Happiness... ❤️😇

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Happiness

Darrin M. McMahon


खुशी का इतिहास

दो लफ़्ज़ों में 
हैप्पीनेस: ए हिस्ट्री (2006) में इतिहास के ज़रिये हमें एक  सफर पर ले जाया जाता है। एंशिएंट ग्रीस से शुरू होकर, डार्क एजेस से होते हुए मॉडर्न एरा तक, ये सफर बताता है कि कैसे ख़ुशी को लेकर जो हमारी आम धारणा थी वो वक़्त के साथ साथ बदली और इवॉल्व होती चली गई। 

  किसके लिए है? 
- इतिहास के स्टूडेंट्स के लिए 
- फिलॉसोफी के स्टूडेंट्स के लिए 
- हर उस व्यक्ति के लिए जिसको ख़ुशी की कल्चरल हिस्ट्री में दिलचस्पी है 

लेखक के बारे में 
डैरिन एम. मैकमहोन एक अमेरिकी हैं जो इतिहास के प्रोफेसर हैं। वे एनीमीस ऑफ़ द एनलाइटमेन्ट: द फ्रेंच काउंटर- एनलाइटमेन्ट और द  मेकिंग ऑफ़ मॉडर्निटी एंड डिवाइन फ्यूरी: ए हिस्ट्री ऑफ़ जीनियस के लेखक हैं।  उनके काम की सराहना द न्यू यॉर्क टाइम्स, द वॉल स्ट्रीट जर्नल और द वॉशिंगटन पोस्ट में छप चुकी है।

सोक्रेटस, प्लेटो और अरिस्टोटल कभी भी ख़ुशी की परिभाषा से पूरी तरह सहमत नहीं थे।
सबसे आम इंसानी इमोशन्स काउंसे हैं? ज़ाहिर है इनमें डर, प्रेम, नफरत और ख़ुशी शामिल है। इसमें कोई शक नहीं कि ये भावनाएं ही इंसान होने के सही मतलब का केंद्र हैं।  

लेकिन हम हमेशा ख़ुशी को एक प्राकृतिक भावना या डिज़र्व्ड इमोशन की तरह नहीं देखते - या हम उसे मानवीय भी नहीं मानते।  बहुत वक़्त पहले ख़ुशी को ईश्वर द्वारा प्राप्त वस्तु के तौर पर देखा जाता था, एक ऐसी चीज़ जिसके साथ निश्चित रूप से खिलवाड़ नहीं किया जा सकता।  

इतिहास के बुद्धिजीवियों का हम पर क़र्ज़ है। उन्होंने ख़ुशी के मॉडर्न कन्सेप्शन को ढूँढा और उसे एक रहस्यमयी और अनियंत्रित चीज़ से किसी ऐसी चीज़ में तब्दील किया जिसे हम अपने खाली समय में प्राप्त कर सकते हैं।  इस समरी में आप जानेंगे कि आखिर डार्क एजेस इतने डार्क क्यों थे? मार्क्स के फॉलोवर्स ख़ुशी के बारे में क्या सोचते थे और 1776 के बाद अमेरिकियों ने सरकार पर मुकदमा क्यों चलाया?

तो चलिए शुरू करते हैं!

हम सबका ख़ुशी को लेकर एक मत है, है ना? अगर आपको ख़ुशी महसूस नहीं हो रही तो आप इस भावना को बदल सकते हैं।  आपका दिन ख़राब गुज़र रहा हो तो कुछ ऐसा करें जिससे ख़ुशी महसूस हो। भले ही फिर वो चॉकलेट खाने जैसा छोटा सा एक्ट ही क्यों ना हो।  

लेकिन लोग हमेशा ऐसा नहीं सोचते।

चलिए एथेंस पर एक उड़ती हुई नज़र डालते हैं। पांचवीं शताब्दी ईसा पूर्व में शहर के लोकतांत्रिक होने के बाद जाकर लोगों ने एक खुशहाल जीवन का सपना देखना शुरू किया, जिसे वे प्रभावित कर सकते थे।

फारसी साम्राज्य के पतन से पहले, लोगों ने सोचा था कि खुशी उनके बूते से बाहर की बात है। दरअसल उस वक़्त गरीबी, ख़राब चिकित्सा तकनीक, राजनितिक दमन  जैसे कई फैक्टर्स थे जो घनघोर दुख पैदा करते थे - जिनकी वजह से खुशियों को ईश्वर की मर्ज़ी पर छोड़ दिया गया था।  साम्राज्य की हार के बाद, एथेंस ने फलना-फूलना शुरू किया।  जैसे-जैसे लोकतंत्र आगे बढ़ा, लोगों ने एक नई स्वतंत्रता का अनुभव करना शुरू किया, और इसी अनुभव ने कुछ लोगों को प्रेरित किया कि शायद उनकी खुशियां थोड़ी बहुत उनके बस में हैं।

सोक्रेटस और उनके शिष्य प्लेटो इसी पर यकीन करते थे - कि, अपनी तर्क करने की क्षमता का इस्तेमाल  करके, लोग अपनी ज़िंदगी पर और अच्छे से काबू कर सकते हैं और अपनीखुशियों पर भी।सोक्रेटस और प्लेटो ने तर्क दिया था कि ख़ुशी सिर्फ किस्मत या देवताओं पर निर्भर नहीं करती, बल्कि लोगों पर निर्भर करती है। उनके लिए, खुशी ही अंतिम लक्ष्य था, जो केवल सांसारिक संतुष्टि से कहीं अधिक बड़ा था। ऐसे परलौकिक सुख की लालसा इंसान की स्वाभाविक प्रवृत्ति थी।दूसरी ओर, अरिस्टोटल ने चीजों को थोड़ा अलग तरीके से देखा। सोक्रेटस और प्लेटो की तरह, उनका मानना ​​​​था कि इंसान किसी बड़े और महत्वपूर्ण काम के लिए बने हैं। लेकिन उनकी सोच से अलग, अरिस्टोटल का सोचना था कि हमें दुनिया की ओर देखना चाहिए; केवल वहीं से ही हम इंसान के रूप में अपनी भूमिका और मानवीय सुख की वास्तविक भूमिका का पता लगा सकते हैं।

राफेल द्वारा बनाए गए प्रसिद्ध भित्ति चित्र - द स्कूल ऑफ एथेंस में इसे खूबसूरती से दर्शाया गया है। इसमें प्लेटो को आकाश की ओर इशारा करते हुए दिखाया गया है जबकि अरिस्टोटल अपने दाहिने हाथ की हथेली को ज़मीन की ओर किये हुए नज़र आते हैं।

जैसे ही यूरोप में नवचेतना जागी, खुशियां लोगों के लिए हासिल करने योग्य हो गईं।
यूरोपीय मध्य युग को कभी कभी डार्क एजेस भी कहा जाता है क्योंकि वे रोमन साम्राज्य के 'प्रकाश' और यूरोप में नवचेतना जागने के बीच आते हैं।  लेकिन इसे इसलिए भी डार्क कहा जाता है क्योंकि इस समय हर कोई दुखी और गुस्से में था। यूरोपियन मिडिल एजके दौरान, कई लोगों का जीवन और खुशी की परिभाषा के प्रति बहुत ही नकारात्मक नजरिया था। निराशा से भरे हुए, वे खुद को अपने ही शरीर में फंसा हुआ महसूस करते थे, जिससे उन्हें अक्सर ही तकलीफ मिलती थी।

संक्षेप में ये कहा जा सकता है कि यह यह एक बहुत ही डार्क टाइम था।। साथ ही इस दौर में, ब्लैक डेथ ने यूरोप की लगभग एक तिहाई आबादी को ख़त्म कर दिया था।

इटालियन कार्डिनल और डीकन लोटारियो देई सेगनी, जो बाद में पोप इनोसेंट तृतीय के रूप में जाने गए, द्वारा तेरहवीं शताब्दी में लिखी एक पांडुलिपि, उस समय के माहौल को अच्छी तरह से बयां करती है: "खुश हैं वे जो पैदा होने से पहले मर जाते हैं, जीवन को जानने से पहले ही मृत्यु को पा जाते हैं।"

बाद में, चौदहवीं और पंद्रहवीं शताब्दी में, जैसे-जैसे यूरोपीय नवचेतना ने गति पकड़ी, लोगों के मन से कुछ हद तक भारीपन कम हुआ और ख़ुशी हासिल करने योग्य लगने लगी। ये बदलाव धीमा था, लेकिन पंद्रहवीं शताब्दी में, लोगों ने जीवन और खुशी को दार्शनिक अंदाज़ में देखना शुरू कर दिया।उदाहरण के तौर पर, इटालियन फिलॉसफर जियोवानी पिको डेला मिरांडोला की 1486 की कृति ऑन द डिग्निटी ऑफ मैन को कुछ लोग नवचेतना की आधारशिला मानते हैं। वह लिखते हैं, इंसान की गरिमा ईश्वर आधीन है - कि इंसान जहां चाहे ब्रह्मांड में खुद को स्थापित कर सकता है और अपनी महानता या भ्रष्टता के स्तर को निर्धारित कर सकता है। उन्होंने तर्क दिया था कि जैसे-जैसे हम भगवान के करीब जाते हैं, हमारी ख़ुशी बढ़ती जाती है।  वास्तव में धर्म ही सम्पूर्ण सुख की ओर ले जाता है। हालांकि ये सम्पूर्ण सुख धरती पर नहीं पाया जा सकता, लेकिन हम दर्शन के माध्यम से और जितना बेहतर बन सकते हैं, बनकर प्राकृतिक सुख प्राप्त कर सकते हैं।  

अठारहवीं शताब्दी के अंत तक, खुशी को मानवाधिकार मानना आम हो चुका था।  

पूरे एनलाइटमेंट के दौरान लोग ख़ुशी को दिल से अपनाते रहे। और एक समय ऐसा भी था जब लोग निश्चित थे कि पाप और पुण्य को समझ जाना ही ख़ुशी प्राप्त करने का इकलौता तरीका है। चूंकि यह माना जाता था कि पापी नरक में जलते हुए अनंत काल बिताएंगे, लोगों को लगा कि पुण्य कमाना ही एक सुखी जीवन तक पहुंचने का रास्ता है। तो खुशी पाने के लिए उन्होंने क्या किया? लोगों ने ईश्वर (जिसे बाइबिल में गार्डेन ऑफ़ ईडन भी कहा जाता है) का रुख करना शुरू कर दिया। ईडन की खोज के परिणामस्वरूप बाइबिल के विद्वान बिशप पियरे डैनियल ह्यूएट का काम नज़र आया। 1961 में, उन्होंने सांसारिक स्वर्ग की स्थिति पर एक ग्रंथ लिखा, जिसमें दावा किया गया कि ईडन के अवशेष बेबीलोनिया (आधुनिक इराक) में पाए जाएंगे।

अठारहवीं सदी की शुरुआत में - जब एनलाइटमेंट का वक़्त था - लोगों का रुझान बदला और ईडन पृथ्वी से कम दिलचस्प लगने लगा।  दरअसल इसे वोल्टेयर और फिलॉसफर क्लाउड-एड्रियन हेल्वेटियस - जिन्होंने 1795 में, हैप्पीनेस नामक एक कविता की रचना की थी - ने प्रस्तावित किया था। उनके लिए पृथ्वी ही जन्नत थी - स्वर्ग का अवतार। 

जल्द ही कई लोग इस विचारधारा से सहमत होने लगे और पृथ्वी को ही स्वर्गिक सुखों के स्थान के रूप में देखने लगे। और इसको सच साबित करने के लिए काफी कुछ होने लगा, मसलन प्लेज़र गार्डन बनाए गए। आधुनिक एम्यूजमेंट पार्क से इनकी तुलना की जा सकती है। यहां पर संगीत, खेल और खाने-पीने की व्यवस्था होती थी - यानी ये पृथ्वी पर मौज-मस्ती और आनंद प्राप्त करने के स्थान थे।

और फिर धीरे धीरे, ख़ुशी मानवाधिकार के रूप में विकसित हो गई।  अब ये सिर्फ हासिल करने योग्य ही नहीं थी; बल्कि एक नेचुरल कंडीशन थी। यानी, एक खुशहाल ज़िंदगी को हमारे मकसद के हिस्से के तौर पर देखा जाने लगा - एक लक्ष्य जो प्रकृति ने हमें हासिल करने के लिए दिया था। अठारहवीं सदी के मध्य तक, ज़्यादातर लोग ख़ुशी को प्राकृतिक तौर पर मिलने वाले अधिकार के रूप में देखने लगे, और यहीं से इस आधुनिक धारणा का जन्म हुआ कि सभी को खुशी का अधिकार है।

खुशियों का युग आने के बावजूद हमारे साहित्य में "उदासीनता" जैसे निराशाजनक शब्द भी उभरने लगे और अठारहवीं सदी के अंत तक प्रचलित भी हो गए, ये हम आगे देखेंगे।

उदासी बुरी बात नहीं - आख़िरकार ये ख़ुशी का साधन भी है।
इस विश्वास के बावजूद कि खुशी स्वाभाविक है, अठारहवीं शताब्दी के अंत तक उदासी और उदासीनता उभरने लगीं। एनलाइटमेंट दौरान जो लोग पैदा हुए थे, उन्हें सिखाया गया था कि उन्हें खुश रहना चाहिए, लेकिन जैसे-जैसे अठारहवीं सदी का अंत नज़दीक आ रहा था, लोग अब एक नए, अजीब प्रकार की उदासीनता की बात करने लगे थे। ये बात गोथे की 1774 में प्रकाशित किताब - द सौरोज़ ऑफ़ यंग वेरदर में देखी जा सकती है। ये किताब उन युवाओं के बीच लोकप्रिय हुई जो अपने जीवन में बहुत असंतुष्ट थे, और गोथे के लेखन को अनुयायी मिलने लगे। यहां तक ​​कि लोगों ने वेरदर की तरह कपड़े पहनना शुरू कर दिया। वे पहने, नीले फ्रॉक कोट और वेस्ट पहने नज़र आने लगे।

बाद में, उन्नीसवीं शताब्दी में, कवि जीन पॉल ने उस समय लोगों द्वारा महसूस किए गए दुख और दर्द को व्यक्त करने के लिए वेल्ट्सचमेरज़, या "विश्व पीड़ा" की धारणा प्रस्तुत की। इस शब्द को बाद में एक अन्य रोमांटिक कवि, हेनरिक हाइन ने लोकप्रिय बनाया।

लेकिन इस दुनियाभर की उदासी और इसके लिए जितने भी नए शब्द आये, उन सभी ने - ख़ुशी की नई अवधारणा को जन्म दिया।  उदासी एक स्टार्टिंग पॉइंट बन गई, एक भाव जिसकी वजह से खुशियों की खोज में तेज़ी आई।  

उन्नीसवीं सदी के आधे बीत जाने तक, लोगों ने पीड़ा और वेदना को एक उद्देश्य पूरा करने की तरह लेना शुरू कर दिया: दोनों ही में ख़ुशी की ओर ले जाने की ताकत थी। यह ईसाई परंपरा के साथ भी अच्छी तरह से जुड़ा हुआ है कि स्वर्ग की ओर बढ़ने की उम्मीद में पाप और पीड़ा भरी ज़िंदगी में संघर्ष करना, ताकि अंत में इनाम के तौर पर परम आनंद और ख़ुशी मिले।

इस दौरान इंग्लिश पोएट सैमुअल टेलर कॉलरिज ने अपनी कविता में आनंद का ज़िक्र ये कहते हुए किया कि ये एक ऐसी चीज़ है जिसमें हम मिल जाते हैं। ख़ुशी में इस तरह समां जाना बहुत ही डिलाइटफ़ुल और दमकता हुआ एहसास है, खुद से कुछ बहुत बड़ा अनुभव करने का जरिया।

यंग अमेरिका में, लोग अपनी खुशी के लिए खुद जिम्मेदार थे।

यंग अमेरिका का सपना था - कड़ी मेहनत करने और अपने लिए एक शानदार ज़िंदगी बनाने की आज़ादी। इस सपने ने अनगिनत लोगों को पृथ्वी पर मौजूद अवसरों के भंडार में उनके लिए क्या छिपा है, उसकी तलाश में निकलने के लिए प्रेरित किया। लेकिन असल में, ये अमेरिकन ड्रीम सभी के लिए खुशी की गारंटी नहीं देता।

1776 में स्वतंत्रता की घोषणा के बाद, सैकड़ों असंतुष्ट लोगों ने अमेरिकी सरकार के खिलाफ या अन्य नागरिकों के खिलाफ मुकदमा दायर किया। थॉमस जेफरसन द्वारा तैयार किये गए, अमेरिकी स्वतंत्रता की घोषणा में कहा गया है कि, यह बहुत ही साफ़ बात है कि हर किसी के पास कुछ ऐसे अधिकार हैं जो उनसे छीने नहीं जा सकते, जिसमें खुशी की खोज का अधिकार भी शामिल है।

"ख़ुशी की खोज" का एग्ज़ैक्ट मतलब क्या है, इसके कई सारे इंटरप्रिटेशन देने के अलावा, इस घोषणा में ये भी कहा गया था कि लोगों के हिसाब से जो उनकी "खुशहाल ज़िंदगी" है, उसे पाने के लिए वे मुकदमा भी कर सकते हैं।  यही वजह रही कि सैकड़ों असंतुष्ट लोगों ने सरकार पर मुकदमा दायर किया, क्योंकि उन्हें लगा कि उनकी खुशी पर कानून का पहरा है।

हालांकि बाद में चलकर सबने यही माना की हर कोई अपनी ख़ुशी हासिल करने के सफर में अकेला है।मुकदमों के जवाब में, बेंजामिन फ्रैंकलिन ने तर्क दिया कि खुशी एक अधिकार है, लेकिन इसे बस यूं ही सबको नहीं सौंपा जा सकता। इसकी जगह उन्होंने लोगों को हिदायत दी कि वे इसे खुद हासिल करें। 

फ्रेंकलिन का मानना ​​​​था कि हर कोई अपनी खुशी को महसूस करने के लिए खुद जिम्मेदार था, और वह सबके लिए अलग अलग हो सकती थी। किसी के लिए दौलत, तो किसी के लिए मज़बूत पारिवारिक बंधन या कुछ और जिसे हासिल करने की वो कोशिश कर सकते हैं।  फ्रैंकलिन ने अपनी बात को और साफ़ करने के लिए वाइन का उदहारण दिया। उन्होंने कहा, भगवान ने हमें खुद से खुशी पैदा करने का मौका दिया है। मान लो मुझे वाइन से ख़ुशी मिलती है तो मैं खुद इसे बना सकता हूँ।  

इस तरह की धारणा को अपनाने वाले फ्रैंकलिन अकेले नहीं थे। आखिरी लेसन में हम देखेंगे उनकी इस राय से और कौन सहमत थे और एक प्रमुख गुट के बारे में जानेंगे जो इस बात से इत्तेफ़ाक़ नहीं रखते थे।

कम्युनिस्टों का मानना था कि सेंस ऑफ कम्युनिटी को दोबारा जगाकरही ख़ुशी हासिल की जा सकती है।
बेंजामिन फ्रेंक्लिन की ये बदकिस्मती थी कि हर कोई यह नहीं मानता था कि खुशी की खोज एक व्यक्तिगत प्रयास होना चाहिए।

हालांकि फ्रैंकलिन का लिबरल सेंटीमेंट अन्य कई लोगों के साथ साथ अर्थशास्त्री एडम स्मिथ ने साझा किया था जो काफी चर्चा में रहा, लेकिन लोगों ने इंडिविजुऐलिटी के प्रभावशाली कांसेप्ट पर सवाल उठाना शुरू कर दिया, जो कैपिटलिस्ट समाजों की आधारशिला है।

उदाहरण के तौर पर, कार्ल मार्क्स के प्रशंसक फ्रेडरिक एंगेल्स ने तर्क दिया कि इस "क्रूर इंडिविजुऐलिटी" की वजह से इंसान ने अपनी आत्मा और मन को खो दिया है जो उनकी मानवीय चेतना है।  उन्होंने तर्क दिया कि खुशी सिर्फ उन्हें ही मिलेगी जो मानवता को इस खोई हुई चेतना को वापस पाने में मदद कर करेंगे।

कम्युनिस्टों के लिए, खुशी का रास्ता अतीत से निकलता है। वे मानते हैं अपनी जड़ों की ओर लौटकर ही मानवीय चेतना को दोबारा पाया जा सकता है। द ग्रेट सोवियत इनसाइक्लोपीडिया के अनुसार, पूरे इतिहास में, खुशी को एक जन्मजात मानव अधिकार के रूप में देखा जाता था। हालांकि, क्लास बेस्ड सोसाइटीज में, रूलिंग क्लास की खुशी पाने की इच्छा हमेशा ओप्प्रेस्सड क्लास या उत्पीड़ित वर्ग के अपनी खुशी के लिए संघर्ष पर बहुत बेरहमी हावी हो जाती है।

कम्युनिस्टों का मानना था कि खुशी को प्रमुखता से चाहना और अपने निजी हितों के लिए अहं के साथ उसे खोजना, मानव चेतना को दबा देती है। इसकी वजह से लोगों को दूसरों से कोई लगाव नहीं रह जाता और न ही उनकी नैतिकता में कोई दिलचस्पी रह जाती है। इसलिए, अगर इंसान को अपनी खोई हुई खुशी फिर से हासिल करनी हो, तो समाज को एक ऐसी कम्युनिटी में लौटना होगा जहां कोई वर्ग यानि क्लास न हो।  

आप ख़ुशी पाने के लिए कोई भी नजरिया अपना सकते हैं, आखिर खुशी की लंबी और थॉट प्रोवोकिंग हिस्ट्री में अनगिनत फैसिनेटिंग पर्सपेक्टिव पाए जाते हैं।

कुल मिलाकर
पूरे इतिहास में, हमने खुशी के कॉन्सेप्ट और खोज पर बहुत अलग-अलग विचार देखे और उन्हें समझा। एंशिएंट ग्रीक फिलॉसोफर्स से लेकर बेंजामिन फ्रैंकलिन और फिर कम्युनिज्म तक, खुशी के बारे में हमारी सोच अप्रत्याशित और आकर्षक तरीके से इवॉल्व हुई है।

 

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