Measure What Matters...... 🤔

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Measure What Matters

कैसे गूगल, बोनो और गेट्स फाउंडेशन OKRs की मदद से दुनिया पर राज कर रहे हैं


दो लफ़्ज़ों में
मेज़र व्हाट मैटर्स(2018) जॉन डोयर का जिंदगी भर का रिकॉर्ड है, जिसमें उन्होंने बहुत सारी आर्गेनाइजेशन्स की ऑब्जेक्टिव और की रिजल्ट पर अमल करने में मदद की है, जिसे OKRs भी कहते हैं। OKRs की मदद से गूगल जैसी कंपनियां और गेट्स जैसे नॉनप्रॉफिट फाउंडेशन अपने गोल्स को नए आयाम तक पहुंचाने में कामयाब रहे हैं।

किनके लिये है?
- सीईओ और मैनेजर जो अपनी कंपनी की ग्रोथ बढ़ाना चाहते हैं
- फाउंडर जो हेल्थी और ट्रांसपेरेंट वर्कप्लेस तैयार करना चाहते हैं
- एंप्लॉयज़ जो एनुअल परफॉर्मेंस रिव्यू से परेशान हो चुके हैं

लेखक के बारे में
जॉन डोयर एक अमेरिकी इन्वेस्टर और वेंचर कैपलिस्ट है जिन्होंने बहुत सारे सीईओ और फाउंडर्स को OKRs का मैजिक सिखाया है। वेंचर कैपिटलिस्ट फर्म क्लेनर पर्किंस मे काम करने के साथ ही, उन्होंने प्रेसिडेंट ओबामा के इकोनॉमिक रिकवरी बोर्ड के मेंबर के तौर पर भी काम किया है।

OKRs की शुरुआत माइक्रोचिप जैसी जानी मानी कंपनी इंटेल से हुई जहां 1970s में ऑथर ने काम किया था
क्या आपने कभी ऐसी ऑर्गेनाइजेशन के लिए काम किया है, जो अगर पूरी तरीके से रास्ता नहीं भटक सकती हो, तो कम से कम उसे यह मालूम नहीं है कि वह कहां जा रही है? अगर ऐसा है, तो यकीनन आप अकेले नहीं है। अक्सर कंपनीज़ के पास इतने सारे गोल्स होते हैं, कि ऐसा लगता है कि उनके पास कोई टारगेट है ही नहीं, और इंप्लॉयज़ इतने सारे कामों में बिजी कर दिए जाते हैं कि वह अपने आपको डायरेक्शन लेस महसूस करने लगते हैं।

तो इस अजीब सिचुएशन का सल्यूशन क्या है? इसका जवाब है ऑब्जेक्टिव्स एंड की रिजल्ट्स, या OKRs.। चंद फ्लैक्सिबल, रियल और ट्रांसपेरेंट गोल रखकर, कंपनीज़ अपने टारगेट को अचीव करने के लिए अच्छे से काम कर सकती हैं।

और OKRs ना सिर्फ कंपनीज को आगे बढ़ने में मदद करते है बल्कि उनके गोल्स को ट्रैक और रिराइट करता है। ऑब्जेक्टिव्स और की रिजल्ट्स ग्रोथ सेंटर साइकोलॉजी को इनकरेज करते हैं, जो हर तरह की कंपनी को उसके मैनेजमेंट के बारे में सोचने में मदद करता है, और इस तरीके से वह बेहतर के लिए अपने पोटेंशियल को बढ़ाते हैं। इसके अलावा आप इस समरी में जानेंगे कि कैसे अपनी गर्लफ्रेंड को दोबारा पाने की कोशिश में ऑथर ने OKRs सिस्टम जाना? अपने गोल कोड सेट करने के लिए गूगल तीन कलर का इस्तेमाल क्यों करता है?, और कैरिबू नाम के प्रोजेक्ट से गूगल ने कौन सा आईकॉनिक प्रोडक्ट बनाया

बेहतरीन कहानियों और फेयरी टेल्स का प्लॉट अक्सर प्यार पर ही बेस्ड होता है। लेकिन किसने सोचा था, ऑथर के ऑब्जेक्टिव्यस एंड की रिजल्ट्स को डिस्कवर करने में प्यार का अहम किरदार होगा।

1975 की गर्मियों में ऑथर जॉन डोयर अपनी गर्लफ्रेंड ऐन को दोबारा पाने की कोशिश कर रहे थे। उन्हें मालूम था कि वह सिलिकॉन वैली में काम करती थी, लेकिन ऑर्गेनाइजेशन के बारे में नहीं मालूम था। हालांकि, किस्मत से, उन्होंने पता लगा लिया कि उनकी गर्लफ्रेंड इंटेल में काम करती थी, जिस कंपनी से उन्होंने हाल ही में इंटर्नशिप की थी ।

ऑथर और उसकी गर्लफ्रेंड के एक साथ आ जाने से लव स्टोरी की हैप्पी एंडिंग हो जाती है (वह अभी भी मैरिड हैं)। उनकी स्टोरी के साथ ऑथर के ऑब्जेक्टिव्स एंड की रिजल्ट्स डिस्कवर करने की कहानी शुरू होती है।

OKRs के पीछे की वजह इंटेल के फाउंडर्स में से एक एंडी ग्रूव थे। उसके बाद वॉइस प्रेजिडेंट, सीईओ बनने के बाद उनकी लीडरशिप कंपनी को एक स्मॉल बिजनेस से आज दुनिया का जाना माना ब्रांड बनाने में अहम रही है। उनके अपरोच का अहम हिस्सा OKRs का इस्तेमाल रहा है।

जॉब मिलने के बाद ऑथर ने ग्रूव की एक सेमिनार में हिस्सा लिया, जिसमें उन्होंने बताया कि OKRs सिर्फ इस बारे में नहीं है, कि आप क्या जानते हैं बल्कि इस बारे में है कि आप अपनी जानकारी का क्या इस्तेमाल करते हैं। अगर आप कुछ करना चाहते हैं, तो एग्जीक्यूशन के लिए जानकारी होनी चाहिए। 

एग्जांपल के लिए, इंटेल का एक ऑब्जेक्टिव मिडरेंज कंप्यूटर कॉम्पोनेंट्स इंडस्ट्री में नंबर वन होना था। ग्रूव ने एक्सप्लेन किया, कि कैसे चंद ऑब्जेक्टिव्स सेट करने से कंपनी उन्हें अचीव करने में पूरी तरीके से फोकस कर सकती है।

लेकिन वह कैसे जानेंगे कि उन्होंने अपना ऑब्जेक्टिव अचीव कर लिया है? ग्रूव ने समझाया कि यहीं "की रिजल्ट्स" की शुरुआत होती है। फॉर एग्जांपल माइक्रोसॉफ्ट 8085 प्रोसेसर के लिए एक वक्त पर 10 डिजाइन हासिल करना एक "की रिजल्ट" होगा- इस तरीके से दूसरी कंपनियों के डिजाइन प्रोडक्ट में इंटेल का ही माइक्रोप्रोसेसर यूज होना था। इस तरह के "की रिजल्ट" सिंपल यस और नो से जाने जा सकते थे, इस काम में इनवॉल्व हर शख्स, जिसे कंट्रीब्यूटर कहा जाता, को बिना किसी बहस के यह इंश्योर करना होता है, कि की रिजल्ट्स अजीव कर लिए गए हैं या नहीं। इस तरीके का इस्तेमाल करके अपने 11 साल की सीईओ की जर्नी में ग्रुव ने हर साल कंपनी के लिये 40 परसेंट ग्रोथ इंश्योर की। OKRs के इस तरीके को कामयाब होते देख, ऑथर ने इस आइडिया को लोगों तक पहुंचाने और इसका इस्तेमाल कर दुनिया की तमाम कंपनियों की मदद करने की ठानी।

OKRs फोकस रहने और गोल को अचीव करने में, ऑर्गेनाइजेशन्स की मदद करता है
जिसने भी हाई परफॉर्मेंस ऑर्गेनाइजेशन में काम किया है उसे मालूम है कि एक टीम की तरह आगे बढ़ने के लिए, हर शख्स को मालूम होना चाहिए कि उन्हें किस डायरेक्शन में जाना है। लेकिन साथ ही यह मालूम होना कि किस डायरेक्शन में नहीं जाना है, उतना ही इंपॉर्टेंट है। यह हमें OKRs के तीन इंपॉर्टेंट पहलुओं में से एक के करीब ले आता है, एक वक्त पर पूरे आर्गेनाइजेशन में कुछ भी OKRs होने चाहिए। इस तरीके से, टॉप लेवल मैनेजमेंट से लेकर लो लेवल एंप्लॉयज़ तक सब मिलकर लिमिटेड गोल को अचीव करने में फोकस कर सकते हैं।

जब, एक बार मैनेजमेंट टॉप लेवल ऑब्जेक्टिव्स डिसाइड कर ले, तो हर एडजेक्टिव के लिए एंपलॉयज़ को तीन से पांच की रिज़ल्ट्स इंश्योर करने की जरूरत होती है। इससे ज्यादा oKRs रखने पर फोकस बिगड़ जाता है और प्रोग्रेस मेज़र करना मुश्किल हो जाता है।

आखिर में, आपको एक टाइम फ्रेम की जरूरत होगी, ताकि आर्गेनाइजेशन के अलग-अलग डिपार्टमेंट साथ मिलकर डेडलाइंस को कंप्लीट करने में फोकस्ड रह सकें।

लेखक, आज के तेज़ी से बदलते मार्केट के बीच, हर 3 महीने में OKRs सेट करने की सलाह देते हैं।

उसके बाद, हर 3 महीने में आपकी कंपनी के हर डिपार्टमेंट को एक साथ आकर यह देखना चाहिए कि आपने अपने सेट किए गए OKRs को अचीव किया है या नहीं, और क्या आपको मौजूदा रास्ते पर चलनते रहने की जरूरत है या नए गोल्स सेट कर लेने चाहिए।

रिमाइंड के सीईओ, ब्रेट कॉफ ने ऑथर के कहने पर अपने स्मॉल एजुकेशन स्टार्टअप को मिलियन्स यूजर्स की कंपनी में बदलने के लिए OKRs पर अमल किया।

एक दिन में 300000 डाउनलोड के साथ, 2014 में रिमाइंड की शानदार कामयाबी के बाद, कॉफ ने रियलाइज़ किया कि अगर उन्हें और आगे जाना है तो 14 लोगों की उनकी टीम को ज़्यादा फोकस करने की जरूरत है।

ऑथर की वेंचर कैपिटल ने रिमाइंड को सीरीज बी फंडिंग की थी। इसी दौरान उन्होंने कॉफ को OKRs के बारे में बताया था, जिसने रिमाइंड की एक तरक्की कर रही ऑर्गेनाइजेशन के तौर पर तब काफी मदद की, जब टाइम और एनर्जी को इफेक्टिवली यूज कर पाना मुश्किल हो रहा था।

एग्जांपल के तौर पर, उनका सबसे रिक्वेस्टेड फीचर "रिपीटेड मैसेजेस" का फंक्शन ऐड करना था, ताकि टीचर्स को हर हफ्ते स्टूडेंट को सेम मैसेज ना भेजने पड़े। लेकिन उस दौरान रिमाइंड का मेन ऑब्जेक्टिव टीचर्स की इंगेजमेंट बढ़ाना था, इसलिए वह रिपीटेड फीचर वाला टाइम-सेंसिटिव ऑब्जेक्टिव अचीव नहीं कर पाए। OKRs का इस्तेमाल करके फोकस्ड रहकर और डिस्ट्रेक्ट ना होकर कंपनी लगातार तरक्की करती रही, 40 मिलियन डॉलर की सीरीज सी फंडिंग भी हासिल की और, 2016 तक 60 लोगों को रोजगार दिया।

ट्रांसपेरेंट और अलाइन OKRs सिस्टम आर्गेनाइजेशन को इफेक्टिवली और कोलैबोरेटली आगे बढ़ने में मदद करता है।

यह कॉमन सेंस की बात है कि खुलापन और ईमानदारी किसी भी कामयाब रिश्ते की बुनियाद है। ऑर्गेनाइजेशन के लिए भी यह चीजें अलग नहीं हैं। OKRs का एक इंपॉर्टेंट पहलू यह है, कि आपकी ऑर्गेनाइजेशन में इनके बारे में सभी को मालूम होना चाहिए।

रिसर्च बताती है कि गोल्स को लेकर ट्रांसपेरेंट रहना मोटिवेशन बढ़ाता है। 1,000 अमेरिकियों के बीच किए गए एक सर्वे में पता चला कि जब उनके को-वर्कर्स को उनकी प्रोग्रेस के बारे में मालूम होता है तो वह ज्यादा मोटिवेटेड फील करते हैं।

OKRs सिर्फ किसी आर्गेनाइजेशन के बिजनेस गोल से ज़्यादा है, टीम, डिपार्टमेंट और एंप्लॉय इसका इस्तेमाल अपने कामों में भी करते हैं। लेकिन एक बार हाई लेवल और इंडिविजुअल के OKRs किसी आर्गेनाइजेशन के पब्लिक डोमेन में आ जाएं, तो उन्हें कामयाब होने के लिए साथ आ जाना चाहिए। इसका मतलब है एंप्लॉय को अपने OKRs कंपनी के विजन से अलाइन करने चाहिए, जैसा की टॉप लेवल OKRs सेट किये गये हैं।

हालांकि इसका यह मतलब नहीं है कि टॉप के लोग एंप्लॉयज़ के दिन भर के काम डिक्टेट करें, इस तरीके का टॉप-डाउन नजरिया वर्कप्लेस में ऑटोनॉमी को बढ़ाता है, और एंपलॉयज़ को डिसकरेज करता है। एक हाइब्रिड नजरिया स्टैबलिश करना सबसे अच्छा है जो टॉप- डाउन और बॉटम-अप दोनों ही हो, इससे इनोवेशन, ट्रांसपेरेंसी और कोलैबोरेशन बनेगा।

ऐसा करने का एक तरीका गूगल का अजमाया हुआ, 20 परसेंट टाइम कांसेप्ट है। यह कंसेप्ट इंजीनियर्स को हफ्ते में एक दिन के बराबर वक्त (वर्कवीक का 20%) उन प्रोजेक्ट्स पर काम करने की इजाजत देता है जिनके बारे में उन्हें लगता है कि वह टॉप लेवल OKRs अचीव करने में गूगल की मदद कर सकते हैं।

इस फिलॉसफी का नतीजा? एक यंग गूगल इंजीनियर ने 2001 में उस 20 परसेंट का इस्तेमाल "कैरिबू" नाम के प्रोजेक्ट में किया। आज यह प्रोजेक्ट जीमेल के नाम से जाना जाता है, और यह दुनिया का सबसे पॉपुलर ईमेल क्लाइंट है। लेकिन अलाइमेंट को जमीन पर कार्यकारी बनाना आसान नहीं होता।

माइक और एलबर्ट ली का माईफिटनेस एप्प ही ले लीजिए। ऑथर ने 2013 में बिजनेस के लगातार ग्रोथ के लिए उन्हें OKRs का इंपॉर्टेंस समझाया।

इस सिस्टम को अप्लाई करने के बाद ली ब्रदर्स को एहसास हुआ कि बहुत सारे लोगों के अपने OKRs हैं, जो कंपनी के अल्टीमेट गोल से मेच नहीं खाते। डिपार्टमेंट के बीच OKRs अलाइनमेंट में कमी की वजह से, अलग-अलग टीमों को अपने ऑब्जेक्टिव्स और की रिजल्ट्स अचीव करने में प्रॉब्लम होने लगी और इससे हालात और खराब हो गए। शॉर्ट में कहा जा सकता है कि OKRs को कोआर्डिनेशन में कमी आ रही थी।

इसलिए ली ब्रदर्स ने डिपार्टमेंट हेड के साथ हर 3 महीने की मीटिंगस ऑर्गेनाइज की। हर डिपार्टमेंट के हेड ने मीटिंग में आपने OKRs प्रेजेंट किए और ऐसे पोटेंशियल लोगों को शॉर्टलिस्ट किया जिनके कोआर्डिनेशन से वह ऑब्जेक्टिव्स अजीव किए जा सकें।

ऐसा करके, वह हर तिमाही यह जान सकते थे कि कहीं उनकी टीम ओवरस्ट्रेच तो नहीं हो रही, और सपोर्ट के लिए वह दूसरी टीम पर डिपेंड हो सकते थे।

OKRs को लगातार ट्रैक करके ऑर्गेनाइजेशन्स श्योर हो सकती हैं कि वह सही डायरेक्शन में काम कर रही हैं
शायद आपको मालूम हो कि गोल्स को लिखना उन्हें अचीव करने में मददगार साबित हो सकता है। गोल्स ट्रैक करने के बारे में भी ऐसा ही कहा जा सकता है। असल में, कैलीफोर्निया के एक सर्वे से पता चलता है जो दोस्त अपने गोल्स लिखते हैं और अपने दोस्तों के साथ वीकली बेसिस पर शेयर करते हैं उनके ऑब्जेक्टिव्स अचीव करने के चांसेस 43 परसेंट ज्यादा हो सकते हैं।

ऑर्गेनाइजेशनल OKRs के साथ भी ऐसा ही होता है।

मिसाल के तौर पर, गूगल, हर महीने मीटिंग करती है, जहां पर एंप्लायज़ बताते हैं कि वह अपने OKRs के लिए किस तरीके से आगे बढ़ रहे हैं। ना सिर्फ प्रोग्रेस डिस्कस की जाती है, बल्कि सामने आ रही परेशानियों को भी शेयर किया जाता है और उसी के हिसाब से की रिजल्ट्स अपडेट किए जाते हैं।

मीटिंग के दौरान, और तिमाही OKRs के  लाइफ साइकिल में, OKRs कॉन्ट्रिब्यूटर्स के पास चार ऑप्शन होते हैं, कंटिन्यू, अपडेट, स्टार्ट और स्टॉप।

अगर ऑब्जेक्टिव ट्रैक पर है तो कंटिन्यू करना ठीक है लेकिन अगर किसी वजह से "की रिजल्ट" अजीव नहीं किया जा सकता, तो बेहतर है कि टॉप लेवल को इनफॉर्म किया जाए और नये ऑब्जेक्टिव्स सेट किए जाएँ।

क्वार्टर के बीच में नये OKRs शुरु करना जरूरी हो सकता है। और कभी कभी नाकाम OKRs को काम के बीच में ही छोड़ दिए जाने की जरूरत होती है। 

एक बार रिमाइंड के ब्रेट कॉफ को  पियर-टू-पियर पेमेंट सिस्टम के OKRs को बीच में ही रोकना पड़ा था। उन्होंने इसे कामयाब होते नहीं देखा, क्योंकि यह कोई खास प्रॉब्लम सॉल्व नहीं कर पा रहा था, और इसीलिए उन्होंने इस ऑब्जेक्टिव को फौरन कैंसिल कर दिया था। उसे हटाकर उन्होंने आगे बढ़ने के लिए नया OKR सेट किया- एक ऐसा फीचर बनाया, जिसके जरिए टीचर्स स्टूडेंट्स से पूछ सकें, कि वह स्कूल इवेंट में पार्टिसिपेट करेंगे या नहीं, यह काफी कामयाब रहा।

फिर भी, एक OKRs कंट्रीब्यूटर यह कैसे जाने कि की रिज़ल्ट्स अचीव करने में वह कहां तक पहुंचा।

गूगल 0.10 कलर कोडेड स्केल का इस्तेमाल करता है, जिसकी मदद से कंट्रीब्यूटर्स यह पता लगा सकते हैं कि उन्होंने कोई भी "की रिजल्ट" कितनी कामयाबी से अजीव किया है, 0.0 से 0.3(रेड) का मतलब है, कि कोई प्रोग्रेस नहीं हुई है। 0.4 से 0.6 का मतलब है कि प्रोग्रेस तो हुई है लेकिन "की रिजल्ट" अचीव नहीं किया जा सका। 0.7 से 0.10 इस बात का साइन है, कि "की रिजल्ट" सक्सेसफुली अचीव कर लिया गया है।

इंटेल ने भी कुछ ऐसा ही स्कोरिंग सिस्टम बनाया था। जब 1980 में कंपनी यह दिखाना चाहती थी कि उसके 8086 चिपसेट की परफॉर्मेंस किसी भी माइक्रोप्रोसेसर से बेहतर है, तो तिमाही खत्म होने तक 500 सैंपल इसके अरिथमैटिक कोप्रोसेसर को भेजना, एक की रिज़ल्ट सेट किया गया। वह 470 सैंपल भेजने में कामयाब रहे जो स्कोरिंग सिस्टम में लगभग 0.9 की परफॉर्मेंस है।

हाई रिस्क गोल्स रखना, ज्यादा अचीव करने में ऑर्गेनाइजेशन के लिए मददगार  हो सकता है।

1969 में, पहली बार इंसान ने चांद पर कदम रखा उससे पहले यह इमेजिन भी नहीं किया जा सकता था। फेलियर के रिस्क के साथ आगे बढ़ना, नासा की लिमिट को बढ़ाने में मददगार रहा।

लेकिन अगर ऑर्गेनाइजेशन का फोकस, एलाइनमेंट और ट्रैर्किंग सिस्टम सही हो, तो कोई भी हाई रिस्क चैलेंज अजीव किया जा सकता है। इस तरह के चैलेंजेस को स्ट्रेच गोल्स कहते हैं।

सिंपली, स्ट्रेच गोल्स ऐसे OKRs हैं जो OKRs कंट्रीब्यूटर्स के लिए कठिन चैलेंज होते हैं। रिसर्च भी इस स्ट्रेच गोल्स  को मानती है,  स्टडीज़ बताती हैं कि ऐसे एंप्लॉयज़ ज्यादा मोटिवेटेड, प्रोडक्टिव और इंगेजिंग होते हैं।

लेकिन किसी आर्गेनाइजेशन को यह कैसे पता चले कि स्ट्रेच गोल उनके लिए सही है या नहीं?

गूगल में OKRs दो अलग तरह की कैटेगरी में बटे हुये होते हैं, स्ट्रेच ऑब्जेक्टिव और कमिटेड ऑब्जेक्टिव।

यहां कमिटेड ऑब्जेक्टिव का मतलब सेल्स और हायरिंग जैसे रोजमर्रा के टार्गेट से है, स्ट्रेच ऑब्जेक्टिव बड़े आईडियाज के लिए इस्तेमाल किया जाता है। कमिटेड ऑब्जेक्टिव 100% सक्सेसफुली कंप्लीट किया जाना जरूरी है, जबकि गूगल का स्ट्रेच ऑब्जेक्टिव 40% टाइम नाकाम ही रहता है।

अब गूगल की तरह बाकी कंपनियों के पास इतना सेफ्टी नेट नहीं होता कि वह हाई रिस्क स्ट्रेच OKRs का फेल होना अफॉर्ड कर सकें। लेकिन थोड़ा सा सेफ कैश होने पर स्ट्रेच ऑब्जेक्टिव काफी अच्छा अर्न करने में आपकी मदद कर सकता है।

एग्जांपल के लिए, गूगल के वेब ब्राउजर क्रोम को ले लीजिए। 2008 में ब्राउज़र बनाने के लिए शुरुआती OKR ब्राउजिंग को मैगजीन का पेज उलटने जितना आसान बनाना था।

क्रोम टीम का पहला स्ट्रेच गोल ओवरएंबिशियस था, वह 2008 खत्म होने तक 20 मिलियन वीकली यूज़र्स बनाना चाहते थे लेकिन इस गोल को अचीव करने में आ रही मुश्किलें टीम को अपना अल्टीमेट गोल अचीव करने के लिए इंस्पायरर करती रहीं। हालांकि यह हासिल करने लायक नहीं लगता था।

20 मिलियन वीकली यूज़र्स का गोल 2009 के शुरुआत में अचीव कर लिया गया, लेकिन यह क्रोम टीम को ज़्यादा स्ट्रेच गोल सेट करने से रोक नहीं पाया। 2009 के लिए, स्ट्रेच गोल 50 मिलियन का सेट किया गया, लेकिन वह सिर्फ 38 ही हासिल कर सके। हलांकि, आखिरकार, वह 2011 तक 111 मिलियन यूजर्स हासिल करने में कामयाब रहे।

अब, 2021 में सिर्फ मोबाइल पर ही कई बिलियन लोग क्रोम का इस्तेमाल करते हैं।

लगातार परफॉर्मेंस मैनेजमेंट के साथ OKRs सेट करना ट्रांसपेरेंट, हेल्थी वर्कप्लेस कल्चर बनाने में हेल्पफुल होता है।
अगर आप किसी बड़े ऑर्गेनाइजेशन में काम करते हैं तो हो सकता है कि एनुअल परफॉर्मेंस रिव्यु के बारे में जानते हों। इस तरह के रिव्यू में हर एंप्लॉय को 7.5 घंटे खर्च होते हैं-अच्छा खासा वक्त। जबकि, सिर्फ 6% एचआर इस तरीके को कारगर समझते हैं। इमेजिन कीजिए आप किसी कंपनी में एचआर है और 30 एंप्लॉय आपके अंडर काम करते हैं। इसका मतलब है डेढ़ महीने का वक्त रिव्यु में लगेगा।

इसे बदला जा सकता है। ना सिर्फ 500 कंपनियों ने इस सिस्टम से निजात पाई है, बल्कि बहुत सारी कंपनियां इसे ‘कंटीन्यूअस परफॉर्मेंस मैनेजमेंट’ और ‘एसोसिएटेड इंस्ट्रूमेंट ऑफ़ चेंज’ से बदल रही हैं-CFRs

CFRs एचआर लेवल के OKRs हैं, इसके तहत एंप्लॉय से कन्वर्सेशन होती है, जो फीडबैक और पहचान, दोनों के लिए कारगर है। CFRs दो तरफा रास्ता है, एक तरफा एनुअल परफारमेंस रिव्यू के बजाय, इसमें आपस में बातचीत होती है जो दोनों तरफ से सही फीडबैक और पहचान में काफी हेल्पफुल है।

इसी तरह एनुअल गोल की जगह OKRs का इस्तेमाल होता है, CFRs लगातार होते रहने चाहिए ताकि पूरे साल परफॉर्मेंस बढ़ाई जाती रहे।

एनुअल परफॉर्मेंस रिव्यु के उलट, जो सिर्फ यह बताता है कि एंप्लॉय ने अपना एनुअल गोल अचीव किया है या नहीं, CFRs सिस्टम एप्लाई करके लीडर्स और कंट्रीब्यूटर्स आपस में बैठकर तरह-तरह के टॉपिक पर डिस्कशन कर सकते हैं। क्या आप जिस ऑब्जेक्टिव के लिए काम कर रहे हैं उसे सच में अचीव किया जा सकता है? क्या यह काम करने के लिए सही ऑब्जेक्टिव है? और क्या यह मोटीवेटिंग है?

एग्जांपल के लिए, अडॉब को ले लीजिए, एनुअल परफॉर्मेंस रिव्यु के बाद, हर फरवरी ये एंपलॉयज़ के रेजिग्नेशन और रिटायरमेंट जैसे काम बढ़ जाते थे।

परफॉर्मेंस रिव्यू सिस्टम को CFRs सिस्टम, जिसे “चेकलाइन” कहते हैं, से बदलने के बाद, अडॉब के इस तरह के काम तेज़ी से कम हुए हैं।

अब, यह क्लियर हो जाना चाहिए कि OKRs और CFRs सिस्टम का किसी भी ऑर्गेनाइजेशन में इस्तेमाल, बिना किसी शक वर्कप्लेस कल्चर में अपनी बेहतर हिस्सेदारी निभाएगा। कंट्रीब्यूटर्स की एक टीम जो एक ही गोल के लिए काम कर रही हो, उसके साथ ट्रांसपेरेंट कम्युनिकेशन और इंडिविजुअल जवाबदेही, किसी भी ऑर्गेनाइजेशन की परफॉर्मेंस बढ़ाने के लिए काफी होना चाहिए।

जहां, OKRs कंट्रीब्यूटर्स को मीनिंगफुल गोल्स प्रोवाइड करते हैं, वहीं CFRs इसे पूरा करने में इंपॉर्टेंट रोल निभाते हैं, एंबिशियस स्ट्रेच थिंकिंग के साथ आर्गेनाइजेशन्स ऐसी तकनीक का इस्तेमाल तारों तक पहुंचने में करती हैं, और यह वर्कप्लेस को पॉजिटिव और पीपल-ओरियेंटेड भी बनाता है।

आखिरकार, वह ऑर्गेनाइजेशन जो अपने एंप्लॉय के साथ पार्टनर जैसा बर्ताव करते हैं, वह ज्यादा कामयाब होते हैं।

कुल मिलाकार
ऑब्जेक्टिव्स एंड की रिजल्ट्स(OKRs), ऐसे बेहतरीन तरीके हैं, जो मैनेजमेंट के लिए अपना नजरिया बदलने में ऑर्गेनाइजेशंस की मदद करते हैं। ईयरली गोल्स सेट करने के बजाए, OKRs के जरिए आर्गेनाइजेशंस और उनकी टीम, अकाउंटेबल और ट्रांसपेरेंट तरीके से गोल्स सेट, ट्रैक और अचीव कर सकते हैं । और जब साल में एक बार की रिव्यू के बजाय  एंपलॉयज़ से लगातार बातचीत की जाती है, तो इससे हेल्थी वर्कप्लेस कल्चर बनता है।

 

जब ऑर्गेनाइजेशन में ऑब्जेक्टिव सेट करने की बात आती है तो याद रखिए “लेस इज मोर”।

गूगल के को फाउंडर लैरी पेज कहते हैं “पुट मोर वुड बिहाइंड वन एरो” इसका मतलब एक ऑब्जेक्टिव रखकर कई की रिजल्ट्स अचीव कीजिए। इनोवेशन को डिफाइन करते हुए स्टीव जॉब्स ने कहा था, ‘इनोवेशन का मतलब एक हज़ार चीज़ों को ना कहना है’।

आपको एक तिमाही में 3 से 5 ऑर्गेनाइजेशनल ऑब्जेक्टिव्स ही सेट करने चाहिए। इस तरीके से, काम शुरू करने से पहले ही, आप पता लगा लेंगे कि ऑर्गेनाइजेशन के लिए सबसे ज्यादा इंपॉर्टेंट क्या है, और आपकी फ्यूचर सक्सेस इनश्योर करने में यह तरीका मदद करेगा।

येबुक एप पर आप सुन रहे थे Measure What Matters by John Doerr

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