The Big Fat Surprise

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The Big Fat Surprise
बटर, मीट और चीज भी हेल्दी डाइट में शामिल हैं
लोग फैट वाले भोजन को अच्छा नहीं समझते। लेकिन साल 2014 में आई इस किताब के माध्यम से लेखिका नीना टेइचोल्ज लोगों की इस आम सोच को गलत साबित करती हैं। तरह-तरह की रिसर्च और स्टडीज की मदद से वो बताती हैं कि सही तरीके से खाए जाने पर फैट भी हेल्दी साबित हो सकती है। इस किताब में बताया गया है कि किस तरह आप अपने भोजन में थोड़ा-बहुत बदलाव करके खास तरह की फैट का भरपूर फायदा उठा सकते हैं साथ ही साथ दिल की बीमारियों का खतरा भी कम कर सकते हैं। 
Synopsis
ये किताब किनको पढ़नी चाहिए?
• हर वो इंसान जिसे न्यूट्रीशन और हेल्थ के बारे में रुचि है
• हर वो इंसान जो फैट, कोलेस्ट्रॉल और दिल की बीमारियों से जुड़े सच को समझना चाहता है
• हर वो इंसान जो एक हेल्दी लाइफस्टाइल अपनाना चाहता है 
लेखिका के बारे में
नीना टेइचोल्ज एक जानीमानी साइंस जर्नलिस्ट हैं। उनका ज्यादातर काम न्यूट्रीशन से जुड़े मुद्दों पर होता है। 
उन्होंने न्यूयॉर्कर, द इकोनॉमिस्ट, न्यूयॉर्क टाइम्स और वाशिंगटन पोस्ट के लिए लिखा है।


अमेरिका में फास्ट फूड को पॉपुलर बनाने में मैक डोनाल्ड का बड़ा योगदान रहा है।
अगर हम घर से बाहर होते हैं और अचानक भूख लगने लगती है तो हम तुरंत बर्गर या फ्राइज जैसी चीजें खरीद लेते हैं। इसके पीछे हमारी भूख और जरूरत से ज्यादा इन प्रोडक्ट्स की मार्केटिंग छिपी होती है। जिसमें इन चीजों को बढ़िया ऑफर और टेम्पटिंग प्रेजेंटेशन के साथ दिखाया जाता है। लेकिन इस चमक-दमक का सच भयानक है। फास्ट फूड इंडस्ट्री का मार्केट शेयर बहुत बड़ा है। मुनाफा कमाने के चक्कर में इन कंपनियों ने रॉ मटेरियल प्रोडक्शन का लेवल ही गिरा दिया है। यानि अगर आप फास्ट फूड न भी खाते हों तो भी आपके पास खराब क्वालिटी के प्रोडक्ट पंहुचने के बहुत चांस रहते हैं। यहां काम करने वालों का शोषण भी बहुत होता है।  इस समरी में आप पढ़ेंगे कि किस तरह आप स्वाद के आगे सेहत को भूल जाते हैं। आपको ये भी पढ़ने को मिलेगा कि गरीबी और क्राइम को बढ़ाकर सामाजिक ढांचे को खराब करने में ये इंडस्ट्री किस तरह जिम्मेदार है।  कैसे फूड प्रोडक्शन की क्वालिटी को इस इंडस्ट्री ने खराब किया है। ये सब आप इस किताब में पढ़ेंगे। और हो सकता है कि ये सब जानने के बाद फास्ट फूड को हाथ लगाने का आपका मन ही न करे। 

तो चलिए शुरू करते हैं!

आप सबने अपनी लाइफ में एक न एक बार तो मैक डोनाल्ड में जरूर खाया होगा। इसका लोगो दुनियाभर में पहचाना जाता है। लेकिन क्या वजह थी जिसने मैक डोनाल्ड और इसके जैसी दूसरी फास्ट फूड चेन्स को इतना पॉपुलर बना दिया? 

इसके लिए इतिहास में झांकना होगा। 1950s के दौर में साउथ कैलीफोर्निया का फैलाव बढ़ना शुरु हुआ। आउटिंग के लिए चर्च, रेस्टोरेंट, फिल्मों और मनोरंजन की जगहों पर जाने का प्रचलन बढ़ने लगा। बहुत से लोग कार अफोर्ड करने लगे। वे रेस्टोरेंट के बाहर कार पार्क करते, उसमें बैठे रहते। वेट्रेस रोलर स्केट पर आकर उनका आर्डर लेती और भोजन सर्व किया करती। इन रेस्टोरेंट्स को ड्राइव-इन रेस्टोरेंट कहा जाने लगा। 

आवागमन के लिए कारों की मौजूदगी और स्टाइलिश सर्विंग सिस्टम की वजह से टीनएजर्स के बीच ये रेस्टोरेंट पॉपुलर होने लगे। इसके बाद मैक डोनाल्ड भाई मार्केट में उतरे और फास्ट फूड को एक नई पहचान दे दी। उन्होंने ईजी फूड और वर्किंग स्पीड पर ध्यान दिया। उनका मेन्यू जितना सामान्य था उतना ही यूनिक उसका प्रेजेंटेशन था। अब लोगों को पहले की तरह एक जगह बैठकर, छुरी कांटों से खाने की जरूरत नहीं थी। मैक डोनाल्ड से उनको खाना इस तरह पैक करके मिलने लगा जिसे बड़ी आसानी से चलते हुए भी खाया जा सकता था। इसमें ड्रिंक्स भी शामिल थीं। 

मैक डोनाल्ड में फैक्ट्री असेंबली लाइन सिस्टम को फॉलो किया गया। इस सिस्टम में हर कर्मचारी को एक काम बांट दिया जाता था। जैसे अगर कोई एक बर्गर सेंकेगा तो दूसरा सलाद की ड्रेसिंग तैयार करेगा। इस तरीके ने न केवल समय बचाया बल्कि प्रोडक्शन कॉस्ट भी कम कर दी। इस वजह से हर तरह की पॉकेट वाले कस्टमर मैक डोनाल्ड से जुड़ने लगे। अब ये सिर्फ टीनएजर्स का अड्डा नहीं रह गया था। सस्ता फूड मिलने की वजह से पेरेंट्स के लिए भी अपने बच्चों को यहां लाना अफोर्डेबल हो गया था। अब "स्पीडी सर्विस सिस्टम" का जमाना था। लोग बैठकर अपने आर्डर का इंतजार नहीं करते थे। फटाफट खाना लेते और चलते जाते। 1960 से 1973 के बीच मैक डोनाल्ड की ब्रांच 250 से बढ़कर 3000 तक पंहुच गई थीं। इस दौरान और भी बहुत सी फास्ट फूड चेनों की शुरुआत हुई। चाहे Burger King हो, Wendy's हो या KFC, ये सब मैक डोनाल्ड के तरीकों को फॉलो करके ही इतना आगे बढ़े हैं।

फास्ट फूड कंपनियों का मेन टार्गेट बच्चे और टीनएजर्स होते हैं।
अगर आप कोई चीज बेचना चाहते हैं तो किस तरह के ग्राहक के पास जाएंगे? ऐसा ग्राहक जिसके पास पैसा हो। यानि एडल्ट्स। क्योंकि वो काम करते हैं, उनके पास पैसा होता है और वो इंडिपेंडेंट होते हैं। उनको कुछ खरीदने के लिए किसी से मंजूरी लेने की जरूरत नहीं होती। लेकिन फास्ट फूड इंडस्ट्री ने समझदारी दिखाते हुए बच्चों को अप्रोच करना ठीक समझा। बच्चे आपने माता-पिता से जिद करके अपनी बात मनवा ही लेते हैं। पेरेंट्स कामकाजी होने की वजह से बच्चों को कम समय दे पाते हैं। इसलिए वो बच्चों को खुश रखने की कोशिश में उनको तरह-तरह की चीजें खरीद देते हैं। इस तरह पेरेंट्स का गिल्ट कम हो जाता है। बच्चे विज्ञापनों में दिखाई बातों के बहकावे में आसानी से आ जाते हैं। उनको लगता है अगर उनका सुपर हीरो कोई चीज सजेस्ट करता है तो वह चीज अच्छी ही होगी। उनको लगता है कि अगर वो किसी खास पेंसिल से लिखेंगे तो उनके नंबर अच्छे आएंगे। इस बात का फायदा फास्ट फूड कंपनियां भी उठाती हैं। बच्चों को तरह-तरह के लालच भी दिए जाते हैं। जैसे कि मैक डोनाल्ड अपने रेस्टोरेंट में प्लेग्राउंड बनाता है। वहां बच्चों को मुफ्त में खिलौने भी मिल जाते हैं। मैक डोनाल्ड इस सुविधा का प्रचार "हैप्पी मील" कहकर करता है। 

एक स्टडी भी यह कहती है कि अगर भोजन के साथ फ्री में खिलौने देने शुरु कर दिए जाएं तो एक हफ्ते में उसकी सेल दो से तीन गुनी तक होने लगती है। यही वजह है कि अमेरिका में 3-9 साल की उम्र के 90% बच्चे महीने में एक बार तो मैक डोनाल्ड जरूर जाते हैं। और जहां तक बच्चों को टारगेट करने वाले विज्ञापनों की बात है तो ये दूसरे कई विज्ञापनों की तरह सिर्फ टीवी या अखबारों तक सीमित नहीं हैं। इनकी पंहुच स्कूलों में भी हो गई है। स्कूलों की पब्लिक फंडिंग कम होने की वजह से अपने खर्चे निकालने के लिए उनको विज्ञापनों की मदद लेनी पड़ती है। इसमें सोडा, फास्ट फूड कंपनियों और बड़े कॉर्पोरेट्स के विज्ञापन शामिल हैं। यूएस के बहुत से स्कूलों के पास सबवे की फ्रेंचाइजी है। बहुत से स्कूलों ने किसी न किसी कंपनी को डिलीवरी पार्टनर बनाया हुआ है। 

ये कंपनियां स्कूल आइटम जैसे पेन, पेंसिल, इरेजर पर भी छाई होती हैं। इतना ही नहीं किताबों में भी इनकी मनमर्जी का मटेरियल छप जाता है। अमेरिकन कोल फाउंडेशन की स्पान्सर स्पाॅन्सरशिप से छपने वाली एक स्टडी गाइड में यह लिखा गया था कि कोल इंडस्ट्री से निकलने वाली कार्बन डाई ऑक्साइड पर्यावरण के लिए फायदेमंद होती है। असल में ये ग्रीनहाउस इफेक्ट को बढ़ाकर क्लाइमेट चेंज के लिए जिम्मेदार गैसों में से एक है। 

अगर आपको मुफ्त भोजन और बढ़िया माहौल का ऑफर दिया जाए तो आपको भी किसी रेस्टोरेंट में काम करने में मजा आएगा, है ना? लेकिन जरा रुकिए। फास्ट फूड इंडस्ट्री में काम करना बहुत मुश्किल है। खास तौर पर उसी असेंबली लाइन मेथड की वजह से जो आपने ऊपर पढ़ी। इसमें बहुत ज्यादा स्किल या ट्रेनिंग की जरूरत नहीं पड़ती। 

किसी फास्ट फूड रेस्टोरेंट में कोई कर्मचारी तीन से चार महीने ही टिकता है। लेकिन नए कर्मचारी ढूंढना बिल्कुल भी मुश्किल नहीं है। इसका नुकसान ये होता है कि इस फील्ड में ज्यादा सैलरी भी नहीं मिल पाती। यहां उन लोगों को नौकरी दी जाती है जो समाज के कमजोर तबकों से आते हैं जैसे प्रवासी, गरीब लोग या टीनएजर्स। खराब वर्क कल्चर इनकी तकलीफ और बढ़ा देता है। यूएस के फास्ट फूड रेस्टोरेंट्स में काम करने वाले लगभग दो तिहाई लोग बीस साल से कम उम्र के हैं। ये न तो ज्यादा सैलरी मांगते हैं न ही मेच्योर कर्मचारियों की तरह अपने अधिकारों को लेकर इतने जागरुक हैं। फास्ट फूड कंपनियां लेबर लॉ की ज्यादा परवाह भी नहीं करतीं। कर्मचारियों को तय समय से कहीं ज्यादा देर तक काम करना पड़ता है। इससे उनकी सेहत पर भी बुरा असर पड़ता है। स्टडीज कहती हैं कि हफ्ते में बीस घंटे से ज्यादा काम करना टीनएजर्स के लिए ठीक नहीं है। इससे उनका शारीरिक और मानसिक विकास प्रभावित होता है। वे पढ़ाई और सोशल लाइफ से दूर होने लगते हैं। 

फास्ट फूड इंडस्ट्री में काम करने पर हादसों के खतरे भी बने रहते हैं। इन जगहों पर रॉबरी की घटनाएं बहुत होती हैं। ऐसी ज्यादातर घटनाओं में पुराने कर्मचारियों का हाथ होता है। अपनी आर्थिक परेशानी की वजह से वो अपराध का रास्ता चुनते हैं। उस रेस्टोरेंट में वारदात करना उनके लिए बड़ा आसान हो जाता है जहां वे कभी काम कर चुके होते हैं। इतना होते हुए भी फास्ट फूड इंडस्ट्री का रवैया ज्यों का त्यों बना रहता है। वे ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए कोई सकारात्मक कदम नहीं उठाते। रेस्टोरेंट नई मशीनें लेकर आते जाते हैं जिनसे काम करना असान होता जाता है और सैलरी कम देनी पड़ती है। अगर कभी कर्मचारी आवाज उठाने की कोशिश करते हैं तो कंपनियां कड़े कदम उठाते हुए एक साथ बहुतों को नौकरी से निकाल देती हैं। या कुछ समय के लिए रेस्टोरेंट ही बंद कर देती हैं। यही वजह है कि नॉर्थ अमेरिका में फास्ट फूड कर्मचारियों का एक भी यूनियन नहीं है।

फ्रेंचाइजी बिजनेस मॉडल हमेशा कंपनी का ही भला करता है।
कौन नहीं चाहता कि उसका अपना बड़ा सा कारोबार हो जो दुनियाभर में फैले। लेकिन न तो सबके पास इतने पैसे हैं और न ही बिजनेस में सफलता की गारंटी होती है। फ्रेंचाइजी मॉडल ऐसे लोगों को एक आसान राह देता है। इसमें आप पहले से स्थापित किसी कंपनी की एक ब्रांच अपने इलाके में खोल सकते हैं। इस तरह आप एक जमे जमाए बिजनेस की किसी ब्रांच के मालिक बन जाते हैं। एक बड़े ब्रांड का नाम मिलने की वजह से नुकसान का खतरा भी कम रहता है। फास्ट फूड चेन, फ्रैंचाइजी के दम पर ही दुनियाभर में आसानी से फैली हैं। ये सब जानकर एक पल को आपके मन में भी कोई फ्रेंचाइजी लेने का ख्याल आ गया होगा। लेकिन अब जरा इसकी हकीकत समझ लीजिए। फ्रेंचाइजी मॉडल में आप पैसे लगाते हैं। बदले में कंपनी आपको अपना नाम देती है। बिजनेस पॉलिसी समझाती है। दुनिया भर की कंपनियों में रिस्क मैनेजमेंट की इंपॉर्टेंन्स बढ़ती जा रही हैफ्रेंचाइजी लेने के लिए काफी इन्वेस्टमेंट करना होता है। इसके साथ-साथ कंपनी के सारे नियम भी मानने पड़ते हैं। जाहिर सी बात है कि ये नियम कंपनी के फेवर में होते हैं। 

जैसे कि मैक डोनाल्ड कंपनी दो फ्रेंचाइजी बिल्कुल आमने-सामने दे सकती है और आप विरोध नहीं कर सकते। इससे कंपनी का तो फायदा ही होता है लेकिन तगड़े कॉम्पिटिशन की वजह से दोनों फ्रेंचाइजी लेने वालों का प्रॉफ़िट मार्जिन कम हो जाता है। स्टडीज कहती हैं कि ज्यादातर फ्रेंचाइजी सफल ही होते हैं पर असल आंकड़े कुछ और होते हैं। अगर सही से गिनती की जाए तो जो असफल होकर दिवालिया होने वाले फ्रेंचाइजी उन लोगों से कहीं ज्यादा हैं जिन्होंने अपना खुद का बिजनेस शुरु किया। 

फास्ट फूड कंपनियों को कानून की तरफ से भी बहुत मदद मिल जाती है। जबकि अपनी तरफ से पैसा लगाने के बाद भी फ्रेंचाइजी ओनर किसी कंपनी के लिए एक कर्मचारी की तरह ही काम करता है। इस पर भी न तो उनको कर्मचारी कानूनों की सुरक्षा मिलती है न ही बिजनेस कानूनों की सुरक्षा। इसे आप इस उदाहरण से समझिए। फ्रेंचाइजी अपने बिजनेस के लिए सभी सप्लाई खरीदते हैं लेकिन वो खरीदी उपभोक्ता कानूनों के अंतर्गत नहीं आती। उनको अपने प्रोडक्ट की सेल भी करनी होती है पर वह सेल बिजनेस लॉ के अंतर्गत नहीं आती। इस वजह से किसी भी तरह का नुकसान होने पर एक बिजनेस हाउस को तुरंत कोई न कोई राहत दे दी जाती है जबकि फ्रेंचाइजी के नुकसान की भरपाई की बात कोई नहीं करता। इन सबसे यही समझ आता है कि फ्रेंचाइजी लेना सफलता की गारंटी नहीं है। लेकिन एक फास्ट फूड कंपनी के लिए फ्रेंचाइजी देना फायदे का सौदा है। 

अब आगे बात करेंगे कि फास्ट फूड के नाम पर आप क्या खा रहे हैं। क्या आपने स्ट्रॉबेरी योगर्ट खाई है? अगर हां तो जरा सोचिए कि इसमें कितनी स्ट्रॉबेरी होती होंगी? इस बात के बहुत चांस हैं कि इसमें स्ट्रॉबेरी होती ही नहीं बल्कि उसका फ्लेवर होता है। आज की तारीख में लोग किसी फूड प्रोडक्ट को उसके फ्लेवर के दम पर ही खरीदना पसंद करते हैं। हमारे पूर्वज भोजन को चख कर ये बता देते थे कि वो खाया जा सकता है या नुकसानदायक है। यानि हमारी स्वाद पहचानने की शक्ति बेजोड़ रही है। तरह-तरह के फ्लेवर हम बड़े मजे से खाते हैं। इस आदत का फूड इंडस्ट्री ने जमकर फायदा उठाया है। अब तो आर्टिफिशियल फ्लेवर की बाढ़ सी आ गई है। अमेरिका में खाई जाने वाली अधिकतर चीजों में आर्टिफिशियल फ्लेवर एड किए जाते हैं। 

यहां खाई जाने वाली 90% चीजें प्रोसेस्ड होती हैं। इनमें कैन्ड आइटम, फ्रोजन फूड और रेडी टू ईट का चलन सबसे ज्यादा है। भोजन को इन तरीकों में ढालने की वजह से असली स्वाद तो चला जाता है। इसलिए अलग से फ्लेवर मिलाना जरूरी हो जाता है। फ्लेवरिंग की ताकत को फास्ट फूड इंडस्ट्री भी अच्छी तरह समझती है। इसलिए यहां भी ढेरों फ्लेवर इस्तेमाल किए जाते हैं। मैक डोनाल्ड ने भी माना है कि उनके फ्राइज का स्वाद "एनिमल प्रोडक्ट" की फ्लेवरिंग से आता है। और वैंडी के चिकन सैंडविच में तो बीफ एक्सट्रेक्ट ही मिला दिया जाता है। इन फ्लेवर्स को "नैचुरल" और "आर्टिफिशियल" जैसी दो कैटेगरी में बांटा जाता है। लेकिन इनके इन्ग्रीडिएंट एक ही होते हैं। फर्क सिर्फ बनाने के तरीके में है। लेकिन दोनों को बनाया लैब में ही जाता है। इसका मतलब है कि नैचुरल फ्लेवर हेल्दी हों ये जरूरी नहीं है। कहने को तो बादाम का फ्लेवर खुबानी और आड़ू की गुठली से बनाया जाता है। यानि ये नैचुरल फ्लेवर हुआ। पर इनमें हाइड्रोजन सायनाइड जैसे खतरनाक जहर के अंश भी हो सकते हैं। तो अगली बार जब आप बर्गर खाएं तो याद रखिएगा कि यह किचन से ज्यादा टेस्ट ट्यूब से गुजरा होगा।

फास्ट फूड इंडस्ट्री ने यूएस के किसानों के लिए मुश्किलें खड़ी कर दी हैं।
यूएस के खेतों के बारे में कल्पना करने पर हमें हरे-भरे विशाल खेतों में काम कर रहे अमेरिकी लोग नजर आते हैं। पर असलियत इससे कहीं अलग है। अब खेतों में फसलों की वैराइटी खत्म हो रही है। ज्यादातर किसान आलू उगाने या फिर चिकन और बीफ की फार्मिंग पर ध्यान दे रहे हैं। इसकी वजह मैक डोनाल्ड जैसी फास्ट फूड चेन हैं। यूएस में सबसे ज्यादा बीफ मैक डोनाल्ड खरीदता है। पहले इनके 175 वेंडर थे। लेकिन मीट के स्वाद में कोई अंतर न रहे इसके लिए अब वो सिर्फ 5 वेंडर के साथ ही काम करते हैं। इससे बीफ मार्केट में इन वेंडर का एकाधिकार हो गया है। आज यहां का लगभग 84% कैटल सिर्फ चार मीट पैकिंग यूनिट में बंट जाता है। चिकन का दो तिहाई मार्केट बस 8 पोल्ट्री फार्म के हाथों में सिमट गया है। फ्रोजन फ्रेंच फ्राइज का पूरा बिजनेस तीन कंपनियों की मुट्ठी में है। फार्मर न चाहते हुए भी इनके चंगुल में फंस जाते हैं। कंपनियां बहुत स्ट्रिक्ट कॉन्ट्रैक्ट साइन करवाती हैं। पोल्ट्री का उदाहरण ले लीजिए। इसमें मेहनत, जमीन और मशीनें फार्मर की होती हैं लेकिन एक भी बर्ड को वो अपना नहीं कह सकते। हर प्रोडक्ट कंपनी का होता है। अब अगर इस कंडीशन में कोई फार्मर आवाज उठाता है तो कंपनी कॉन्ट्रैक्ट कैंसल करके सारी पोल्ट्री, एग वगैरह ले जाती है और फार्मर के सर पर कर्जा चढ़ जाता है। गिने-चुने खरीदार होने की वजह से किसानों को फसल की कीमत के साथ समझौता करना पड़ता है। इस वजह से किसानों की आमदनी बहुत कम हो जाती है। जितनी फ्रेंच फ्राईज आप $1.5 में खाते हैं, उतने आलू के लिए किसान को 2 सेंट मिलते हैं। अपनी आमदनी बढ़ाने के लिए किसान दिन-रात काम करते हैं। फिर भी अगर गुजारा नहीं हो पाता तो हारकर अपनी जमीन बेच देते हैं। ये जमीन बड़े बिजनेस हाउस खरीदते हैं और फिर उन्हीं किसानों को उस जमीन पर काम करने के लिए नौकरी पर रख लेते हैं। 

अब हम बात करेंगे कि कैसे मीट पैकिंग इंडस्ट्री ने सामाजिक माहौल खराब कर दिया है। आपने कभी सोचा है कि एक बर्गर आपको इतना सस्ता कैसे मिल जाता है? इसके लिए फार्मिंग गाइडलाइंस को नजरअंदाज किया जाता है। मीट पैकिंग इंडस्ट्री में काम कर रहे लोगों की मेहनत और सेहत के साथ समझौता किया जाता है। इसकी जड़ें भी आपको असेंबली लाइन मेथड से जुड़ी हुई मिलेंगी। फास्ट फूड इंडस्ट्री की तरह 1960s में मीट पैकिंग इंडस्ट्री ने भी यह मेथड अपना लिया था। इस वजह से यहां भी स्किल्ड लोगों की जरूरत खत्म हो गई थी। अब कम सैलरी पर लोगों को हायर किया जाने लगा। इनके यूनियन भी नहीं बनने दिए गए ताकि ये अपने हक की बात न कर सकें। 6 महीने पूरे हो जाने के बाद ही कर्मचारियों को हेल्थ इंश्योरेंस और पेड लीव जैसी सुविधाएं मिलती थीं। पहले की तरह आज भी ज्यादातर लोग इतने समय तक टिक ही नहीं पाते। इस वजह से कंपनियों की बहुत बचत हो जाती है। 

इन जगहों पर गैरकानूनी रूप से रह रहे प्रवासी, गरीब और रिफ्यूजी लोगों को काम पर रखा जाने लगा। क्योंकि अनुभवी और कुशल लोगों की तो जरूरत ही नहीं रह गई थी। नेब्रास्का और आइओवा के 25% मीट पैकिंग वर्कर्स गैरकानूनी रूप से अमेरिका में घुस आए प्रवासी हैं। वे कम सैलरी पर आसानी से काम कर लेते हैं और इनके यूनियन बनाने की संभावना भी नहीं होती। मीट पैकिंग इंडस्ट्री का समाज पर भी बुरा असर पड़ा है। मीट पैकिंग यूनिट्स पहले न्यूयॉर्क और शिकागो जैसे शहरी इलाकों होती थीं। लेकिन पर्यावरण विशेषज्ञों और कानून की नजरों से बचने के लिए कंपनियों ने अपने प्लांट दूर-दराज के इलाकों में लगाने शुरु कर दिए। 

कम पढ़े लिखे और गरीब लोग अचानक नौकरी पर लग गए। इस वजह से क्राइम भी बहुत बढ़ गया। 1990 में एक मीट पैकिंग कंपनी ने लेक्सिंगटन में एक यूनिट खोली। इसके दस सालों के अंदर वहां क्राइम डबल हो गया। बदमाशों के गैंग बन गए थे और ड्रग्स का कारोबार शुरु हो गया था। फास्ट फूड इंडस्ट्री की तरह मीट पैकिंग इंडस्ट्री भी अपने फायदे देखती है। न ही कैटल्स के लिए दया दिखाती है और न ही अपने यहां काम करने वालों के लिए।
मीट पैकिंग इंडस्ट्री के काले कारनामे इतने पर ही नहीं रुकते।
मीट के शौकीन लोगों ने शायद ही कभी स्लाॅटरहाउस के बारे में सोचा हो। एक तो यहां गंदगी के बीच काम करना पड़ता है दूसरे यहां बहुत ज्यादा मेहनत के बदले बहुत कम पैसे मिलते हैं और तीसरा यहां काम करना बहुत रिस्की होता है। एक स्लाॅटरहाउस में काम करना कितना खतरनाक है  इसका अंदाजा आप इस बात से लगा लीजिए कि एक अमेरिकन फैक्ट्री में होने वाले हादसों से तीन गुना ज्यादा किसी अमेरिकन स्लाॅटरहाउस में होते हैं। मीट फैक्ट्री में सारा काम ऑटोमेटिक नहीं हो सकता है। बहुत सा काम हाथों से करना ही पड़ता है। एक स्लाॅटरहाउस में सबसे ज्यादा इस्तेमाल होने वाली चीज है चाकू और इस वजह से काम करने वालों को बहुत सी चोटें आती रहती हैं। नौसिखिया लोगों की वजह से हादसे और ज्यादा होते हैं। 

काम खत्म करने की हड़बड़ी भी हादसों को बढ़ावा देती है। कर्मचारी खुद को एक्टिव बनाए रखने के लिए methamphetamine जैसी ड्रग लेते हैं। इनकी वजह से उनका अटेंशन गड़बड़ा जाता है और उनको चोटें लग जाती हैं। इतना होने के बाद भी कर्मचारियों को राहत नहीं मिलती। इंडस्ट्री उन पर दबाव बनाती है कि वो चोट लगने की बात छिपाएं और बिना पूरी तरह ठीक हुए भी जल्द से जल्द काम पर लौटें वरना उनको नौकरी से हाथ धोना होगा। हादसों की भरपाई भी बहुत कम दी जाती है। अखर काम करते हुए उंगली चली जाए तो $2,200 से $4,500 के बीच कुछ रकम दे दी जाती है। कभी-कभार इस तरह का हर्जाना कंपनी के लिए कोई बड़ी बात नहीं है क्योंकि इससे ज्यादा बचत सुरक्षा जरूरतों पर पैसा खर्च न करके और प्रोडक्शन की स्पीड बढ़ाकर हो जाती है। 

खान-पान से होने वाली ज्यादातर बीमारियों की वजह फास्ट फूड है। सब जानते हैं कि फास्ट फूड नुकसान करता है। लेकिन आम धारणा ये है कि इससे मोटापे से ज्यादा कुछ नहीं होता। हालांकि हकीकत इससे कहीं ज्यादा डरावनी है। यह तो आप जान चुके हैं कि मीट प्रोडक्शन की कॉस्ट कम रखने के लिए सही गाइडलाइन्स का पालन नहीं किया जाता है। अब इससे होता ये है कि मीट में E. Coli 0157: H7 जैसे खतरनाक बैक्टीरिया पनपने लगते हैं। ये एक म्यूटेटेड बैक्टीरिया है। इसके टॉक्सिन की वजह से पेट में मरोड़ उठना, खून वाला डायरिया और यहां तक कि मृत्यु भी हो सकती है। 

काम करने की जल्दबाजी और साफ-सफाई का ध्यान न रखने की वजह से बीफ कैटल्स के वेस्ट प्रोडक्ट के संपर्क में भी आ जाता है। इस तरह भी इन्फेक्शन के चांस बढ़ जाते हैं। कैटल्स को दिया जा रहा आहार भी इन्फेक्शन की बड़ी वजह है। पहले तो मरे हुए जानवरों को भी पशु आहार की तरह इस्तेमाल कर लिया जाता था। इस पर रोक जरूर लगा दी गई है पर जिन कैटल्स को घास, पत्ते, भूसा जैसी हेल्दी और स्वच्छ चीजें मिलनी चाहिए उनको आज भी सड़ा, गला और खराब खाना ही मिल रहा है। इससे कैटल्स में बैक्टीरिया और पैरासाइट का इन्फेक्शन हो जाता है। उनके मीट के माध्यम से ये इंसानों तक पंहुचता है। पहले मीट प्रोडक्शन के विभिन्न चरणों के लिए अलग-अलग यूनिट्स होती थीं। जैसे प्रोडक्शन यूनिट, स्टोरेज यूनिट इत्यादि। इसलिए इन्फेक्शन किसी एक जगह सीमित रहता था और छोटे पैमाने पर होता था। 

लेकिन आज पूरा प्रोसेस एक जगह पर ही होता है। कैटल्स को रखने से लेकर डिस्ट्रीब्यूशन तक सब एक यूनिट से ही मैनेज होता है। इसलिए अगर एक जगह भी कोई इन्फेक्शन शुरु हुआ तो वह पूरे प्रोडक्ट को खराब कर देता है। इससे लाखों लोग बीमार पड़ सकते हैं। इसलिए ये कोई हैरानी की बात नहीं है कि अमेरिका में रोज लगभग दो लाख फूड पॉइजनिंग के केस आते हैं। इन सबकी जड़ है मुनाफाखोरी और स्टैंडर्ड के साथ समझौता। 

90s में मुकदमेबाजी के बाद फूड क्वालिटी के स्टैंडर्ड बहुत हाई कर दिए गए थे। फिर भी पूरे देश में खाया जाने वाला मीट इन्फीरियर क्वालिटी का ही होता है।

फास्ट फूड इंडस्ट्री बहुत ताकतवर बन चुकी है।
आप विदेश घूमने जाते हैं। वहां की भाषा, लोग, माहौल को लेकर आपको कोई खास जानकारी न भी हो पर इतना जरूर पता होता है कि किसी न किसी कोने में मैक डोनाल्ड जरूर मिल जाएगा। फास्ट फूड इंडस्ट्री ने इतनी घुसपैठ कैसे कर ली है? जब कभी कोई देश फॉरन इन्वेस्टमेंट ओपन करता है, सबसे पहले फास्ट फूड कंपनियां वहां इन्वेस्ट कर देती हैं। असल में मल्टीनेशनल कांसेप्ट के शुरुआती दौर से ही फास्ट फूड इंडस्ट्री ने अपना दबदबा बना लिया था। जब टर्की ने 1980 के दशक में विदेशी कंपनियों के लिए अपना बाजार खोला तो मैक डोनाल्ड पहली कंपनी थी जिसने वहां फ्रेंचाइजी खोली थी। मौके पर चौका लगाने की इस पॉलिसी की वजह से फास्ट फूड रेस्टोरेंट अमेरिकन और वेस्टर्न पूंजीवाद की पहचान बन गए हैं। लोग इसे सही भी मानते हैं और गलत भी। फास्ट फूड कंपनियां इन देशों में कृषि की नई-नई तकनीकें लाकर स्थानीय पैदावार का ही इस्तेमाल करती हैं। इससे लोगों में ये संदेश जाता है कि कंपनी चाहे विदेशी हो, फायदा तो स्थानीय किसानों और फूड सप्लायर को भी मिल रहा है। एक समय भारत में लेट्यूस के बारे में ज्यादा लोगों ने सुना भी नहीं था। मैक डोनाल्ड ने यहां अपनी ब्रांच खोलने से पहले किसानों को न सिर्फ लेट्यूस उगाने की ट्रेनिंग दी बल्कि भारतीय जलवायु के लिए खास तौर पर तैयार करवाए हुए बीज भी दिए। आज घर-घर में लेट्यूस खाया जाता है। 

पैसे, मेहनत और मार्केटिंग के दम आज फास्ट फूड कंपनियों की सफलता आसमान छू रही है। लेकिन इनके नुकसानों का ग्राफ भी इसी तरह ऊंचा होता जा रहा है। अमेरिकन्स में मोटापे की दर दुनिया में सबसे ज्यादा है। यहां आधे से ज्यादा वयस्क और एक चौथाई से ज्यादा बच्चे मोटे या ओवरवेट हैं। फास्ट फूड की बढ़ती दखल से धीरे-धीरे बाकी देशों में भी मोटापे के आंकड़े बढ़ने लगे हैं। 1973 से 1993 के बीच यूके में फास्ट फूड रेस्टोरेंट की संख्या दुगनी हो गई और लोगों में मोटापे की रफ्तार भी। इतने सारे नुकसानों की वजह से फास्ट फूड रेस्टोरेंट्स का विरोध करने वाले भी बहुत हैं। पर्यावरण और एनिमल राइट्स के लिए काम करने वाले लोग इनके खिलाफ दुनियाभर में आवाज उठाते हैं। इन मुद्दों पर काफी राजनीति भी होती है।

कुल मिलाकर
इंस्टेंट और सस्ते फास्ट फूड खाने की बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है। फास्ट फूड इंडस्ट्री न तो अपने कर्मचारियों का ध्यान रखती है, न फार्मिंग किए जाने वाले कैटल्स का और न ही अपने ग्राहकों की सेहत का। इनका इकलौता फोकस पैसे कमाने पर होता है। फिर चाहे खाने की क्वालिटी, पर्यावरण, वर्क कल्चर जैसी कितनी ही चीजों पर समझौता क्यों न करना पड़े। 

 

क्या करें

प्रोसेस्ड फूड से दूर रहिए। 

इसमें ऐसे बहुत से फ्लेवर एड किए जाते हैं जिनके बारे में सुनकर आपका दिल इनको खाने से इन्कार कर देगा।  फास्ट फूड के एड आपको बहुत ललचाते होंगे पर इन लुभावने विज्ञापनों की कड़वी हकीकत आप जान चुके हैं। बस एक बार ये याद कर लीजिए कि आप तक पंहुचने से पहले इसमें कितने लोगों की आह लगी है। फिर आप इनके बारे में सोचेंगे भी नहीं। प्रकृति ने बहुत स्वादिष्ट और सेहत से भरपूर फल, सब्जियां, अनाज दिए हैं। जरा सी मेहनत और क्रिएटिविटी से अपने रोजमर्रा के खाने को आप फास्ट फूड से भी मजेदार बना सकते हैं।

येबुक एप पर आप सुन रहे थे Fast Food Nation by Eric Schlosser

ये समरी आप को कैसी लगी हमें yebook.in@gmail.com  पर ईमेल करके ज़रूर बताइये.

आप और कौनसी समरी सुनना चाहते हैं ये भी बताएं. हम आप की बताई गई समरी एड करने की पूरी कोशिश करेंगे.

अगर आप का कोई सवाल, सुझाव या समस्या हो तो वो भी हमें ईमेल करके ज़रूर बताएं.

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