Belle Boggs
अपनी संतान की ख्वाहिश
दो लफ्जों में
साल 2016 में आई ये किताब बर्थ, प्रेग्नेंसी और पेरेंटिंग से जुड़े सोशल नरेटिव पर बात करती है। बच्चे गोद लेने, इन विट्रो फर्टिलाइजेशन और जबरन नसबंदी कराने पर लोगों के निजी अनुभव और इतिहास में घट चुकी घटनाओं के उदाहरण से आप तक ये जानकारी पहुंचती है।
ये किताब किनको पढ़नी चाहिए?
• गर्भवती महिलाएं
• जो कपल्स कंसीव करने की परेशानी से गुजर रहे हैं
• हर वो इंसान जो इन विट्रो फर्टिलाइजेशन या बच्चा गोद लेने का सोच रहा हो
लेखिका के बारे में
बेले बोग्स नॉर्थ कैरोलिना स्टेट यूनिवर्सिटी के एमएफए प्रोग्राम में प्रोफेसर हैं। उनकी लिखी कहानियां और आर्टिकल हार्पर, द पेरिस रिव्यू, ओरियन, स्लेट और ऐसे कई बड़े पब्लिकेशन में छप चुके हैं। उन्होंने मैटापोनी क्वीन नाम की किताब लिखी है।
बर्थ और प्रेग्नेंसी को लेकर बहुत अलग-अलग विचार सुनने को मिलते हैं।
कई लोगों के लिए जिंदगी का सबसे बड़ा काम और खुशी बच्चे पैदा करना होता है। कुछ तो ये भी सोचते हैं कि जिंदगी का मकसद ही यही है। भले ही आप इस बात को मानें या नहीं पर पैरेंटहुड उन सबके जीवन में एक बड़ी भूमिका निभाता है जिनके बच्चे होते हैं और ऐसे लोग भी जो बच्चे तो पैदा करना चाहते हैं लेकिन किसी वजह से उनके बच्चे नहीं हो रहे। इस किताब में उन लोगों की अनसुनी कहानियां आपके सामने आएंगी जो बच्चे की चाह में बहुत मुश्किलों से गुजरते हैं। वे तरह-तरह के मेथड जैसे गोद लेने और इन विट्रो फर्टिलाइजेशन का सहारा लेते हैं भले ही उनका शरीर इस बात के लिए तैयार न हो।
इस समरी को पढ़कर आप जानेंगे
• अमेरिका की एक तिहाई महिलाएं 45 साल की होने से पहले गर्भपात से क्यों गुजरती हैं
• इनफर्टिलिटी को लेकर इतनी गलतफहमियां क्यों हैं
• गोद लेना बच्चे की कमी दूर करने का सबसे अच्छा तरीका क्यों नहीं है
तो चलिए शुरू करते हैं!
क्या आपने हाईस्कूल में सेक्स एजुकेशन की क्लास अटेंड की है? इस तरह की टीचिंग का मकसद होता था कि हमें अपने शरीर की बनावट की सही तरह से जानकारी मिले और ये भी समझ में आए कि बच्चे पैदा करना हमारी सोसाइटी में क्या खास महत्व रखता है।
असल में छोटी उम्र से ही ज्यादातर बच्चों को अपनी संतान और बच्चे के पालन-पोषण का महत्व सिखाया जाता है। लगभग हर कल्चर इस बात को मानता है कि बच्चे ही जीवन का आधार हैं। ये कहावत हममें से हर किसी ने सुनी होगी - "बच्चे ही भविष्य हैं।" दुनिया के ज्यादातर धर्मों में बायोलॉजिकल यानि अपने बच्चों से चलने वाले वंश पर ही जोर दिया गया है। जरा हिब्रू बाइबिल पर गौर करें जो आदम और हव्वा को बच्चे पैदा करने और अपना समाज बढ़ाने का आदेश देती है। हिंदूओं में माना जाता है कि बच्चे आगे चलकर कैसे निकलते हैं ये आपके कर्मों पर निर्भर करता है। यहां तक कि लगभग 35000 साल पहले अपने शुरुआती दौर में बनाए गए आर्टपीसों में भी सेक्स ऑर्गन को उभारकर और काफी ध्यान देकर बनाया गया है। माना जाता है कि इनके माध्यम से fertility goddesses को दर्शाया गया है।
इसलिए सदियों से चली आई कल्चरल कंडीशनिंग की वजह से ज्यादातर लोग अब ये ही मान लेते हैं कि उनके अपने बच्चे होने ही चाहिए। ये भावना इतनी गहरी है कि बेले ने ये महसूस किया है कि उनके ज्यादातर स्टूडेंट्स खुद को आने वाले कल में माता-पिता के रूप में देखते हैं। हालांकि हमें गर्भनिरोधक और STD से बचने के महत्व के बारे में भी सिखाया जाता है। इस वजह से रिप्रोडक्टिव एज की 62 प्रतिशत अमेरिकी महिलाएं किसी न किसी तरह के गर्भनिरोधक का इस्तेमाल करती हैं। किताब लिखे जाने तक जो डेटा मौजूद था उसके हिसाब से 30 प्रतिशत महिलाओं ने 45 साल की उम्र होने तक अबॉर्शन कराया होगा।
बच्चों की चाहत, सेक्स एजुकेशन और गर्भनिरोधक तरीकों के बारे में अवेयरनेस बढ़ाना ये बातें एक दूसरे के खिलाफ जाती हैं। फिर भी मानव समाज समय के साथ फर्टिलिटी रेट कम करने में बहुत हद तक कामयाब रहा है। हम इतने सफल रहे हैं कि एनिल किंगडम के बाकी सदस्यों की तुलना में इंसानों की जन्मदर काफी कम है। दुनिया के एवरेज को देखें तो हर महिला के सिर्फ 2.5 बच्चे। ये संख्या विकसित देशों में कम और गरीब देशों में ज्यादा है। हालांकि विकासशील देशों में महिलाओं के औसतन चार से छह बच्चे होते हैं। इनमें से लगभग आधों की मृत्यु sexual maturity से पहले ही हो जाती है।
बच्चे के जन्म के पीछे हमारी सोच पर इवॉल्यूशन का क्या असर पड़ा है इस पर काफी बहस होती है।
कुछ महिलाओं को बच्चों की इतनी चाहत क्यों होती है? इसकी वजह सामाजिक है या फिर बायोलॉजिकल? खैर इस चाहत का कल्चरल पहलू काफी गहरा है। अलग-अलग कल्चर में इसे अलग नाम दिया गया है। उदाहरण के लिए अंग्रेजी में ऐसी इच्छा रखने वाली महिलाओं को "ब्रूडी" कहा गया है। ये शब्द ब्रूडिंग मुर्गियों के कॉन्सेप्ट से लिया गया है जो अपने अंडों का ध्यान रखने के लिए इतनी चिंता करती हैं कि उनको अपना आराम भी याद नहीं रहता। वहीं एक अमेरिकी महिला ये सोचकर परेशान हो जाती है कि उसकी "बायोलॉजिकल क्लॉक" आगे बढ़ रही है यानि अब उसे बिना देर किए अपने बच्चे के बारे में सोचना चाहिए। लेकिन इतना गहरा कल्चरल आधार होने के बावजूद वैज्ञानिकों की दुनिया में इस मामले पर तीखी बहस होती है। उदाहरण के लिए इस बात पर कोई एक राय नहीं है कि इंसानी स्वभाव में "बच्चे पैदा करने की चाहत" जैसी कोई चीज मौजूद है या नहीं।
पहले इवॉल्यूशनरी साइकोलॉजिस्ट, एडवर्ड वेस्टरमार्क का उदाहरण ले लीजिए जिन्होंने साल 1891 में आई अपनी पुस्तक द हिस्ट्री ऑफ ह्यूमन नेचर में ये लिखा था कि सभी इंसानों में ऐसी चाहत होती है। इस दावे के विरोध में सेक्सोलॉजिस्ट हैवलॉक एलिस ने कहा कि ये चाहत असल में बस सेक्स ड्राइव थी और बच्चे पैदा करने के पीछे कोई और चाहत नहीं थी क्योंकि नेचर में इसके लिए दो लोगों की जरूरत होती ही है। इस रिस्पांस की वजह से वेस्टरमार्क ने अपनी किताब के अगले सभी एडिशन्स में "बच्चे को जन्म देने की चाहत" के बारे में सभी दावे हटा दिए। हाल ही में फिनलैंड की समाजशास्त्री, अन्ना रोटकिर्च ने स्कैंडिनेवियाई लोगों में नजर आने वाले "बेबी फीवर" की एक स्टडी को लीड किया। उन्होंने देखा कि जो महिलाएं बच्चे चाहती थीं उनके मन में बच्चे पैदा करने की तेज इच्छा थी लेकिन यही इच्छा उनमें भी थी जो बच्चे नहीं चाहती थीं।
असल में बहुत से लोग ये बताते हैं कि बच्चों की सबसे ज्यादा चाहत उनके मन में तब आई जब इसके लिए सही समय नहीं था। मजेदार बात ये है कि इसमें भी दोनों तरह के लोग शामिल थे। जो बच्चे चाहते थे वो भी और जो बच्चे नहीं चाहते थे वो भी। ये बात इस तरफ इशारा करती है की बच्चे की चाहत रखना इंसानी स्वभाव में है। यहां ये जानना भी जरूरी है कि फिनलैंड में जन्मदर काफी कम है। यहां निजी आजादी और शिक्षा पर खास ध्यान दिया जाता है। रोटकिर्च की ये स्टडी इस बात की तरफ इशारा करती है कि इंसानों में बच्चे पैदा करना एक बायोलॉजिकल जरूरत हो सकती है।
बांझपन की वजह से लोगों को बहुत परेशानियों से गुजरना पड़ता है।
यूएस में गर्भपात के अधिकार पर बहस चलती रहती है।
लेकिन ऐसा भी एक टॉपिक है जिस पर लोगों का ध्यान कम जाता है। यानि ऐसे लोगों की परेशानी जो बच्चे तो चाहते हैं पर पैदा नहीं कर पा रहे हैं। इसकी वजह है बांझपन को लेकर बनी गलत सोच। आम तौर पर ये मान लिया जाता है कि ये तो अमीर या उच्च-मध्यम वर्ग की परेशानी है या फिर ये सिर्फ एक खास रेस में पाई जाती है पर इससे गरीब, कम पढ़े लिखे और हर तबके के लोग जूझते हैं। ये भी मान लिया जाता है कि बांझपन महिलाओं की समस्या है पर इससे पुरुष भी उतने ही प्रभावित होते हैं। लोग अक्सर ये भी मानते हैं कि फर्टिलिटी में कोई परेशानी होना एक रेयर और अननेचुरल बात है जबकि हकीकत ये है कि हर आठ जोड़ों में से एक को कंसीव करने में परेशानी होती है। भले ही ये परेशानी इतनी आम है फिर भी इससे प्रभावित लोगों के लिए ये बहुत शर्म की बात होती है। मार्नी रोसनर की स्टडी ले लीजिए।
वे रिप्रोडक्टिव ट्रॉमा और बांझपन की काउंसिलिंग में एक्सपर्ट हैं। रोसनर ने उन महिलाओं की स्टडी की है जिनको बच्चों की बहुत चाहत थी पर उनको बच्चे नहीं हुए। रोसनर इन लोगों को बहुत अभागा कहती हैं क्योंकि बजाए इनका दुख बांटने के, इनके परिवार और दोस्त इनकी परेशानियों को बढ़ाने का काम करते हैं। वैसे आमतौर पर भी लोग फर्टिलिटी जैसे मुद्दों पर बात करने से कतराते हैं। जबकि इतने आधुनिक जमाने में ऐसी उलझन समझ से बाहर है। इससे भी दुख की बात ये है कि इतिहास में कई बार लोगों और समूहों को नसबंदी के लिए मजबूर किया गया है। जैसे कि साल 1920 में 33 अमेरिकी राज्यों ने अपने सबसे गरीब और कमजोर लोगों की नसबंदी करने की कोशिश की। जिन लोगों को निशाना बनाया गया उनमें ऐसे लोग भी शामिल थे जिनके असामाजिक होने या मानसिक रूप से कमजोर होने का शक था। इन लोगों को अक्सर ये कहकर डराया जाता था कि अगर वो नसबंदी न कराएं तो उनको मिलने वाली सरकारी सुविधाएं खतरे में पड़ सकती हैं। बेले ने नॉर्थ कैरोलिना में यूजीनिक्स कार्यक्रमों से गुजरे कुछ लोगों से बात की जहां एक नसबंदी कार्यक्रम 1933 से 1970 के दशक तक चला। उनमें से एक विलिस लिंच नाम का बुजुर्ग था। विलिस का पालन-पोषण एक बड़े परिवार में हुआ। इस वजह से उसके मन में अपने बच्चों की गहरी चाहत थी। पर 14 साल की उम्र में जब सरकार ने उसकी नसबंदी कर दी तो ये सुख उनसे छिन गया।
बच्चे गोद लेना हमारी सोच से कहीं ज्यादा मुश्किल काम है।
ये तो तय है कि बांझपन एक बड़ी समस्या है। लेकिन लोग बच्चे गोद लेकर ये कमी पूरी क्यों नहीं कर लेते? इसका जवाब ये है कि इस तरह का कदम उठाना कोई आसान बात नहीं है। सबसे पहले तो गोद लेने का तरीका बड़ा मुश्किल और खर्चीला है। ऊपर से आपकी कोशिश कामयाब होगी इसकी कोई गारंटी भी नहीं है। खर्च तो अपनी जगह है ही पर इसमें लगने वाला समय एक और रुकावट बनता है। लोगों को इसके लिए सालों तक इंतजार करना पड़ जाता है। ज्यादातर लोग न्यूबोर्न बच्चे गोद लेना चाहते हैं क्योंकि बढ़ती उम्र के साथ बच्चे के लिए नए परिवार में एडजस्ट कर पाना मुश्किल होता जाता है। इस तरह जितने लोगों को बच्चे की जरूरत है उतनी संख्या में छोटे बच्चे मिल पाना मुश्किल है। कई बार लोग बच्चे पैदा होने से पहले उनकी माँ से गोद लेने की बात कर लेते हैं पर बच्चे के पैदा होते ही माँ अपने वादे से मुकर जाती है। यानि गोद लेना एक बहुत पेचीदा काम है। ऐसी एक घटना है जहां कपल ने बच्चा गोद लिया पर उसकी माँ ने ये बात छिपा दी कि बच्चे का पिता जेल में सजा काट रहा है। जेल में तो उसे बच्चे पर कोई अधिकार नहीं था पर बाहर आते ही उसने अपना दावा ठोक दिया और परेशानी खड़ी कर दी।
हालांकि इन सबके बाद भी अडॉप्शन होते हैं। अकेले यूएस में ही हर साल लगभग 120,000 बच्चे गोद लिए जाते हैं। बच्चा गोद लेने की चाहत रखने वाले लगभग तीन चौथाई कपल्स बांझपन का शिकार होते हैं।
LGBT कपल्स भी बच्चे गोद लेते हैं पर उनका रास्ता और भी मुश्किल होता है। गोद लेने के कानून के साथ शादी के भी कुछ कानून जुड़े होते हैं। गोद देने वाली संस्थाएं भी heterosexual कपल्स को बच्चे देना ज्यादा पसंद करती हैं भले ही वो ये बात खुल के न भी कहें। फिर भी 2015 के बाद से काफी बदलाव आया है जब अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने सेम सेक्स मेरिज को लीगल घोषित कर दिया। इस वजह से LGBT के लिए बच्चे गोद लेना काफी आसान हो गया पर फिर भी मिसीसिपी ने इस फैसले को न मानते हुए LGBT पर अडॉप्शन से रोक जारी रखी। इसके बाद कोर्ट ने दखल देकर वहां भी इस कानून को बदलवाया। इसके बावजूद आज भी यूएस में सिर्फ 7 ऐसे राज्य हैं जो LGBT के अधिकारों पर पूरी तरह ध्यान देते हैं और उनके लिए सोचते हैं।
जानवरों की ही तरह इंसान भी अपनी संतान पैदा करने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं।
जंगली जानवरों को देखकर से ये साफ हो जाता है कि वे रिप्रोडक्शन के लिए कुछ भी करने को तैयार रहते हैं। मेल मेनकिन बर्ड का उदाहरण ले लीजिए जो अपना पार्टनर बनाने से पहले लगभग आठ से नौ साल तक मेटिंग डांस की प्रेक्टिस करता है। इसी तरह मेल बार्न स्वैलो बर्ड की लंबी पूंछ ज्यादा फीमेल बर्ड्स को लुभाती है पर इस वजह से ये शिकारियों के निशाने पर भी रहते हैं। पेसिफिक सामन की बात करें तो वो ताजे पानी की धाराओं में इसलिए तैरने जाता है ताकि बच्चे पैदा कर सके जबकि इस तरह के पानी से उसके शरीर को नुकसान होता है। यानि जानवर अपनी जान की बाजी लगाकर भी मेटिंग करेंगे ही। लेकिन इंसानों का क्या?
इंसानों के पास दूसरे तरीके भी हैं लेकिन इसके लिए बहुत लंबा रास्ता पार करना पड़ता है। विज्ञान की तरक्की ने हमारे सामने गोद लेने और सरोगेसी के अलावा इन विट्रो फर्टिलाइजेशन या IVF का मौका भी दिया है। इस तकनीक को 1970 के दशक में विकसित किया गया था। इसमें हार्मोन्स की मदद से एक महिला के मेन्स्ट्रुअल साइकल को रेग्युलेट करके उसके एग को शरीर से बाहर ही फर्टिलाइज किया जाता है और बाद में embryo (भ्रूण) के रूप में उसकी बच्चेदानी में डाल दिया जाता है। इस तकनीक से 5 मिलियन से ज्यादा बच्चे पैदा हो चुके हैं और आज की तारीख में IVF का टर्नओवर अरबों डॉलर का है।
अकेले यूएस में ही हर साल आईवीएफ की मदद से 60,000 बच्चे पैदा होते हैं। इन बच्चों को अक्सर "टेस्ट-ट्यूब बेबी" कहा जाता है। हालांकि आईवीएफ बच्चों के ज्यादातर माता-पिता इस शब्द को पसंद नहीं करते हैं क्योंकि ये शब्द इस तकनीक की मेहनत को कम करके आंकता है। आईवीएफ के लिए खुद को तैयार करने में महिलाओं को महीनों रिसर्च करने, ढेरों पैसे खर्च करने और तरह-तरह की दवा लेने जैसी प्रोसेस से गुजरना पड़ता है। इन सब के बाद भी इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि उनको सफलता मिल ही जाएगी। आईवीएफ हमारी सोच से कहीं महंगा है और शायद ही कभी इसे इन्श्योरेंस कवरेज मिलती है। एक बार आईवीएफ कराने का खर्च लगभग $10,000 है और लोगों को अक्सर एक से कहीं ज्यादा बार कोशिश करनी पड़ती है तब कहीं जाकर वो सफल होते हैं या फिर उम्मीद छोड़ देते हैं। सारी बातें देखते हुए ये कहा जा सकता है कि एक कपल आईवीएफ के लिए लगभग $50,000 और $100,000 के बीच खर्च कर देता है। इतनी बड़ी कीमत कई लोगों को आईवीएफ का सहारा लेने से रोकती है। हालांकि इससे ये भी पता चलता है कि लोग अपने बच्चे की चाहत में कितना बड़ा कदम उठाने के लिए तैयार हैं।
कुल मिलाकर
इंसानी समाज बच्चों के इर्द-गिर्द घूमता है। ये बात छोटी उम्र से ही हमारे दिलो-दिमाग में घर कर जाती है कि हमारे लिए अपनी खुद की संतान होना कितना जरूरी है। हालांकि बच्चे पैदा करना और पेरेंटिंग इतना आसान भी नहीं है। ज्यादातर कल्चर बच्चे पैदा करने के प्राकृतिक तरीके को ही महत्व देते हैं पर वैज्ञानिक तरीके भी उतना ही मायने रखते हैं।
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