गया था. जो कि उनके लिए बहुत बड़े सम्मान और संतोष की बात थी.

स्टॉक होल्डर सीजन : एनुअल मीटिंग्स एंड कॉरपोरट पावर
मशहूर अमेरिकन वकील एडोल्फ ए॰ बर्ले ने कॉर्पोरेट पावर की स्टडी में यह बताया है कि करीब 500 या उससे ज्यादा कॉर्पोरेशन्स अमेरिकन अर्थव्यवस्था पर अपनी मजबूत पकड़ रखते हैं. और कॉर्पोरेशन्स की खुद की पावर उनके डायरेक्टरर्स और प्रोफेशनल मैनेजरर्स मे मौजूद होती है. लेकिन उनकी असली पावर अमेरिका में मौजूद दो करोड़ से ज्यादा स्टॉक होल्डर्स में मौजूद होती है. क्योंकि यही लोग एक शेयर बराबर एक वोट के बेसिस पर डायरेक्टर्स को इलेक्ट करते हैं. लेकिन बहुत सारे फैक्टर्स के जरिए से स्टॉक होल्डर्स अपनी असली पावर को इस्तेमाल नहीं कर सकते हैं. जैसे कि उन लोगों को बढ़ते हुए प्रॉफिट और डिविडेंड्स  के टाइम में  इस मामले से अलग रखना, कॉर्पोरेट मामलों में इग्नोर करना  और  उन लोगों को सिर्फ एक गिनती समझ कर इस्तेमाल करना शामिल हैं. तमाम अदालतों ने भी यह नियम बना दिया है कि किसी डायरेक्टर को स्टॉक होल्डर्स के इंस्ट्रक्शंस को फॉलो करना जरूरी नहीं होगा.

 

1966 मे इस किताब के लेखक जॉन ब्रुक्स अमेरिकन टेलिफोन एंड टेलीग्राफ ( A. T. & T. ) कंपनी के मैनेजमेंट के साथ स्टॉक होल्डर्स की एनुअल मीटिंग अटेंड करने के लिए न्यू यॉर्क शहर से बाहर मिशिगन के डेट्रायट शहर में गए थे. उसी टाइम उनको यह जानकारी हुई  कि ' ए. टी. & टी.' के स्टॉक होल्डर्स की संख्या बढ़ कर रिकॉर्ड 30 लाख से ऊपर पहुंच गई थी. उन सभी स्टॉक होल्डर्स को कुछ हफ्तों पहले ही ईमेल के जरिए से मीटिंग के बारे में  नोटिस और उसे अटेंड करने के लिए एक फॉर्मल इनविटेशन भेजा गया था. लेकिन जॉन ब्रुक्स यह सोच कर हैरान हो रहे थे कि अगर सभी स्टॉक होल्डर्स या उनमें से आधी संख्या में भी लोग मीटिंग अटेंड करने आ जाते और अपने लिए एक सीट की डिमांड करते तो क्या होता ? 

 

उस मीटिंग का आयोजन एक बहुत बड़े ऑडिटोरियम में किया गया था लेकिन मीटिंग के दौरान उस की कैपेसिटी के हिसाब से बहुत कम लोग वहां मौजूद थे. 

ऑडिटोरियम के प्लेटफार्म पर ' ए. टी. & टी.' के चेयरमैन मिस्टर कैपल के साथ कंपनी के 18  डायरेक्टर्स भी मौजूद थे. 

 

जॉन ब्रुक्स ने पिछले सालों में जो एनुअल मीटिंग्स अटेंड की हुई थीं, और उनके बारे में जो कुछ भी पढ़ रखा था उससे उन्हें ऑलरेडी यह पता था कि बहुत बड़ी कंपनियों में कुछ प्रोफेशनल कहे जाने वाले स्टॉक होल्डर्स जरूर मौजूद होते हैं. ऐसे लोग कंपनियों में स्टॉक खरीदने को अपना फुल टाइम पेशा बना लेते हैं. या जिन्हें दूसरे स्टॉक होल्डर्स की प्रॉक्सी हासिल होती है. प्रॉक्सी का मतलब है किसी दूसरे शख्स को रिप्रेजेंट करना और उनकी तरफ से जरूरी फैसले लेना और जल्दी से जल्दी उन्हें कारपोरेशन के मामलों की खबर देना. इसके अलावा उनका काम था तमाम सवालों को उठाने के लिए एनुअल मीटिंग्स को अटेंड करना या रिजोल्यूशन्स प्रपोज करना. 

 

और ऐसी मीटिंग्स में ज्यादातर नजर आने वाली एक प्रोफेशनल स्टॉक होल्डर  मिसेज विमला सोस थीं. वह  न्यू यॉर्क में रहने वाली एक बहुत ही बोल्ड लेडी थीं. वह स्टॉक होल्डर औरतों की एक ऑर्गनाइजेशन की लीडर थीं. जो इस के मेंबर्स के वोटों की प्रॉक्सी करने के साथ-साथ अपने शेयर्स की वोटिंग भी किया करती थीं.

 

और एक दूसरे प्रोफेशनल स्टॉक होल्डर ' ल्यूइस डी गिल्बर्ट ' भी न्यू यॉर्क से आते थे. वह अपनी खुद की और अपनी एक बड़ी सी फैमिली की होल्डिंग्स को रिप्रेजेंट करते थे.

और उस टाइम मिसेज सोस और मिस्टर गिल्बर्ट भी  ' ए. टी. & टी.' की मीटिंग में मौजूद थे. 

 

मीटिंग अपने ठीक टाइम पर शुरू हो गई और चेयरमैन कैपल ने वहां मौजूद लोगों को एड्रेस करते हुए अपनी कंपनी के काम काज के बारे में बताना शुरू किया. लेकिन जल्दी ही मिस्टर गिलबर्ट ने उस मीटिंग में अपनी शिकायत करते हुए कहा कि उन्होंने जिन तमाम रिजोल्यूशन्स को प्रॉक्सी स्टेटमेंट में शामिल करने के लिए कंपनी से कहा था वह काम अभी तक नहीं किया गया था. और इसके अलावा भी उन्होंने अपनी शिकायत में कई पॉइंट्स को उठाया था. उनकी शिकायत के जवाब में मिस्टर कैपल ने बहुत शार्ट में उनको बताया कि मिस्टर गिलबर्ट के प्रपोजल स्टॉक होल्डर्स के लिहाज से कंसीडर किए जाने लायक सही नहीं थे. और वह बहुत देर से भी सबमिट किए गए थे. और फिर इस बात को वहीं खत्म कर दिया गया . इसके बाद प्लेटफार्म पर मौजूद दूसरे अट्ठारह डायरेक्टर्स  का इंट्रोडक्शन कराया गया और फिर वह सब लोग कोई बातचीत किए बिना ही वहां से गायब हो गए.

और  मिस्टर कैपल ने कंपनी ऑपरेशंस की रिपोर्ट के बारे में बताना शुरू कर दिया. उनकी स्पीच खत्म होने के बाद अगले साल के लिए कंपनी डायरेक्टर्स को नॉमिनेट किया गया. उसी टाइम मिसेज सोस ने अपनी तरफ से एक लेडी, डॉक्टर फ्रांसिस एरकिंस का नाम भी डायरेक्टर के लिए नॉमिनेट कर  दिया. डॉक्टर फ्रांसिस एक साइको एनालिस्ट थीं. जब इस बारे में मिसेज सोस से एक्सप्लेनेशन मांगा गया. तो उन्होंने अपने जवाब में बताया कि उनको लगता था कि ' ए. टी. & टी.' के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स में एक औरत को भी होना चाहिए था. और इसका एक फायदा यह भी था कि कंपनी के एग्जिक्यूटिव्स कभी - कभी अपना साइकेट्रिक एग्जामिनेशन करवा सकते थे. इसके बाद मिस्टर गिलबर्ट ने भी मिसेज सोस के नॉमिनेशन को अपना सेकंड प्रपोजल दे दिया. 

 

इस किताब में जॉन ब्रुक्स ने कारपोरेट जगत की और भी बहुत सी ऑर्गेनाइजेशंस के बारे में लिखा है : जैसे जनरल इलेक्ट्रिक कंपनी , फाइजर एंड कंपनी , द रेडियो कारपोरेशन ऑफ  अमेरिका,और कम्युनिकेशन्स सैटलाइट कारपोरेशन ( कॉसमैट ) जैसी तमाम बड़ी कॉरपोरेट कंपनीयों  की एनुअल मीटिंग में होने वाले सवाल जवाब, स्टॉकहोल्डर्स और मैनेजमेंट के बीच की रिलेशन शिप  और इमोशंस के साथ - साथ दोनों की पावर्स और कमियों के बारे में बहुत डिटेल में और बारीकी से बताया है. जिसको पढ़ कर आप बहुत अच्छी तरह से यह अंदाजा लगा सकते हैं  कि तमाम बड़े कारपोरेशन्स अपने फ्यूडल सिस्टम यानी सामंती व्यवस्था के जरिए से  काम काज कर के कितनी मजबूती से अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर हावी हैं.

वन फ्री बाइट : ए मैन, हिज नॉलेज, एंड हिज जॉब
1962 में 31 साल के डॉनल्ड डब्लू वोहलगेमुथ नाम के एक साइंटिस्ट अमेरिका में ओहायो शहर में बी एफ गुडरिक कंपनी में रिसर्च और डेवलपमेंट प्रोग्राम का जॉब कर रहे थे. उन्होंने वह जॉब हर महीने 365 डॉलर की तनख्वाह से शुरू की थी. वह वहां पर पिछले 6 सालों से ज्यादा समय से इंजीनियरिंग और रिसर्च के मामलों में काम कर रहे थे. और इस बीच उनकी तनख्वाह को 15 बार बढ़ा कर उनकी सालाना कमाई करीब $11000 कर दी गई थी.  वह पिछले कुछ सालों से गुडरिक के स्पेस सूट इंजीनियरिंग डिपार्टमेंट के मैनेजर के तौर पर काम कर रहे थे. उसी दौरान 1962  में गुडरिक कंपनी की एक कंपीटीटर द इंटरनेशनल लेटेक्स कारपोरेशन नाम की एक बहुत बड़ी कंपनी ने वोहलगेमुथ को अपोलो मून मिशन के लिए स्पेस सूट बनाने के काम का एक बहुत लुभावना ऑफर दिया. इसके बाद वह अपनी पुरानी  जॉब को छोड़ कर नई जॉब करने के लिए तैयार हो गए थे. यह बात पता लगने के बाद गुडरिक ने अदालत में वोहलगेमुथ के खिलाफ एक अपील दायर करते हुए यह रिक्वेस्ट किया कि उनको किसी दूसरी कंपनी के स्पेस सूट डिवीजन में काम करने से रोका जाए. क्योंकि इस बारे में उनका मुद्दा यह था कि देश का कानून किसी कंपनी के बिजनेस सीक्रेट को दूसरी कंपनी के सामने उजागर किए जाने से रोकता था. और इसके लिए किसी तरह के एविडेंस पेश करने की जरूरत भी नहीं थी. अब इसके बाद अदालत को यह डिसाइड करना था कि क्या किसी कंपनी के एम्पलाई को दूसरी जगह जॉब करने से रोका जा सकता था या नहीं ?  क्योंकि नई जॉब में पुरानी कंपनी के सीक्रेट्स लीक होने के चांसेस मौजूद थे. 20 फ़रवरी 1963 को फाइनली  जज हार्वे ने यह डिसाइड किया कि कानून के हिसाब से  सीक्रेट्स के डिस्क्लोजर होने के पहले और डिस्क्लोजर के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की जा सकती थी. जब तक कि इसके पीछे के बुरे इरादे का  क्लियर एविडेंस पेश न किया जाए. लेकिन फिर गुडरिक ने जज हार्वे के  फैसले के खिलाफ अदालत में अपनी नई अपील दायर कर दी. जिसकी सुनवाई के बाद दूसरे जज आर्थर डब्लू डायल  ने 22 मई 1963 को पहले जज हार्वे के फैसले को कुछ हद तक उलट दिया.  और वोहलगेमुथ को गुडरिक कंपनी के ट्रेड सीक्रेट का खुलासा  ना करने की शर्त पर नई कंपनी में जॉब करने के लिए परमिशन दे दी गई. 

 

अपने इस फैसले के बारे में एक्सप्लेन करते हुए जज आर्थर डब्लू डायल ने यह क्लियर किया कि जज हार्वे ने अपने फैसले में तकनीकी रूप से कुछ गलतियां की थीं. दरअसल उनकी फाइंडिंग में वोहलगेमुथ के किसी बुरे इरादे के बारे में कोई एविडेंस नहीं मिला था. लेकिन यहां सवाल किसी के अच्छे या बुरे इरादे का नहीं था बल्कि यहां अहम मुद्दा यह था कि  इस मामले में गुडरिक कंपनी के ट्रेड सीक्रेट के डिस्क्लोजर होने का खतरा वाकई में बना हुआ था. जिसको कंट्रोल किया जाना जरूरी था.

 

मई 1964 में न्यू यॉर्क बार एसोसिएशन ने वोहलगेमुथ के केस पर फोकस करते हुए ट्रेड सीक्रेट पर एक सिंपोजियम यानी विचार गोष्ठी का आयोजन किया. जिसके बाद बहुत सी कंपनियों ने अपने ट्रेड सीक्रेट के लीक हो जाने के डर की वजह से अपने पुराने कर्मचारियों के खिलाफ अदालत में मुकदमे दायर कर दिए थे. हालांकि इन मामलों में अदालत ने कोई फैसला नहीं दिया था लेकिन फिर भी गुडरिक वर्सेस वोहलगेमुथ के मामले में अदालत के फैसले की वजह से लोगों को अपनी जिम्मेदारी का एहसास हो गया था. और यह उम्मीद की जाने लगी थी कि कोई भी शख्स ट्रेड सीक्रेट के मामले में अदालत के फैसले को वॉयलेट नहीं करेगा.

इन डिफेंस ऑफ स्टर्लिंग : द बैंकर्स , द पाउन्ड, एंड द डॉलर
दूसरे विश्व युद्ध के बाद पूरी दुनिया में करेंसी को कंट्रोल करने के लिए एक ऐसा सिस्टम बनाया गया था जो गोल्ड की कीमत की जगह डॉलर की कीमत पर आधारित था. इसका नाम ब्रेटन वुड्स सिस्टम था. 

 

1944 में ब्रेटन वुड्स में अमरीका के हैरी डेसटर व्हाइट और इंग्लैंड के जॉन मेयनार्ड कीन्स के गाइडेंस  में 44 देशों के सम्मेलन में इस सिस्टम को बाकायदा तैयार किया गया. इस सम्मेलन का मकसद अंतरराष्ट्रीय सहयोग बढ़ाना और करेंसी और उसके एक्सचेंज रेट्स को फिक्स  करना था.

 इसलिए उन्होंने पूरी दुनिया के लिए  गोल्ड की बजाय डॉलर का स्टैंडर्ड तैयार कर दिया.

 

इसके बाद से दुनिया की हर करेंसी की क़ीमत का निर्धारण डॉलर के तय शुदा ऑफिशियल एक्सचेंज रेट  से किया जाने लगा. क्योंकि तमाम दूसरे देश फ्री करेंसी एक्सचेंज के मार्केट के जरिए से अपनी करेंसीयों को स्थिर नहीं रख सकते थे. जबकि वह लोग डॉलर के लिहाज से अपनी करेंसीयों को स्थिर रख सकते थे. 

 

दूसरे शब्दों में, अब डॉलर को कोई भी अपनी मर्जी़ से गोल्ड में नहीं बदल सकता था, और ऐसा केवल विदेशी केंद्रीय बैंकों के ज़रिये ही किया जा सकता था. प्रथम विश्वयुद्ध से पहले तमाम करेंसीयों के लिए सिर्फ़ गोल्ड को ही स्टैंडर्ड माना जाता था. 

 

1944 में आईएमएफ की स्थापना ब्रेटन वुड्स एग्रीमेंट के तहत की गई थी. यह योजना एक्सचेंज रेट्स को डॉलर से जोड़ कर फ्री मार्केट सिस्टम  को बढ़ावा देने के लिए बनाई गई थी.

 

1964 से लेकर 1967 के दौरान तमाम सट्टेबाज वॉल स्ट्रीट शेयर मार्केट में अटैक करके स्टॉक के प्राइसेज में बहुत ज्यादा फेरबदल कर रहे थे. ऐसी स्थिति में डॉलर के बाद ब्रिटिश पौंड स्टर्लिंग को इंटरनेशनल मॉनेटरी सिस्टम की दूसरी रिजर्व करेंसी के तौर इस्तेमाल किया जा रहा था. जबकि इस रिजर्व करेंसी को स्टर्लिंग के स्टेटस का बचाव करने के लिए बनाया गया था. 

 

इस वजह से एक्सचेंज मार्केट ने इस मामले में खास तौर पर बैंक ऑफ इंग्लैंड के फॉरवर्ड मार्केट ऑपरेशन्स में बीच - बचाव किया. और यूनाइटेड किंगडम के फौरेन एक्सचेंज रिजर्व का प्रोटेक्शन किया. 

 

फॉरवर्ड मार्केट एक ऐसा बाजार है जहां फॉरवर्ड कॉन्ट्रैक्ट हेजिंग यानी कि निवेशों की रक्षा की जाती है या सट्टेबाजी के जरिए से रिटर्न्स को ज्यादा से ज्यादा करने के उद्देश्य से खरीदे और बेचे जाते हैं. 

 

1964 से 1967 के दौरान ही ब्रिटिश गवर्नमेंट के इंटरनेशनल ट्रांजैक्शन मे बहुत ज्यादा नुकसान होने की वजह से पाउंड स्टर्लिंग का संकट शुरू हो गया था.जिसकी वजह से स्टर्लिंग की कीमतों को लेकर इंटरनेशनल इन्वेस्टर्स के अंदर तेजी से घबराहट बढ़ने लगी थी. इसके बाद इन  हालातों में इन्वेस्टर्स और ट्रेडर्स ने आगे होने वाले नुकसान को कम करने के लिए अपनी संपत्तियों को बेचना शुरू कर दिया. जिस की वजह से पाउंड स्टर्लिंग  की कीमतें तेजी से नीचे गिरने लगी थीं. 

हालांकि यूनाइटेड किंगडम ने स्टर्लिंग की कीमतों को गिरने से  रोकने के लिए सरकारी तौर पर रिजर्व  का इंतजाम किया हुआ था. लेकिन वह इंतजाम इस संकट का मुकाबला करने के लिए काफी नहीं  था. बल्कि इसके लिए इंटरनेशनल मॉनेटरी फंड ( IMF) से शॉर्ट टर्म मदद लेने की जरूरत थी. क्योंकि पाउंड स्टर्लिंग का रिजर्व तेजी से कम होता  जा रहा था. और यूनाइटेड किंगडम की स्टर्लिंग में देनदारियां बढ़ती ही जा रही थीं. इस वजह से अब यूएस डॉलर पर सट्टेबाजों के अटैक करने का खतरा बढ़ गया था.   

 

इस सब के बावजूद तमाम इकोनॉमिस्ट, ट्रेजरी डिपार्टमेंट और बैंकों ने स्टर्लिंग के लिए डीवैल्युएशन का ऐलान नहीं किया. इस बारे में उन सब का यही कहना था कि ऐसा करने पर ब्रिटेन  के साथ दूसरे देशों के  संबंधों में बहुत गंभीर तनाव पैदा हो सकते थे. और इसी वजह से स्टर्लिंग के मेन होल्डर्स लंदन से अपने बकाया पैसों को बाहर निकाल सकते थे.

इसलिए इस सिचुएशन का मुकाबला करने के लिए बैंकों ने ब्याज दरों को 5 परसेंट से बढ़ा कर 7 परसेंट कर दिया. लेकिन ऐसा करने का भी कोई खास फायदा नहीं हुआ. क्योंकि इस के बाद भी रिजर्व लॉसेस तेजी से बढ़ते रहे. और फिर बैंक के गवर्नर रोली क्रोमर ने संकट की स्थिति से निपटने के लिए 300 करोड़ डॉलर की रकम सेंट्रल बैंक  से उधार लेकर सुरक्षित रखने का इंतजाम कर दिया. लेकिन इसके बाद जब यह सुरक्षित धन भी तेजी से खत्म होने लगा तो फिर आखिरकार  नवंबर 1967 मे ब्रिटिश गवर्नमेंट को मजबूर होकर पाउंड स्टर्लिंग की कीमत को 20 परसेंट के हिसाब डीवैल्यूएट  करना पड़ा. 

 

ब्रिटेन के डीवैल्यूशन के बाद सट्टेबाजों ने बहुत भारी मात्रा में डॉलर के बदले में गोल्ड को खरीदना शुरू कर दिया. इसके बाद अचानक से पेरिस, ज़्यूरिख़ और दूसरे तमाम फाइनेंसियल सेंटर में और खास कर दुनिया के लीडिंग गोल्ड मार्केट लंदन में गोल्ड की डिमांड बहुत ज्यादा बढ़ गई. 

और फिर यूनाइटेड स्टेट्स की ट्रेजरी ने फेडरल रिजर्व के जरिए से सिर्फ अपने सेंट्रल बैंकों को ही गोल्ड बेचा. जबकि उनकी तरफ से दूसरे देशों के सेंट्रल बैंकों को बिल्कुल भी गोल्ड नहीं बेचा गया. 

 

हालांकि 1961 में  लंदन गोल्ड पूल के नाम से पहले ही एक  को - ऑपरेटिव इंटरनेशनल ग्रुप तैयार किया गया था. इस ग्रुप के मेंबर्स यूनाइटेड स्टेट्स ब्रिटेन इटली  नीदरलैंड स्विट्जरलैंड वेस्ट जर्मनी बेल्जियम और फ्रांस थे. इस पूल में रखे गए टोटल गोल्ड का 59% हिस्सा यूनाइटेड स्टेट्स से आता था. 

इस पूल का पर्पज धन के संकट से निपटने के लिए गोल्ड की सप्लाई करना था. इस गोल्ड को  गैर सरकारी खरीदारों को उनकी डिमांड के हिसाब से  उस समय की फेडरल रिजर्व की तयशुदा कीमत पर सप्लाई किया जाना था. इस तरह का इंतजाम डॉलर और उसके सिस्टम की स्थिरता को बनाए रखने के लिए किया गया था. 

 

और फ़िर पेरिस और लंदन में  गोल्ड खरीदने के सारे पिछले रिकॉर्ड टूट गए. और 3 दिनों के अंदर गोल्ड की बिक्री 100 करोड़ डालर को पार कर गई. इसके बाद पूरे यूरोप में  लोग ना सिर्फ गोल्ड के लिए बल्कि और तमाम दूसरी करेंसीयों के लिए भी डॉलर में ट्रेड करने लगे. इसके बाद यूएस डॉलर के ऊपर बहुत दबाव आ गया और इस सिचुएशन में ऐसा लगने लगा कि जल्दी ही डॉलर का डीवैल्यूशन भी करना पड़ जाएगा. 

 

और फिर एक मीटिंग में फेडरल रिज़र्व के रिप्रेजेंटेटिव्स और लंदन पूल के मेंबर देशों ने मिलकर सेंट्रल बैंकों के लिए एक औंस गोल्ड की कीमत को $35 तय कर दिया. और लंदन गोल्ड पूल को खत्म कर दिया गया. और यह भी तय किया गया कि सेंट्रल बैंक अब लंदन के मार्केट में गोल्ड सप्लाई नहीं करेंगे. उसके बाद फ्री मार्केट को दो हफ्तों  के लिए बंद कर दिया गया. क्योंकि वहां पर गोल्ड को प्राइवेट तरीके से मनमाने दामों पर खरीदा और बेचा जाता था. इसके अलावा सेंट्रल बैंकों पर इस बात की रोक लगा दी गई कि वह सेंट्रल बैंक और फ्री मार्केट की गोल्ड कीमतों के डिफरेंस से प्रॉफिट नहीं कमाएंगे. 

 

इसके बाद नए इंतजामों के तहत जब फ्री मार्केट दोबारा से शुरू हुआ तब गोल्ड की कीमतों को सेंट्रल बैंक के मुकाबले में $2 से $5 डॉलर ज्यादा पर सेटल कर दिया गया. गोल्ड की कीमतों का यह डिफरेंस पहले के मुकाबले में अब काफी कम हो चुका था.

 

 इस सब के अलावा भी फेडरल रिजर्व ने इस संकट से निपटने के लिए तमाम उपाय किए और बहुत सारे फाइनेंशियल ऑपरेशंस को अंजाम दिया. जिस की वजह से फाइनली यू एस डॉलर को डीवैल्यूएट होने से बचा लिया गया.

कुल मिलाकर
इस किताब में वॉल स्ट्रीट के बारे में कही जाने वाली कहानियां वहां पर चल रही साजिशों और पल - पल बदलने वाली अर्थ व्यवस्था की  दुनिया के रहस्य पर से पर्दा उठाती हैं. जॉन ब्रुक्स ने इस किताब में अपनी व्यवहारिक रिपोर्टिंग के जरिए से  एनालिटिकल एवेल्यूएशन यानी कि तमाम प्रोजेक्ट पॉलिसी और प्रोग्राम के बारे मेें बहुत अच्छे तरीके से पूरे डिटेल में  जानकारी प्रोवाइड कर दी है. फिर चाहे वह 1962 के अनोखे मार्केट क्रैश की बात हो, या फिर वह एक जानी मानी ब्रोकरेज फर्म के कोलैप्स कर जाने की बात हो ,या ब्रिटिश पाउन्ड को बचाने के लिए अमेरिकन बैंकर्स की बहादुरी से भरी हुई तमाम कोशिशें हों. इन सब बातों को पढ़ कर कोई भी इंसान इस बात का अंदाजा लगा सकता है कि इतिहास खुद को रिपीट करता है.

दरअसल बिजनेस की सफलता लोगों के लिए फैसलों से तय होती है. ये फैसले गलत भी हो सकते हैं लेकिन इन्हीं गलत फैसलों में कामयाबी के फॉर्म्युले छिपे होते हैं. यह किताब आपको बताती है कि बड़ी प्लानिंग या ट्रेंडी स्ट्रेटेजी यानी मौजूदा समय की रणनीति  या एक दम सटीक एडवांस्ड रिसर्च प्रोजेक्ट के मुताबिक तैयारी या ट्रडिशनल परम्परा कोई कामयाबी नहीं दिलाती है. बल्कि यह चैलेंजिंग हालातों में बहुत खूबसूरती से तमाम बड़ी कंपनी के लीडर्स की ताकत और कमजोरियों के बारे में एक दम सही जानकारी देती है.  जॉन ब्रूक्स ने वाकई में इंसानी  स्वभाव के बारे में बहुत बारीकी से एक्सप्लेन किया है और यही वजह है कि उनकी किताब ' बिजनेस एडवेंचर्स ' 50 सालों के बाद भी समय की कसौटी पर  एकदम खरी उतरती है.

 

येबुक एप पर आप सुन रहे थे Business Adventures by John Brooks

 

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