Jason Fung
वजन घटाने के राज़
दो लफ्जों में
आज की तारीख में मोटापा एक महामारी बनता जा रहा है। साल 2016 में आई ये किताब इसके खतरे बताते हुए ये रास्ता भी दिखाती है कि इससे कैसे बचाव करना है। जेसन का कहना है कि सबसे पहले आपको वजन से जुड़ी गलतफहमियां दूर करनी होंगी। इसमें सबसे पहली बात है कि फैट हमें मोटा बनाती है। जबकि वजन पर सबसे बड़ा रोल अगर किसी चीज का है तो वो है इन्सुलिन रेजिस्टेंस।
ये किताब किनको पढ़नी चाहिए?
• जो लोग वजन कम करना चाहते हैं
• डॉक्टर और न्यूट्रीशनिस्ट
• फूड इंडस्ट्री से जुड़े लोग
लेखक के बारे में
जेसन फंग, कनाडा के Scarborough हॉस्पिटल में Intensive Dietary Management Program के इंचार्ज और किडनी स्पेशलिस्ट हैं। वे टाइप 2 डायबिटीज और मोटापे का इलाज करने वाले एक्सपर्ट के तौर पर जाने जाते हैं। उन्होंने The Diabetes Code, The Longevity Solution और The Complete Guide to Fasting जैसी किताबें लिखी हैं।
ये किताब आपको क्यों पढ़नी चाहिए?
ताकि आप वजन बढ़ने की सही वजह समझ सकें।
आम तौर पर मोटापे को ज्यादा कैलोरी इनटेक से जोड़कर देखा जाता है। लगभग हर डाइट प्लान भी इसी सोच के चारों तरफ घूमता है। जेसन इसे कैलोरी ऑब्सेशन कहते हैं। असल में वजन को लेकर लोगों में तरह-तरह की गलतफहमियां हैं। हम ऐसी गलत बातें सुनकर बड़े होते हैं। इन बातों के लिए गलत साइंटिफिक एविडेंस भी जिम्मेदार हैं। शायद यही वजह है कि बहुत से डाइट प्लान असर ही नहीं करते क्योंकि इनकी बुनियाद ही गलत होती है। इससे सही वजह तो टार्गेट हो नहीं पाती उल्टा नुकसान ही होने लगता है। ये किताब ऐसे बहुत सी बातें आपके सामने लाती है ताकि आप मोटापे की सही वजह समझ सकें। मेडिकल फील्ड में हुई नई रिसर्च को बेस बनाकर ये किताब समझाती है कि फैट हमारी डाइट का एक जरूरी हिस्सा हैं और मोटापे की असली वजह कार्ब और रिफाइंड शुगर है और इसके पीछे सबसे बड़ा हाथ है इन्सुलिन नाम के हार्मोन का। जेसन इस किताब में इन्सुलिन और इसके फंक्शन को अच्छी तरह समझाते हैं। इसे पूरी तरह समझकर आप भी खुद को फिट रखकर मोटापे से दूर रह सकते हैं।
इस किताब को पढ़कर आप जानेंगे
• Nature v/s nurture की डिबेट में किसका पलड़ा भारी है
• आपको स्नैक्स और फास्टिंग सोच समझकर करना चाहिए
• गरीब लोगों में मोटापे की क्या वजह होती है मोटापे के पीछे लाइफस्टाइल से ज्यादा हमारी जीन्स का हाथ होता है।
मोटापा हेल्थ इशु होने के साथ-साथ एक सोशल इशु भी है। बाकी सोशल इशु की तरह इसे भी nature versus nurture की डिबेट में शामिल कर दिया जाता है।
लेकिन मोटापे के पीछे सही वजह क्या है? मेटाबॉलिज्म या लाइफस्टाइल? इसका जवाब आपको हैरान कर देगा। लेटेस्ट रिसर्च ये कहती हैं कि मोटापे की सबसे बड़ी वजह कुछ और ही है और न जाने कितनी ही रिसर्च में यही रिजल्ट निकलकर आया है। इसमें समाज और एनवायरनमेंट के बच्चों पर पड़ने वाले असर की स्टडी भी शामिल है। गोद लिए जाने वाले बच्चों की स्टडी से ये बात और भी पक्की हो जाती है। यहां एल्बर्ट जे स्टंकर्ड की स्टडी का उदाहरण लिया जा सकता है। उन्होंने डेनमार्क में गोद लिए गए बच्चों पर ये स्टडी की। डेनमार्क चुनने की वजह ये थी कि वहां गोद लेने के रिकॉर्ड बहुत अच्छी तरह रखे जाते हैं। स्टंकर्ड को यही तो चाहिए था। इस तरह बायोलॉजिकल पेरेंट्स और गोद लेने वाले पेरेंट्स के साथ बच्चों की पूरी स्टडी की जा सकती थी। ये स्टडी 1986 में इंग्लैंड के जर्नल ऑफ मेडिसिन में छपी। इस स्टडी में ये देखा गया कि बच्चों की परवरिश या फिर उनके आसपास के माहौल का उनके वजन पर कोई असर नहीं पड़ता है। यानि बच्चों का वजन बढ़ेगा या नहीं इसका उनके एनवायरनमेंट या nurture से कोई लेना देना नहीं है।
जबकि इस स्टडी से पहले तक यही माना जाता था कि मोटे होने में ये बातें सबसे ज्यादा मायने रखती हैं। ये बात भी गलत साबित हुई कि जो बच्चे कम उम्र से जंक फूड खाने लगते हैं उनमें आगे चलकर वजन बढ़ने की संभावना ज्यादा हो जाती है। यानि अब तो जेनेटिक फैक्टर ही रह गए थे। स्टंकर्ड ने न सिर्फ एक पुरानी थ्योरी को गलत साबित किया बल्कि नई थ्योरी की बुनियाद भी रख दी। जब उन्होंने गोद लिए जाने वाले बच्चों और उनके असली माता पिता की तुलना की तो एक खास बात सामने आई। जिन बच्चों के माता पिता मोटे थे उनमें भी मोटा होने की ज्यादा संभावना थी भले ही उनको गोद लेने वाले माता पिता पतले हों। साल 1991 में उन्होंने अपनी स्टडी का एक फॉलो अप दिया। इसमें ये बताया गया था कि मोटापे के लिए 70% हाथ जीन्स का होता है।
मोटापे की सही वजह समझने के लिए आपको कैलोरी इनटेक और कैलोरी आउटपुट को सही तरह समझना होगा।
आम तौर पर ये समझा जाता है कि आप कम खाएं तो आपका वजन कम हो जाएगा। ये बात सुनने में तो ठीक ही लगती है। लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है। यानि कैलोरी इनटेक का मोटापे से कोई खास लेना देना नहीं है। असल में इस गलतफहमी की भी एक वजह है। साल 2004 में डॉक्टर जे डी राइट और जे कैनेडी ने एक रिपोर्ट छापी। इसमें ये देखा गया कि साल 1971 से 2000 के बीच हर इंसान का एवरेज कैलोरी इनटेक 250 बढ़ गया था। इसी तरह मोटापे की दर भी बढ़ रही थी। लेकिन ये मोटापे की असली वजह नहीं थी। साल 2014 में अमेरिकन जर्नल ऑफ मेडिसिन में छपी डॉक्टर यू. लादाबोम की स्टडी भी यही कहती है। इस स्टडी के डेटा से ये जाहिर होता है कि एवरेज कैलोरी इनटेक में साल 1990 से 2010 के बीच कोई फर्क नहीं पड़ा था जबकि लोगों में मोटापा फिर भी हर साल 0.37 परसेंट की दर से बढ़ रहा था।
अब इससे तो यही जाहिर होता है कि वजन घटाने के लिए कैलोरी इनटेक कम कर देने से भी कुछ नहीं होगा। क्योंकि वजन इस बात से तय नहीं होता कि आप कितनी कैलोरी ले रहे हैं। वजन इस बात से तय होता है कि आप कितनी कैलोरी खर्च कर रहे हैं। यहां एक गलतफहमी और हो जाती है। वो ये कि कैलोरी तो फैट में बदल जाती है। जबकि इसे साबित करने के लिए कोई पक्का डेटा नहीं है। कैलोरी कई तरह से बदलती और इस्तेमाल होती है। कैलोरी से हीट बनती है, प्रोटीन, हड्डियां और मसल्स बनती हैं। दिमाग को फ्यूल मिलता है और दिल की धड़कन सही बनी रहती है। कैलोरी से फैट बनना इन सबमें से बस एक ही काम है। मोटापे के लिए ज्यादा खाना जिम्मेदार नहीं है। इसके पीछे वजह है एनर्जी का पूरा इस्तेमाल न हो पाना। कुछ लोगों का शरीर कैलोरी को फैट में बदल देता है जबकि कुछ लोगों में ये मसल्स और हड्डियों में बदल जाती है। जबकि हम इनमें से सिर्फ मोटापे को ही बुरा कहते हैं, दूसरी बात पर तो ध्यान ही नहीं जाता।
कैलोरी इनटेक कम करने से एनर्जी की खपत भी कम होने लगती है और मेटाबॉलिज्म धीमा पड़ जाता है।
अगर आपकी एनर्जी की जरूरत उतनी ही बनी रहे और आप कैलोरी इनटेक एकदम से कम कर दें तो क्या होगा? सीधी बात है आप जी नहीं पाएंगे। यही वजह है कि जब आप कम खाते हैं तो शरीर, एनर्जी का इस्तेमाल कम कर देता है। साल 1919 में वॉशिंगटन में एक स्टडी हुई। इसमें भाग ले रहे लोगों को काफी सख्त डाइट प्लान पर रखा गया जहां उनको दिन की 1400 से 2100 कैलोरी ही दी जाती थी। यानि उनकी आम खुराक से लगभग 30% कम। रिसर्चर्स ये देखना चाहते थे कि इस बदलाव से उनके शरीर पर क्या असर होता है? नतीजा ये आया कि इनकी एनर्जी की खपत दिन की 3000 से घटकर 1900 तक आ गई। खानपान की कटौती ने वजन पर कोई असर नहीं डाला। शरीर एनर्जी की खपत कम करने के लिए मेटाबॉलिज्म को धीमा कर देता है। इस वजह से शरीर के सारे फंक्शन गड़बड़ाने लगते हैं। 1945 में यूएस के डॉक्टर एंसेल कीज की स्टडी में भी यही बात सामने आई थी। डॉक्टर एंसेल, starvation पर स्टडी करना चाहते थे। वैसे भी ये माना जा रहा था कि WWII के बाद भूख एक बड़ी परेशानी बनकर उभरेगी। इसलिए एंसेल ने भाग लेने वाले लोगों का कैलोरी इनटेक बहुत कम कर दिया।
ऐसा माना जा रहा था कि इनके वजन काफी कम हो जाएंगे पर इसकी जगह लोगों ने ये कहा कि उनको बहुत ठंड लग रही है। इसकी वजह थी मेटाबॉलिज्म का लगभग 40% तक धीमा हो जाना क्योंकि मेटाबॉलिज्म शरीर में गर्मी भी बनाए रखता है। इन लोगों के दिल की धड़कन भी हर मिनट 54 से घटकर 34 तक आ गई। दिमाग के काम पर भी असर पड़ा जिसकी वजह से किसी चीज पर ध्यान लगाना मुश्किल होने लगा। इससे तो यही जाहिर होता है कि वजन कम करने के लिए कैलोरी में कटौती कर देना कोई हल नहीं है। आगे हम ये देखेंगे कि वजन बढ़ने या घटने के लिए आखिर कौन सी चीज जिम्मेदार होती है।
मोटापे की असली जड़ है इन्सुलिन हालांकि इसके पीछे की पूरी वजह अभी तक समझ नहीं आ पाई है।
वजन तो बड़ी आसानी से बढ़ जाता है। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि आपने ढेर सारा खाना खाया और जल्दी से वजन बढ़ा लिया। अगर आपको रातोंरात वजन बढ़ाना है तो आपको एक हार्मोन लेना होगा जिसका नाम है इन्सुलिन। वही इन्सुलिन जो आपके शरीर में पहले से मौजूद है। मोटापे की बड़ी वजह इन्सुलिन या इसका हाई लेवल और दूसरे हार्मोन्स की गड़बड़ होती है। साल 2013 में एल सी कॉन्ग की स्टडी में भी यही साबित हुआ। इसमें ये बताया गया कि अगर ज्यादा वजन वाले लोगों में इन्सुलिन का लेवल घटा दिया जाए तो उनमें वजन कम करने के चांस 75% बढ़ जाते हैं। इस स्टडी ने ये भी साबित किया कि जिन दवाओं की वजह से इन्सुलिन बढ़ता है उनको खाकर लोगों में मोटापा बढ़ा जबकि इन्सुलिन घटाने वाली दवाओं को लेने पर लोगों का वजन कम हो गया।
यहां गौर करने वाली बात ये है कि आपके शरीर पर अपका ज्यादा जोर नहीं चल सकता। तो फिर किसका जोर चलता है? इसका जवाब सिर्फ एक शब्द का है - हार्मोन। शरीर नाम की गाड़ी को हार्मोन्स चलाते हैं। जैसे Ghrelin हार्मोन बताएगा कि आपको भूख लगी है। Leptin बताएगा कि आपका पेट भर गया। यहीं पर इन्सुलिन का रोल होता है। जब शरीर में इन्सुलिन तय लेवल से बढ़ जाता है तो हार्मोन्स का बैलेंस बिगड़ जाता है। इस वजह से आपको ओवरईटिंग जैसी आदतें लग जाती हैं। खैर इसके बावजूद अभी भी ये पूरी तरह समझ नहीं आ पाया है कि इन्सुलिन किस तरह मोटापे की वजह बनता है। कैलीफोर्निया के डॉक्टर रॉबर्ट लस्टिग ने 2004 की अपनी थ्योरी में ये कहा कि इन्सुलिन, लेप्टिन के फंक्शन को रोक देता है। इस थ्योरी पर भरोसा किया जा सकता है। खाना खा लेने पर लेप्टिन का लेवल बढ़ जाता है। लेप्टिन, आपके ब्रेन तक ये सिग्नल भेजता है कि आप भरपेट खाना खा चुके हैं। जब आपका वजन बढ़ता है और शरीर में फैट इकट्ठी हो जाती है तब भी यही होता है। लेप्टिन भूख कम कर देता है और वजन घटने में मदद करता है। लेकिन मोटे लोगों को देखकर कुछ अलग ही बात नजर आती है। खाने के बाद उनके लेप्टिन लेवल बढ़ जाते हैं। पेट भरना उनके लिए एक तरह का धोखा है। यानि फीडबैक न मिलने की वजह से ये खाते ही रहते हैं। लेकिन भले ही इनकी बॉडी फैट बढ़ती रहे पर लेप्टिन लेवल कम ही रहता है। लस्टिग की थ्योरी इन्सुलिन और मोटापे का कनेक्शन तो बताती है पर इसके फेवर में कोई पक्के सबूत नहीं हैं।
स्नैक्स लेने की आदत इन्सुलिन का लेवल बिगाड़कर आपको इन्सुलिन रेजिस्टेंट बना सकती है।
ओपरा विनफ्रे इसका एक जीता जागता उदाहरण हैं। 1988 में लगभग 60 पाउंड वजन घटा लेने के बाद उनका वजन फिर बढ़ने लगा। तब से अब तक वजन घटने बढ़ने का ये साइकल चलता रहा है। ओपरा ही नहीं लगभग हर वो इंसान जो डाइटिंग करता है उसके साथ यही होता है। डाइटिंग इस तरह का असर क्यों डालती है? हाई इन्सुलिन लेवल इसकी वजह हो सकती है जो आगे चलकर इन्सुलिन रेजिस्टेंस में बदल सकता है। लेकिन आगे बढ़ने से पहले जरा इन्सुलिन और इसके फंक्शन पर एक नजर डाल लें। इन्सुलिन एक हार्मोन है जो खून से शुगर निकालकर सेल्स में जमा करता है। इस तरह आपका ब्लड शुगर लेवल सही बना रहता है। जब आप कार्बोहाइड्रेट और मीठा खाते हैं तो इससे निपटने के लिए शरीर ज्यादा इन्सुलिन बनाता है। लेकिन जरूरत से ज्यादा कार्ब या मीठा खाते जाएं तो ये सिस्टम चौपट हो जाता है।
ऐसे में आपकी सेल्स, इन्सुलिन रेजिस्टेंट बन जाती हैं। यानि अब इन पर इन्सुलिन का असर होना खत्म हो जाता है और ये ब्लड से शुगर लेना बंद कर देती हैं। इस वजह से इन्सुलिन रेजिस्टेंट लोगों को वजन घटाने में मुश्किल आती है। इनकी सेल्स जितना चाहिए उतनी शुगर रिसीव ही नहीं करतीं और हर समय भोजन की डिमांड करती हैं। इससे वजन बढ़ जाता है। यही वजह है कि आम तौर पर सफल होने वाली डाइट ऐसे लोगों पर असर नहीं करतीं। इन्सुलिन रेजिस्टेंस की एक वजह है खाने की बीच-बीच में स्नैक्स लेते रहना। क्योंकि चाहे आप जितने कम से कम स्नैक लें, कुछ खाने के बाद आपका इन्सुलिन लेवल पीक पर चला जाता है। अगर आप हमेशा दो मील्स के बीच कुछ न कुछ खाते रहें तो आपका शरीर हमेशा ज्यादा इन्सुलिन बनाता रहेगा। जबकि सही तरीका ये है कि इन्सुलिन कुछ समय के गैप में बने और इसके लेवल कम रहें। लेकिन ये तभी हो सकता है जब आप हर मील के बीच चार से पांच घंटे का ब्रेक लें ताकि आपके शरीर में इन्सुलिन स्पाइक कम हो।
मोटापा और गरीबी आपस में जुड़े हुए हैं। इसमें खेती को मिलने वाली सब्सिडी का भी रोल है।
एक वक्त था मोटापे को खाते पीते घर के लोगों की निशानी माना जाता था और समाज का गरीब तबका शरीर से बिल्कुल कमजोर और हड्डियों का ढांचा नजर आता था। सही तरह से खाने पीने को न मिलने की वजह से उनको malnourish होना ही था। लेकिन समय के साथ हर किसी को पतला और skinny बनने का शौक लग गया। आज की तारीख में मोटापे को अमीरी नहीं बल्कि गरीबी से जोड़कर देखा जाता है। इसके पीछे वजह भी है। जैसे एरिजोना के नेटिव अमेरिकन्स को देख लीजिए जिनको Pima कहा आता है। इनका समाज बहुत गरीब है पर यहां आधे से ज्यादा लोग मोटापे का शिकार हैं। लेकिन हालात हमेशा ऐसे नहीं थे। इतिहास बताता है कि 19वीं सदी तक Pima लोग फिट और हेल्दी थे जब तक ये खेती और शिकार पर निर्भर थे। जब इनकी आबादी के आसफभप्स पर कॉलोनीज बननी शुरू हुईं तब इनकी लाइफस्टाइल भी बदली और परेशानी शुरू हुई। खेती और शिकार बंद हो गया। इनकी डाइट बदल गई। चीनी और रिफाइंड कार्ब जैसे गेहूं, पास्ता और मक्का इनके भोजन में शामिल होने लगे। ये चीजें सस्ती होती हैं और इनको लंबे समय तक स्टोर करके रखा जा सकता है। इस वजह से ऐसे भोजन का चलन बढ़ गया। लेकिन यही बात इन्सुलिन रेजिस्टेंस की वजह भी बन गई। Pima लोग ऐसे देश में अपनी जगह बनाने की कोशिश कर रहे थे जो उनको बेदखल करना चाहता था। इस वजह से उनकी गरीबी बढ़ती गई और भोजन में ऊपर बताई गई चीजें जगह बनाती गईं।
ये चीज Pima ही नहीं बल्कि यूएस के हर उस समाज में हुई जो हाशिए पर था। गरीबी की वजह से इनका खानपान बदलता गया। इस वजह से गरीब तबके में भी मोटापा अपनी जगह बनाने लगा। खास तौर से मिसीसिपी जैसी जगह जहां पर गरीबी ज्यादा है वहां मोटापे के शिकार लोग भी ज्यादा हैं। लेकिन सवाल ये उठता है कि चीनी, मक्का और गेहूं जैसी चीजें बाकी हेल्दी चीजों से सस्ती क्यों हों? इसकी एक वजह ये है कि यूएस की सरकार इन फसलों को उगाने वाले किसानों को अच्छी सब्सिडी देती हैं। 2011 में एक स्टडी हुई जिसे United States Public Interest Research Group ने किया था। इसमें देखा गया कि मक्का उगाने वाले किसानों को 29 और गेहूं की खेती करने वालों को 12% की सब्सिडी दी जा रही थी। इस वजह से रिफाइंड चीजों की कीमत भी कम हो गई और लोगों तक पहुंच बढ़ गई। जबकि फल और सब्जी जैसी ताजी चीजें महंगी होने लगीं। इसलिए ये कोई हैरानी की बात नहीं है कि अमेरिका का गरीब तबका मोटापे का शिकार है।
सभी फैट बुरी नहीं होतीं।
जैसे जैसे मोटापा बढ़ता गया एक्सपर्ट्स और आम लोग इस पर बात करने लगे और इसके लिए फैट को मुजरिम बना दिया गया। जबकि ये बात गलत थी। ज्यादातर फैट इतनी नुकसानदायक भी नहीं होतीं। साल 1948 में हार्वर्ड के रिसर्चर्स ने एक स्टडी की। इस समय ये तो पता था कि हाई कोलेस्ट्रॉल, दिल की बीमारियों की वजह बनता है। लेकिन ये समझा जाना बाकी था कि कोलेस्ट्रॉल का लेवल कैसे बढ़ता है। ये रिसर्च इसी बात का पता लगाने के लिए थी। इस स्टडी ने फैट्स को कटघरे से बाहर निकाल दिया। क्योंकि इस स्टडी में ये पता चला कि ज्यादा फैट खाना और हाई कोलेस्ट्रॉल लेवल का कोई कनेक्शन नहीं है। लेकिन उस समय तक फैट इतनी बुरी इमेज बना चुकी थी कि खुद रिसर्चर्स ने अपने रिजल्ट को मानने से इन्कार कर दिया। इंग्लैंड के एक जर्नल में साल 1981 में फिर ऐसी ही एक रिपोर्ट छपी। लेकिन इसे भी इग्नोर कर दिया गया। आज हम इस बात को मान चुके हैं कि ये स्टडीज सही थीं।
लेकिन इसका मतलब ये भी नहीं है कि आप जितनी चाहें उतनी फैट खाते रहें। आपको ये देखना है कि कौन सी फैट खाई जाए और किससे दूरी बनाई जाए। दूर रखे जाने के मामले में ट्रांस फैट सबसे ऊपर हैं। आपने सैचुरेटेड फैट का नाम सुना होगा। ये ऐसी फैट्स हैं जिनके मॉलीक्यूल्स में हाइड्रोजन बंधा रहता है। इस वजह से ये जल्दी खराब नहीं होतीं जबकि पॉली अनसैचुरेटेड फैट में इसका उल्टा होता है और ये जल्दी खराब हो जाती हैं। ज्यादातर वेजिटेबल ऑयल जैसे मार्जरीन वगैरह को आर्टिफिशल तौर पर सैचुरेट किया जाता है ताकि ये लंबे समय तक टिके रहें। इस वजह से इनको मॉडीफाइड ट्रांस फैट या हाइड्रोजिनेटेड वेजिटेबल ऑयल कहा जाता है। हालांकि ये तरीका फायदेमंद तो है पर ट्रांस फैट के नुकसानों को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। हॉलैंड में साल 1990 में एक रिसर्च हुई। इसमें पता चला कि मॉडीफाइड ट्रांस फैट की वजह से बैड कोलेस्ट्रॉल बढ़ता है और गुड कोलेस्ट्रॉल कम हो जाता है। इसके आगे हुई एक स्टडी से ये पता चला कि अगर भोजन में मॉडीफाइड ट्रांस फैट 2% भी बढ़ जाए तो दिल की बीमारियों का खतरा 23% बढ़ जाता है।
चीनी की खपत कम करने से मोटापे का खतरा कम हो जाता है और कॉफी भी इतनी बुरी चीज नहीं है जितना इसे बना दिया गया है।
अब तक आप ये सोचने लगे होंगे कि आपका भोजन किस तरह का हो जो आपको सेहतमंद रखे। आपको क्या खाना चाहिए और क्या नहीं। बस एक लाइन का ध्यान रखिए। फैट की जगह चीनी से दूरी बनाइए। आपको वजन में काफी फर्क नजर आने लगेगा। आइए जरा देखते हैं कि मीठी चीजें आपका कैसे नुकसान करती हैं। एक तो चीनी आपका इन्सुलिन लेवल बढ़ा देती है। हमने अभी समझा कि आगे चलकर इससे इन्सुलिन रेजिस्टेंस हो जाता है। लिवर पर खास तौर पर असर पड़ता है। फ्रक्टोज एक तरह की शुगर होती है जिसे सिर्फ लिवर एब्जार्ब कर सकता है। जब आप ज्यादा फ्रक्टोज खाते हैं तो लिवर पर बोझ बढ़ जाता है और ये फ्रक्टोज को फैट में बदलने लगता है। इसकी वजह से इन्सुलिन रेजिस्टेंट बढ़ जाता है और डाइजेशन भी बिगड़ने लगता है।
हाई फ्रक्टोज कॉर्न सिरप भी ऐसी ही नुकसानदायक चीज है। आमतौर पर जो चीनी खाई जाती है उसमें ग्लूकोज और फ्रक्टोज बराबर होते हैं। लेकिन हाई फ्रक्टोज कॉर्न सिरप में सिर्फ फ्रक्टोज ही होती है। इस वजह से ये लिवर का और भी नुकसान करता है। इसलिए अगर वजन कम करना है तो चीनी से दूरी बनाइए। पर चीनी आपको लगभग हर प्रोसेस्ड फूड में मिल जाएगी। इसलिए कुछ खरीदने से पहले पैकेट को पलटकर देख लें। अगर इसमें चीनी या फ्रक्टोज ज्यादा नजर आए तो इसे वापस रख दें। सेहत का ध्यान रखने का ये मतलब भी नहीं है कि आप हर अच्छी लगने वाली या स्वादिष्ट चीज को ना कह दें। कॉफी का नाम इस लिस्ट में शामिल है।
आम राय तो ये है कि कैफीन वाली चीजें सेहत के लिए बुरी होती हैं लेकिन इसको सपोर्ट करने के लिए ज्यादा डेटा मौजूद नहीं है। जैसे साल 2005 में American Journal of Clinical Nutrition में छपी एक स्टडी ले लीजिए। इसमें कहा गया था कि कॉफी के ढेरों फायदे इसके थोड़े से नुकसानों के सामने कुछ भी नहीं हैं। कॉफी में एंटी ऑक्सीडेंट होते हैं जो एजिंग को धीमा करते हैं। कॉफी में हड्डियों और दिल के लिए फायदेमंद मैग्नीशियम भी होती है। साल 2008 और 2012 में हुई स्टडीज भी कहती हैं कि कॉफी पीने वाले लोगों में टाइप 2 डायबिटीज, एल्जाइमर और पार्किन्सन डिसीज का खतरा कम देखा गया। लेकिन ये सुनकर रोजाना ढेरों कप कॉफी भी पीना मत शुरू कर दीजिएगा। वजन कम करने का मतलब एक एक कैलोरी गिनना या घंटों एक्सरसाइज करना नहीं है। जो चीज सबसे ज्यादा असर डालती है वो ये है कि आप ऐसे भोजन से दूर रहें जो इन्सुलिन बढ़ाती है। जैसे चीनी, रिफाइंड कार्ब और खाने के बीच स्नैक्स लेना।
कुल मिलाकर
आज के दौर में मोटापा एक ग्लोबल परेशानी बन गया है और इसके मरीज दिनोंदिन बढ़ते ही जा रहे हैं। सालों से चली आई गलत थ्योरीज हमारे दिमाग में फिट हो चुकी हैं और हम इसके लिए फैट को जिम्मेदार मान रहे हैं। जबकि सच कहा जाए तो वजन का बढ़ना जेनेटिक ज्यादा है और इन्सुलिन से भी जुड़ा है। अगर फैट भी जिम्मेदार हैं तो बस मॉडीफाइड ट्रांस फैट। इसके साथ रिफाइंड फूड और मीठी चीजें जो इन्सुलिन रेजिस्टेंस की वजह बनती हैं। इनका इस्तेमाल बंद कर दीजिए और देखिए किस तरह आप मोटापे और दूसरी बीमारियों का खतरा कम कर लेते हैं।
क्या करें?
इंटरमिटेंट फास्टिंग करके देखिए।
इन्सुलिन लेवल कम रखने और इन्सुलिन रेजिस्टेंस को दूर करने के लिए फास्टिंग बहुत मददगार साबित हो सकती है। आपको डॉक्टर की सलाह लेकर ही फास्टिंग करनी चाहिए। फिर भी आपके लिए कुछ सुझाव हैं। आप हफ्ते में एक दिन फास्ट रखें। उस दिन भरपूर पानी और लिक्विड लें। लंच में सूप लिया जा सकता है। डिनर में प्रोटीन और सब्जियां ली जा सकती हैं। लेकिन कोई भी ऐसी चीज न खाएं जिसमें कार्ब या चीनी हो। अगले दिन से अपना रेग्युलर भोजन लें। इस तरह आपको बहुत फायदा हो सकता है।
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