Dr. Richard A. Oppenlander
हम जो खा रहे हैं वही हमें और हमारी धरती को धीरे धीरे मार रहा है।
दो लफ़्ज़ों में
कम्फर्टेबली अनअवेयर (2012) में बताया गया है कि खाने का हमपर और हमारी धरती पर क्या असर हो रहा है। ये हमें बताती है कि जिन जानवरों को हम खाने के लिए बड़ा करते हैं वो कैसे हमारे वातावरण को दूषित कर रहे हैं और कैसे हमारे प्राकृतिक संसाधन का सही इस्तेमाल नहीं हो रहा।
यह किसके लिए है?
- जो लोग वातावरण के बारे में जानना चाहते हैं।
- जो लोग रोज़ किए जाने वाले चुनावों के परिणाम के बारे में जानना चाहतें हैं।
- जो लोग मांस और मछली खाते हैं।
लेखक के बारे में
Dr. Richard A. Oppenlander एक लेखक, सलाहकार और स्पीकर हैं। वे वर्ल्ड हंगर और फ़ूड चॉइस रिस्पांसिबिलिटी ( World Hunger and Food Choice Responsibilty) जैसे प्रोजेक्ट्स के स्पेशलिस्ट हैं। वे इन्सपायर अवेयरनेस नाउ (Inspire Awareness Now) के फाउंडर हैं जो एक नॉन प्रॉफिट आर्गेनाइजेशन है।
ये किताब आप को क्यूँ पढनी चाहिए?
वातावरण खराब होने के कुछ चौंका देने वाले कारणों के बारे में जानें।
सभी लोग ग्लोबल वार्मिंग, प्राकृतिक संसाधनों के खत्म होने, धरती, हवा और पानी के दूषित होने, जंगलों के कटने और ग्रीन हाउस गैसेस के बारे में बाते कर रहे हैं।
ये किताब हमें धरती के हालातों के बारे में बताती है। ये हमें बताती है कि सिर्फ फॉसिल फ्यूल्स के जलने से ही नहीं, हमारे खाने से भी धरती दूषित हो रही है। हमारे खान पान और जानवरों को बड़ा करने के तरीकों से इस धरती पर बहुत बुरा असर पड़ रहा है। इसे पढ़ने के बाद शायद आप कभी भी मीट न खायें।
- क्यों जंगलों के खत्म होने से कैंसर के इलाज की उम्मीद भी ख़त्म हो रही है।
- कौन सी ग्रीन हाउस गैस सबसे ज़्यादा खतरनाक होती है।
- समुद्र का इस्तेमाल क्यों ठीक तरीके से नहीं हो रहा है।
हम जो खाते हैं उसका हमारे वातावरण और ग्लोबल वार्मिंग पर सीधा असर पड़ता है।
अगर हमें सच ने ग्लोबल वार्मिंग को रोकना है तो हमें अपने खान पान को बदलना होगा। हमें मीट, मछली और डेरी की चीज़े खाना बंद करना होगी।
हम वातावरण में ग्रीन हाउस गैसेस छोड़ रहे हैं जिससे ग्लोबाक वार्मिंग और धरती का तापमान बढ़ रहा है। इन गैसेस में कार्बन डाई ऑक्साइड, मीथेन और नाइट्रस ऑक्साइड शामिल हैं।
1750 और 2006 के बीच में कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा 35% बढ़ गयी है। और पिछले 15 सालों में मिथेन की मात्र 145% बढ़ गयी है। ये सच में एक गंभीर समस्या है क्योंकि मीथेन कार्बन डाई ऑक्साइड से ज़्यादा शक्तिशाली होती है जो ग्लोबल वार्मिंग को 23 गुना बढ़ाती है।
ज़्यादा जानवरों को पालने की वजह से ही मिथेन की मात्रा इतनी बढ़ गयी है। लगभग 40% मिथेन की मात्रा सिर्फ जानवरों को पालने की वजह से बढ़ी है। जानवरों को पालने की वजह से 65% नाइट्रस ऑक्साइड निकलता है जो ग्लोबल वार्मिंग के लिए कार्बन डाई ऑक्साइड से 310 गुना ज़्यादा जिम्मेदार है।
मगर ग्लोबल वार्मिंग ग्लोबल डिप्लीशन (Global Depletion) का एक छोटा सा हिस्सा है। ग्लोबल डिप्लीशन की वजह से हमारी धरती के सारे संसाधन खत्म हो रहे हैं।
आज हम पेड़ों का धड़ल्ले से इस्तेमाल तो कर रहे हैं लेकिन हम कुदरत को इसे फिर से उगाने के लिए उतना समय नहीं दे रहे। आने वाले सबक़ में हम सीखेंगे कि कैसे फ़ूड इंडस्ट्रीस हमें ग्लोबाक डिप्लीशन की ओर धक्का दे रही हैं।
लाखों एकड़ के जंगलों को हर साल जानवरों को खिलाने के लिए काट दिया जाता है।
किसी को ये सोचना अच्छा नहीं लगता कि एक चीज़बर्गर का हमारे वातावरण पर क्या असर हो रहा है। पर इससे पहले कि आप अगला चीज़बर्गर मंगाएँ, आप ये ज़रूर सोचिये।
यूनाइटेड नेशंस आफ फूड ऐंड एग्रीकल्चरल आर्गेनाइजेशन (United Nations Of Food And Agriculture Organization) द्वारा की गई एक स्टडी में पाया गया कि हम हर साल 70 करोड़ जानवरों को खाते हैं। और इन जानवरों को बड़ा करने के लिए हमें भारी मात्रा में पानी, ज़मीन, फॉसिल फ्यूल और खाने की ज़रूरत पड़ती है।
ग्लोबल डिप्लीशन की एक सबसे बड़ी वजह है मीट इन्डस्ट्री का जंगलों को साफ़ करना। हमने अमेज़न के 70% जंगलो को हमेशा के लिए खो दिया है। और 1970 से हम हर साल 3 करोड़ चालीस लाख एकड़ जंगलों को खोते आ रहे हैं। 50 साल पहले धरती का 15% भाग जंगल था और आज सिर्फ 2% ही रह गया है। जंगल हमारे धरती के लंग्स होते हैं।
हमें जितनी ऑक्सीजन की ज़रुरत होती है उसका 5 में से एक भाग जंगलों से आता है। इसके अलावा जंगल लाखों टन के कार्बन डाइ ऑक्साइड को सोख कर हमें बदले में ऑक्सीजन देते हैं। हम जितना ज़्यादा पेड़ काटेँगे, धरती को साँस लेने में उतनी ही दिक्कत होगी।
लेकिन जंगलों को काटने से सिर्फ हमें ऑक्सीजन का ही नुक्सान नहीं हो रहा। हम उन 50 लाख पौधों और जानवरों को खो दे रहे हैं जो हमारे लिए ज़रूरी है।
जंगलों में लगभग 2000 ऐसे पौधे है जिनमें कैंसर को ठीक करने की क्षमता है। इनमें विन्क्रिस्टीन (Vincristine) होता है जो कैंसर से लड़़ता है। लेस्ली टेलर (Leslie Taylor) की किताब द हीलिंग पॉवर ऑफ़ रेनफॉरेस्ट हर्ब्स (The Healing Power of Rainforest Herbs) की मानें तो कैंसर की 70% दवाइयाँ जंगलो से आती हैं।
साइंटिस्ट्स की मानें तो हम हर हर दिन पौधों की 100 प्रजातियां खो रहे हैं। तो सवाल ये है कि हम इससे सेहत के लिए कितनी सारी फायदेमंद चीज़ों को रोज़ खो रहे हैं? जंगलों को जानवरों को खिलाने के बजाय उन्हें बचा कर असल में हम खुद पर ही एक एहसान करेंगे।
अनाज को जानवरों को खिलाने के बजाय अगर हम इन्सानों को खिलाएँ तो खाने की कमी दूर हो सकती है।
अगर हम जानवरों के लिए इतनी ज़मीन न इस्तेमाल करें तो हम इस धरती पर सभी को खिला सकते हैं।
यूनाइटेड स्टेट्स में उगाए जाने वाले अनाज में से 70% अनाज जानवरों को खिलाया जाता है। उसी दौरान 2009 में, लगभग 60 लाख बच्चे भूख की वजह से मर गए।
दुनिया में इतना अनाज उगाया जाता है जिससे हर किसी का पेट भर सके, लेकिन इसमें से ज़्यादातर अनाज जानवरों को खिला दिया जाता है।
1986 में इथियोपिया (Ethiopia) में खाने की कमी की वजह से वो दुनिया भर के न्यूज़ चैनल्स की सूर्खियों आ गया। मगर इसी दौरान इथियोपिया में रेपसीड और लिनसीड भारी मात्रा में उगाए जा रहे थे जो यूरोप के देशों में जानवरों को खिलाने के लिए एक्सपोर्ट किये जा रहे थे।
जानवरों के लिए खाना उगाने से हमारे लिए ज़मीन कम पड़ रही है और उस ज़मीन को नुक्सान भी हो रहा है।
यूनाइटेड स्टेट्स की 80% ज़मीन में जानवरों को खिलाने के लिए खेती की जा रही है। ओवरग्रेज़िंग की वजह से ज़मीन की ऊपर की मिट्टी बह जाती है जिससे साइल इरोज़न होता है। अगर ऐसा ही होता रहा तो देखते ही देखते हमारी ज़मीन रगिस्तान में बदल जाएगी।
50 करोड़ अफ्रीकियों ने देखा कि उनकी ज़मीन, वाटर साइकिल और बायोडायवर्सिटी जानवरों को खिलाने के लिए खेती करने की वजह से खत्म हो रही है। हम जानवरों को खाने की जितनी मांग करेंगे, हमारे संसाधन उतनी ही जल्दी ख़तम होंगे।
हमें पानी की भी कमी पड़ती है जब हम ज्यादातर पानी जानवरों के लिए इस्तेमाल करते हैं।
70 अरब जानवरों को पालने के लिए सिर्फ खाने और ज़मीन की ही नहीं पानी की भी ज़रूरत पड़ती है। उन्हें हर रोज़ हमसे कई गुना ज़्यादा पानी की ज़रुरत होती है। एक इंसान को दिन में सिर्फ 6-8 आउन्स पानी की ज़रूरत होती है जबकि एक सुवर को 21 गैलन और एक गाय को 30 गैलन पानी की ज़रूरत होती है। हम सिर्फ एक 500 ग्राम मीट के लिए 5000 गैलन पानी खर्च करते हैं।
हमें एक 500 ग्राम सब्जियां, फल, और सोयाबीन उगाने के लिए सिर्फ 20-60 गैलन पानी की ज़रुरत होती है। इसका मतलब अगर हम सिर्फ 500 ग्राम मीट न खाएं तो हम इतना पानी बचा लेंगे जितना हम साल भर न नहा कर भी नहीं बचा पाएंग़े।
सिर्फ जानवरों को ही पानी की ज़रूरत नहीं होती। उन्हें खिलाने के लिए उगाए जाने वाले अनाज के लिए भी भारी मात्रा में पानी की ज़रूरत पड़ती है।
अमेरिका के लोवा बीफ प्रोसेसर्स (Lowa Beef Processors) में हर साल 15 लाख जानवरों को मारा जाता है। ये स्लॉटर हाउस जानवरों को खिलाने के लिए अनाज उगाने में हर साल 600 मिलिअन गैलन पानी इस्तेमाल करता है।
हमें ये बात नहीं भूलनी चाहिए कि हमारे पास पीने का पानी ज़्यादा नहीं है। 70% पीने का पानी ग्लेशियर और बर्फ के रूप में है जिसे हम इस्तेमाल नहीं कर सकते। हम सिर्फ 2.5% पानी ही इस्तेमाल कर रहे हैं। खेती में इस्तेमाल किये जाने वाले पानी से हम इन संसाधनों को खत्म कर रहे हैं। अगर हम इसी तरह पानी बर्बाद करते रहे तो 2020 तक हम सारे पीने के पानी को हमेशा के लिए खो देंगे।
ज़्यादा मछलियां पकड़ने वजह से हमारे समुद्र खाली हो रहे हैं।
अगर हमें अपने वातावरण को बचाना है तो हमें सिर्फ मीट पर ही नहीं मछलियों पर भी ध्यान देना होगा। हमें जानना होगा कि ज़्यादा मछली खाने से समुद्र पर क्या असर हो रहा है। ज़्यादा मछलियाँ पकड़ना भी वातावरण के लिए नुकसानदायक है। लोग समुद्र के अंदर तक जा कर मछलियाँ पकड़ते हैं जिससे समुद्र का जीवन खतरे में है।
समुद्र के अंदर बहुत सारे समुद्री पहाड़ है जो वहाँ के जीवों का घर है। इन जीवों में कोरल कर स्पंज जैसे हज़ारों दूसरे जीव आते हैं।
मॉडर्न फ़िशिंग इंडस्ट्री समुद्र के अंदर रहने वाले इन जीवों को पकड़ती है। इसे हैवी बॉटम ट्रौलिंग (Heavy Bottom Trowling) कहते हैं। समुद्र के काफी अंदर तक जाल बिछा कर मछलियां पकड़ने से हमारे इकोसिस्टम को नुक्सान हो रहा है और इसे फिर से ठीक होने में कई सदियां लग सकती हैं।
यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ़ फ़ूड एंड एग्रीकल्चर आर्गेनाइजेशन के हिसाब से लगभग 70% मछलियों की प्रजातियां खत्म हो चुकी हैं और हज़ारो प्रजातियां खतरे में है। इसके अलावा समुद्र के अंदर बिछाए जाने वाले बड़े बड़े जालों की वजह से दूसरे समुद्री जीवों की भी मौत हो रही है।
यूनाइटेड नेशंस के हिसाब से 2009 में करीब ११ करोड़ मछलियां पकड़ी गयी और इससे ज़्यादा दूसरे समुद्री जीव पकड़े गए जिनकी मौत हो गयी।
इनमे से श्रिम्प फिशिंग (Shrimp fishing) से सबसे ज़्यादा नुक्सान हो रहा है। सिर्फ एक पाउन्ड श्रिम्प मछलियों को पकडे में 20 पाउन्ड दूसरी मछलियां , चिड़िया , और डॉल्फिन्स पकड़ी जाती हैं जिन्हे मार दिया जाता है।
इन्सानों को खिलाने के लिए जानवरों को बड़ा करने, उन्हें खिलाने और मारने से हमारी धरती प्रदूषित हो रही है।
अब हम जान चुके हैं कि कैसे जानवरों को खाने से हमारी धरती पर बुरा असर पड़ रहा है। आइये देखते हैं कि इससे हमारी धरती पर कितना असर पड़ रहा है।
सिर्फ यू एस कारखानों से से हर मिनट लगभग ५० लाख पाउंड जानवरों के वेस्ट प्रोडक्ट निकल रहे है। जितना वेस्ट प्रोडक्ट हम निकालते हैं, ये उसके मुकाबले 130 गुना ज़्यादा है। ये सारा वेस्ट प्रोडक्ट नालियों से बह कर पानी में मिल जाता है। और इन वेस्ट प्रोडक्ट्स में वो सभी एंटी बायोटिक्स, पेस्टीसाइड्स, हॉर्मोन्स और दूसरे केमिकल्स होते है जिन्हे्ं हम जानवरों को बड़ा करने के लिए इस्तेमाल करते हैं। इस पॉल्यूशन की वजह से हवा पर भी असर पड़ रहा है।
सारी ग्रीन हाउस गैसों का 20% जानवरों के वेस्ट प्रोडक्ट से आ रहा है जबकि 13% ग्रीन हाउस गैसेस गाड़ियों से आ रही हैं। इन गैसों में मेथेन, कार्बन डाइ आक्साइड, नाइट्रोजन और अम्मोनिया आती हैं जो जानवरों के यूरीन और वेस्ट प्रोडक्ट्स से निकलती हैं।
मछलियों को पालने की वजह से भी पॅाल्यूशन होता है। उनसे निकलने वाले वेस्ट प्रोडक्ट को समुद्र में फेक दिया जाता है। उनके खाने और आइल के इस्तेमाल से प्रदूषण हो रहा है। इनसे डाइआक्सिन जैसे कैंसर पैदा करने वाली चीज़े निकलती हैं जो फूड चेन से दूसरी मछलियों में चली जाती हैं।
2001 में की गई एक स्टडी में पाया गया कि ब्रिटिश कोलंबिया में एक साल सैलमन मछली की खेती से उतनी ही नाइट्रोजन निकलती है जितनी 68200 लोगों के वेस्ट से निकलती है।
जिन फिश फार्म्स में ज़्यादा मछलियां होती हैं वहां पर बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है जिसकी वजह से एंटीबायोटिक्स, पेस्टीसाइड्स और कॉपर का इस्तेमाल किया जाता है। इससे हमारी सेहत पर और बुरा असर पड़ रहा है।
कुल मिला कर
हम जो खाते हैं उसका हमारी धरती पर बहुत असर पड़ता है। ज़्यादा मीट और मछलियों को खाने से हम अपनी धरती को प्रदूषित कर रहे हैं। इससे दुनिया में खाने और पानी की कमी हो रही है और मौसम पर भी असर पड़ रहा है। हम जिस तरह से रह रहें हैं वो हमारे वातावरण के लिए अच्छा नहीं है। हमें धरती को बचाने के लिए अपने रहन सहन और खान पान के तरीकों को बदलना होगा।