The American War in AfghanistanCarter Malkasian

0
The American War in Afghanistan

Carter Malkasian
Pichhale 20 Saalon Me Kya Hua?

दो लफ्जों में
लड़ाइयां, युद्ध और विवादों का इतिहास सदियों पुराना है। अगर इक्कीसवीं सदी की बात करें तो शायद सबकी जबान पर अफगानिस्तान में हुई लड़ाई सबसे पहले आएगी। साल 2021 में आई ये किताब लगभग दो दशक तक चले इस संघर्ष की जानकारी गहराई से आपके सामने रखती है।

  ये किताब किनको पढ़नी चाहिए?
• जो लोग करेंट अफेयर्स में रुचि रखते हैं
• आम लोग जो मिलिट्री ऑपरेशन्स को समझना चाहते हैं
• युद्ध की नीति में रुचि रखने वाले लोग 

लेखक के बारे में
कार्टर मलकासियन ने साल 2015 से 2019 तक ज्वाइंट चीफ्स ऑफ स्टाफ के लिए स्ट्रेटेजी असिस्टेंट के तौर पर काम किया है। इससे पहले उन्होंने वॉर कम्स टू गार्सर और इल्यूजन ऑफ विक्ट्री जैसी किताबें लिखी हैं।

  अफगानिस्तान की घटना, युद्ध के इतिहास का नया पर काला अध्याय है।
अगस्त 2021 के आखिर में C-17 नाम के हवाई जहाज काबुल से यूएस के लिए वापसी की उड़ान भरते हैं। इनमें यूएस के सैकड़ों सैनिक, अफसर, सेवादल और उनके परिवार साथ हैं। ये दिन यूएस के सबसे लंबे चले सैनिक संघर्ष का आखिरी दिन है। लेकिन यूएस आर्मी यहां तक पहुंची कैसे? ये किताब अमेरिका के 20 साल तक चले हमले और अफगानिस्तान पर कब्जे की पूरी कहानी बताती है। इसकी शुरुआत 9/11 से होती है जो बुश और ओबामा की प्रेसीडेंसी के दौरान आगे बढ़ती है और बिना किसी ठोस नतीजे के एकदम खत्म हो जाती है। इसके रास्ते में ढेरों कल्चरल, स्ट्रेटेजिक और पॉलिटिकल मोड़ आते हैं जिनसे इसकी दिशा तय होती जाती है। 

 

इस किताब को पढ़कर आप जानेंगे

• वो कौन सी बात है जो कंधार को इतना खास बनाती है

• सूफी लोग तालिबान से क्यों लड़े

• कैसे विद्रोही लड़ाकों ने एक ताकतवर देश को चौपट कर दिया 

 

तो चलिए शुरू करते हैं! 

ये बीस सालों की दास्तान खुद में समेटे हुए है। विदेश की जमीन पर सैनिकों की चहलकदमी के लिहाज से देखें तो ये समय और भी लंबा हो जाता है। 2001 से  2021 तक यूएस की सेना ने अफगानिस्तान में अपने कदम जमाए रखे। इस लंबे कब्जे के दौरान यूएस में चार राष्ट्रपति बदले, 15 जनरल बदले और लाखों अमेरिकी सैनिकों ने अपना खून बहा दिया। इतना ही नहीं इसने अफगानिस्तान में पहले से ही चल रहे गृहयुद्ध को बढ़ावा दिया। हिंसा और विनाश के इस तांडव ने लाखों अफगानियों के जीवन को तहस नहस कर दिया। आज पीछे मुड़कर देखें तो ये साफ दिखता है कि इस युद्ध ने ग्लोबल पॉलिटिक्स, अमेरिका की सैनिक नीति और अफगानी समाज को एक नया रूप दिया। हालांकि इन सबके बाद भी ये अपने पीछे एक उलझी हुई,  असफलता और निराशा से भरी विरासत छोड़ गई। 

अफगानिस्तान जैसे विविधताओं से भरे देश को कम शब्दों में समझा पाना मुश्किल है। यूरोप, एशिया और मिडिल ईस्ट के बीच होने की वजह से इसकी लोकेशन बहुत खास बन जाती है। इसके नजारे अद्भुत हैं जिनमें पहाड़ों और सूखे उजाड़ रेगिस्तानों का मेल है। इसकी आबादी लगभग 33 मिलियन है। पूर्व में हलचल भरा शहर हेरात और पश्चिम में राजधानी काबुल है। लेकिन ज्यादातर आबादी गांवों में बसती है। अफगानिस्तान के लोग एथनिक और कल्चरल तौर पर बहुत अलग-अलग हैं। पूर्व और दक्षिण में बसे पश्तून कुल आबादी का लगभग 40 प्रतिशत हिस्सा हैं। इनका हमेशा अफगानिस्तान में दबदबा रहा है। उत्तर और पश्चिम में बसा ताजिक समाज अफगानिस्तान की आबादी का दूसरा सबसे बड़ा समूह है। इसके साथ हजारा, उज्बेक और नूरिस्तानियों की भी बड़ी जनसंख्या है। 

इस देश का एक बड़ा और गहरा इतिहास है। माना जाता है कि इसकी बुनियाद 1747 में रखी गई। इसके बाद से अफगानिस्तान ने लगातार विदेशी हमले देखे पर उनको नाकामयाब करता रहा। 1839 से 1919 तक अंग्रेजों ने इसे अपने कब्जे में लेने की तीन बार कोशिश की पर हमेशा नाकामयाब हुए। इसके बाद कई दशकों तक सब ठीक रहा। लेकिन सोवियत संघ ने 1978 में इसे घेर लिया। बहुत तगड़ी लड़ाई हुई जो लगभग एक दशक तक चलती रही। इसके बाद भी सोवियत संघ को कामयाबी हाथ नहीं लगी और उसे अपना कदम वापस लेना पड़ा। इसके बाद ये देश अंदरूनी लड़ाइयों का शिकार हो गया। विरोधी गुट आपस में लड़ते रहते और अशांति फैली रहती। किसी एक ताकत का पूरा कब्जा नहीं रहा। इस खालीपन ने एक नई राजनीतिक ताकत तालिबान को अपने पैर जमाने का मौका दे दिया। साल 1994 में इस्लामी कट्टरपंथियों के इस उग्रवादी समूह ने सख्त सामाजिक और आर्थिक सुधारों को लागू करते हुए धीरे-धीरे इस इलाके को शांत किया। इसकी अगुवाई कर रहे थे मुल्ला मोहम्मद उमर। भले ही तालिबान ने अफगानिस्तान में एकजुट शासन की राह बनाई पर इसकी बुनियाद में इस्लामी कानून की मनमाफिक और सख्त समझ का सहारा लिया जिसमें महिलाओं के अधिकारों पर परदा डाल दिया गया और धार्मिक उग्रवाद को पनपने का मौका मिला।

अफगानिस्तान पर अमेरिकी हमला शुरुआत में तो सफल हुआ पर धीरे-धीरे असफल होता गया।
11 सितंबर 2001 को आतंकवादियों ने यात्री विमानों का अपहरण किया, उनको वर्ल्ड ट्रेड सेंटर और पेंटागन में उड़ा लाए और धमाका कर दिया। 7 अक्टूबर को यूएस की सेना ने अफगानिस्तान में हवाई हमले शुरू किए। इन दोनों घटनाओं के बीच के हफ्ते बहुत मायने रखते थे। अमेरिकी खुफिया एजेंसियों ने हमले के पीछे छिपे अल-कायदा की तुरंत पहचान कर ली। इस उग्रवादी इस्लामी समूह का नेता ओसामा बिन लादेन था और इसका हेड ऑफिस अफगानिस्तान में था। पाकिस्तानी सेना को मीडिएटर बनाते हुए बुश सरकार ने मांग रखी कि तालिबान, बिन लादेन और अल-कायदा के सभी लोगों को यूएस को सौंप दे। लेकिन तालिबान डांवाडोल हो गया। मुल्ला उमर ने बिन लादेन को किसी तीसरे देश को सौंपने की बात की। इस तरह इस बातचीत का कोई नतीजा नहीं निकल पाया और अमेरिकी सेना हमले के लिए तैयार हो गई। 

ऐसा समझा जाता है कि इस बातचीत का कोई फायदा था ही नहीं। भले ही तालिबान ने अल-कायदा को यूएस पर हमले के आदेश नहीं दिए थे फिर भी ओसामा बिन लादेन, तालिबान के कट्टरपंथी विंग में लोकप्रिय था। इसके अलावा बुश की सरकार नरम रवैया अपनाकर लोगों की नजरों में खुद को कमजोर साबित नहीं करना चाहती थी। इस वजह से उनको हर हाल में कड़ी कार्यवाही करनी ही थी। उस समय हुए सर्वे से ये नतीजे सामने आए कि 67 परसेंट अमेरिकी हमले के सपोर्ट में हैं और इसलिए अमेरिका ने ऑपरेशन Enduring Freedom शुरू किया। इसका मकसद अल-कायदा को भंग करना और हवाई और जमीनी हमलों के माध्यम से तालिबान को उखाड़ फेंकना था। ऐसा करने के लिए CIA और यूएस स्पेशल फोर्स ने अफगानिस्तान में ही तालिबान की विरोधी सैनिक ताकत नॉर्दर्न एलायंस के साथ हाथ मिला लिया। 

यूएस की इतनी बड़ी फौज के सामने तालिबान कुछ नहीं कर पाया। कुछ ही हफ्तों में उत्तरी राज्य हथिया लिए गए और 13 नवंबर तक तालिबान को काबुल से बाहर कर दिया गया। तालिबान ने दक्षिण की तरफ रुख किया पर पश्तून नेता हामिद करजई की सेना ने उन्हें हरा दिया। हामिद करजई को अमेरिका का सपोर्ट था। यूएस ने करजई को अफगानिस्तान के अंतरिम राष्ट्रपति के तौर पर ये सोचते हुए बिठाया कि वो अफगानिस्तान के सभी विरोधी गुटों को अच्छी तरह एकजुट कर सकते हैं। करजई और बुश सरकारों ने साथ काम करते हुए अफगानी समाज को ज्यादा स्टेबल और डेमोक्रेटिक बनाने की कोशिश की। हालांकि इस बात पर जोर रहा कि अफगानिस्तान की पॉलिसी अमेरिका के फायदे में हो। इस वक्त अफगानिस्तान की हालत कमजोर थी तो बुश को यकीन था कि वो लगभग 5,000 सैनिकों की एक छोटी सी टुकड़ी से जीत सकते हैं। आने वाले सालों में ये सोच पूरी तरह गलत साबित हुई।

तालिबान के जवाबी हमले ने उसके लिए लोगों का सपोर्ट दुबारा बनाने का रास्ता साफ किया।
साल 2002 से 2005 शांति थी। हालांकि ये शब्द छलावा ज्यादा लगता है। अमेरिका के सपोर्ट से करजई सरकार ने अलग-अलग जातियों में होने वाले तनावों को कम करके और राज्यपालों को बड़े पैमाने पर उनके राज्यों को चलाने के अधिकार देकर देश को पटरी पर लाने की कोशिश की। फिर भी तनाव बढ़ गया। काबुल के बाहर तालिबान ने लोगों का सपोर्ट बरकरार रखा। वे लड़ाकों को ट्रेनिंग देते रहे और उनको पाकिस्तान से पैसे मिलते रहे। इस दौरान अमेरिकी सेना लोगों के बीच सपोर्ट खो रही थी क्योंकि उसके हमलों की वजह से बेगुनाह नागरिक मारे जा रहे थे। उदाहरण के लिए साल 2002 में अमेरिकी सेना ने एक शादी में बमबारी की जिसमें 54 लोग मारे गए। आखिर अंतरिम सरकार ने कंधार और हेलमंद के दक्षिणी हिस्सों में कंट्रोल खोना शुरू कर दिया। 

एक तरफ तालिबान के डिप्टी मुल्ला दादुल्ला एक विद्रोही संगठन खड़ा कर रहे थे जबकि दूसरी तरफ करजई की सेना, सरकार में चल रही अंदरूनी कलह से कमजोर महसूस करते हुए बड़ी संख्या में पीछे हट रही थी। साल 2006 में मुल्ला दादुल्ला ने करजई सरकार के खिलाफ आक्रमण शुरू किया। इसकी शुरुआत फरवरी में हेलमंद के उत्तरी हिस्सों में झड़पों के साथ शुरू हुई जो बढ़ते हुए कंधार में बड़ी लड़ाई में बदल गई। दादुल्ला सिर्फ 7,000 सैनिकों की कमान संभाले था लेकिन अंतरिम सरकार ने और भी कम बस 5,000 सैनिकों और पुलिस को तैनात किया उनमें से भी ज्यादातर शहरों में ही थे। 

दादुल्ला का अभियान तालिबान के लिए एक बड़ी सफलता थी। इसमें कुछ हाथ सरकार की खराब योजना का भी था। उस इलाके में अमेरिकी कमांडरों को खतरे के बारे में पता था पर बुश सरकार ने उनकी चेतावनियों को नजरअंदाज कर दिया। अफगानी लड़ाकों को घेरने की जगह उसने इराक में शुरू हुई नई लड़ाई पर ध्यान देना शुरू कर दिया। साल के आखिर तक तालिबान ने कंधार और हेलमंद के बड़े इलाकों को कब्जे में ले लिया। इस सफलता ने तालिबान को एक राजनीतिक ताकत के रूप में दुबारा जन्म तो दिया ही साथ ही साथ अफीम के अवैध कारोबार पर भी कब्जा दे दिया जो कि अफगानिस्तान की इकॉनमी में एक बड़ा हिस्सा रखता था। तालिबान के कब्जे में आए इन इलाकों में हर तरह से देश के बाकी हिस्सों से ज्यादा शांति थी। इस बात ने तालिबान को आने वाले सालों में अपनी ताकत बढ़ाने के मौके दिए। साल 2006 में तालिबान ने अमेरिका और सरकारी सेनाओं पर लगभग 5,000 हमलों को अंजाम दिया। 2009 तक इसने 11,000 से ज्यादा हमले कर दिए थे। इन सब इलाकों पर शासन करके तालिबान ने खुद को एक राजनीतिक ताकत के रूप में साबित कर दिया। ये लोग इन्फ्रास्ट्रक्चर बना सकते थे, दो गुटों के विवाद सुलझा सकते थे और यहां तक ​​कि अपने अधिकारियों और मिलिशिया को सैलरी भी दे सकते थे। समय बीतने के साथ तालिबान, नागरिकों की जरूरतों को पूरा करने में सरकार से ज्यादा असरदार साबित होने लगा।

पूर्वी मोर्चे पर खींची गई लड़ाई ने अमेरिकी सेना को और पीछे ढकेल दिया।
2006 के बाद के सालों में अफगानिस्तान उथल-पुथल से भरा था। तालिबान पूरे इलाकों में लगातार घुसपैठ करता रहा जबकि अमेरिकी, अफगान और नई आई NATO की सेनाएं रिसोर्सेज की कमी से जूझती हुई पीछे हटती रहीं। फिर भी इन बुरे हालातों के बावजूद दक्षिणी कमान अपनी पकड़ बनाए हुए थी। लड़ाई आर पार की थी और दोनों तरफ के मकसद साफ थे। जबकि पूर्वी हिस्सा पूरी तरह अस्त-व्यस्त था। यहां अमेरिकी और अफगानी सैनिकों को एक मुश्किल पहाड़ी इलाके में लड़ाई लड़नी थी। इतना ही नहीं तालिबान के साथ-साथ और भी दुश्मनों का सामना करना था। जहां सरकारी सेनाओं ने दक्षिण में अपना कब्जा खो दिया वहीं वे पूर्व में दलदली इलाकों में फंसकर भटक गए। लड़ाई दोनों मोर्चों पर नाकामयाब हो रही थी। 

पूर्वी मोर्चे के वातावरण और सामाजिक तानेबाने ने मुश्किलें बढ़ा दी थीं। पाकिस्तानी सीमा से लगे इलाके जैसे कुनार और नूरिस्तान खड़ी, पथरीली चट्टानों और घने जंगलों से घिरे हैं। इस इलाके में अलग-अलग जातियों का समूह भी था जो अपने-अपने हिस्से पर राज करते थे और खास तौर से काबुल में बहुसंख्यक पश्तो समुदाय के विरोधी थे। इस इलाके में अमेरिकी सेना ने ऑपरेशन माउंटेन लायन के नाम से मोर्चा संभाला। इस अभियान में अमेरिकी बलों और अफगानी सैनिकों ने तालिबान के साथ-साथ पाकिस्तानी तालिबान के दल, अल-कायदा के लड़ाकों और हिज्ब इस्लामी जैसे दूसरे आतंकवादी समूहों से भी लड़ाई लड़ी। मुकाबला भयंकर था। गठबंधन की सेनाओं को अक्सर पहाड़ी और घाटियों के इलाके में लड़ना पड़ता था और कवर देने या चीजों की सप्लाई के लिए हवाई रास्ते के भरोसे नहीं बैठे रह सकते थे। 

13 जुलाई  2008 को एक बड़ी लड़ाई हुई। यहां 200 नूरिस्तानी लड़ाकों के दल ने वानात की पहाड़ी चौकी के बाहर सरकारी बलों पर घात लगाकर हमला किया। ये हमला घंटों तक चला जब तक हवाई सेना ने हमलावरों को वापस पहाड़ों में खदेड़ नहीं दिया। इस घटना में 30 से ज्यादा सैनिक मारे गए या घायल हो गए। आखिर में अमेरिकी सेना ने पूरे इलाके को छोड़ने का फैसला किया। इधर NATO भी दक्षिणी हिस्से को सही तरह संभाल नहीं पा रहा था। इन झटकों ने गठबंधन सेनाओं को हिलाकर रख दिया। अमेरिका ने इसका जवाब देने के लिए ज्यादा से ज्यादा सैनिकों को लड़ाई में शामिल कर लिया। 2008 तक अफगानिस्तान में सैनिकों की संख्या 20,000 से बढ़कर 32,000 से भी ज्यादा हो गई थी। फिर भी इन सबका कोई नतीजा नहीं निकल रहा था। 10 सितंबर 2008 को जॉइंट चीफ ऑफ स्टाफ के हेड माइक मुलेन ने अमेरिकी कांग्रेस को अपना नजरिया बताते हुए कहा "मुझे लगता नहीं है कि हम जीत रहे हैं।"

सर्ज ने लड़ाई का रुख मोड़ तो दिया पर ये बदलाव ज्यादा दिन नहीं चला।
जनवरी 2009 को बराक ओबामा नए राष्ट्रपति बनते हैं। उनको ये लड़ाई विरासत में मिली है। वे कमांडर इन चीफ भी हैं। अब आगे का रास्ता उनको तय करना है।  सर्ज नाम का एक प्लान बनाया गया है। इसके तहत अफगानिस्तान में और 20,000 सैनिकों को शामिल करना होगा। सेना के बड़े अधिकारियों जैसे जनरल डेविड मैककिर्नन का मानना है कि सेना बढ़ाने और इराक की लड़ाई में नई तकनीकों के इस्तेमाल से युद्ध का रुख बदल सकता है। ओबामा हमेशा की तरह शालीनता दिखाते हुए थोड़े लचीले तरीकों को अपनाने पर विचार करते हैं। आखिरकार 16 फरवरी को राष्ट्रपति फैसला लेते हैं। सर्ज आगे बढ़ेगा और 17,000 सैनिकों को तैनात किया जाएगा। बाद के महीनों में ये गिनती बढ़ती जाती है। अपने प्रशासन की शुरुआत में राष्ट्रपति ओबामा ने अफगानिस्तान में चल रही लड़ाई को गहराई से रिव्यू करने का आदेश दिया। इसके नतीजे निराश करने वाले थे। इस वजह से ओबामा सरकार ने रणनीति बदलने का फैसला किया। ये तय हुआ कि धीरे-धीरे अमेरिकी सेना बढ़ाई जाएगी और तालिबान को पूरी तरह से हराने की कोशिश करने की जगह उनको बिखेरकर उनकी बढ़त को कम किया जाएगा। 

इसका लक्ष्य था कि अफगानिस्तान को इतना शांत रखा जाए जिससे दो साल के अंदर अफगानी सरकार देश पर अपना पूरा कंट्रोल ले सके। सर्ज की शुरुआती देखरेख एक अनुभवी कमांडर जनरल स्टेनली मैकक्रिस्टल ने की जो पहले इराक में काम कर चुके थे। अभियान की शुरुआत में नेवी के 12,000 सैनिक दक्षिणी हिस्से हेलमंद में आए। इन सैनिकों को आतंकवाद के खिलाफ अभियानों के लिए अफगानी सेना और पुलिस के साथ जोड़ा गया। 2011 तक ये कोशिश काफी हद तक सफल हो गई थी। तालिबान इस जगह से अपना दबदबा खो रहा था। इस बीच सर्ज की मदद से कंधार में ऑपरेशन हमकारी को लागू किया गया। इसका मकसद था कंधार शहर के आसपास के इलाके को धीरे-धीरे सुरक्षित करना जहां ज्यादातर आबादी बसी थी। प्लान था कि सैनिक पहले वहां से विरोधियों को खदेड़ेंगे फिर अपना कब्जा जमाएंगे और उसके बाद वहां निगरानी के लिए चौकियां बनाएंगे। 2012 आते तक ये इलाका पिछले कई सालों की तुलना में ज्यादा सुरक्षित हो गया था। अब सवाल उठता है कि क्या सर्ज सफल रहा? 

इसका जवाब बहुत सी बातों पर निर्भर करता है। बदले हुए प्लान ने उतने समय के लिए तो तालिबान को रोक दिया जब तक ये ऑपरेशन जारी रहा। लेकिन इसकी बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। हजारों अमेरिकी और अफगानी सैनिक मारे गए और घायल हो गए। इसमें हर साल लगभग 110 बिलियन डॉलर खर्च हुए। 2012 के आखिर तक अमेरिका, तालिबान के साथ शांति वार्ता करने  के लिए तैयार हो चुका था। जबकि तालिबान सिर्फ कुछ समय इंतजार करने के मूड में था।

अफगानिस्तान की अंदरूनी लड़ाइयों ने तालिबान की ताकत को कमजोर कर दिया था पर फिर भी किसी एक सरकार को लेकर आम सहमति नहीं बन पाई।
अप्रैल 2012 की बात है। तालिबानी लड़ाकों का एक कैडर काबुल के गजनी नाम के इलाके में फंस चुका था। भयानक लड़ाई जारी थी। पीछे हटने से पहले वे घंटों तक हथियार चलाते रहे। हैरानी की बात ये थी कि इनको अमेरिकी या अफगानी सैनिकों ने नहीं खदेड़ा था। इनको किसी और "अंदर" नाम के मिलिशिया ग्रुप ने रौंद दिया था। बड़ी बात ये थी कि ये कोई इकलौती घटना नहीं थी और वो भी तब जबकि तालिबान को उनके कंट्रोल किए जा रहे हिस्सों में बड़ा सपोर्ट मिल रहा था। लेकिन उनकी कठोर नीतियों ने लोगों में नाराजगी जगा दी थी। 2012 आने तक ये नाराजगी ऐसे विद्रोह में बदलने लगी जहां विरोधियों ने तालिबान का सामना करने के लिए हथियार उठा लिए। गजनी के अंदर शहर में रहने वाले लोग इस्लाम के सूफीज्म नाम के रास्ते पर चलते हैं। इस धार्मिक परंपरा की जड़ें गहरी हैं और इसमें ज्ञान, कला और संगीत पर खास जोर दिया गया है।

जाहिर है कि सूफी चाल-चलन अक्सर तालिबान के कठोर इस्लामी कानून के खिलाफ होता था। इसलिए जब तालिबान ने अंदर जैसे सूफी समाज पर रोक लगाने की कोशिश की तो लोग विरोध में लड़ पड़े। सबसे पहले ये लड़ाई बिखरी हुई थी। लेकिन धीरे-धीरे सब इकट्ठे हुए और ये लड़ाई एक बड़े आंदोलन में बदल गई। 2012 के आखिर तक काबुल में सरकार ने इन पर ध्यान दिया और उन्हें हथियार और बैकअप सैनिक भेजकर इस आंदोलन को बढ़ाने की बात सोची। अंदर लोगों को इस गठबंधन पर यकीन नहीं था पर आखिरकार उन्होंने ये मदद ले ली। अगले कुछ सालों के लिए इस विद्रोही आंदोलन ने अफगानिस्तान के कई इलाकों में तालिबान को बुरी तरह से चोट पहुंचाई। 

2014 तक करजई सरकार अब तक की सबसे मजबूत सरकार बन चुकी थी। उसने 20 से ज्यादा राज्यों पर शासन जमा लिया था और तीन लाख से ज्यादा मजबूत सैनिक और पुलिस बल की कमान संभाली थी। लेकिन समस्याएं फिर भी बनी रहीं। सरकार अभी भी बुनियादी सेवाओं को सही तरह लागू नहीं कर पा रही थी। बड़े अधिकारी अपने पदों का इस्तेमाल अपने फायदों के लिए करते थे। वे छोटी मोटी लड़ाइयां भी शुरू करवा देते थे। उस समय किए गए सर्वे से पता चला कि इनमें सिर्फ 10 परसेंट लोग ही सरकार की तरफ अपनी जिम्मेदारी समझकर ईमानदारी से काम कर रहे थे। 2014 के चुनाव ने इन परेशानियों को और बढ़ा दिया। करजई के शासन का समय खत्म हो चुका था इसलिए उनको दुबारा नहीं चुना जा सका। दस उम्मीदवारों में से कोई भी सबसे आगे नहीं चल रहा था। तालिबान के हमलों, कम मतदान और बड़े पैमाने पर हुई धोखाधड़ी से चुनाव पर बुरा असर पड़ा। दो दौर के मतदान के बाद भी किसी को साफ बढ़त नहीं मिली। यूएस के अधिकारियों को दो विरोधी लोगों के बीच सत्ता सौंपनी पड़ी। ये थे अब्दुल्ला अब्दुल्ला और अशरफ गनी। नई सरकार को सपोर्ट पिछली सरकार से भी कम था।

कमजोर सपोर्ट ने पहले से ही डगमगाते अफगानिस्तान को बर्बाद कर दिया।
2015 आते ही अफगानिस्तान फिर से एक नए मोड़ पर था। दुख की बात ये है कि ये मोड़ बर्बादी की तरफ जाता था। एक तो नई सरकार एकजुट नहीं थी। अशरफ गनी ने राष्ट्रपति के रूप में काम संभाला जबकि अब्दुल्ला अब्दुल्ला ने उनके सीईओ के तौर पर। इन दोनों ने अपना सिक्का जमाने के लिए संघर्ष किया और कैबिनेट बनाने से लेकर आर्थिक सुधारों तक सब कुछ गर्मागर्मी में हुआ। आपसी मतभेद ने तरक्की को रोके रखा। इस बीच ओबामा सरकार ने अमेरिकी सेना और पैसों की मदद धीरे-धीरे घटाना जारी रखा। पहले से ही कमजोर इकॉनमी का दम घुटने लगा। तालिबानी ताकत बनी रही। उसने हमले जारी रखे और देश को स्टेबल रहने नहीं दिया। इन सबका कोई अंत नजर नहीं आता था। 

ओबामा सरकार के आखिरी सालों के दौरान अमेरिका में भी मतभेद शुरू हो चुके थे। सेना के बड़े अधिकारियों को पता था कि तालिबान को हराना लगभग नामुमकिन था फिर भी व्हाइट हाउस अपना कब्जा पूरी तरह छोड़ने को राजी नहीं था। अधिकारियों को चिंता थी कि पूरी तरह से वापसी से दुनिया में ये संदेश फैलेगा कि अमेरिकी सरकार आतंकवाद के मुद्दे पर कमजोर पड़ गई है। हाल में उभरते इस्लामिक स्टेट को देखते हुए ये फैसला बहुत मायने रखता था। ये नया आतंकवादी नेटवर्क बहुत आक्रामक था और सुर्खियों में रहने लगा था। इसलिए ओबामा सरकार ने अफगानिस्तान में लगभग दस हजार सैनिकों को बनाए रखा। इसकी खास वजह थी कि नई सरकार को ढहने से बचाया जा सके। पहले अमेरिकी सेना ज्यादा एक्टिव थी। अमेरिकी बलों ने अफगानी सेना के साथ मिलकर ऑपरेशनों को अंजाम दिया और जब भी जरूरत पड़ी बड़े पैमाने पर हवाई तरीकों से भी मदद की। जबकि अब सैनिक ज्यादातर अपने बेस पर ही रहते। सेना से कहा गया था कि वो सिर्फ आतंकियों पर ही हवाई हमले करे और वो भी तब जबकि बहुत जरूरी हो। इस ढुलमुल सपोर्ट ने हमलों को रोकने के लिए अफगानी सेना की ताकत को बहुत कमजोर कर दिया। 

साल 2015 की गर्मियों में तालिबान ने एक बार फिर बड़े पैमाने हमला किया। इस बार पार्टी के नए नेता अख्तर मंसूर इसको लीड कर रहे थे। इस अभियान ने कई बड़े शहरों और राजधानियों को टार्गेट किया। यहां तक ​​कि तालिबान, देश के उत्तरी छोर पर बसे महानगर कुंदुज को पूरी तरह से बर्बाद करने और उस पर कब्जा जमाने में कामयाब रहा। बहुत से मामलों में जीत अफगानी सेना के कमजोर मनोबल की वजह से आसान हो गई थी। कई अफगान सैनिकों के लिए सेना की नौकरी सिर्फ तनख्वाह का जरिया थी। हमले के बाद से सरकार उनकी जिंदगी में कोई सुधार नहीं कर पाई थी इसलिए वो भी सरकार का बचाव करने के लिए अपनी जिंदगी को दांव पर लगाने की चाहत नहीं रखते थे। इसलिए जब तालिबान के हमले बढ़े तो कई सैनिकों ने तो नौकरी ही छोड़ दी। अकेले कुंदुज में ही हजार से ज्यादा सैनिकों ने सेना छोड़ दी। 

 

डोनाल्ड ट्रंप के आने पर यूएस, अफगानिस्तान से वापसी पर राजी हो गया।
डोनाल्ड ट्रंप कभी भी अपनी शालीनता के लिए नहीं जाने जाते थे। 2016 में राष्ट्रपति चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने हमेशा शेखी बघारने, गुस्सैल बर्ताव और ऊटपटांग बातों के लिए सुर्खियां बटोरीं। राष्ट्रपति बनने पर भी कोई खास बदलाव नहीं आया। अब उनकी सनक लड़ाई की तरफ बढ़ गई। पद संभालने के बाद ट्रम्प ने रक्षा सचिव जेम्स मैटिस और उन जनरलों के साथ कई बैठकें कीं जो उस वक्त अफगानिस्तान का मामला देख रहे थे। इन बैठकों में तनाव अपने हायर लेवल पर बना रहता। नए राष्ट्रपति ने युद्ध के हालात को लेकर हंगामा खड़ा कर दिया। वो इस बात पर बुरी तरह झल्लाहट और गुस्से में थे कि अमेरिका, अफगानिस्तान में अपनी पकड़ खो रहा था और इससे ट्रंप की इमेज खराब हो रही थी। लेकिन इतने हो हल्ले के बावजूद ट्रंप ने कोई ठोस योजना पेश नहीं की। आखिर में उन्होंने मसले को सुलझाने के लिए जनरलों के भरोसे छोड़ दिया। 

ट्रंप की लचर अगुवाई में अमेरिकी सेना ने एक बार फिर अफगानिस्तान में अपनी पॉलिसी बदली। ट्रंप ने ने शुरू में तो ये धमकी दी कि उनकी सेना पूरी तरह से अफगानिस्तान से बाहर निकलन जाएगी पर बाद में उन्होंने 4,000 और अमेरिकी सैनिकों के साथ-साथ विशेष बलों और डिप्लोमैट्स को शामिल करने की भी मंजूरी दे दी। उन्होंने पाकिस्तान पर दबाव भी डाला। अफगानिस्तान का ये पड़ोसी देश फिलहाल अपनी सीमाओं के अंदर तालिबान का मुकाबला करने में ढील दे रहा था। ट्रंप ने इस्लामिक स्टेट को कुचलने में खास रुचि ली। इस कट्टरपंथी नेटवर्क ने अफगानिस्तान में पैर जमा लिया था और तालिबानियों से भी ज्यादा भयानक हमलों को अंजाम दे रहा था। इस्लामिक स्टेट ने बड़े पैमाने पर आत्मघाती हमले किए और अमेरिकी सेना ने भारी हवाई बमबारी से जवाब दिया। साल 2017 में सेना ने आईएस के इलाकों पर एक 11-टन नाम का बम भी गिरा दिया जिसे "सभी बमों की माँ" कहा जाता था। लेकिन इसका भी कोई असर नहीं हुआ। तालिबान अपनी जिद पर अड़े थे कि वे तब तक नहीं रुकेंगे जब तक कि अमेरिका पीछे नहीं हटता। 

आखिरकार ट्रम्प सरकार नरम पड़ गई। 2018 में व्हाइट हाउस ने बातचीत शुरू करने के लिए राजदूत जाल्मे खलीलजाद को भेजा। तालिबान बातचीत के दौरान अडिग रहे। उन्होंने अफगानी सरकार के साथ काम करने से इनकार कर दिया, अल-कायदा का साथ छोड़ दिया और तो और अमेरिकी सेना के रहने तक लड़ाई रोकने के लिए भी मना कर दिया। 29 फरवरी 2020 को अमेरिका ने एक शांति समझौते पर हस्ताक्षर किए जिसे दोहा समझौते के रूप में जाना जाता है। इसमें तालिबान ने संकल्प लिया कि वो आतंकी समूहों को अमेरिका पर हमला करने से रोकेगा। बदले में अमेरिका ने 14 महीने में पूरी तरह से वापस लौटने को मंजूरी दी लेकिन ट्रंप सरकार इस समय सीमा को पूरा नहीं कर पाई। अब बिडेन राष्ट्रपति बन चुके थे। अगस्त 2021 में उनके सामने आखिरी वापसी हुई। जैसे ही अमेरिकी सेना देश छोड़कर चली गई तालिबान ने एक नई अफगान सरकार की स्थापना के इरादे से काबुल में मार्च किया।

कुल मिलाकर
अफगानिस्तान में यूएस की लड़ाई देश के इतिहास में सबसे लंबे समय चला सैनिक अभियान था। ये अल-कायदा नाम के आतंकी नेटवर्क को खत्म करने की जवाबी कार्यवाही के रूप में शुरू हुआ लेकिन आगे चलकर दो दशक की तबाही में बदल गया। अमेरिका एक उलझे हुए मिशन के बोझ तले दबा रहा और इलाके की परेशानियों को ढंग से नहीं समझ पाया। अमेरिका एक स्टेबल और एकजुट सरकार की स्थापना करने में असफल रहा। जबकि तालिबान अपने इरादों के लिए डटे रहे और आखिरकार अमेरिकी सेना को अपने देश से बाहर कर दिया। 

 

येबुक एप पर आप सुन रहे थे The American War in Afghanistan By Carter Malkasian. 

ये समरी आप को कैसी लगी हमें yebook.in@gmail.com  पर ईमेल करके ज़रूर बताइये. 

आप और कौनसी समरी सुनना चाहते हैं ये भी बताएं. हम आप की बताई गई समरी एड करने की पूरी कोशिश करेंगे. 

अगर आप का कोई सवाल, सुझाव या समस्या हो तो वो भी हमें ईमेल करके ज़रूर बताएं. 

और गूगल प्ले स्टोर पर ५ स्टार रेटिंग दे कर अपना प्यार बनाएं रखें. 

Keep reading, keep learning, keep growing.


Post a Comment

0Comments
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.
Post a Comment (0)

YEAR WISE BOOKS

Indeals

BAMS PDFS

How to download

Adsterra referal

Top post

marrow

Adsterra banner

Facebook

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Accept !