Endure..... ___

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Endure

Alex Hutchinson
दिमाग, शरीर और इंसान की बढ़ाई जा सकने वाली पर्फार्मेंस का राज़।

दो लफ्जों में 
एंड्यूर (Endure) में हम थकान में दिमाग के दो हिस्सों का बहुत बड़ा रोल होत है - इंसुलर कार्टेक्स और मोटर कार्टेक्स।। 

यह किसके लिए है 
-वे जो एक स्पोर्ट्स कोच हैं या बनना चाहते हैं।
-वे जो एक एथलीट हैं या बनना चाहते हैं।
-वे जो साइकोलाजी के स्टूडेंट हैं।

लेखक के बारे में 
एलेक्स हचिंशन (Alex Hutchinson) एक जर्नलिस्ट हैं जिन्हें अपने काम के लिए नेशनल मैगज़ीन अवार्ड मिला है। वे एक फिजिसिस्ट हैं और कैनेडा के नेशनल टीम में एक लाँग डिस्टैंस रनर हैं। वे आउटसाइड मैगज़ीन के स्वेट साइंस कालम के लिए लिखते हैं।

यह किताब आपको क्यों पढ़नी चाहिए
बहुत से लोगों का ख्वाब होता है कि वे भी किसी रोज एक मैराथन दौड़ें या फिर ओलम्पिक में अपने देश के लिए खेलने जाएं। बहुत से लोग यह जानने के लिए उत्सुक रहते हैं कि वे कितना ज्यादा सह सकते हैं और किस हद तक खुद को धक्का दे सकते हैं। कुछ लोगों का कहना है कि इंसान की हदें सिर्फ उसके दिमाग में होती हैं। यह किताब आपको बताएगी कि किस तरह से यह बातें सच हैं।

यह किताब हमें बताती है कि एक एथलीट किस तरह से अपनी पर्फार्मेंस को बेहतर बना सकता है। इसमें हम उस रीसर्च और स्टडी के बारे में जानेंगे जो कि हमारी क्षमता को टेस्ट करने के लिए किया गया था। इस किताब को पढ़ने के बाद आप यह जान सकेंगे कि किस वजह से एथलीट्स इतनी मेहनत कर पाते हैं जो कि एक आम आदमी की नजर से असंभव दिखता है।

 

-दिमाग के थके होने का हमारी पर्फार्मेंस पर क्या असर पड़ता है।  

-किस तरह से हम अपने सहने की क्षमता को बढ़ा सकते हैं।

-दर्द सहना पर्फार्मेंस को बढ़ाने के लिए क्यों जरूरी है।

इंसान की हदों को पता करना एक मुश्किल काम है और इसके नतीजे बुरे हो सकते हैं।
हन्री वोर्स्ली नाम के एक ब्रिटिश एक्सप्लोरर हमेशा अपनी हदों को नापने की कोशिश करते रहते थे। 2015 में उन्होंने खुद को एक असंभव सी चुनौती दी। उन्होंने फैसला कि या कि वे एंटार्कटिका को पैदल चलकर पार करेंगे।

इसके बाद में वहाँ गए और 56 दिन तक लगातार चलते रहे। फिर उनके पेट में जोर से दर्द होने लगा जिसकी वजह से वे सो नहीं पा रहे थे। उन्हें अभी 200 मील की दूरी और तय करनी थी, इसलिए उन्होंने फिर से चलना शुरू किया।

अब उन्हें टाइटन डोम नाम के एक पहाड़ की चढ़ाई चढ़नी थी, जो कि 3 किलोमीटर ऊँची थी। हवाएं उल्टी चल रहीं थीं और उनके ऊपर लगातार बर्फ पड़ रही है। 16 घंटे के बाद उन्होंने फिर से आराम करने के बारे में सोचा। 

ऐसा नहीं है कि वोर्स्ली बिना किसी बैक अप प्लान के आए थे। उन्होंने अपने पास एक फोन रखा था जिससे वे हालात बिगड़ने पर किसी को मदद के लिए बुला सकें। क्योंकि उन्हें पता था कि हालात बिगड़ने पर कोई न कोई उनकी मदद के लिए आ जाएगा, इसलिए वे पूरी तरह से अपनी हालत को बिगाड़ने पर लगे हुए थे। 

70 दिन के बाद उन्होंने उस फोन का इस्तेमाल किया। वे अपनी मंजिल से सिर्फ 30 मील दूर थे, लेकिन तबीयत खराब हो जाने की वजह से वे उसे पूरा ना कर पाए।

वोर्स्ली को अगले दिन अस्पताल में लाया गया जहाँ पता लगा कि उन्हें बैक्टीरियल पेरिटोनिटिस हो गया है और उनकी सर्जरी करनी होगी। लेकिन यह इंफेक्शन उनके लिए घातक बन गया और 24 जनवरी, 2016 को उनकी मौत हो गई।

इस घटना के बाद से इंसान की हदों को नापने का काम अनैतिक माना जाने लगा। हालांकि कुछ लोग हैं जो इससे भी बदतर हालात से लड़कर जिन्दा लौटे हैं, लेकिन फिर भी, हम अपनी हदों को नापने का काम नहीं करते।

हम रेस के बीच में अपनी रफ्तार को कम कर देते हैं और अंत में उसे बढ़ाते हैं।
2006 के एक रीसर्च में टिम नोक्स और माइकल लैंबर्ट ने एक स्टडी की और उन्होंने दुनिया के लाँग-डिस्टैंस रनर्स में एक पैटर्न को खोजा। उन्होंने देखा कि वे तेज़ी से दौड़ना शुरू करते हैं, बीच में पहुंचने के बाद वे लम्बे समय तक अपनी रफ्तार को कम कर देते हैं और अंत में जाकर पूरा जोर लगाकर भागते हैं। बहुत से लोग यह सुनकर सोचेंगे कि अंत में तो उनके पास जोर लगाने के लिए ज्यादा ताकत की नहीं बचती होगी, लेकिन फिर भी स्टडी में यही बातें सामने आईं।

यूनिवर्सिटी ऑफ एसेक्स में डामिनिक मिकलराइट नाम के एक स्पोर्ट्स साइंटिस्ट ने यह जानने की कोशिश की कि हम इस तरह से दौड़ना सीख कर पैदा होते हैं या फिर समय के साथ हम इस तरीके को अपनाते हैं। 2012 में उन्होंने 5 साल से 14 साल तक के बच्चों पर यह स्टडी की और यह देखा कि 11 साल से कम उम्र वाले बच्चे शुरुआत में बहुत तेज भागना शुरू करते हैं और फिर उनकी रफ्तार धीमी होने लगती है। लेकिन 11 साल से बड़े बच्चे भी उन लाँग-डिस्टैंस रनर्स की तरह भागते हैं। उनकी रफ्तार शुरू में तेज, बीच में धीमी और अंत में फिर से तेज हो जाती है। 

मिकलराइट और टिम नोक्स, दोनों का मानना है कि इस तरह से भागने से हम पहले के वक्त में शिकार अच्छे से कर पाते थे। इसलिए हम इवोय्लूशन के नियमों के हिसाब से समय के साथ इस तरीके को अपना लेते हैं। पहले के वक्त में बीच में अपनी रफ्तार धीमी कर के हम अपनी एनर्जी को बचाते थे ताकि जब शिकार पर कूदने की बारी आए तो हम तेजी से काम कर सकें। इसी तरीके को हमारा दिमाग आज भी अपनाता है।

एक थका हुआ दिमाग हमारे काम करने की क्षमता पर असर डाल सकता है।
2013 में सैम्यूल मारकोरा ने एक एक्सपेरिमेंट किया जिसमें उन्होंने यह पता लगाने की कोशिश की कि अगर हम एक दिमाग से थके हुए व्यक्ति से काम करवाएं, तो वो कितना अच्छा काम करेगा। उनका यह मानना था कि थकावट सिर्फ शरीर में ही नहीं, बल्कि दिमाग में भी हो सकती है और यह हमारे काम करने की क्षमता को कम कर सकती है। 

स्टडी में उन्होंने दो ग्रुप बनाएँ। उन्होंने एक ग्रुप को एक कंप्यूटर गेम खेलने के लिए दिया जिसमें उन्हें बहुत दिमाग लगाना था। दूसरे ग्रुप को उन्होंने टीवी में एक डाक्यूमेंट्री दिखाई।

इसके बाद उन्होंने दोनों ग्रुप के लोगों से कहा कि वे तब तक साइकलिंग करते रहें जब तक वे थक कर चूर ना हो जाएं। उन्होंने देखा कि जो ग्रुप टीवी देखकर आया था दूसरे ग्रुप के मुकाबले 15% ज्यादा देर तक कसरत करता रहा। दोनों ग्रुप के लोग सेहत और स्टैमिना के मामले में एक जैसे थे, तो इसका मतलब एक ग्रुप के जल्दी हार मान लेने कि पीछे की वजह उनके दिमाग का थका होना ही है।

मारकोरा के माडल ने हमें पर्सीव्ड एफर्ट की थ्योरी को कुछ अच्छे से समझाया। पर्सीव्ड एफर्ट की थ्योरी को स्वीडन के साइकोलाजिस्ट गुनर बोर्ग ने दिया था, जिसका कहना था कि एक व्यक्ति तब तक काम कर सकता है जब तक उसकी माँसपेशियों में फैटिग ना आ जाए। बोर्ग ने कहा कि इंसान का शरीर भी एक मशीन की तरह है जो तब तक काम कर सकता है जब तक उसके पुर्जे घिस नहीं जाते या टूट नहीं जाते। जब इंसान की माँसपेशियों में फैटिग आ जाएगा, तो वो काम नहीं कर पाएगा। 

लेकिन मारकोरा ने बताया कि जरूरी नहीं है कि थकान सिर्फ शरीर में हो। उन्होंने कहा कि जब हमारा शरीर और दिमाग , दोनों पूरी तरह से थक जाते हैं, तब हम काम नहीं कर सकते और तब हमें रुक जाना चाहिए। इसका मतलब अगर हम पूरी तरह से थके हुए व्यक्ति को मोटिवेट कर के उसके दिमाग की थकान को मिटा दें, तो शरीर के थके होने पर भी वो कुछ और काम कर सकता है।

एथलीट्स एक आम व्यक्ति के मुकाबले ज्यादा दर्द सह सकते हैं और यह उनकी पर्फार्मेंस को बढ़ाने के लिए जरूरी है।
जेंस वाइग्ट नाम के एक साइक्लिस्ट थे जिन्होंने दो बार टूर दी फ्राँस को जीता था। उनका यह कहना था कि दर्द सिर्फ एक कमजोरी है जिस पर हमें जीत हासिल करनी है। बहुत से दूसरे कामयाब एथलीट्स उनकी इस बात से सहमत होंगे और स्टडीज़ में यह बात सामने भी आई है।

1981 में कैरेल गिज्सबर्स ने एथलीट्स के दर्द सहने की क्षमता पर एक स्टडी की। उन्होंने दो ग्रुप बनाए, एक में उन्होंने नए स्विमर्स को लिया और एक में एथलेटिक स्विमर्स को। 

गिज्सबर्स ने ब्लड प्रेसर मानिटर को एथलीट्स के हाँथ में कसकर बाँध दिया, ताकि उनके हाथ में खून का दौरा कम हो जाए या पूरी तरह से रुक जाए। इसके बाद उन्होंने उनसे कहा कि वे एक सेकेंड में अपनी मुठ्ठी एक बार खोलें और बंद करें। कुछ देर के बाद एथलीट्स ने कहा कि उन्हें दर्द महसूस हो रहा है, यह उनका पेन थ्रेशसोल्ड था जो यह दिखाता था कि कितनी बार मुठ्ठी खोलने बंद करने के बाद उन्हें दर्द महसूस होना शुरू होता था। इसके बाद जब उनसे दर्द सहा नहीं जाता था, तो वे हार मानते थे और रुकने के लिए कहते थे। जितनी बार मुठ्ठी खोलने बंद करने के बाद वे रुकने के लिए कहते थे, वे उनका पेन टालेरेंस था, जो यह दिखाता था कि वे कितना दर्द सह सकते थे।

इस स्टडी में यह देखा गया कि सबका पेन थ्रेशसोल्ड तो एक ही जितना था, लेकिन एथलेटिक स्विमर्स का पेन टालेरेंस बहुत ज्यादा था। नए स्विमर्स 89 बार अपनी मुठ्ठी को खोल बंद कर सकते थे जबकि एथलेटिक स्विमर्स ने यह काम 132 बार किया।

इसका मतलब यह कि एथलेटिक स्विमर्स दर्द को ज्यादा सह सकते थे। बाद में उन्होंने इस पर और भी स्टडी की जिससे उन्हें यह पता लगा कि उनकी यही दर्द सहने की ताकत उन्हें बेहतर बनाती है। वे जितनी ज्यादा ट्रेनिंग लेते थे, उनकी दर्द सहने की क्षमता उतनी बढ़ती जाती थी।

इसके अलावा कुछ स्टडीज़ में यह भी देखा गया कि जो एथलीट्स छोटे समय में हार्ड ट्रेनिंग लेते हैं, वे उनके मुकाबले ज्यादा अच्छा पर्फार्म करते हैं जो लम्बे समय तक हल्की ट्रेनिंग लेते हैं। ज्यादा दर्द सहने से एथलीट्स की पर्फार्मेंस बेहतर बनती है।

एक एथलीट जितना ज्यादा आक्सीजन अपने अंदर रख सकता है, वो उतना अच्छा पर्फार्म कर सकता है।
एथलीट्स को उनके कोच अगर कोई एक सलाह बार बार देते हैं, तो वो है - साँस लेने की। एक मैराथन दौड़ने जैसे स्पोर्ट में वे जितना ज्यादा आक्सीजन खींच सकेंगे, वे उतना अच्छा पर्फार्म कर पाएंगे। शरीर में मौजूद आक्सीजन को नापने के लिए हम VO2 मैक्स का इस्तेमाल करते हैं, जो यह बताता है कि हम हर मिनट में अपने शरीर के हर एक किलो के वजन के मुकाबले कितना आक्सीजन खींच रहे हैं। 

नर्वे के बोर्न डैह्ली ने 1990 के दशक के दौरान स्कीइंग में बहुत से अवार्ड जीते थे।  साथ ही उन्होंने उस समय सबसे ज्यादा VO2 मैक्स रखने का रिकॉर्ड भी बनाया था। उनका VO2 मैक्स था 96 मिलीलीटर प्रति किलोग्राम प्रति मिनट, जबकि एक आम आदमी का VO2 मैक्स होता है 35 मिलीलीटर प्रति किलोग्राम प्रति मिनट।

लेकिन यह जरूरी नहीं है कि सिर्फ VO2 मैक्स ज्यादा होने से ही एक व्यक्ति कामयाब एथलीट बन जाए। इसके अलावा बहुत से दूसरे फैक्टर भी हैं जो कि एक एथलीट को कामयाब बनाते हैं।

ज्यादा आक्सीजन खींच पाने की वजह से ही जो एथलीट समुद्री लेवेल पर रहकर ट्रेनिंग करते हैं, वे बेहतर पर्फार्म कर पाते हैं। ऊँचाई के साथ साथ वातावरण में आक्सीजन की कमी होने लगती है, जिस वजह से पहाड़ों पर रहकर ट्रेनिंग लेने वाले लोग कभी भी बेहतर एथलीट नहीं बन पाते। 

यैनिस पिटसिलैडिस नाम के एक वैज्ञानिक का कहना है कि अगर हम डेड सी के पास मैराथन कराएँ, तो शायद हम ऐसे एथलीट पैदा कर सकें जो कि दो घंटे में एक मैराथन दौड़ पाएं। डेड सी समुद्री लेवेल के 477 मीटर नीचे है और इस वजह से वहाँ पर बहुत ज्यादा आक्सीजन मौजूद है।

हमारा कोर टेम्पेरेचर हमें यह बताता है कि हम कितनी देर तक काम कर सकते हैं।
हीट स्ट्रोक किसी भी एथलीट की पर्फार्मेंस पर बहुत बुरा असर डाल सकता है। हमारे शरीर के अंदर का तापमान जितना ज्यादा बढ़ेगा, हमारे सहने की क्षमता उतना ज्यादा कम होती जाएगी।  शरीर के अंदर के तापमान को ही कोर टेम्पेरेचर कहा जाता है। 

1999 में जोसे गांन्सलेज़-एलोन्सो ने एक स्टडी की जिससे यह बात उभर कर सामने आई थी। उन्होंने 7 एथलीट्स को लिया और उन्हें साइकल पर तब तक एक्सरसाइज़ करने के लिए कहा जब तक वे थक ना जाएं। यह कसरत करने से पहले उन्होंने कुछ एथलीट्स को 36 डिग्री सेल्सियस के तापमान के पानी में, कुछ को को 37 डिग्री के तापमान के पानी में और कुछ को 38 डिग्री के तापमान के पानी में नहाने के लिए कहा।  

इसके बाद उन्होंने यह देखा कि जिन एथलीट्स को 36 डिग्री के पानी में नहलाया गया था, वे उनके मुकाबले लगभग दोगुना समय तक कसरत करते रहे जिन्हें 38 डिग्री के पानी में नहलाया गया था। स्टडी में यह देखा गया कि हर एथलीट तब हार मान रहा था जब उनका कोर टेम्परेचर 40 डिग्री से 40.3 डिग्री सेल्सियस तक पहुँच जा रहा था। 

इसके बाद 2004 के ओलम्पिक्स में कोच अपने अपने एथलीट्स को ठंडे पानी से नहलाने का काम करने लगे। लेकिन उसके बाद से हम यह पता करने में लगे हैं कि कोर टेम्परेचर किस भाग को ठंडा करने से ठंडा होता है- पेट या दिमाग?

2008 के ओलम्पिक्स में कुछ एथलीट्स को बर्फ का स्लुशी दिया गया क्योंकि उनके पेट में जब बर्फ पिघलती है तो उससे उनका कोर टेम्परेचर 0.7 डिग्री तक कम हो जाता है और वे अपने कोर टेम्परेचर को लगभग 0.33 डिग्री ज्यादा तक बढ़ा पाते हैं जिससे वे सहने की क्षमता को भी बढ़ा देते हैं।

इसपर कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि बर्फ का स्लुशी पीने से उनका शरीर गर्म हो जाता है लेकिन जब तक दिमाग को क्रिटिकल टेम्पेरेचर का एहसास नहीं होता, तब तक हम काम कर सकते हैं। इसका मतलब यह है कि हमें दिमाग को यह एहसास दिलाना होगा कि अभी तक हम क्रिटिकल टेम्पेरेचर तक नहीं पहुंचे हैं। दूसरी तरफ कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि पेट में कुछ सेंसर्स होते हैं जो कि दिमाग को यह सिग्नल देते हैं कि कब हम क्रिटिकल टेम्पेरेचर तक पहुंच गए हैं और स्लुशी खाने से यह सिग्नल देर से जाता है जिससे हम ज्यादा अच्छा पर्फार्म कर पाते हैं। लेकिन इनमें से कौन सही है, यह हमें अब तक नहीं पता।

माइंडफुलनेस से हम एक एथलीट के स्ट्रेस लेवेल को कम कर सकते हैं जिससे उसकी पर्फार्मेंस सुधर सकती है।
पूर्वी देश जैसा चाइना में, बहुत पहले से यह माना जाता था कि लड़ने में दिमाग का बहुत बड़ा रोल होता है। इसलिए वे अपने सैनिकों को माइंडफुलनेस की ट्रेनिंग देकर उन्हें मुश्किल वक्त में शांत रहना सिखाते थे। लेकिन पश्चिमी देशों में यह बात लोगों ने बहुत देर से जानी।

माइंडफुलनेस का मतलब है किसी भी एक चीज़ पर अपना पूरा ध्यान लगाना। पश्चिमी देशों में इसे लाने का काम सबसे पहले जर्मनी के न्यूरोसाइंटिस्ट मार्टिन पाउलस ने किया था। पाउलस ने ज़ेन बुद्धिस्म का सहारा लिया जो कि अपने सैनिकों का स्ट्रेस कम करने के लिए एक 8 हफ्ते का माइंडफुलनेस प्रोग्राम करते थे। 

2016 में उन्होंने कुछ सैनिकों पर एक स्टडी की। इस स्टडी में कुछ सैनिकों ने 8 हफ्ते का माइंडफुलनेस प्रोग्राम अटेंड किया था जबकि कुछ ने नहीं किया था। उन्हें एक कमरे में बंद कर के उस कमरे की आक्सीजन सप्लाई में बदलाव लाया जिससे कभी कभी उन सैनिकों को साँस लेने में समस्या होती थी।

इसमें यह पाया गया कि जिन सैनिकों ने 8 हफ्ते का माइंडफुलनेस प्रोग्राम अटेंड किया था, वे इस तरह के हालात में भी अपना आपा नहीं खोते थे और उनके दिमाग का कार्टेक्स रीजन शांत रहता था जबकि जिन्होंने वो प्रोग्राम अटेंड नहीं किया था, वे साँस ना ले पाने पर अपना आपा खोने लगते थे। 

इस तरह से माइंडफुलनेस को अपनाने से एक सैनिक अपने स्ट्रेस पर काबू पाकर अपने मुश्किल हालात में भी बेहतर फैसले ले सकता है। साथ ही इस तरह के सैनिकों को युद्ध के बाद का ट्रॅामा भी बहुत कम होता है। डाक्टर पाउलस ने भी एक प्रोग्राम बनाया है जिसमें वे लोगों को माइंडफुलनेस और सेल्फ कंपैशन सिखाते हैं।

थकान में दिमाग के दो हिस्सों का बहुत बड़ा रोल होत है - इंसुलर कार्टेक्स और मोटर कार्टेक्स।
बहुत से लोगों ने यह महसूस किया है कि ज्यादा काम कर लेने के बाद कभी कभी वे इतना थक जाते हैं कि उनका शरीर काम करना बंद कर देता है। पहले बहुत से लोगों का मानना था कि थकान में सिर्फ शरीर ही मायने रखता है, दिमाग नहीं। लेकिन काई लुट्स नाम के एक न्यूरोसाइकोलाजिस्ट ने थकान को दिमाग के अंदर देखने की कोशिश की।

लुट्स ने कुछ लोगों को साइक्लिंग करने के लिए कहा। इसके बाद उन्होंने उनके दिमाग में हो रही हरकतों को इंलेक्ट्रोएंसिफैलोग्राफी (electroencephalography) की मदद से देखने की कोशिश की। सारे साइक्लिस्ट 40 मिनट तक कसरत करते रहे और इसके बाद उन्होंने हार मान ली।

लुट्स ने देखा कि हार मानने से ठीक पहले उनके दिमाग का इंसुलर कार्टेक्स एक्टिवेट हो गया था। यह हिस्सा सेरेब्रल कार्टेक्स के बीच में पाया जाता है। जैसे ही उनका इंसुलर कार्टेक्स एक्टिवेट हुआ, इसने मोटर कार्टेक्स को सिग्नल दिया, जिसके बाद उन्होंने हार मान ली।

इससे हम यह कह सकते हैं कि यह दो हिस्से हमारे दिमाग के सहने की क्षमता को काबू करते हैं। लेकिन अब तक हमें यह अच्छे से नहीं पता है कि हम इसपर कितना काबू कर सकते हैं। लुट्स का कहना है कि अगर हम इंसुलर कार्टेक्स को दबा दें, तो यह मोटर कार्टेक्स को सिग्नल नहीं दे पाएगा और इस तरह से हमारी माँसपेशियाँ कुछ ज्यादा समय तक के लिए काम कर पाएंगी। 

इसे एलेक्सैंडर ओकानो ने साबित कर के दिखाया। उन्होंने ट्राँसक्रेनियल डाइरेक्ट करेंट की मदद से इंसुलर कार्टेक्स में करेंट भेजा। इसके बाद उन्होंने देखा कि साइक्लिस्ट की पर्फार्मेंस 4% से बढ़ गई। इससे यह साबित हुआ कि इंसुलर कार्टेक्स को हल्का सा दबाने से हम अपनी पर्फार्मेंस बढ़ा सकते हैं। 

इसके बाद दूसरी थियोरी का कहना है कि अगर हम मोटर कार्टेक्स के न्यूरान्स को लगातार स्टिमुलेट करें, तो हम इंसुलर कार्टेक्स के सिग्नल को ब्लाक कर सकते हैं। यह सुनने में सही लगता है लेकिन इसे टेस्ट कर के साबित करना बाकी है। 

ट्राँसक्रेनियल डाइरेक्ट करेंट से इंसुलर कार्टेक्स को स्टिमुलेट करने के काम में अब भी बहुत से सुधार करने बाकी हैं। हम जब भी इंसुलर कार्टेक्स में करेंट भेजते हैं, उसके आस पास के हिस्सों में भी करेंट चला जाता है, जिससे हमारा एक्सपेरिमेंट फेल हो जाता है। लेकिन अब हमें इतना जरूर पता है कि इस तरह से हम एक एथलीट की पर्फार्मेंस को बेहतर बना सकते हैं।

कुल मिलाकर
सहने की ताकत सिर्फ हमारे शरीर से नहीं बल्कि हमारे दिमाग से भी काफी हद तक जुड़ी हुई है। एक एथलीट जितनी ज्यादा प्रैक्टिस करेगा, उसके सहने की ताकत उतनी ज्यादा बढ़ती हमारा कोर टेम्पेरेचर हमें यह बताता है कि हम कितनी देर तक काम कर सकते हैं।
हीट स्ट्रोक किसी भी एथलीट की पर्फार्मेंस पर बहुत बुरा असर डाल सकता है। हमारे शरीर के अंदर का तापमान जितना ज्यादा बढ़ेगा, हमारे सहने की क्षमता उतना ज्यादा कम होती जाएगी।  शरीर के अंदर के तापमान को ही कोर टेम्पेरेचर कहा जाता है। 

1999 में जोसे गांन्सलेज़-एलोन्सो ने एक स्टडी की जिससे यह बात उभर कर सामने आई थी। उन्होंने 7 एथलीट्स को लिया और उन्हें साइकल पर तब तक एक्सरसाइज़ करने के लिए कहा जब तक वे थक ना जाएं। यह कसरत करने से पहले उन्होंने कुछ एथलीट्स को 36 डिग्री सेल्सियस के तापमान के पानी में, कुछ को को 37 डिग्री के तापमान के पानी में और कुछ को 38 डिग्री के तापमान के पानी में नहाने के लिए कहा।  

इसके बाद उन्होंने यह देखा कि जिन एथलीट्स को 36 डिग्री के पानी में नहलाया गया था, वे उनके मुकाबले लगभग दोगुना समय तक कसरत करते रहे जिन्हें 38 डिग्री के पानी में नहलाया गया था। स्टडी में यह देखा गया कि हर एथलीट तब हार मान रहा था जब उनका कोर टेम्परेचर 40 डिग्री से 40.3 डिग्री सेल्सियस तक पहुँच जा रहा था। 

इसके बाद 2004 के ओलम्पिक्स में कोच अपने अपने एथलीट्स को ठंडे पानी से नहलाने का काम करने लगे। लेकिन उसके बाद से हम यह पता करने में लगे हैं कि कोर टेम्परेचर किस भाग को ठंडा करने से ठंडा होता है- पेट या दिमाग?

2008 के ओलम्पिक्स में कुछ एथलीट्स को बर्फ का स्लुशी दिया गया क्योंकि उनके पेट में जब बर्फ पिघलती है तो उससे उनका कोर टेम्परेचर 0.7 डिग्री तक कम हो जाता है और वे अपने कोर टेम्परेचर को लगभग 0.33 डिग्री ज्यादा तक बढ़ा पाते हैं जिससे वे सहने की क्षमता को भी बढ़ा देते हैं।

इसपर कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि बर्फ का स्लुशी पीने से उनका शरीर गर्म हो जाता है लेकिन जब तक दिमाग को क्रिटिकल टेम्पेरेचर का एहसास नहीं होता, तब तक हम काम कर सकते हैं। इसका मतलब यह है कि हमें दिमाग को यह एहसास दिलाना होगा कि अभी तक हम क्रिटिकल टेम्पेरेचर तक नहीं पहुंचे हैं। दूसरी तरफ कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि पेट में कुछ सेंसर्स होते हैं जो कि दिमाग को यह सिग्नल देते हैं कि कब हम क्रिटिकल टेम्पेरेचर तक पहुंच गए हैं और स्लुशी खाने से यह सिग्नल देर से जाता है जिससे हम ज्यादा अच्छा पर्फार्म कर पाते हैं। लेकिन इनमें से कौन सही है, यह हमें अब तक नहीं पता।

जाएगी। साथ ही अपने शरीर को ज्यादा आक्सीजन खींचने के लायक बना कर और माइंडफुलनेस को अपना कर एक एथलीट अपनी पर्फार्मेंस को बेहतर बना सकता है। 

 

अगर आपके लिए कोई तरीका काम करता है, तो उसे अपनाइए।

हर एथलीट का कहना है कि काम्पटीशन के बाद ठंडे पानी से नहाने से उन्हें आराम महसूस होता है। लेकिन स्टडीज़ यह दिखाती हैं कि नहाने से इंफ्लेमेशन लेवेल्स कम नहीं होते हैं, जिसका मतलब है कि इससे थकान दूर नहीं होनी चाहिए। लेकिन फिर भी अगर इस तरह का कोई तरीका आपके लिए काम करता है, तो रीसर्च पर मत जाइए और उसे अपनाइए। क्योंकि कभी कभी हमारे भरोसा करने की वजह से कुछ चीजें हमारे लिए बेहतर काम करती हैं।


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