Making Ideas Happen _ _ _🙄

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Making Ideas Happen

Scott Belsky
अपने बेहतरीन आइडियाज को रियलिटी में बदलना सीखो

दो लफ़्ज़ों में
मेकिंग आइडियाज हैपन, विज़न को रियलिटी में बदलने के रास्ते में आने वाली रुकावटों को दूर करने के आसान तरीके सीखाने वाली एक बेहतरीन किताब है. दुनिया की जानी-मानी क्रिएटिव कंपनीयों और ब्रांडों के रियल लाइफ एक्सपीरियंस पर बेस्ड ये किताब आपके आइडियाज को सच बनाने में आपकी मदद करेगी.

  ये किताब किसके लिए है?
- क्रिएटिव इंडस्ट्री में काम करने वालों के लिए.
- स्टार्ट-अप चलाने वालों के लिए .
- हर उस इंसान के लिए जिनके बेहतरीन आइडियाज कभी हकीकत में नहीं बदल पाते.

लेखक के बारे में
स्कॉट बेल्सकी (Scott Belsky), एडोब (Adobe) कम्युनिटी के वाईस प्रेसिडेंट हैं और साथ हीं वो बिहैंस (Behans) नाम के प्रोडक्ट डेवलपमेंट प्लेटफार्म के सीईओ और फाउंडर भी हैं. वो फार्च्यून 500 और न्यू मीडिया जायंट की कंपनियों को कंसल्टेशन देने के साथ-साथ कॉर्नेल (Cornell), हार्वर्ड (Harvard) और यु.सी. बर्कलेय (UC Berkley) जैसी यूनिवर्सिटीज में गेस्ट लेक्चरर भी रहे हैं. फ़ास्ट कंपनी द्वारा 2010 में बनायीं गयी ‘बिज़नस से जुड़े 100 सबसे क्रिएटिव लोगों’ की लिस्ट में स्कॉट का भी नाम था.हर टास्क को एक्शन स्टेप, रेफरेंस और बैक बर्नर आइटम्स में तोडा जा सकता है.
आप अपने सोफे पर आराम से बैठ कर टीवी देख रहे थे कि तभी आपके दिमाग में एक बेहतरीन आईडिया आया. एक ऐसा आईडिया जो आपकी कंपनी को लाखों का फायेदा करवा सकता है. आप बिना देर किये अगले हीं दिन अपने बॉस को ये आईडिया सुनाते हैं. उन्हें भी आईडिया बहुत पसंद आता है वो एक प्रोजेक्ट टीम बनाकर इस आईडिया को एक्सीक्यूट करने को कहते हैं.

कुछ हफ्ते बीतने के बाद आपको एहसास होता है कि कोई प्रोग्रेस नहीं मिल पा रही है. धीरे-धीरे सबका उत्साह कम होने लगता है और कुछ हीं महीनों में वो आईडिया ठन्डे बस्ते में चला जाता है. ऐसा अक्सर देखने को मिलता है कि एक बेहतरीन आईडिया अपने एक्सेक्यूशन की स्टेज में कहीं खो जाता है.

इस समरी में हम देखेंगे कि हम इससे निजात कैसे पा सकते हैं. कैसे सही माइंडसेट और आर्गेनाइजेशन से आप अपने आईडिया को रियलिटी में बदल सकते हैं.

आपकी कंपनी सेल्स से जुडी एक जरुरी मीटिंग की तरफ बढ़ रही है, जो या तो आपकी कंपनी को सफलता की बुलंदियों तक ले जा सकती है या उसे डूबा सकती है. ऐसे नाज़ुक समय में आपके बॉस नें आपको एक प्रेजेंटेशन तैयार करने को कहा लेकिन कंप्यूटर के सामने बैठ कर आपका दिमाग काम ही नहीं कर रहा. आपको समझ नहीं आ रहा कि शुरू कहाँ से करें.

हम सब कभी न कभी ऐसी सिचुएशन में जरुर फंसते हैं और ये यकीनन बहुत स्ट्रेसफुल होता है. खुशकिस्मती से कुछ ऐसे स्टेप्स हैं जिन्हें फॉलो कर के आप ऐसी सिचुएशन से बच सकते हैं.

आपका हर प्रोजेक्ट चाहे वो किसी भी टॉपिक पर हो उसे 3 भागों में बाँटा जा सकता है.

सबसे पहले आता है एक्शन स्टेप यानी वो जरुरी काम जिनके बिना प्रोजेक्ट पूरा नहीं हो सकता. जैसे आपकी सेल्स प्रेजेंटेशन के लिए आपका एक्शन स्टेप होगा कि आप प्रेजेंटेशन की आउटलाइन तैयार करें या अपने बॉस से पूछें कि आपको किन प्रोडक्ट्स पर फोकस करना है.

उसके बाद आता हैं रेफरेंस यानी वो इनफार्मेशन जो आपके प्रोडक्ट के लिए फायेदेमंद साबित हो सकती है. जैसे आपके प्रेजेंटेशन के लिए आपके प्रोडक्ट का सेल्स फोरकास्ट, कम्पटीटर एनालिसिस और आपके पिछले प्रेजेंटेशन का फीडबैक ये सब रेफरेंस के तौर पर काम आ सकते है.

और आखरी में बारी आती है बैक बर्नर आइटम्स की यानी वो चीज़ें जो आपके प्रोजेक्ट में काम तो आयेंगी लेकिन उनके बिना भी काम चल सकता है. जैसे अपनी स्लाइड्स को अच्छे ग्राफ़िक्स और डिजाईन के साथ सजा कर आप उसे और इंटरेस्टिंग बना सकते हैं. लेकिन वो एक्शन स्टेप नहीं हो सकता आप ऐसा तभी करेंगे जब बाकी के जरुरी काम करने के बाद आपके पास टाइम बचे.

अपने प्रोजेक्ट को इन कैटेगरीज में बाँटना बहुत जरुरी है वरना आप स्ट्रेस्ड महसूस करेंगे. जरुरी चीज़ों को गैरजरूरी चीज़ों से अलग किये बिना आपका माइंड कन्फ्यूज्ड रहेगा और आप बिना किसी प्रोग्रेस के हर डायरेक्शन में भटकते रहेंगे.

जब आप एक्शन के बारे में सोचेंगे तभी आपका प्रोजेक्ट फॉरवर्ड डायरेक्शन में जायेगा.
इमेजिन कीजिये कि एक नया मार्केट प्लेस क्रिएट हुआ और आपकी कंपनी भी उसमें आपना सिक्का आजमाना चाहती है. लेकिन दिक्कत ये है कि आपके पास कोई ऐसा प्रोडक्ट नहीं जो उस मार्केट को सूट करे.इसलिए आप फटाफट एक ब्रेनस्टोर्मिंग सेशन बुलाते हैं जहाँ आपकी कंपनी के सबसे होनहार और क्रिएटिव डेवलपर कुछ बेहतरीन आइडियाज सामने रखते हैं. उत्साह से भरे आप अपने डेस्क पर पहुँचते हैं और आपको एहसास होता है कि सभी आइडियाज ब्रिलियंट तो हैं लेकिन इमें से कोई भी रियलिटी में बदलने लायक नहीं है.

आखिर ऐसा कैसे हो सकता है?

ज्यादातर आइडियाज इसलिए फेल हो जाते हैं क्यूंकि वो एक्शन पर बेस्ड नहीं होते बल्कि रिचुअल (Rituals) यानी आदतों पर बेस्ड होते हैं. जैसे मीटिंग्स, ब्रेनस्टोर्मिंग सेशंस इन सभी चीज़ों को हम एक्शन के तौर पर नहीं बल्कि एक आदत के तौर पर करते हैं और इससे सिर्फ हमारा टाइम वेस्ट होता है.

उदाहरण के तौर पर एक दूसरे को अप-टू-डेट करने के लिए रखी गयी वीकली मंडे मॉर्निंग मीटिंग. वीकली यानी हर हफ्ते ना कि तब जब उस मीटिंग की असल जरुरत पड़े. जरा सोच के बताईए कि ऐसी कितनी हीं मीटिंग से आप कुछ काम की बात लेकर निकले हैं.

आप खुद को इस टाइम वेस्ट से बचा सकते हैं. कैसे? एक्शन स्टेप्स पर ध्यान देकर. जैसे नहाते वक़्त अचानक आपको याद आया कि आपने X को पिछली मीटिंग में एक काम दिया था जिसका फॉलोअप नहीं लिया. तो बस नहाते ही  आप इस एक्शन स्टेप को अपनी डायरी में लिख लें कि ‘X से Y काम के बारे में फॉलोअप लेना है.’

इन स्टेप्स को लिख कर रखना बहुत जरुरी है क्यूंकि एक छोटा सा एक्शन स्टेप भी आपके प्रोडक्ट के मोमेंटम को बनाये रखने के लिए बहुत जरुरी है. ऐसा करने से प्रोग्रेस आसान हो जाएगी और आप उस सिचुएशन में नहीं फसेंगे जहाँ आपको खुद नही पता कि अब आगे करना क्या है.

आप रिएक्शन में जितना टाइम लगायेंगे उतना ही टाइम वेस्ट होगा.

किसी मैच को देखते हुए आप ये आसानी से जज कर सकते हैं कि किस टीम के जीतने की संभावना ज्यादा है. क्यूंकि जो टीम अपनी एक स्ट्रेटेजी बना कर खेल रही होगी हमेशा वो उस टीम से एक कदम आगे रहेगी जो बिना किसी स्ट्रेटेजी के केवल डिफेंसिव खेल रही होगी. अब यही फार्मूला आप अपने काम में भी आजमा कर देखें और सोचिए कि आप जीत रहे हैं या हार रहे हैं.

गौर करने वाली बात ये हैं कि हमारा ज्यादातर टाइम इनफार्मेशन इक्कठा करने और दूसरों की बातों पर रीएक्ट करने में हीं चला जाता है. आज के मॉडर्न ज़माने में तो हालात और ख़राब हो गए हैं क्यूंकि अब किसी भी इनफार्मेशन को शेयर करना चंद सेकेंडो का काम हैं .

आज से 100 साल पहले जब आपको किसी तक कोई बात पहुँचानी होती थी तो आपके पास चिट्ठी लिखने के अलावा को ऑप्शन नहीं था. चिट्ठी लिखने और उसे डिलीवर करने में बहुत टाइम लगता था इसलिए लोग केवल जरुरी बातों के लिए ही इसका इस्तेमाल करते थे और अपनी छोटी-छोटी प्रॉब्लमों को खुद सौल्व कर लेते थे. जबकि ईमेल और सोशल नेटवर्किंग के आ जाने से अपनी बात दूसरों तक पहुँचाना इतना आसान हो गया है कि रोज़ हम दर्जनों ईमेल भेज देते हैं. हमारा ज्यादातर काम एक्शन कि जगह रिएक्शन बेस्ड हो गया है.

अगर आप चाहते हैं कि आपके प्रोजेक्ट में चीज़ें स्मूथली चलती रहे तो आपको एक आर्गनाइज्ड एप्रोच अपनानी होगी. लेकिन, रिएक्शन में टाइम वेस्ट करना आपके प्रोजेक्ट के आर्गेनाइजेशन प्रोसेस को स्लो कर देता हैं.

जैसे अगर आप समुद्र में तैरते हुए बस इसी बात को सोचते रहे कि कहीं मैं डूब ना जाऊं तो आप किनारे तक कभी नहीं पहुँच पायेंगें. इसी तरह अगर आप इनफार्मेशन ही इक्कठी करते रह गए तो ना ही आप अपने कामों की प्रायोरिटी लिस्ट बना पाएंगे और ना ही उन्हें उन तीन कैटेगरीज में बाँट पाएंगे.

इसलिए आप अपनी शाम का केवल 1 घंटा लोगों ईमेल और इनफार्मेशन के लिए रखें और बाकी टाइम अपने एक्शन मोड में रहे.

ज्यादातर प्रोजेक्ट इसलिए नहीं फेल होते क्यूंकि आईडिया गलत था बल्कि इसलिए होते हैं क्यूंकि एक्जिक्युशन सहीं नहीं था.
कई लोग ये सोचते हैं कि बड़े-बड़े इनोवेशन जैसे एडिसन का इलेक्ट्रिक बल्ब किसी चमत्कार की तरह हो जाते हैं. अचानक किसी जीनियस के दिमाग में एक आईडिया आता है और बस दुनिया बदल जाती है. ऐसे लोगों का सच्चाई को समझना बहुत जरुरी है. 

चाहे आपका आईडिया कितना हीं बेहतरीन क्यूँ न हो लेकिन उसके अधूरे रह जाने का खतरा हमेशा बना रहता है. एक अच्छा आईडिया उत्साह और एक्साइटमेंट लाता है लेकिन जब हमें ये एहसास होता है कि इसे रियलिटी में बदलने के लिए कितनी मेहनत लगने वाली है तो हम बड़ी आसानी से निराश हो जाते हैं. इसे प्रोजेक्ट प्लैट्यु (project plateau) कहते हैं जहाँ हम पुराने आईडिया को छोड़ कर नए और एक्साइटिंग आईडिया को ढूँढनें में लग जाते हैं.

ऐसा इसलिए होता है क्यूंकि ज्यादातर स्टार्टर आईडिया सोचने के बाद अपना पूरा एफर्ट उसे रीफाइन करने में लगा देते हैं और बाद में थक कर परेशान हो जाते हैं. IDEO वो कंपनी जिसनें एप्पल के लिए पहला माउस बनाया था वो अपने डिज़ाइनरों को ये आज़ादी देती है कि वो अपने आइडियाज पर बिना ज्यादा सोचे सीधा वर्कशॉप में जाकर उसपर काम करना शुरू कर सकते हैं. ऐसा करने से उनके आइडियाज जल्द से जल्द प्रोटोटाइप में बदल जाते हैं.

इसके अलावा इस प्रोजेक्ट प्लैट्यु (project plateau) फेज से निकलने के लिए आप और क्या है कर सकते हैं? आप अपनें रूटीन को एनर्जी एफिशिएंट बना सकते हैं. जैसे अमेरिका के बेस्ट सेलिंग ऑथर जॉन ग्रीषम (John Grisham) कहते हैं कि उनका मॉर्निंग रूटीन बहुत स्ट्रिक्ट हैं. वो रोज़ सुबह 5 बजे उठ कर नहा लेते हैं फिर अपने स्टडी रूम में जाकर कॉफ़ी के साथ लिखना शुरू करते हैं. उनका मकसद होता है कि रोज़ वो कम से कम एक पेज जरुर लिखें चाहे उसमें कितना भी समय लगे. 

अबतक आपने अपने आइडियाज को रियलिटी में बदलने के ट्रिक्स सीखे आईये अब देखते हैं कि आपकी कम्युनिटी आपकी क्रिएटिव प्रोडक्टिविटी पर कैसा असर डालती है.

दो लोगों के बीच की पार्टनरशिप एक दुसरे की कमियों को दूर करने में मदद करती हैं.

हम सभी ने होम्स और वाटसन, बंटी और बबली, या जय वीरू के नाम सुने हैं. फिक्शन फिल्मों की दुनिया ऐसी कई यादगार पार्टनरशिप से भरी पड़ी है जिनमें बहुत कम या कुछ भी कॉमन नहीं है फिर भी इनकी जोड़ी सक्सेसफुल है.

ये फिल्में केवल केवल एक कल्पना नहीं है बल्कि ये हमें सीखाती है कि जब दो लोग मिलते हैं तो कैसे कमाल कर सकते हैं. कुछ ऐसा हीं क्रिएटिविटी की दुनिया में भी हो सकता है. कैसे? आईये इसे समझते हैं.

किसी भी प्रोजेक्ट को रियलिटी में बदलते समय तीन तरह के लोग होते हैं.

सबसे पहले हैं ड्रीमर यानी वो लोग जो बहुत क्रिएटिव होते हैं जिनके दिमाग में हमेशा नए और क्रिएटिव आइडियाज आते रहते हैं. लेकिन इनकी बुरी आदत ये होती है कि ये हमेशा कुछ नया और एक्साइटिंग करना चाहते हैं इसलिए ये काम शुरू तो कर देते हैं पर उसे ख़त्म कभी नहीं कर पाते.

दुसरे होते हैं डूअर (Doer) वो लोग जो हमेशा एक्सीक्यूशन और फिज़िब्लिटी पर फोकस करते हैं. ये वो लोग होते हैं जो इस बात का ख्याल रखते हैं कि हर आईडिया कम्पलीशन तक पहुँच पाए. लेकिन ये कभी-कभी ओवरथिंक करते हैं इसलिए इनके पास आइडियाज की कमी रहती है.

तीसरे होते हैं इन्क्रीमेंटेलिस्ट (incrementalist) यानी वो लोग जो टाइम आने पर ड्रीमर बन जाते हैं और जब जरुरी हो तो डूअर (Doer) बन जाते हैं. लेकिन इनके साथ ये ड्राबैक है कि ये कई बार एक से ज्यादा प्रोजेक्ट स्टार्ट कर लेते हैं और सबको ख़त्म करने के चक्कर में किसी को भी एक्स्ट्राऑर्डिनरी लुक नहीं दे पाते.

आपने देखा कैसे इन तीनों को अकेले काम करने में दिक्कतें आती हैं. ज़रा सोचिये अगर ये साथ मिल जायें तो क्या कमाल कर सकते हैं. एप्पल की लीडरशिप टीम में आपको ऐसी हीं पार्टनरशिप देखनें को मिलेगी.

चीफ डिज़ाइनर जोनाथन इवे (Jonathan Ive) एक ड्रीमर हैं जो नए-नए आइडियाज को कंपनी में लाते रहते हैं. स्टीव जॉब्स (Steve Jobs) एक इन्क्रीमेंटेलिस्ट (incrementalist) थे जो नए आइडियाज लाने के साथ-साथ उनके कम्पलीशन का भी ध्यान रखते थे और फाइनली चीफ ऑपरेशन ऑफिसर टीम कुक (Tim cook) एक डूअर (Doer) हैं जो इस बात का ध्यान रखते हैं कि हर आईडिया एक प्रॉफिटेबल बिज़नस में बदले. इन तीनों के परफेक्ट मिक्सचर नें हीं एप्पल को बेस्ट इनोवेटिंग कंपनी ऑफ़ आल टाइम बनाया है.

अगर आप चाहते हैं कि आपका आईडिया फेल हो जाए तो बेशक उसे सीक्रेट रखें.
जब आपके दिमाग में कोई धमाकेदार आईडिया आता है तो क्या आप उसे दूसरों से शेयर करना पसंद करते हैं या कोई आपका आईडिया चुरा न ले इस डर से उसे बस अपने तक हीं रखते हैं? 

अपने आइडियाज को छुपाना बिलकुल गलत सोच है. क्यूँ? क्यूंकि हर इंसान को अपने आइडिया को रियलिटी में बदलने में ज्यादा प्रॉब्लम होती है जबकि दूसरों के आईडिया पर हम जल्दी काम कर पाते हैं. साथ ही साथ जब हम दूसरों के साथ आइडिया शेयर करते हैं तो हमें कुछ ऐसे फीडबैक मिलते हैं जो हमारे प्रोजेक्ट को पूरा करने में मदद कर सकते हैं.

जैसे कि आपका आईडिया कितना प्रोमिसिंग है इसका पता आप इस बात से लगा सकते हैं कि कितने लोग इस प्रोजेक्ट में आपको ज्वाइन करने के लिए तैयार हैं. लेकिन आप ये तभी पता लगा पाएंगे जब आप अपनें आईडिया को सबके साथ शेयर करेंगे. शायद इसलिए वायर्ड मैगज़ीन के एडिटर इन चीफ क्रिस एंडरसन को जब ‘गीक डैडस् (Geek dads)’ नाम के टेक्नोलॉजी से प्रेरित पिताओं पर ब्लॉग लिखनें का आईडिया आया तो इसको उन्होंने अपने ब्लॉग में शेयर कर लोगों का रिस्पांस पूछा. उनका कहना था कि अगर 6 हफ़्तों में इस आईडिया नें ऑडियंस को आकर्षित नहीं किया तो वो इसे ड्राप कर देंगे. लेकिन खुशकिस्मती से उनके आईडिया को अच्छा खासा रिस्पांस मिला.

आईडिया शेयर करने से फीडबैक के साथ-साथ आप क्रिटिसिज्म के पहलुओं को भी एक्स्प्लोर कर सकते हैं और जान सकते हैं कि आपसे अलग सोच रखने वाले आपके आईडिया के बारे में क्या सोचते हैं. हो सकता है आपको कोई नया बदलाव या सुधार मिल जाए.

इसके साथ-साथ अगर हम दूसरों के साथ आइडियाज शेयर करते हैं तो हमपर उन्हें पूरा करने का प्रेशर भी आ जाता है क्यूंकि आपके आईडिया को जानने के बाद लोग बार-बार ये देखने आते हैं कि आप कहाँ तक पहुँचे.

यही कांसेप्ट सालाना दिए जाने वाले टेड कांफ्रेंस प्राइज (TED Conference Prize) में भी इस्तेमाल होता है. वहाँ लोगों से इस बात पर प्रेजेंटेशन देने को कहा जाता है कि दुनिया में वो क्या बदलना चाहते हैं. ट्विस्ट ये है कि इन सभी प्रेजेंटेशन से पहले पिछले विनर के प्रोग्रेस का विडियो दिखाया जाता है. इस तरह से जो जीतता है उसके ऊपर अपने प्रेजेंटेशन में किये गए वादों को पूरा करने की जिम्मेदारी भी आती है.

लेकिन कोई भी प्रोजेक्ट तब तक पूरा नहीं हो सकता जब तक लीडर सही ना हो. आने वाले कुछ अध्यायों में हम एक अच्छे लीडर की खुबीयों को जानेंगे.

एक क्रिएटिव टीम की सक्सेस शुरुवात करने वाले और सवाल पूछने वाले के सही मिक्सचर पर डिपेंड करती है.

अभी तक हमनें जाना कि कैसे हम अपने प्रोजेक्ट के प्लैट्यु (plateau) फेज से बाहर आ सकते हैं. ये प्रोसेस शुरू होती है अपने प्रोजेक्ट के लिए सही टीम चुनने से. जब आप एक क्रिएटिव प्रोजेक्ट के लिए लोगों को हायर कर रहे हों तो बेहतर यही है कि आप इनिशिएटिव को एक्स्पेरिंस से ज्यादा महत्त्व दें.

हमनें देखा कि कैसे प्रोजेक्ट प्लैट्यु (project plateau) के कारण कई प्रोजेक्ट अधूरे रह जाते हैं इसलिए आपको अपनी टीम में ऐसे इनिशिएटर चाहिए जो प्रोजेक्ट की मोमेंटम को बनाये रखने के लिए कुछ भी करने को तैयार हों.

अगर हम वाकिंग डिजिटल (walking digital) के प्रेसिडेंट जॉन एलेनथल की हायरिंग प्रोसेस को देखें तो पहले वो एक्स्पेरिंस को इम्पोर्टेंस दिया करते थे. लेकिन, समय के साथ उन्हें ये एहसास हुया कि आपका प्रोजेक्ट तभी पूरा हो सकता है जब आपकी टीम उसे अपना प्रोजेक्ट समझ कर काम करे. अगर आज हम उनकी सुनें तो उनका कहना है कि,’ एक्स्पेरिंस की जगह इनिशिएटिव और दिल में कुछ कर दिखने के जज्बे को चुनिए’.

आप कैंडिडेट के पास्ट को देख कर आसानी से ये पता लगा सकते हैं कि वो एक इनिशिएटर है या नहीं. सबसे पहले उसके रेज़मे (resume) में देखिये कि उसके पुराने कमिटमेंट किस फील्ड के हैं. इससे आपको उसके फील्ड ऑफ़ इंटरेस्ट का अंदाज़ा हो जाएगा. उसके बाद देखिये कि उसनें उस फील्ड में क्या हासिल किया है. अगर वो एक इनिशिएटर होगा तो जरुर उसनें कुछ न कुछ बड़ा हासिल किया होगा.

पर एक सक्सेसफुल टीम में जितनी जरुरत एक शुरुवात करने वाले की होती है उतनी हीं जरुरत सवाल पूछने वालों की भी होती है. ऐसे लोग आपकी टीम में इम्यून सिस्टम की तरह काम करते हैं ताकि वो ऐसे आइडियाज को रोक सकें जो फायेदे से ज्यादा नुकसान पहुँचा सकते है.

ब्रेनस्टॉर्मिंग सेशंस के दौरान आपको क्रिएटिव और इनिशिएटिर की जरुरत पड़ेगी जो अपने डाउट करने वाले साथियों के सवालों की बौछार के बिना आजादी से अपने आइडियाज सुना सकें. लेकिन जब बारी उन आइडियाज के इम्प्लीमेंटेशन की आये तब आपको डाउट करने वाले लोगों के सवालों की जरुरत पड़ेगी ताकि आप उन आइडियाज को हटा सकें जो प्रोजेक्ट की गाड़ी को पटरी से उतार सकते हैं.

टीम के फुल पोटेंशियल को एक्स्प्लोर करने के लिए एक अच्छे लीडर की जरुरत पड़ती है.
क्रिएटिविटी की दुनिया में अक्सर किसी प्रोजेक्ट पर काम करते समय टीम रास्ता भटक जाती हैं. एक अच्छे लीडर के होने से टीम को सही डायरेक्शन मिलता है और टीम अपने फुल पोटेंशियल को एक्स्प्लोर कर पाती है. इसिलए कुछ एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी इनोवेट करने के लिए एक लीडर का होना बहुत जरुरी है.

जब भी कोई नया आईडिया क्लाइंट और स्टेक होल्डर के साथ डिस्कस होता है तो वो अक्सर उसे पूरी तरह बदल देते हैं. एक अच्छा लीडर वही है जो किसी भी चीज़ पर समझौता करने को तैयार हो सिवाए कुछ बेसिक बातों के. 

जैसे थिंक डिजाईन के फाउंडर टॉम हेंनेस (Tom Hennes) अपना प्रोजेक्ट शुरू करने से पहले कुछ ऐसे पॉइंट्स बना लेते हैं जिसपर वो समझौता नहीं करेंगे उसके अलावा उनकी टीम किसी भी बदलाव के लिए हमेशा तैयार रहती है. उनके काम करने के इसी अंदाज़ के कारण उनकी टीम नेशनल सितम्बर 11 मेमोरियल जैसी यादगार इमारतों को बनाने में कामयाब रही है. साथ ही एक क्रिएटिव लीडर कुछ भी बोलने से पहले सोचता है.

जब भी हम किसी यंग क्रिएटिव माइंड से पूछते हैं उसनें पुरानी कंपनी क्यूँ छोड़ी तो ज्यादातर जवाब में हमें यही मिलता है कि वहाँ उनके आइडियाज को कोई नहीं सुनता था. ऐसा इसलिए होता है क्यूंकि एक्सपीरियंस्ड लीडर्स को लगता है कि उन्होंने अपनी लाइफ में बहुत कुछ देखा है इसलिए वो जल्दबाजी में बिना सामने वाले की पूरी बात सुनें उसे नकार देते हैं. जबकि उन्हें इसके बिलकुल उल्टा करना चाहिए. टीम की बातों को सुनने से ना केवल हम अच्छे लोगों को खोने से बच सकते हैं बल्कि हमें नए और फ्रेश आइडियाज भी मिलते रहते हैं.

जैसे किसी कंपनी में सालों काम करने के बाद आपको एहसास होगा की आपकी वीकेंड मीटिंग्स का असल में कोई फायेदा नहीं होता. जबकि एक न्यू कमर आपको कुछ हीं हफ़्तों में ये बता सकता है. भलाई इसी में है कि आप पुराने प्रैक्टिस को बदल कर कंपनी में फ्रेश आइडियाज को जगह दें.

कुल मिलाकर
सक्सेस बेस्ट आइडियाज से नहीं बल्कि उनके बेस्ट एक्सेक्युशन से मिलती है. अपने गोल तक पहुचनें के लिए आपको अपने हर आईडिया को एक प्रोजेक्ट की तरह समझना होगा और अपने टाइम टेबल को कुछ ऐसे डिजाईन करना होगा कि एक्शन और एक्सेक्युशन के इर्द गिर्द घूमें.

 

एनर्जी लाइन क्रिएट करने की कोशिश करें.

अगली बार जब आप अपने डेस्क पर बैठें तो अपने सामने पड़े फाइलों के ढेर को देखें और उन्हें इकनोमिक और स्ट्रेटेजिक वैल्यू के हिसाब से इम्पोर्टेन्ट और अनइम्पोर्टेन्ट की केटेगरी में अलग कर दें. ऐसा करते समय इस बात का ध्यान रखें कि आपको उन्हें इस हिसाब से नहीं देखना अब तक आप उसपर कितनी मेहनत कर चुके हैं बल्कि इस हिसाब से देखना है कि आपको उसपर कितनी मेहनत करनी चाहिए. एक बार आपने अपनी एनर्जी लाइन पहचान ली तो आपके लिए उसपर चलकर अपनी लिमिटेड एनर्जी में प्रोडक्टिव काम करना आसान हो जायेगा.

 

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