Sandeep Jauhar
दिल के बारे में सब कुछ
दो लफ्जों में
हार्ट कहने को तो बस एक बॉडी पार्ट है पर हमारे लिए सदियों से इसकी जितनी मेडिकल इम्पार्टेंस रही है उतनी ही कल्चरल और लिटरेरी भी। इसके बारे में न जाने कितना कुछ लिखा गया है। यह किताब भी हार्ट को हर नजरिए से देखती है और यह समझाती है कि मेडिकल रीजन के बियॉन्ड भी ऐसी क्या वजह है जो इस ऑर्गन को हमेशा इतना महत्वपूर्ण समझा जाता रहा है।
यह किताब किनको पढ़नी चाहिए
- मेडिकल स्टूडेंट्स
- जिनको दिल से संबंधित बीमारियां हैं
- जो लोग साइंस की जर्नी में रुचि रखते हैं
लेखक के बारे में
संदीप जौहर, लॉन्ग आईलैंड जूइश मेडिकल सेंटर के एक लीडिंग हार्ट स्पेशलिस्ट हैं। उन्होंने न्यूयॉर्क टाइम्स के लिए बहुत से मेडिकल आर्टिकल लिखे हैं। इस किताब के अलावा उन्होंने डॉक्टर्ड और इंटर्न नाम की दो और किताबें भी लिखी हैं। वह लाॅन्ग आईलैंड में अपने परिवार के साथ रहते हैं।
आपके इमोशंस के लिए हमेशा दिल को जिम्मेदार ठहराया जाता रहा है।
हार्ट जो आपके शरीर का एक बहुत महत्वपूर्ण अंग है, उसे जीवन, प्यार और भावनाओं से जोड़कर देखा जाता है। यहां तक कि पुराने जमाने में ग्रीक लोग इसे सबसे सुपीरियर ऑर्गन मानते थे। उनका विश्वास था कि हार्ट सिर्फ भावनाओं को नहीं बल्कि थॉट प्रोसेस, सेन्सेशन और बॉडी मूवमेंट को भी कंट्रोल करता है।
आने वाले चैप्टर्स में आप न केवल एक बॉडी पार्ट के तौर पर हार्ट को समझेंगे बल्कि इसकी कल्चरल इम्पाॅर्टन्स भी जानेंगे।
नोट- इससे पहले कि हम आगे बढ़ें, हम बताना चाहते हैं कि इस किताब में कुछ ऐसे अंश हैं जो सर्जरी के तरीकों या जानवरों पर किए गए एक्सपेरिमेंट के बारे में हैं। कुछ लोगों के लिए इसे पढ़ना शायद थोड़ा मुश्किल हो सकता है।
इस समरी में आप यह भी जानेंगे कि जापानी ऑक्टोपस पॉट क्या है और यह दिल की बीमारी को कैसे सिम्बॉलाइज करता है?, कैसे एक युवा सर्जन की खुद पर ऑपरेशन करने की जिद ने मेडिकल साइंस के लिए नए रास्ते खोले? और आर्टरीज में होने वाली फैटी प्लाक की समस्या कैसे थोड़ी सी हवा की मदद से ठीक होने लगी?
बच्चों में बहुत उत्सुकता होती है और इसकी वजह से वे अपने आस-पास हो रही हर चीज को जानने और समझने के लिए कुछ न कुछ करते रहते हैं। संदीप भी ऐसे ही थे। एक बार उन्होंने सोचा कि क्यों न स्कूल के साइंस प्रोजेक्ट के लिए एक मेंढक के हार्ट से निकलने वाले इलेक्ट्रिक सिग्नल को मापा जाए। इसके लिए उनको एक मेंढक का डिसेक्शन करना पड़ा। वे सिग्नल तो नहीं माप सके पर मेंढक को तेज दर्द से गुजरना पड़ा। वे रोने लगे तब उनकी माँ उनके पास आईं। उन्होंने संदीप को समझाया कि अभी वो बहुत छोटे हैं और उनका दिल इतना मजबूत नहीं है कि इस तरह की चीजें बर्दाश्त कर पाएं।
उनकी माँ का ऐसा कहना कोई हैरानी की बात नहीं थी क्योंकि सदियों से दिल को साहस और डर जैसी बहुत सी भावनाओं के लिए जिम्मेदार माना जाता रहा है।
करेज लैटिन भाषा के शब्द कॉर से बना है जिसका मतलब है दिल। यूरोप में रेनेसां (Renaissance) के दौरान हार्ट को पहली बार साहस के साथ जोड़कर देखा गया। धीरे-धीरे इसे लॉयल्टी और बहादुरी के सिंबॉल के तौर पर राजचिन्हों में भी जगह मिलने लगी।
इसका लॉजिक यह था कि जिन लोगों के दिल का आकार छोटा होता है उनमें हिम्मत कम होती है। शायद यही वजह है कि वो कोई मुश्किल काम नहीं कर पाते या जल्द ही हार मान लेते हैं।
यह सोच सिर्फ यूरोप तक ही नहीं रुकी बल्कि दुनियाभर में फैली। जौहर की दादी का उदाहरण ही ले लीजिए जो हमेशा अपने परिवार का मनोबल बढ़ाने के लिए 'दिल छोटा मत करो'कहा करती थीं।
दिल के बारे में जो सबसे पहला ख्याल हमें आता है वह है प्यार। ये इस तरह लोगों पर हावी है कि प्यार शब्द सुनते ही उनकी आंखों के आगे हार्ट शेप आ जाता है।
ह्यूमन हार्ट एनाटॉमिकली अलग होता है पर इसका जो सिंबॉल बनाया गया है हम उसे हार्ट शेप कहते हैं। वैसे इसका सही नाम कार्डिऑइड है। आपको इस शेप की पत्तियां, फूल और बीज अपने आस-पास आसानी मिल जाएंगे।
ऐसा ही एक पौधा है सिल्फियम जिसके बीजों को मध्य युग के लोग एक नेचुरल कॉन्ट्रासेप्टिव के तौर पर इस्तेमाल करते थे।
हो सकता है कि इस वजह से ही इस शेप को प्यार और सेक्सुअल बिहेवियर से जोड़ दिया गया।
उस वक्त बनाई गई रोमांटिक तस्वीरों में भी हार्ट शेप का बहुत इस्तेमाल किया गया। तभी से पश्चिमी देशों में कार्डिऑइड शेप को प्यार और दिल का प्रतीक बना दिया गया और अब सारी दुनिया इसे मानती है।
आपके मनोभाव आपके दिल पर इतना असर डालते हैं कि इनकी वजह से हार्ट डैमेज भी हो सकता है।
जौहर का एक्सपेरिमेंट भले ही सफल नहीं हो पाया, लेकिन उनको अपने कैरियर की दिशा मिल गई थी। उन्होंने तय कर लिया था कि उनको डॉक्टर बनना है। वे कार्डियोलाॅजिस्ट बनकर न्यूयॉर्क में काम करने लगे।
उनको जल्दी ही ये एहसास हो गया कि एक डॉक्टर होने का मतलब सिर्फ इलाज करना, सर्जरी करना या डाइट की एडवाइस देना नहीं है। उन्होंने मरीजों से इमोशनल मैटर्स जैसे कि उनके डर, चिंता, परेशानियों आदि पर बात करनी शुरु की।
आपको सुनने में शायद अजीब लगेगा पर आपके इमोशन और एक्शन हार्ट के फंक्शन पर गहरा असर डालते हैं।
तनाव और चिंता की वजह से ब्लड वैसल सिकुड़ने लगती हैं। इससे हार्ट रेट और बीपी बढ़ता है और हार्ट के टिशू डैमेज होने लगते हैं। लंबे समय तक यही कंडीशन बनी रहे तो हार्ट के डैमेज होने के चांस बढ़ जाते हैं। इसे रिसर्च से साबित किया जा चुका है।
बीसवीं सदी की शुरुआत में कार्ल पियर्सन नाम के सांख्यिकी विशेषज्ञ ने यह देखा कि बहुत से केसेज में पति-पत्नी में से किसी एक की मृत्यु होने के एक साल के अंदर ही दूसरा पार्टनर भी मर जाता था और उसकी मृत्यु की वजह अक्सर दिल की बीमारी होती थी।
आसान शब्दों में कहें तो दिल टूटने या इमोशनल डिस्ट्रेस की वजह से हार्ट फेल हो सकता है। जौहर ने ऐसे केस अपने मेडिकल कैरियर में देखे हैं। वे मानते हैं कि जिन कपल्स के बीच प्यार नहीं होता उनको दिल की बीमारियां होने का खतरा ज्यादा होता है।
शायद आप अब भी सोचेंगे कि इमोशनल डिस्टर्बेंस को दिल की बीमारियों से जोड़ने की बात कुछ बढ़ा-चढ़ाकर कह दी जाती है पर मेडिकल फील्ड में इसे पूरी तरह से सही माना जाता है। इसके लिए एक टर्मिनोलॉजी भी है। इसे ताकोत्सुबो कार्डियोमायोपैथी कहा जाता है। ताकोत्सुबो एक जापानी शब्द है। यह एक ऐसे जार को कहा जाता है जो नीचे की तरफ चौड़ा और ऊपर की तरफ संकरा होता है। इसका इस्तेमाल ऑक्टोपस पकड़ने में होता है।
ये ध्यान देने वाली बात है कि जब हार्ट बहुत इमोशनल अप डाउन से गुजरता है तो इसका शेप भी इस जार की तरह हो जाता है। ताकोत्सुबो कार्डियोमायोपैथी से महिलाएं ज्यादा सफर करती हैं। ब्रेकअप या अपने प्रियजनों को खो देने की वजह से इन महिलाओं का हार्ट कमजोर हो जाता है और उसका नार्मल एनाटॉमिकल शेप बिगड़ जाता है। उनमें सीने में दर्द, सांस लेने में परेशानी और कोलैप्स हो जाने जैसे लक्षण दिखने लगते हैं और कार्डिएक अरेस्ट होने की संभावना बढ़ती जाती है। कुछ लोग ठीक हो जाते हैं पर इस दुख की वजह कुछ लोगों की जान भी चली जाती है।
जर्मनी के एक छोटे से कस्बे एबर्सवाल्ड में एक मेडिकल इंटर्न वर्नर फोर्समैन ने 1929 में एक इतिहास रच दिया। उन्होंने एक लंबी कैथेटर ट्यूब पकड़ी और एक नर्स को ऑपरेशन थिएटर में ले आए। और फिर उस नर्स को एक टेबल से बांध दिया। नर्स को लगा कि ये इंटर्न आज उस पर कोई एक्सपेरिमेंट कर डालेगा। लेकिन हकीकत ये थी कि फोर्समैन अपने ऊपर एक सर्जिकल एक्सपेरिमेंट करना चाहते थे और नर्स को इसलिए बांधा था ताकि वो उनको असिस्ट करती रहे और डरकर भाग न जाए।
सबसे पहले उन्होंने अपनी लेफ्ट एल्बो की स्किन कट की। उसके बाद एक ब्लेड की मदद से एन्टीक्यूबिटल वेन के अंदर जगह बनाई। यह वेन आर्म से ऊपर की तरफ जाती है। इसके बाद उन्होंने उसके अंदर से कैथेटर पास किया जो वेन से होते हुए हार्ट की तरफ गया।
उन्होंने उस घबराई हुई नर्स को जैसे-तैसे इस बात के लिए राजी किया कि वो उनको एक्स-रे रूम तक ले जाए ताकि वो अपना एक्स-रे ले सकें। लेकिन स्कैन में ये दिखा कि कैथेटर अभी हार्ट तक पंहुचा नहीं था। फोर्समैन खून से लथपथ थे और दर्द से तड़प रहे थे फिर भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और कैथेटर को राइट एट्रियम तक पंहुचा दिया। इतने खतरनाक एक्सपेरिमेंट के बाद भी वे जीवित रहे और कई बार इसे दुहराते भी रहे। ये एक रिवॉल्यूशनरी कदम था क्योंकि इससे पहले कभी किसी ने ह्यूमन हार्ट की इतनी डीप स्टडी नहीं की थी। फोर्समैन का मजाक उड़ाने वालों की भी कमी नहीं थी। क्योंकि किसी को जरा सा भी एहसास नहीं था कि ये प्रोसेस आगे कितने काम आएगी।
लेकिन 1930 के दशक के आखिर में बेल्व्यू हॉस्पिटल, न्यूयॉर्क के दो कार्डियोलाॅजिस्ट आन्द्रे कोर्नंद और डिकिन्सन रिचर्ड्स ने फोर्समैन के काम से प्रभावित होकर एक नई टेक्नीक डेवलप करना शुरु किया।
उन्होंने छोटे कैथेटर डिजाइन किए। इनको मरीजों की वैसल्स में इनसर्ट करके बीपी और ब्लड फ्लो मॉनीटर किया गया। ये दोनों पैरामीटर दिल के मरीजों के लिए बहुत क्रिटिकल होते हैं। रिचर्ड्स और कोर्नंद के प्रयोग हार्ट सर्जरी में मील का पत्थर साबित हुए और इसकी वजह से कोरोनरी एन्जियोग्राफी जैसी एडवांस टेक्नीक्स डेवलप हुईं।
अपने एक्सट्राआर्डिनरी काम की वजह से कोर्नंद, रिचर्ड्स और फोर्समैन को 1956 में चिकित्सा का नोबल दिया गया।
क्रॉस-सर्कुलेशन सर्जिकल प्रोसीजर के शुरु होने से पहले तक ओपन हार्ट सर्जरी के बारे में कोई सोच भी नहीं सकता था।
आपने ये सीन फिल्मों में जरूर देखा होगा। हीरो को अचानक हार्ट अटैक आता है और उसे तुरंत हॉस्पिटल ले जाया जाता है। वहां उसे स्ट्रेचर पर लिटाते हैं और हॉस्पिटल का स्टाफ एक्शन में आ जाता है। कहानी में ज्यादातर ऐसे लोग बच जाते हैं। खुशी की बात ये है कि आज की तारीख में रियल लाइफ में भी ऐसे किसी हादसे में ज्यादातर लोगों की जान बचा ली जाती है। लेकिन बहुत सालों तक लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ता था। क्योंकि इसे मैनेज करने के लिए ओपन हार्ट सर्जरी की जरूरत होती थी जिसे बहुत रिस्की माना जाता था। हार्ट की सर्जरी तभी की जा सकती है जब उसे कुछ वक्त के लिए रोक दिया जाए लेकिन ऐसे में ब्लड कैसे पंप होगा? ब्रेन और शरीर के बाकी हिस्सों को ऑक्सीजन कैसे मिलेगी?
हमारा शरीर ऑक्सीजन के बिना तीन से पांच मिनट तक ही रह सकता है। यानि अगर इससे ज्यादा समय तक दिल की धड़कन बंद रह जाती है तो यह बहुत नुकसानदायक होगा। जाहिर है कि इतने कम समय में तो हार्ट सर्जरी नहीं की जा सकती ना। इसके लिए कम से कम 10 मिनट चाहिए और कुछ प्रोसीजर तो इससे भी लंबे होते हैं। यानि ये सब समय पर निर्भर है।
एक दिन अमेरिकन सर्जन सी वॉल्टन लिलेहेई के दिमाग में अचानक एक विचार आया। ये 1950s की बात है। उन्होंने ध्यान दिया कि बच्चे जब माँ के पेट में होते हैं तब उनके पास कोई डायरेक्ट ऑक्सीजन सप्लाई नहीं होती। बच्चे का खून माँ के शरीर से गुजरता है जहां वह साफ होता है और उसमें ऑक्सीजन मिक्स होती है और फिर वह वापस बच्चे में सर्कुलेट होता है। इस फैक्ट से प्रभावित होकर उन्होंने हार्ट के ऑपरेशन के लिए भी ऐसा सिस्टम डिजाइन करना शुरु किया। इसके लिए वे डॉग्स पर एक्सपेरिमेंट करने लगे। पहले एक डॉग को एनेस्थीसिया दिया जाता और उसकी हार्ट बीट रोकी जाती। उसके बाद बियर हौज पाइप और मिल्क पंप की मदद से पहले डॉग के सर्कुलेटरी सिस्टम को दूसरे डॉग के सिस्टम से जोड़ देते।
इस तरह पहले डॉग के शरीर से दूसरे डॉग तक ब्लड सर्कुलेट होता और वहां से वापस पहले डॉग के शरीर तक आता। ये सब आपको अजीब सा लग रहा होगा पर ये प्रयोग सफल रहा। इसके बाद इस क्रॉस-सर्कुलेशन सिस्टम को मनुष्यों के लिए डेवलप करने की शुरुआत हुई जिसके बारे में हम आगे पढ़ेंगे।
जब तक क्रॉस-सर्कुलेशन सर्जरी की शुरुआत नहीं हुई थी, दिल की जन्मजात बीमारियों से निपटना बहुत मुश्किल था।
लिलेहेई ने कम से कम 200 डॉग्स पर ये एक्सपेरिमेंट किया। जब उन्होंने इसमें महारत हासिल कर ली तब वो ह्यूमन एक्सपेरिमेंट करने का सोचने लगे। 1954 तक उन्होंने ये पता लगा लिया था कि जिन मरीजों को जन्म से ही कोई दिल की बीमारी होती है, उन पर इस एक्सपेरिमेंट का अच्छा रिजल्ट मिल सकता है। नवजात शिशुओं में होने वाली जन्मजात बीमारियों में दिल की बीमारी सबसे कॉमन है। अमेरिका में उस वक्त एक साल में लगभग 50,000 बच्चे दिल की बीमारियों के साथ पैदा होते थे और हॉस्पिटल इस तरह के मरीजों से भरे रहते थे। बहुतों को सांस लेने में तकलीफ होती थी। ऐसे ज्यादातर बच्चे 20 साल तक भी नहीं जी पाते थे।
एट्रियम या वेन्ट्रिकल (हार्ट के ऊपर और नीचे के दो चैम्बर) को सेपरेट करने वाली वॉल में डिफेक्ट सबसे कॉमन बीमारी थी। आम भाषा में इसे दिल में छेद होना कहा जाता है। इसकी वजह से ब्लड का हार्ट से लीक होना, प्योर और इम्प्योर ब्लड का मिक्स हो जाना जैसे सिम्पटम्स दिखते थे। ब्लड में ऑक्सीजन की कमी हो जाती थी जिससे बेहोशी, दौरे पड़ना और मौत भी हो जाती थी।
इस डिफेक्ट को ठीक करने के लिए दस मिनट से ज्यादा समय चाहिए था। और हमने पिछले लेसन में ही पढ़ा है कि तब इतनी देर तक हार्ट का कोई सर्जिकल प्रोसीजर करना फीजिबल चॉइस नहीं था। डॉग्स पर किए गए सफल प्रयोगों के बाद डॉक्टर लिलेहेई इसे मनुष्यों पर आजमाने के लिए तैयार और कॉन्फिडेंट थे। उनका पहला पेशेंट एक तेरह महीने का बच्चा था जिसका नाम था ग्रेगरी ग्लिडन। ग्रेगरी के सर्कुलेशन को उसके पिता के सर्कुलेशन से उनकी फीमोरल आर्टरी और वेन के माध्यम से कनेक्ट किया गया। उसके बाद ग्रेगरी के हार्ट को इनएक्टिव किया गया और लिलेहेई ने उसके दिल के छेद को बंद कर दिया। यह एक्सपेरिमेंटल सर्जरी भी कामयाब हुई। हालांकि इसके दस दिन बाद चेस्ट इन्फेक्शन से ग्रेगरी की मृत्यु हो गई।
लेकिन इसके दो हफ्ते बाद ही उनकी अगली कोशिश रंग लाई और उनकी दूसरी पेशेंट, पामेला श्मिट जो चार साल की थी, चौदह मिनट तक चले ऑपरेशन के बाद बिल्कुल ठीक हो गई। इस ऑपरेशन की चर्चा दूर-दूर तक हुई। उसी साल लिलेहेई ने ऐसी 44 क्रॉस-सर्कुलेशन सर्जरी की जिनमें 32 लोग ठीक हो गए। ये तो बस शुरुआत थी।
1950s में यह बात समझ आ चुकी थी कि खराब लाइफस्टाइल की वजह से दिल की बीमारियों का खतरा बढ़ता है।
यूनाइटेड स्टेट्स के 32वें राष्ट्रपति फ्रेंकलिन डी रूजवेल्ट एक महान शख्सियत थे। अपने चारों कार्यकाल में उनको दिल की बीमारियों ने घेर रखा था और 1945 में हुए एक सीवियर हार्ट अटैक ने उनकी जान ले ली। ऐसे महान व्यक्तित्व की दिल की बीमारी से मौत होने के कारण हार्ट डिजीज की डीटेल में स्टडी करने के लिए एक प्रोजेक्ट शुरु किया गया। इसका नाम रखा गया फ्रेमिंगम हार्ट स्टडी। इसमें फ्रेंमिंगम में रहने वाले 30-60 वर्ष के 5000 लोगों पर स्टडी की गई। इनको 20 साल तक ऑब्जर्व किया गया। उनकी लाइफस्टाइल पर बारीकी से ध्यान दिया गया ताकि यह समझ आ सके कि लाइफस्टाइल का हेल्थ और दिल की बीमारियों से क्या कनेक्शन होता है। पहले यह माना जाता था कि दिल की बीमारियां चिंता, तनाव, फिजिकल स्ट्रेन और गरीबी की वजह से होती हैं। इसके अलावा बेन्जेड्रीन नाम की दवाई को भी जिम्मेदार समझा जाता था। इस दवा में एम्फैटेमिन होता था जिसका इस्तेमाल मोटापे, बीपी और दर्द को कम करने में किया जाता था। यह बात काफी हद तक ठीक थी पर दूसरे बहुत से फैक्टर्स नजरअंदाज भी कर दिए गए थे।
फ्रेमिंगम स्टडी से यह पता लगा कि किस तरह लाइफस्टाइल हार्ट को प्रभावित करती है। इस स्टडी ने हाई बीपी, हायपरटेंशन (आर्ट्रीज की बीमारी जिससे बीपी बढ़ जाता है), कोलेस्ट्राल लेवल और हार्ट की बीमारियों का कनेक्शन समझाया। अब डॉक्टर ये समझ चुके थे कि अगर इन सबको कंट्रोल कर लिया जाए तो दिल की बीमारियों को ठीक किया जा सकता है। खान-पान पर कंट्रोल तो जरूरी है ही।
इस स्टडी से एक और बात सामने आई कि स्मोकिंग भी दिल की बीमारियों की वजह बनती है। इसकी वजह से सिगरेट के विज्ञापनों पर रोक लगा दी गई और पैकेट्स पर चेतावनी छापी जाने लगी।
तो इस तरह फ्रेमिंगम स्टडी मेडिकल फील्ड में एक टर्निंग पाइंट साबित हुई जिसने न सिर्फ हार्ट प्राॅब्लम के कुछ और कारण ढूंढे बल्कि ट्रीटमेंट की अप्रोच भी बदल दी। अब डॉक्टर इन बीमारियों को ट्रीट करने की जगह प्रिवेंटिव मेथड पर जोर देने लगे। और यह करना ठीक भी था। हाल ही में स्वीडन में एक स्टडी की गई है जिससे पता चला है कि अगर हेल्दी डाइट और रेग्युलर एक्सरसाइज की जाए और शराब और सिगरेट से दूर रहा जाए तो कार्डिएक अरेस्ट होने की संभावना 80% तक कम हो जाती है।
डाइट और एक्सरसाइज के अलावा साइकोलॉजिकल फैक्टर्स भी हार्ट के फंक्शन पर असर डालते हैं।
फ्रेमिंगम स्टडी ने कार्डियोलाॅजी में बहुत बड़ा योगदान दिया। लेकिन इसकी कमी ये थी कि इसे बहुत छोटे स्केल पर पर किया गया था। जब इसे एक लार्ज पॉप्युलेशन पर कंडक्ट किया गया तब बहुत सी और बातें सामने आईं। इसमें सबसे महत्वपूर्ण थी कि डाइट और एक्सरसाइज के अलावा भी फैक्टर्स हैं जिनसे दिल की बीमारियां हो सकती हैं। 1959 में अमेरिकन हार्ट जरनल में भारतीय पुरूषों पर हुई एक रिसर्च छपी। इसके अलावा दूसरे दक्षिण एशियाई देशों में भी कुछ रिसर्च की गई। इसमें पाया गया कि इन लोगों को हार्ट अटैक का खतरा फ्रेमिंगम के लोगों की तुलना में चार गुना ज्यादा है। जबकि यहां के लोगों का कोलेस्ट्राल लेवल, बीपी और स्मोकिंग की आदत अमेरिकन्स की तुलना में कम थी। उनकी डाइट भी ज्यादातर वेजीटेरियन होती थी। तो यहां पर दिल की बीमारी का खतरा इतना ज्यादा होने का मतलब था कि इसकी कुछ और वजह भी है। इस स्टडी से यह पता चला कि दिल की बीमारियों के लिए साइकोलॉजिकल फैक्टर्स भी जिम्मेदार थे। यूनिवर्सिटी ऑफ कैलीफोर्निया के सर माइकल मार्मोट ने 1970s में सैन फ्रांसिस्को में रह रहे बहुत से जापानियों पर स्टडी की। उन्होंने देखा कि जो जापानी लोग अपने समुदाय से अलग होकर वेस्टर्न कल्चर में घुल-मिल गए हैं उनमें हार्ट डिसआर्डर ज्यादा है। जो लोग अभी भी अपने कल्चर और कम्यूनिटी से जुड़े हैं उनमें यह कम है। इसकी वजह बिल्कुल साफ थी। माइग्रेशन और अपनी जड़ों से दूर हो जाने की वजह से उनके दिल को गहरा सदमा लगा था। पेन्सिल्वेनिया यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर पीटर स्टर्लिंग द्वारा 2004 में की गई एक स्टडी में ये पता चला कि सामाजिक मुद्दे जैसे इन्कम, सिक्योरिटी भी हार्ट डिजीज के कॉन्ट्रिब्यूटिंग फैक्टर होतेके कॉन्ट्रिब्यूटिंग फैक्टर होते हैं। ब्लैक पॉप्युलेशन के गरीब लोगों में इसका खतरा ज्यादा है। स्टर्लिंग ने कहा कि लाइफ के चैलेंजेस की वजह से लोगों को लगातार तनाव और चिंता में जीना पड़ता है। और इससे दिल की बीमारियां होती हैं। इन सारी स्टडीज से यह पता चलता है कि हार्ट डिजीज से निपटने के लिए बहुत से फैक्टर्स को टैकल करना होता है। खास तौर पर लाइफस्टाइल चेंज और सामाजिक बदलाव जरूरी हैं।
फैटी प्लाक 70s तक एक गंभीर बीमारी मानी जाती थी लेकिन उसका आसान सा इलाज ढूंढ लिया गया है।
60 के दशक में अमेरिकन्स में फैटी प्लाक की समस्या कॉमन थी। इसमें आर्टरीज क्लॉग हो जाती हैं। यह मेडिकल प्रोफेशनल्स के लिए एक चिंता की बात थी। इसका कारण पता न होने की वजह से इलाज ढूंढना भी नामुमकिन था। फ्रेमिंगम स्टडी के बाद दिल की बीमारियों में कोलेस्ट्राल का रोल तो समझ आ गया था लेकिन इसे प्लाक से जोड़कर नहीं देखा गया था। फिर कुछ और स्टडीज से पता चला कि जब ब्लड में कोलेस्ट्राल लेवल बढ़ जाता है तो वैसल्स में इसके चंक बनने लगते हैं। ये ऑक्सीजन से रिएक्ट करके फ्री रेडिकल बनाते हैं। और ये पार्टिकल्स अपने आस-पास की सेल्स को डैमेज करने लगते हैं। अब बॉडी का डिफेंस मैकेनिज्म एक्टिवेट होता है और व्हाइट ब्लड सैल्स इन कोलेस्ट्राल पार्टिकल को एनगल्फ करने की कोशिश करती हैं पर ऐसा कर नहीं पाती। इससे कोलेस्ट्राल एक पेस्ट की तरह आर्टरीज की वॉल पर जमने लगता है। ये कंडीशन वैसल्स को और नुकसान पंहुचाती है। जैसे-जैसे यह डैमेज बढ़ता है, फैटी प्लाक बनने लगते हैं जिससे ब्लड फ्लो में रुकावट आती है।
जब यह सारा मैकेनिज्म समझ आ गया तब इसके इलाज पर काम शुरु हुआ। इसमें सफलता मिली 70s में जब स्विस डॉक्टर एन्द्रिआज़ ग्रुएन्तज़िग ने बैलून कोरोनरी एंजियोप्लास्टी इंट्रोड्यूस की। इस प्रोसेस में कैथेटर के सिरे पर एक बैलून बांधकर ब्लॉक हो चुकी आर्टरी तक पंहुचाया जाता है। इसके बाद बैलून को दो से तीन बार फुलाते हैं जिससे आर्टरी फैल जाती है और प्लाक आगे बढ़ जाता है। ग्रुएन्त्ज़िग ने पहला ऑपरेशन एक इंश्योरेंस कंपनी के कर्मचारी पर 1977 में किया जो सफल रहा। उसका नाम था एडोल्फ बाचमैन। आज यह प्रोसीजर सारी दुनिया में किया जाता है और लाखों जानें बचाई जाती हैं। एक समय था जब हार्ट और सर्कुलेटरी सिस्टम के बारे में हमें ज्यादा पता नहीं था पर पिछली सदी में ऐसे बहुत से लोग हुए जिन्होंने इसका रास्ता बनाया और इंसानियत का बहुत भला किया।
कुल मिलाकर
दिल सिर्फ प्यार और हिम्मत का सिंबॉल नहीं है। ये एक बहुत महत्वपूर्ण और कॉम्प्लेक्स बॉडी पार्ट भी है। इस पर हमारी लाइफस्टाइल, तनाव, घबराहट और दुख जैसे मनोभावों का असर होता है। आज बहुत से सॉल्यूशन्स ढूंढ लिए गए हैं जिनकी मदद से दिल की बीमारियों को दूर करके एक हेल्दी हार्ट के साथ जीना आसान हो गया है।
येबुक एप पर आप सुन रहे थे Heart by Sandeep Jauhar
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